राजेश जोशी की कविताएं बड़ी ही सरलता और सहजता से समाज की चेतना को जगाने और युवाओं का मार्गदर्शन करने का सफल प्रयास करती हैं। बहुआयामी प्रतिभा वाले राजेश जोशी ने कवि, लेखक, नाटककार और अनुवादक के रूप में अपने हर किरदार को बखूबी निभाया है। राजेश जोशी की कविताएं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि “कविताएं ही समाज का दर्पण” होती हैं। विद्यार्थियों को राजेश जोशी की कविताएं पढ़कर ज़िंदगी के हर पहलू को जानने का अवसर मिलता है, जिससे उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको राजेश जोशी की कविताएं पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी।
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राजेश जोशी के बारे में
राजेश जोशी की कविताएं पढ़ने से पहले आपको राजेश जोशी के बारे में जरूर जान लेना चाहिए, राजेश जोशी का जन्म 18 जुलाई 1946 को मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ में हुआ था। राजेश जोशी ने अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद कुछ समय तक पत्रकारिता और अध्यापन किया।
राजेश जोशी की रचनाओं में ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हँसी’, ‘दो पंक्तियों के बीच’ और ‘ज़िद’ उनके लोकप्रिय काव्य-संग्रह हैं। इसके साथ ही राजेश जोशी की बाल कविताओं में ‘गेंद निराली मिट्ठू की’ नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है, जो काफी लोकप्रिय है। ‘दो पंक्तियों के बीच’ नमक काव्य संग्रह के लिए उन्हें वर्ष 2002 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
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राजेश जोशी की कविताएं
राजेश जोशी की कविताएं पढ़कर आप अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन की अनुभूति कर सकते हैं। राजेश जोशी की कविताएं, आपको जीवन के हर पहलू को जानने के लिए प्रेरित करेंगी-
दो पंक्तियों के बीच
राजेश जोशी की कविताएं साहित्य का सुंदर चित्रण समाज के समक्ष प्रस्तुत करती है, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “दो पंक्तियों के बीच” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
कविता की दो पंक्तियों के बीच मैं वह जगह हूँ जो सूनी-सूनी-सी दिखती है हमेशा यहीं कवि को अदृश्य परछाईं घूमती रहती है अक्सर मैं कवि के ब्रह्मांड की एक गुप्त आकाशगंगा हूँ शब्द यहाँ आने से अक्सर आँख चुराते हैं हड़बड़ी में छूट गई कोई सहायक क्रिया या कोई शब्द कभी-कभार उठंगा-सा आकर बैठ जाता है किसी किनारे पर अनुस्वार और कुछ मात्राएँ झाँकती रहती हैं मेरी परिधियों से शब्दों से छन-छनकर गिरती रहती हैं यहाँ कई ध्वनियाँ कभी-कभी तो शब्दों के कुछ ऐसे अर्थ भटकते हुए चले आते हैं यहाँ बिगड़ैल बच्चों की तरह जो भाग गए थे बहुत पहले अपना घर छोड़कर जैसी दिखती हूँ उतनी अकंपित उतनी निर्विकार-सी जगह नहीं हूँ एक चुप हूँ जो आ जाती है बातचीत के बीच अचानक तैरते रहते हैं जिसमें बातों के छूटे हुए टुकड़े कई चोर गलियाँ निकलती हैं मेरी गलियों से जो ले जा सकती हैं सबसे छिपाकर रखी कवि की एक अज्ञात दुनिया तक बेहद के इस अरण्य में कुलाँचें मारती रहती हैं कितनी ही अनजान-सी छवियाँ शब्दों की ऊँची आड़ के बीच मैं एक खुला आसमान हूँ कवि के मंसूबों के उक़ाब जहाँ भरते हैं लंबी उड़ान अदृश्य की आड़ के पीछे छिपी है यहाँ कुछ ऐसी सुरंगें जो अपने गुप्त रास्तों से शब्दों की जन्म-कथा तक ले जाती हैं यहाँ आने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर आना कि तुम्हारे पैरों की कोई आवाज़ न हो एक ज़रा-सी बाहरी आवाज़ नष्ट कर देगी मेरे पूरे जादुई तिलिस्म को! -राजेश जोशी
