Ramdhari singh dinkar ki kavitayen: पढ़िए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं, जो करेंगी आपको प्रेरित

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Ramdhari singh dinkar ki kavitayen

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen सही मायनों में समाज की चेतना को जगाने का काम करती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं युवाओं को नवीन ऊर्जाओं से भर देती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं ही युवाओं को उनके सपने पूरे करने के लिए प्रेरणा से भर देती हैं। कविताएं समाज का आईना होती हैं, कविताओं को ही समाज की प्रेरणा माना जाता है। जब-जब मातृभूमि, संस्कृति और माटी पर संकट का समय आता है, या जब-जब सभ्य समाज कहीं नींद गहरी सो जाता है। तब-तब कविताएं समाज की सोई चेतना को जागकर मानव को साहस से लड़ना सिखाती हैं। भारत देश में हर दौर में अनेकों महान कवि हुए हैं जिन्होंने मानव को मानवता का पाठ पढ़ाया है, उन्हीं में से एक रामधारी सिंह दिनकर भी हैं। वर्तमान में भी Ramdhari singh dinkar ki kavitayen भारत के साथ-साथ विश्व भर के युवाओं को प्रेरित कर रहीं हैं। इस पोस्ट के माध्यम से आप रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं पढ़ पाएंगे, जिसके लिए आपको ब्लॉग को अंत तक पढ़ना पड़ेगा।

रामधारी सिंह दिनकर का संक्षिप्त जीवन परिचय

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen पढ़ने के पहले आपको रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के अनमोल रत्न राष्ट्रकवि दिनकर जी का जन्म वर्ष 1908 में उत्तर प्रदेश के सिमरा गांव में पैदा हुआ था। मुख्य रूप से रामधारी सिंह दिनकर जी की कविताएँ और काव्यग्रंथ भारतीय संस्कृति, धर्म, और समाज के मुद्दों पर आधारित थे।

उनकी कविताएँ धैर्य, संघर्ष, और उत्कृष्ट भाषा के गर्भ से प्रखरता से पैदा हुई थी। उनकी लेखनी और मर्यादित भाषा के चलते ही उन्हें “राष्ट्रकवि” का उपनाम भी दिया गया है, और उनकी कविताएँ आज भी हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में अपना योगदान देती हैं।

रामधारी सिंह दिनकर भारतीय साहित्य के मशहूर हिन्दी कवि और लेखक थे। उन्हें हिन्दी साहित्य में अपने काव्य, काव्यग्रंथ, और नाटकों के लिए खूब यश कमाया था। वर्ष 1974 में भारत के महान राष्ट्रकवियों में से एक रामधारी सिंह दिनकर जी पंचतत्व में विलीन हुए थे।

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रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen के बारे में जानने से पहले आपको रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं क्या हैं, के बारे में पता होना चाहिए। रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं आज के समय में भी समाज को प्रेरित करती हैं और प्रासंगिक भी लगती हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं निम्नवत हैं, जिन्हें आपको एक न एक बार अपने जीवन में जरूर पढ़ना चाहिए।

रश्मिरथी

इस काव्य कृति को भगवद्गीता के रूप में माना जाता है और इसमें भारतीय इतिहास में हुए सबसे बड़े युद्ध महाभारत और इस युग के कर्ण के जीवन के बारे में उल्लेखित है।

समर शेष है नहीं नारी, उसके द्वेष है अस्ति क्वचित्

इस कविता में दिनकर जी ने महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को बड़े ही गर्मजोशी से प्रस्तुत किया है। जिसका उद्देश्य नारी समाज के संघर्षों को सम्मानित करना है।

स्वर्ग यात्रा

इस कविता में कवि दिनकर जी ने जीवन की अनिश्चितता और मृत्यु के प्रति अपने दृढ निश्चय को व्यक्त किया है। जीवन के बाद की घटनाएं और जीवन है कितना अनमोल, इस सबकी परिभाषा इस काव्य पाठ में है।

