महात्मा गांधी को भारतीय इतिहास के महान व्यक्तियों में से एक माना जाता है, जिन्होंने सत्य और अहिंसा की राह पर चलते हुए ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर दिया था और अंत में भारत को स्वतंत्र कराने में अपनी अहम भूमिका अदा की थी। वहीं, उनकी सत्य और अहिंसा की विचारधारा से दो नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, मार्टिन लूथर किंग और नेलसन मंडेला भी काफी प्रभावित थे। हालांकि गांधीजी को कभी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, किंतु उनका नामांकन 1937 से 1948 के बीच पांच बार हुआ था।
महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ और ‘बापू’ के नाम से भी जाना जाता है। उनके जन्म दिवस को हर साल ‘गांधी जयंती’ के रूप में मनाया जाता है, जो भारत के आधिकारिक राष्ट्रीय अवकाशों में से एक है। इस वर्ष 2 अक्टूबर, 2026 को महात्मा गांधी की 157वीं जयंती मनाई जाएगी। इस लेख में महात्मा गांधी का जीवन परिचय और उनकी कुछ प्रसिद्ध सूक्तियों की जानकारी दी गई है।
| मूल नाम | मोहनदास करमचंद गांधी |
| जन्म तिथि | 2 अक्टूबर, 1869 |
| जन्म स्थान | पोरबंद, गुजरात |
| पेशा | वकील, राजनेता, कार्यकर्ता, विचारक और लेखक |
| पिता का नाम | करमचंद गांधी |
| माता का नाम | पुतलीबाई |
| पत्नी का नाम | कस्तूरबा गांधी |
| संतान | हरिलाल, मनिलाल, रामदास और देवदास |
| मृत्यु | 30 जनवरी 1948 |
| मृत्यु स्थान | बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली |
| आत्मकथा | ‘द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ’ |
| प्रसिद्ध नारा | “करो या मरो” |
| स्मारक | राजघाट, दिल्ली |
This Blog Includes:
- गांधीजी का आरंभिक जीवन
- गांधी जी का वैवाहिक जीवन
- गांधीजी की शिक्षा
- इस घटना से शुरू हुई मोहन दास करमचंद से ‘महात्मा’ बनने की कहानी
- सत्याग्रह की शुरुआत
- गांधी युग की शुरुआत
- असहयोग आंदोलन
- दांडी यात्रा
- गोलमेज सम्मेलन
- भारत छोड़ो आंदोलन
- गांधीजी की मृत्यु
- अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस
- महात्मा गांधी की प्रकाशित पुस्तकें
- पत्रकारिता के क्षेत्र में गांधीजी का योगदान
- महात्मा गांधी के अनमोल विचार
- गांधी शांति पुरस्कार
- FAQs
गांधीजी का आरंभिक जीवन
महात्मा गांधी का पूरा नाम ‘मोहनदास करमचंद गांधी’ था। उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को वर्तमान गुजरात के पोरबंदर जिले में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। गांधीजी के पिता का नाम करमचंद गांधी था, जो ब्रिटिश शासन के समय काठियावाड़ की एक छोटी रियासत के दीवान थे। उनकी माता पुतलीबाई एक पारंपरिक हिंदू महिला थीं, जो धार्मिक प्रवृत्ति वाली एवं संयमी स्वभाव की थीं। गांधीजी अपने भाईयों में तीसरे पुत्र थे।
गांधीजी अपने शुरुआती जीवन में नाटक ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से बहुत प्रभावित थे। राजा हरिश्चन्द्र की सच्चाई और कठिन जीवन में भी धैर्य तथा सत्य के प्रति अडिग रहने की अद्भुत क्षमता ने उन्हें अत्यंत प्रभावित किया था। इसलिए उन्होंने बचपन से ही राजा हरिश्चन्द्र द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया था।
गांधी जी का वैवाहिक जीवन
गांधीजी का विवाह महज 13 वर्ष की उम्र में कस्तूरबा गांधी के साथ हो गया था। कस्तूरबा गांधी के पिता, गोकुलदास माखन जी, एक धनी व्यवसायी थे। कस्तूरबा गांधी शादी से पहले तक अनपढ़ थीं। विवाह के बाद गांधीजी ने ही उन्हें लिखना और पढ़ना सिखाया था। लेकिन विवाह के दो वर्ष बाद, सन् 1885 ई. में गांधीजी के पिता का देहांत हो गया। एक वर्ष बाद उनकी पहली संतान हुई, लेकिन दुर्भाग्यवश जन्म के कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई।