हमारे शहर की गलियाँ
राजेश जोशी की कविताएं समाज का दर्पण हैं, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “हमारे शहर की गलियाँ” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
बहुत आँकी-बाँकी और चक्करदार थीं हमारे शहर की गलियाँ कुछ गलियों के रास्ते तो आसमान से होकर निकलते थे भटकते हुए उन गलियों में हमें कई बार तारे मिल जाते थे अपनी लालटेनें लिए सिवान से लौटते किसानों की तरह बिना बात ही वो हमसे बतियाने लगते और कुछ दूर तक हमें रास्ता दिखाने चले आते कभी-कभी चाँद भी दिख जाता भटकता हुआ या बैठा हुआ आसमान की सफ़ील पर चलन से बाहर हो चुके किसी पुरानी रियासत के सिक्के की तरह उसका चेहरा कभी ज़र्द होता तो कभी चमकता रहता ख़ूब घिसकर माँजी गई काँसे की थाली की तरह वो भी शायद हमारी ही तरह बेरोज़गार था या आवारा रात में भटकना उसकी आदत में शुमार था ये वो दिन थे जब हमारे सपनों और हक़ीक़त के बीच हमेशा झगड़ा मचा रहता था हम झुकी हुई छतों वाले घरों से आए थे जिनके दरवाज़े इतने छोटे होते थे कि गरदन उठाते ही बारसक से सिर फूटता था सपने देखने की हमें बुरी आदत थी हम सिनेमा देखकर रोते थे और हक़ीक़त से आँख मिलाने से कतराते थे भटकते हुए हमारे पाँव जब जवाब दे जाते तो किसी बंद दुकान के पटिए पर या पुलिया पर बैठ जाते कोई अपनी जेब टोल कर बीड़ी का बंडल निकालता और सबके लिए बीड़ियाँ सुलगाता तीली की रोशनी में आस-पास का सारा मायालोक एक पल को दरक जाता आसमान उचक कर बहुत ऊपर चला जाता और पाँवों के नीचे गलियों के ऊबड़-खाबड़ पत्थर उभरने लगते पीढ़ियों से इसी शहर में रह रहे यहाँ के बर्रू-काट बाशिंदों को भी ख़बर नहीं थी कि कितनी आँकी-बाँकी और चक्करदार हैं इस शहर की गलियाँ कि कई गलियों के रास्ते तो आसमान से होकर निकलते हैं। अगर हम पैदल हों और कहीं पहुँचने की बहुत जल्दी हो तो गलियाँ कई लंबे रास्तों को बहुत छोटा बना देती थीं यूँ उन गलियों का ऐसा जाल था सारे शहर में फैला हुआ कि बिना सड़कों पर आए भी सारा शहर नापा जा सकता था उन गलियों में भटकते हुए उन गलियों से कई गलियाँ तो हमारे सपनों तक जाती थीं गप्प मारने के लिए अपार फ़ुरसत से भरी जगहें थीं उन गलियों में दुकानों और घरों से बाहर निकले पटिए थे जो रात गए जब सूने हो जाते थे तो उन पर शतरंजें बिछ जाती थीं रोशनी और अँधेरे के उन चौख़ानों पर आधी-आधी रात तक खिसकते रहते थे स्याह और सफ़ेद मोहरे इन्हीं पटियों से निकला था वो हमारे प्रदेश का चैम्पियन रफ़ीक़ कहते हैं वो बाबू ख़ाँ का चेला था जिन्हें शुतुरघुन्ना मात देने में महारत हासिल थी गलियों में चाय की कई छोटी-छोटी दुकानें थीं दुकानों में अंदर धँसे हुए कमरे थे जिनमें एक या कभी-कभी दो कैरम रखे होते थे पीली मद्धिम रौशनी और सिगरेट के धुएँ से भरे इन कमरों में कैरम के खिलाड़ी रात-रात भर जमे रहते बाहर आसमान के कैरम पर क़्वीन के बाद कवर के लिए बची आख़री सफ़ेद गोट की तरह रखा होता था चाँद सड़कों के नाम अक्सर बेग़मों और नवाबों के नाम पर थे जबकि गलियों के नाम जिन लोगों के नाम पर थे उनका कोई लिखित इतिहास नहीं था काली धोबन की गली, शेख़ बत्ती की गली नाइयों की गली, बाजे वालों की गली गुलिया दाई की गली... इस गली के एक किनारे पर जुम्मा पहलवान रहता था जो हर साल दशहरे का रावण बनाता था दूसरे किनारे पर ख़ुशीलाल वैद्य का मकान था जिनका एक लड़का पिछले दिनों इस देश का राष्ट्रपति बन गया था चाँद जब जामा मस्ज़िद की ग़ुम्बदों से ऊपर चढ़ने लगता इन गलियों के रहस्य गहराने लगते तंगहाली के दिनों में भी गलियों ने कभी हमें शर्मिंदा नहीं किया दंगों के बीच अपने घरों तक पहुँचने के रास्ते दिए उन्होंने हमें उन्हीं की बनिस्बत शहर कभी बेगाना नहीं लगा हमें! -राजेश जोशी