वीरगति

दिनकर जी द्वारा रचित इस कविता में महाभारत के युद्ध के योद्धाओं की वीरता की स्तुति की गयी है और उनके उत्कृष्ट योगदान को मान्यता दी गयी है। यह कविता ज़िंदगी की लड़ाई को लड़ने के लिए भी आपको प्रेरित करेगी।

Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavitayen

Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavitayen समाज को संगठित करने और युवाओं में वीरता के भाव को जगाने का काम करती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं समाज को जागरूक करने के साथ-साथ, समाज को आशावादी बनाती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं कुछ इस प्रकार हैं;

कलम, आज उनकी जय बोल

Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavitayen समाज में व्याप्त कुरीतियों का प्रखरता से विरोध करती हैं। इस श्रेणी में पहली कविता “कलम, आज उनकी जय बोल” है, जो कुछ इस प्रकार है;

जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

वीर

Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavitayen युवाओं में वीरता का संचार करती हैं। इस श्रेणी में पहली कविता “वीर” है, जो कुछ इस प्रकार है;

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शुलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।

गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भितर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।

-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

हिमालय

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, दिनकर जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “हिमालय” भी है, जो कि आपको भारत का शीश हिमालय की खूबसूरती के किस्से सुनाएगी।

मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाला!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
सीमापति! तूने की पुकार,
‘पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।’

उस पुण्य भूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गयीं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा; इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

किन द्रौपदियों के बाल खुले?
किन-किन कलियों का अंत हुआ?
कह हृदय खोल चित्तौर! यहाँ
कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?

पूछे सिकता-कण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये
फिरनेवाला बलवान कहाँ?
तू पूछ, अवध से, राम कहाँ?
वृंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?

पैरों पर ही है पड़ी हुई
मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खोयीं
अपनी अनंत निधियाँ सारी?
री कपिलवस्तु! कह, बुद्धदेव
के वे मंगल-उपदेश कहाँ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन
तक गये हुए संदेश कहाँ?
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गंडकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।
ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट् स्वर में निनाद,
तू शैलराट! हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी! आज तप का न काल।
नव-युग-शंखध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग, मेरे विशाल!
-रामधारी सिंह दिनकर

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अरुणोदय

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, दिनकर जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “अरुणोदय” भी है, जो कि भारत की स्वतंत्रता के स्वागत में लिखी गयी थी, जिसका उद्देश्य आपको स्वतंत्रता का सही अर्थ समझाना है।

नई ज्योति से भीग रहा उदयाचल का आकाश,
जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास।
है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,
जय हो, कि स्वर्ग से छूट रही आशिष की ज्योतिधारा है।

बज रहे किरण के तार, गूँजती है अंबर की गली-गली,
आकाश हिलोरें लेता है, अरुणिमा बाँध धारा निकली।
प्राची का रुद्ध कपाट खुला, ऊशा आरती सजाती है,
कमला जयहार पिन्हाने को आतुर-सी दौड़ी आती है।

जय हो उनकी, कालिमा धुली जिनके अशेष बलिदानों से,
लाली का निर्झर फूट पड़ा जिनके शायक-संधानों से।
परशवता-सिंधु तरण करके तट पर स्वदेश पग धरता है,
दासत्व छूटता है, सिर से पर्वत का भार उतरता है।

मंगल-मुहूर्त; रवि! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं,
हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूँकनेवाले हैं।
मंगल-मुहूर्त्त; तरुगण! फूलो, नदियो! अपना पय-दान करो,
जंज़ीर तोड़ता है भारत, किन्नरियो! जय-जय गान करो।

भगवान साथ हों, आज हिमालय अपनी ध्वजा उठाता है,
दुनिया की महफ़िल में भारत स्वाधीन बैठने जाता है।
आशिष दो वनदेवियो! बनी गंगा के मुख की लाज रहे,
माता के सिर पर सदा बना आज़ादी का यह ताज रहे।

आज़ादी का यह ताज बड़े तप से भारत ने पाया है,
मत पूछो, इसके लिए देश ने क्या कुछ नहीं गँवाया है।
जब तोप सामने खड़ी हुई, वक्षस्थल हमने खोल दिया,
आई जो नियति तुला लेकर, हमने निज मस्तक तोल दिया।