कस्तूरबा गांधी अत्यंत धर्मपरायण महिला थीं। गांधीजी के विचारों का अनुसरण कर उन्होंने भी जाति भेदभाव करना छोड़ दिया। वे स्पष्टवादी, व्यवहार कुशल एवं अनुशासित महिला थीं। महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी के चार पुत्र हुए, जिनका नाम इस प्रकार है: हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास।
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गांधीजी की शिक्षा
गांधीजी की प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर, गुजरात में हुई थी। पोरबंदर से उन्होंने मध्य विद्यालय तक की शिक्षा प्राप्त की। उन्हें खेलों में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी और न ही उनमें कोई विशेष प्रतिभा थी। वे हमेशा अकेला रहना पसंद करते थे। वर्ष 1887 में राजकोट हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने भावनगर के ‘सामलदास महाविद्यालय’ में प्रवेश लिया, लेकिन उन्हें वहाँ का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं लगा।
गांधीजी अपने बड़े भाई लक्ष्मीदास के बहुत करीब थे। पिताजी की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई ने ही उनकी आगे की पढ़ाई में मदद की और उन्हें वकालत की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा। 4 सितंबर 1888 को अठारह वर्ष की उम्र में वे साउथेम्पटन के लिए रवाना हो गए। लंदन में शुरुआती कुछ दिन गांधीजी के लिए अत्यंत कठिन रहे।
इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद गांधीजी राजकोट लौट आए और कुछ दिनों तक वहां रहने के बाद उन्होंने बंबई में वकालत की शुरुआत करने का निर्णय लिया। हालांकि बंबई में रहकर उन्हें वकालत में कोई सफलता नहीं मिली। जिसके बाद वह राजकोट लौट आए और फिर से वकालत में आगे बढ़ने का निर्णय लिया। इस दौरान गांधीजी को अपने पूरे परिवार का सहयोग मिला।
इस घटना से शुरू हुई मोहन दास करमचंद से ‘महात्मा’ बनने की कहानी
क्या आप जानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका गांधीजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था? यहीं से उनका जीवन पूरी तरह बदल गया और उन्हें एक नई दिशा मिली। वर्ष 1893 में वह गुजराती व्यापारी ‘शेख अब्दुल्ला’ के कानूनी सलाहकार के रूप में काम करने के लिए डरबन, दक्षिण अफ्रीका चले गए। यहीं रहते हुए उन्होंने नस्लीय भेदभाव का पहली बार अनुभव किया, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा भारतीयों और अफ्रीकियों के साथ नस्लीय भेदभाव किया जाता था, जिसका शिकार गांधीजी को भी कई बार होना पड़ा था।
एक बार डरबन के न्यायालय में न्यायधीश ने गांधीजी से पगड़ी उतारने को कहा, जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया और वे न्यायालय से बाहर निकल गए। इसके कुछ समय बाद, 31 मई 1893 को गांधीजी प्रथम श्रेणी के डब्बे में प्रिटोरिया की यात्रा कर रहे थे, लेकिन एक अंग्रेज व्यक्ति ने उनकी प्रथम श्रेणी में यात्रा करने पर आपत्ति जताई और उन्हें ट्रेन के अंतिम माल डब्बे में जाने को कहा क्योंकि किसी भी भारतीय या अश्वेत व्यक्ति का प्रथम श्रेणी में यात्रा करना प्रतिबंधित था।
गांधीजी ने प्रथम श्रेणी का टिकट होने का हवाला देते हुए ट्रेन के अंतिम डिब्बे में जाने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप उन्हें पीटरमैरिट्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर बेहद सर्द मौसम में उतार दिया गया। इस घटना के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वे जातीय भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। यह संघर्ष अंग्रेजों को केवल दक्षिण अफ्रीका में ही नहीं, बल्कि भारत में भी बहुत महंगा पड़ा।
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सत्याग्रह की शुरुआत