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रात किसी का घर नहीं
राजेश जोशी की कविताओं ने सही मायनों में मानव का परिचय साहित्य के सौंदर्य से करवाया है, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “रात किसी का घर नहीं” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
रात गए सड़कों पर अक्सर एक न एक आदमी ऐसा ज़रूर मिल जाता है जो अपने घर का रास्ता भूल गया होता है कभी-कभी कोई ऐसा भी होता है जो घर का रास्ता तो जानता है पर अपने घर जाना नहीं चाहता एक बूढ़ा मुझे अक्सर रास्ते में मिल जाता है कहता है कि उसके लड़कों ने उसे घर से निकाल दिया है। कि उसने पिछले तीन दिन से कुछ नहीं खाया है। लड़कों के बारे में बताते हुए वह अक्सर रुआँसा हो जाता है और अपनी फटी हुई क़मीज़ को उघाड़कर मार के निशान दिखाने लगता है कहता है उसने बचपन में भी अपने बच्चों पर कभी हाथ नहीं उठाया लेकिन उसके बच्चे उसे हर दिन पीटते हैं कहता है कि वह अब कभी लौटकर अपने घर नहीं जाएगा लेकिन थोड़ी देर बाद ही उसे लगता है कि उसने यूँ ही ग़ुस्से में बोल दिया था यह वाक़्य अपमान पर हावी होने लगती एक अनिश्चितता एक भय अचानक घिरने लगता है मन में थोड़ी देर बाद वह अपने आप से ही हार जाता है दूसरे ही पल वह कहता है कि अब इस उम्र में वह कहाँ जा सकता है वह चाहता है, मैं उसके लड़कों को जाकर समझाऊँ कि लड़के उसे वापस घर में आ जाने दें कि वह चुपचाप एक कोने में पड़ा रहेगा कि वह बाज़ार के छोटे-मोटे काम भी कर दिया करेगा बच्चों को स्कूल से लाने ले जाने का काम तो वह करता ही रहा है कई साल से वह चुप हो जाता है थक कर बैठ जाता है जैसे ही लगता है कि उसकी बात पूरी हो चुकी है वह फिर बोल पड़ता है कहता है : मैं बूढ़ा हो गया हूँ कभी-कभी चिड़चिड़ा जाता हूँ सारी ग़लती लड़कों की ही नहीं है वे मन के इतने बुरे भी नहीं हैं हालात ही इतने बुरे हैं, उनका भी हाथ तंग रहता है उनके छोटे-छोटे बच्चे हैं और वो मुझे बहुत प्यार करते हैं मेरा तो पूरा समय उन्हीं के साथ बीत जाता है फिर अचानक वह खड़ा हो जाता है कहता है हो सकता है वे मुझे ढूँढ़ रहे हों उनमें से कोई न कोई थोड़ी देर में ही मुझे लिवाने आ जाएगा आप अगर मेरे लड़कों में से किसी को जानते हों तो उससे कुछ मत कहिएगा सब ठीक हो जाएगा... सब ठीक हो जाएगा... बुदबुदाते हुए वह आगे चल देता है रात किसी का घर नहीं होती किसी बेघर के लिए किसी घर से निकाल दिए गए बूढ़े के लिए मेरे जैसे आवारा के लए रात किसी का घर नहीं होती उसके अँधेरे में आँसू तो छिप सकते हैं कुछ देर लेकिन सिर छिपाने की जगह वह नहीं देती मैं उस बूढ़े से पूछना चाहता हूँ पर पूछ नहीं पाता कि जिस तरफ़ वह जा रहा है क्या उस तरफ़ उसका घर है? -राजेश जोशी
बच्चे काम पर जा रहे हैं
राजेश जोशी की कविताएं कई बड़े सामाजिक पहलुओं पर बेबाकी से अपनी राय रखती हैं, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “बच्चे काम पर जा रहे हैं” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
कुहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह-सुबह बच्चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे? क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें क्या दीमकों ने खा लिया है सारी रंग-बिरंगी किताबों को क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं सारे मदरसों की इमारतें क्या सारे मैदान, सारे बग़ीचे और घरों के आँगन ख़त्म हो गए हैं एकाएक तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में? कितना भयानक होता अगर ऐसा होता भयानक है लेकिन इससे भी ज़्यादा यह कि हैं सारी चीज़ें हस्बमामूल पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए बच्चे, बहुत छोटे छोटे बच्चे काम पर जा रहे हैं। -राजेश जोशी