माँ की गोदी सूनी कर दी, ललनाओं का सिंदूर दिया,
रोशनी नहीं घर की केवल, आँखों का भी दे नूर दिया।
तलवों में छाले लिए चले बरसों तक रेगिस्तानों में,
हम अलख जगाते फिरे युगों तक झंखाड़ों, वीरानों में।

आज़ादी का यह ताज विजय-साका है मरनेवालों का,
हथियारों के नीचे से ख़ाली हाथ उभरनेवालों का।
इतिहास! जुगा इसको, पीछे तस्वीर अभी जो छूट गई,
गाँधी की छाती पर जाकर तलवार स्वयं ही टूट गई।

जर्जर वसुंधरे! धैर्य धरो, दो यह संवाद विवादी को,
आज़ादी अपनी नहीं; चुनौती है रण के उन्मादी को।
हो जहाँ सत्य की चिनगारी, सुलगे, सुलगे, वह ज्वाल बने,
खोजे अपना उत्कर्ष अभय, दुर्दांत शिखा विकराल बने।

सबकी निर्बाध समुन्नति का संवाद लिए हम आते हैं,
सब हों स्वतंत्र, हरि का यह आशीर्वाद लिए हम आते हैं।
आज़ादी नहीं, चुनौती है, है कोई वीर जवान यहाँ?
हो बचा हुआ जिसमें अब तक मर मिटने का अरमान यहाँ?

आज़ादी नहीं, चुनौती है, यह बीड़ा कौन उठाएगा?
खुल गया द्वार, पर, कौन देश को मंदिर तक पहुँचाएगा?
है कौन, हवा में जो उड़ते इन सपनों को साकार करे?
है कौन उद्यमी नर, जो इस खंडहर का जीर्णोद्धार करे?

माँ का अंचल है फटा हुआ, इन दो टुकड़ों को सीना है,
देखें, देता है कौन लहू, दे सकता कौन पसीना है?
रोली, लो उषा पुकार रही, पीछे मुड़कर टुक झुको-झुको
पर, ओ अशेष के अभियानी! इतने पर ही तुम नहीं रुको।

आगे वह लक्ष्य पुकार रहा, हाँकते हवा पर यान चलो,
सुरधनु पर धरते हुए चरण, मेघों पर गाते गान चलो।
पीछे ग्रह और उपग्रह का संसार छोड़ते बढ़े चलो,
करगत फल-फूल-लताओं की मदिरा निचोड़ते बढ़े चलो।

बदली थी जो पीछे छूटी, सामने रहा, वह तारा है,
आकाश चीरते चलो, अभी आगे आदर्श तुम्हारा है।
निकले हैं हम प्रण किए अमृत-घअ पर अधिकार जमाने को,
इन ताराओं के पार, इंद्र के गढ़ पर ध्वजा उड़ाने को।

सम्मुख असंख्य बाधाएँ हैं, गरदन मरोड़ते बढ़े चलो,
अरुणोदय है, यह उदय नहीं, चट्टान फोड़ते बढ़े चलो।
-रामधारी सिंह दिनकर

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तक़दीर का बँटवारा

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, दिनकर जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “तक़दीर का बँटवारा” भी है, जो कि सन् 1937 या 38 ई. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता-वार्ता विफल होने पर लिखी गयी थी। जिसका उद्देश्य कौमी एकता की कमी से होने वाली पीड़ाओं को सुनना था।

है बँधी तक़दीर जलती डार से,
आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ?
वेदना मन की सही जाती नहीं,
यह ज़हर लेकिन, उगल आऊँ कहाँ?

पापिनी कह जीभ काटी जाएगी,
आँख-देखी बात जो मुँह से कहूँ,
हड्डियाँ जल जाएँगी, मन मारकर
जीभ थामे मौन भी कैसे रहूँ?