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने प्रवासी भारतीयों और अफ्रीकियों के अधिकारों के लिए कई सफल आंदोलन किए। इन सभी आंदोलनों में उन्होंने अहिंसात्मक तरीके से अपना विरोध जताया और ब्रिटिश हुकूमत को उनकी दमनकारी नीतियाँ बदलने पर मजबूर कर दिया। लेकिन इन सामाजिक आंदोलनों की गूंज केवल दक्षिण अफ्रीका तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि भारत तक भी पहुंची। वर्ष 1915 में गांधीजी भारत लौट आए और उन्होंने यह निर्णय लिया कि पहले एक वर्ष तक वे देश के विभिन्न भागों का भ्रमण कर लोगों की स्थिति को समझेंगे।
एक वर्ष तक देश का भ्रमण करने के बाद गांधीजी ने अहमदाबाद से सटी साबरमती नदी के तट पर एक आश्रम बनाया, जिसका नाम उन्होंने ‘सत्याग्रह आश्रम’ रखा। इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ वर्ष 1917 में बिहार के चंपारण जिले से पहला सत्याग्रह शुरू किया। वहां गांधीजी ने नील की खेती करने वाले हजारों किसानों को नील बागानों के मालिकों के शोषण से मुक्ति दिलाई।
इसके बाद गांधीजी ने वर्ष 1918 में गुजरात के खेड़ा जिले में किसान आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसमें सरदार वल्लभभाई पटेल ने भी सहयोग दिया। उन्होंने किसानों की भू-राजस्व माफ किए जाने की मांग का समर्थन किया और उन्हें सलाह दी कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, तब तक वे ब्रिटिश सरकार को राजस्व का भुगतान न करें। यह आंदोलन जून 1918 तक चला और अंततः ब्रिटिश सरकार ने किसानों की मांगें स्वीकार कर लीं।
गांधी युग की शुरुआत
वर्ष 1915 में गांधीजी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हो गया। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) में नरम दल के प्रमुख नेता थे। गांधीजी ने गोखले को ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ कहा था। उनके बाद बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के नेता बने, जिन्हें ‘लोकमान्य तिलक’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने प्रसिद्ध नारा दिया: “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा।” लेकिन वर्ष 1920 में बाल गंगाधर तिलक का भी निधन हो गया। इसके बाद गांधीजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वोच्च नेता के रूप में उभरे और यहीं से ‘गांधी युग’ की शुरुआत हुई।
वर्ष 1919 में पंजाब के अमृतसर में जलियांवाला बाग में जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर ने शांतिपूर्ण सभा में शामिल निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवा दीं। इस नरसंहार में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। इसके विरोध में गांधीजी और कई स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी उपाधियां और ब्रिटिश सरकार से मिले पुरस्कार लौटा दिए।
असहयोग आंदोलन
वर्ष 1920 में गांधीजी के नेतृत्व में ‘असहयोग आंदोलन’ की शुरुआत हुई। इसका मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अहिंसक तरीके से विरोध जताना और सरकार से सहयोग समाप्त करना था। इस राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान देश के कई प्रतिष्ठित लोगों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई उपाधियाँ और सम्मान लौटा दिए। महान साहित्यकार रबींद्रनाथ टैगोर ने भी जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोधस्वरूप ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम द्वारा दी गई ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी।
इस आंदोलन में ब्रिटिश हुकूमत में कार्यरत कई लोगों ने अपनी नौकरी छोड़ दी, वकीलों ने वकालत करना छोड़ दिया और छात्रों ने विद्यालय और कॉलेज जाना बंद कर दिया। वहीं विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया और लोगों ने अपने घरों में चरखा चलाकर स्वदेशी कपड़े बुनना शुरू कर दिया। गांधीजी ने भी ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ नामक दो साप्ताहिक समाचार-पत्रों के माध्यम से आम लोगों तक अपनी बात पहुँचाई।