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मारे जाएँगे
राजेश जोशी की कविताएं समाज का दर्पण बनकर मानव को सच का सामना करना सिखाती हैं, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “मारे जाएँगे” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे मारे जाएँगे कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की क़मीज़ हो ‘उनकी’ क़मीज़ से ज़्यादा सफ़ेद क़मीज़ पर जिनके दाग़ नहीं होंगे, मारे जाएँगे धकेल दिए जाएँगे कला की दुनिया से बाहर, जो चारण नहीं जो गुन नहीं गाएँगे, मारे जाएँगे धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएँगे जुलूस में गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफ़िर क़रार दिए जाएँगे सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराध होना जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएँगे। -राजेश जोशी
चाँद की वर्तनी
राजेश जोशी की कविताओं ने सही मायनों में मानव को प्रकृति के करीब लाने का भी सफल प्रयास किया है, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “चाँद की वर्तनी” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
चाँद लिखने के लिए चा पर चंद्र बिंदु लगाता हूँ चाँद के ऊपर चाँद धर कर इस तरह चाँद को दो बार लिखता हूँ चाँद की एवज़ सिर्फ़ चंद्र बिंदु रख दूँ तो काम नहीं चलता भाषा का आधा शब्द में और आधा चित्र में लिखना पड़ता है उसे हर बार शब्द में लिखकर जिसे अमूर्त करता हूँ चंद्र बिंदु बनाकर उसी का चित्र बनाता हूँ आसमान के सफ़े पर लिखा चाँद प्रतिपदा से पूर्णिमा तक हर दिन अपनी वर्तनी बदल लेता है चंद्र बिंदु बनाकर पूरे पखवाड़े के यात्रा वृत्तांत का सार संक्षेप बनाता हूँ जहाँ लिखा होता है चाँद उसे हमेशा दो बार पढ़ना चाहता हूँ चाँद चाँद! -राजेश जोशी
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जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ
राजेश जोशी की कविताओं का समाज से गहरा नाता है, राजेश जोशी की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ आग लग चुकी होती है सारे शहर में हिज्जे ठीक करता हूँ जब तक अपील के कर्फ़्यू का ऐलान करती घूमने लगती है गाड़ी अपील छपने जाती है जब तक प्रेस में दुकानें जल चुकी होती हैं मारे जा चुके होते हैं लोग छपकर जब तक आती है अपील अपील की ज़रूरत ख़त्म हो चुकी होती है! -राजेश जोशी
राजेश जोशी की प्रमुख रचनाएं
राजेश जोशी की प्रमुख रचनाएं आपको जीवनभर सकारात्मक जीवन जीने के लिए प्रेरित करेंगी, राजेश जोशी की लोकप्रिय रचनाएं कुछ इस प्रकार हैं:
- एक कवि कहता है
- चप्पल
- निराशा
- पृथ्वी का चक्कर
- पांव की नस
- बच्चे काम पर जा रहे हैं
- बुलडोजर
- भूलने की भाषा
- मारे जाएँगे
- शासक होने की इच्छा
- सिर छिपाने की जगह
- मूर्तियाँ ढहाने वालों के लिए : वली दकनी
- दाग
- माँ कहती है
- चिड़िया
- पेड़ क्या करता है
- वृक्षों का प्रार्थना गीत
- प्रौद्योगिकी की माया
- हर जगह आकाश
- सहयात्रियों के साथ
- कलकत्ता: ३०० साल
- चाँद की आदतें
- बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत
- हमारी भाषा
- रुको बच्चों
- यह समय
- डायरी लिखना
- संग्रहालय
- ज़िद
- ज़िद-2
- गुरूत्वाकर्षण
- अनुपस्थित-उपस्थित
- अँधेरे के बारे में कुछ वाक्य
- पक्की दोस्तियों का आईना
- यह समय
- पक्की दोस्तियों का आईना
- अन्धेरे के बारे में कुछ वाक्य
- अनुपस्थित-उपस्थित
- गुरूत्वाकर्षण
- पानी बरसा इत्यादि।
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