तानकर भौंहें, कड़कना छोड़कर
मेघ बर्फ़ी-सा पिघल सकता नहीं,
शौक़ हो जिनको, जलें वे प्रेम से,
मैं कभी चुपचाप जल सकता नहीं।

बाँसुरी जनमी तुम्हारी गोद में
देश-माँ, रोने-रुलाने के लिए,
दौड़कर आगे समय की माँग पर
जीभ क्या? गरदन कटाने के लिए।

ज़िंदगी दौड़ी नई संसार में,
ख़ून में सबके रवानी और है;
और हैं लेकिन, हमारी क़िस्मतें,
आज भी अपनी कहानी और है।

हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं,
पाँव में जिसके अभी जंज़ीर है;
बाँटने को हाय! तौली जा रही,
बेहया उस क़ौम की तक़दीर है!

बेबसी में काँपकर रोया हृदय,
शाप-सी आहें गरम आईं मुझे;
माफ़ करना, जन्म लेकर गोद में,
हिंद की मिट्टी! शरम आई मुझे।

गुदड़ियों में एक मुट्ठी हड्डियाँ,
मौती-सी ग़म की मलीन लकीर-सी।
क़ौम की तक़दीर हैरत से भरी,
देखती टुक-टुक खड़ी तसवीर-सी।

चीथड़ों पर एक की आँखें लगीं,
एक कहता है कि मैं लूँगा ज़बाँ;
एक की ज़िद है कि पीने दो मुझे
ख़ून जो इसकी रगों में है रवाँ!

ख़ून! ख़ूँ की प्यास, तो जाकर पियो
ज़ालिमो, अपने हृदय का ख़ून ही;
मर चुकी तक़दीर हिंदुस्तान की,
शेष इसमें एक बूँद लहू नहीं।

मुस्लिमो, तुम चाहते जिसकी ज़बाँ,
उस ग़रीबिन ने ज़बाँ खोली कभी?
हिंदुओ, बोलो, तुम्हारी याद में
क़ौम की तक़दीर क्या बोली कभी?

छेड़ता आया ज़माना, पर कभी
क़ौम ने मुँह खोलना सीखा नहीं।
जल गई दुनिया हमारे सामने,
किंतु हमने बोलना सीखा नहीं।

ताव थी किसकी कि बाँधे क़ौम को
एक होकर हम कहीं मुँह खोलते?
बोलना आता कहीं तक़दीर को,
हिंदवाले आसमाँ पर बोलते!

ख़ूँ बहाया जा रहा इंसान का
सींगवाले जानवर के प्यार में!
क़ौम की तक़दीर फोड़ी जा रही
मस्जिदों की ईंट की दीवार में।

सूझता आगे न कोई पंथ है,
है घनी ग़फ़लत-घटा छाई हुई,
नौजवानो क़ौम के, तुम हो कहाँ?
नाश की देखो घेड़ी आई हुई।
-रामधारी सिंह दिनकर

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आग की भीख

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, दिनकर जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “आग की भीख” भी है, जो कि भारत राष्ट्र को भविष्य में मिलने वाले संकटों से बचने और निराश समाज में आशाओं के अंगार भरने के लिए लिखी गयी थी। जिसका उद्देश्य भारतीय समाज को प्रेरणा से भरना है।

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?

दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे;
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का शृंगार माँगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?

आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेरा हो रहा है।

निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है;
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता है।
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता है।

मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं।
भींगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुंधरा जब तुझको पुकारते हैं।

इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज़ ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे,
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ।

आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ शृंगी ज़रा बजा दे;
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।

आमर्ष को जगानेवाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ,
बेचैन ज़िंदगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे;
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।

हम दे चुके लहू हैं, तू देवता, विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।
-रामधारी सिंह दिनकर

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दिल्ली

Ramdhari singh dinkar ki kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, दिनकर जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “दिल्ली” भी है, जो कि भारत की राजधानी दिल्ली के दम भरने की गाथा पर लिखी गयी थी। कवि का दिल्ली से हुआ यह संवाद आपको रोचक लगेगा।

यह कैसी चाँदनी अमा के मलिन तमिस्र गगन में!
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधूलि-लगन में?
मरघट में तू साज रही दिल्ली! कैसे शृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी, इस उजड़े हुए चमन में!

इस उजाड़, निर्जन खँडहर में,
छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यनाश-प्रहर में!