दांडी यात्रा
12 मार्च 1930 को गांधीजी ने अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर ‘दांडी यात्रा’ की शुरुआत की। ‘नमक सत्याग्रह’ के नाम से प्रसिद्ध यह आंदोलन औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश नमक कर के खिलाफ अहिंसात्मक विरोध था।
गांधीजी ने साबरमती से अरब सागर तक 78 अनुयायियों के साथ 241 मील की यात्रा की और ब्रिटिश नमक कानून को तोड़ दिया। इसके कुछ समय बाद ही गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया और प्रमुख क्रांतिकारी नेताओं को भी जेल में डाल दिया गया। लेकिन इस आंदोलन में देश के लाखों लोग शामिल हुए और इसे जारी रखा। 26 जनवरी 1931 को गांधीजी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को रिहा कर दिया गया।
गोलमेज सम्मेलन
5 मार्च 1931 को गांधीजी और ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ। इसके बाद गांधीजी ने लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया। हालांकि यह बैठक निराशाजनक रही, क्योंकि इसमें ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी क्रूर शासन नीति को नए सिरे से लागू किया। जनवरी 1932 में गांधीजी ने फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की।
भारत छोड़ो आंदोलन
वर्ष 1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का प्रसिद्ध नारा दिया, जो भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने का संकेत था। क्या आप जानते हैं कि ‘भारत छोड़ो’ का नारा यूसुफ मेहरली द्वारा गढ़ा गया था, जो बाद में मुंबई के मेयर भी बने थे? इस आंदोलन के कारण देश में एकता और भाईचारे की बेजोड़ भावना पैदा हुई। भारत छोड़ो आंदोलन से ब्रिटिश हुकूमत के हौसले पस्त हो गए। जून 1947 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने घोषणा की कि 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हो जाएगा। भारत की आजादी के साथ एक नए देश ‘पाकिस्तान’ का भी जन्म हुआ।
गांधीजी की मृत्यु
भारत को स्वतंत्रता मिले कुछ ही महीने हुए थे कि 30 जनवरी 1948 को गांधीजी दिल्ली स्थित ‘बिरला भवन’ से संध्या प्रार्थना सभा की ओर जा रहे थे। तभी अचानक नाथूराम गोडसे ने उनके सीने पर तीन गोलियाँ चला दीं। कहा जाता है कि अपने अंतिम समय में उनके मुख से केवल दो शब्द निकले- “हे राम!”
अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस
गांधीजी का जन्मदिन हर वर्ष ‘गांधी जयंती’ के रूप में मनाया जाता है। भारत के लोग उन्हें प्यार से ‘बापू’ और ‘राष्ट्रपिता’ के नाम से पुकारते हैं। माना जाता है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने ही उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी। गांधीजी को पूरी दुनिया में मानवता और शांति का प्रतीक माना जाता है। उन्होंने अपने पूरे जीवन में लोगों को सत्य और अहिंसा की शिक्षा दी। वहीं, संयुक्त राष्ट्र ने भी 2 अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में घोषित किया है।
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महात्मा गांधी की प्रकाशित पुस्तकें
महात्मा गांधी की कुछ प्रमुख पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:-
| पुस्तक का नाम | प्रकाशन वर्ष |
| हिंद स्वराज | 1909 |
| अहिंसा के प्रथम चरण | 1910 |
| दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह | 1920 |
| व्यक्तिगत सत्याग्रह | 1920 |
| ‘द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ’ (सत्य के प्रयोग) | 1927 |
| गीता बोध | 1929 |
| सामाजिक परिवर्तन के लिए धर्म | 1936 |
| स्वराज्य की ओर | 1937 |
| मेरे सपनों का भारत | 1942 |