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना,
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इन पर नमक हाय, छिड़काना!

महल कहाँ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फाँस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
ग़म, आँसू या गंगाजल का;

वह विहगों का झुँड लक्ष्य है
आजीवन वधिकों के फल का;
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शव्या के अंचल का।

गुलची निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान।
यह अलका-छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में?

बिखरी लट, आँसू छलके हैं,
देख वंदिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं
दिल्ली! आह! क़लम रुक जाती।

अरी, विवश हैं, कहो, करें क्या?
पैरों में जंज़ीर हाय! हाथों—
में हैं कड़ियाँ कस जातीं।
और कहें क्या? धरा न धँसती,

हुँकरता न गगन संघाती;
हाय! वंदिनी माँ के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती।
तड़प-तड़प हम कहो करें क्या?
‘बहै न हाथ, दहै रिसि छाती’,
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
‘भा कुठार कुंठित रिपु-घाती।’

अपनी गरदन रेत-रेत असि की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढ़ाते माँ के हुंकारों पर।
पगली! देख, ज़रा कैसी मर मिटने की तैयारी?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बनजारों पर।

तू वैभव-मद में इठलाती,
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी! किसको
इन आँखों पर हे ललचाती?

हमने देखा यहीं पांडु-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महास्वप्न-अभिसार।
यहीं कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं शृंगार।

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली!
मत फिर यों इतराती दिल्ली!
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली!

हाय! छिनी भूखों की रोटी,
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है;
मज़दूरों के कौर छिने हैं,
जिन पर उनका लगा दसन है;

छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी! बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह ‘अख़्तर’ की।

छिना मुकुट प्यारे ‘सिराज’ का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिए चंचु में तिनका।

आहें उठीं दीन कृषकों की,
मज़दूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! ग़रीबों के लोहू पर
खड़ी हुईं तेरी दीवारें।

अंकित है कृषकों के गृह में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी।
औ’ तेरा दृग-मद यह क्या है? क्या न ख़ून बेकस का?
बोल, बोल, क्यों लजा रही, ओ कृषक-मेघ की रानी?

वैभव की दीवानी दिल्ली!
कृषक-मेध की रानी दिल्ली!
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली!

अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे! तू छवि में इतराती!
परदेसी-सँग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती!

दो दिन ही के ‘बाल-डांस’ में
नाच हुई बेपानी दिल्ली!
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली!

अरी, हया कर, है जईफ यह खड़ा क़ुतुब-मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी! हुशियार!
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा, घूँघट ज़रा गिरा ले!

अरी, हया कर, हया अभागी!
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख़ न पड़ें क़ब्र में अपनी,
फट न जाय ख़बर की छाती।

हूक न उठे कहीं ‘दारा’ को
कूक न उठे क़ब्र मदमाती!
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूँघट क्यों न गिराती?

बाबर है, औरंग यहीं है,
मदिरा औ’ कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही।

अरी! सँभल, यह क़ब्र न फटकर कहीं बना दे द्वार!
निकल न पड़े क्रोध में लेकर शेरशाह तलवार!
समझाएगा कौन उसे फिर? अरी, सँभल नादान!
इस घूँघट पर आज कहीं मच जाए न फिर संहार!

ज़रा गिरा ले घूँघट अपना,
और याद कर वह सुख-सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;

गुंबद पर प्रेमिका कपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनंद-घड़ी में
जन्नत की परियों का जुड़ना।

ज़रा याद कर, यहीं नहाती
थी मेरी मुमताज अतर में,
सुझ-सी तो सुंदरी खड़ी
रहती थी पैमाना लेकर में।

सुख, सौरभ, आनंद बिछे थे।
गली, कूचे, वन, वीथि नगर में।
कहती जिसे इंद्रपुर तू, वह
तो था प्राप्त यहाँ घर-घर में।
आज आँख तेरी बिजली से कौंध-कौंध जाती है!
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है!

खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली:
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली।

उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जुगा रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली! तेरे रूप-रंग पर कैसे हृदय फँसेगा?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।
-रामधारी सिंह दिनकर

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