पत्रकारिता के क्षेत्र में गांधीजी का योगदान
नीचे महात्मा गांधी की कुछ प्रकाशित पत्रिकाओं की सूची दी गई है:-
- नवजीवन
- यंग इंडिया
- हरिजन
महात्मा गांधी के अनमोल विचार
महात्मा गांधी के कुछ अनमोल विचार इस प्रकार हैं:-
- “अहिंसा सबसे बड़ा कर्तव्य है। यदि हम इसका पूरा पालन नहीं कर सकते हैं तो हमें इसकी भावना को अवश्य समझना चाहिए और जहां तक संभव हो हिंसा से दूर रहकर मानवता का पालन करना चाहिए।”
- “आजादी का कोई अर्थ नहीं है यदि इसमें गलतियां करने की आजादी शामिल न हों।”
- “उस प्रकार जिएं कि आपको कल मर जाना है। सीखें उस प्रकार जैसे आपको सदा जीवित रहना हैं।”
- “आंख के बदले आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी।”
- “बेहतर है कि हिंसा की जाए, यदि यह हिंसा हमारे दिल में हैं, बजाए इसके कि नपुंसकता को ढकने के लिए अहिंसा का शोर मचाया जाए।”
- “किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए सोने की बेड़ियां, लोहे की बेड़ियों से कम कठोर नहीं होगी। चुभन धातु में नहीं वरन् बेड़ियों में होती है।”
- “निःशस्त्र अहिंसा की शक्ति किसी भी परिस्थिति में सशस्त्र शक्ति से सर्वश्रेष्ठ होगी।”
- “आपको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए। मानवता एक समुद्र है, यदि समुद्र की कुछ बूंदें सूख जाती है तो समुद्र मैला नहीं होता।”
- “व्यक्ति को अपनी बुद्धिमानी के बारे में पूरा भरोसा रखना बुद्धिमानी नहीं है। यह अच्छी बात है कि याद रखा जाए कि सबसे मजबूत भी कमजोर हो सकता है और बुद्धिमान भी गलती कर सकता है।”
- “स्वतंत्रता एक जन्म की भांति है। जब तक हम पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो जाते तब तक हम परतंत्र ही रहेंगे।”
गांधी शांति पुरस्कार
गांधी शांति पुरस्कार भारत सरकार का एक वार्षिक सम्मान है। इसे वर्ष 1995 में महात्मा गांधी की 125वीं जयंती पर उन लोगों, समुदायों और संस्थानों को पहचानने के लिए स्थापित किया गया, जो अहिंसा के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव लाते हैं। इस पुरस्कार में एक करोड़ रुपए, प्रशस्ति पत्र, पट्टिका और उत्कृष्ट पारंपरिक हस्तकला या हथकरघा की विशिष्ट कृति दी जाती है। इसे भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रपति भवन में प्रदान करते हैं।
वर्ष 2021 में गीता प्रेस, गोरखपुर को यह पुरस्कार मिला। गीता प्रेस हिंदू धार्मिक ग्रंथों का सबसे बड़ा प्रकाशक है और शांति व सामाजिक सद्भाव के गांधीवादी आदर्शों को बढ़ावा देता है। इसके अलावा, इस पुरस्कार से 1998 में रामकृष्ण मिशन, 1999 में बाबा आमटे, 2000 में डॉ. नेल्सन मंडेला, 2002 में भारती विद्या भवन, 2013 में पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट, 2014 में इसरो और 2016 में अक्षय पात्र फाउंडेशन एवं सुलभ इंटरनेशनल (संयुक्त) सम्मानित हो चुके हैं।
FAQs
2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर जिले में महात्मा गांधी का जन्म हुआ था।
महात्मा गांधी का पूरा नाम ‘मोहन दास करमचंद’ गांधी था।
‘द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ’ महात्मा गांधी की आत्मकथा है।
गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘करो या मरो’ का नारा दिया था।
30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला भवन में गांधीजी का निधन हुआ था।
गाँधी जी के चार पुत्र थे हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सर्वेंट्स ऑफ इंडियन सोसाइटी के संस्थापक ‘गोपाल कृष्ण गोखले’, गांधीजी के राजनीतिक गुरु माने जाते हैं।
आशा है कि आपको ‘राष्ट्रपिता’ महात्मा गांधी का जीवन परिचय पर हमारा यह ब्लॉग पसंद आया होगा। ऐसे ही अन्य प्रसिद्ध और महान व्यक्तियों के जीवन परिचय को पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।
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