Poems on Mahatma Gandhi in Hindi : भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसने सदियों से विश्व को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करके, समृद्धि का मार्ग दिखाया। भारत एक ऐसा राष्ट्र है जो कि लोकतंत्र की जननी कहना अनुचित नहीं होगा, इसी भारत राष्ट्र ने एक लंबे गुलामी के कालखंड की पीड़ा को सहा। भारत माता को स्वतंत्र कराने में यूँ तो अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया, लेकिन उस संघर्ष में महात्मा गाँधी ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी। विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों को महात्मा गाँधी पर कविता पढ़कर अहिंसा के संदेश को समझना चाहिए। इस ब्लॉग में आपको महात्मा गाँधी पर कविताएं (Poems on Mahatma Gandhi in Hindi) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जिससे आप उनके आदर्शों के बारे में गहनता से जान पाएंगे, साथ ही यह ब्लॉग आपको प्रेरित करेगा।
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महात्मा गांधी पर कविताएं – Poems on Mahatma Gandhi in Hindi
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi के कविता पढ़ने का अवसर प्रदान होगा, जिससे कि आपका मार्गदर्शन होगा और गाँधी जी पर लिखी कविताएं युवाओं को प्रेरित करेंगी।
था उचित कि गांधी जी की निर्मम हत्या पर तारे छिप जाते
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi में से एक लोकप्रिय कविता “था उचित कि गांधी जी की निर्मम हत्या पर तारे छिप जाते ” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
था उचित कि गांधी जी की निर्मम हत्या पर तारे छिप जाते, काला हो जाता अंबर, केवल कलंक अवशिष्ट चंद्रमा रह जाता, कुछ और नज़ारा था जब ऊपर गई नज़र। अंबर में एक प्रतीक्षा को कौतूहल था, तारों का आनन पहले से भी उज्ज्वल था, वे पंथ किसी का जैसे ज्योतित करते हों, नभ वात किसी के स्वागत में फिर चंचल था। उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ, धरती के ऊपर कुछ ऐसा बलिदान हुआ, प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कुछ ऐसा, जिसका अमरों के आंगन में सम्मान हुआ। अवनी गौरव से अंकित हों नभ के लिखे, क्या लिए देवताओं ने ही यश के ठेके, अवतार स्वर्ग का ही पृथ्वी ने जाना है, पृथ्वी का अभ्युत्थान स्वर्ग भी तो देखे!
-हरिवंशराय बच्चन
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि हरिवंश राय बच्चन जी ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने का प्रयास किया है। इस कविता में कवि ने गांधी जी की महानता का महिमामंडन करते हुए, भारत के लिए उनके द्वारा किए गए योगदान की भूरी-भूरी प्रशंसा की है। हरिवंश राय बच्चन जी ने इस कविता के माध्यम से गांधी जी की हत्या को एक दुखद घटना के साथ-साथ, दुनिया के लिए एक क्षति के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है।
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एक दिन इतिहास पूछेगा कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi में से एक लोकप्रिय कविता “एक दिन इतिहास पूछेगा कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था” भी है, जो कि निम्नवत है-
एक दिन इतिहास पूछेगा कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था, जिस समय हिंसा, कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित, धर्म, संस्कृति, सभ्यता पर डाल पर्दा, विश्व के संहार का षड्यंत्र रचने में लगी थी, तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था! एक दिन इतिहास पूछेगा कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था, जिस समय अन्याय ने पशु-बल सरा पी- उग्र, उद्धत, दंभ-उन्मद- एक निर्बल, निरपराध, निरीह को था कुचल डाला तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था? एक दिन इतिहास पूछेगा कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था, जिस समय अधिकार, शोषण, स्वार्थ हो निर्लज्ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्द्व सद्य: जगे, संभले राष्ट्र में घुन-से लगे जर्जर उसे करते रहे थे, तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था? क्यों कि गाँधी व्यर्थ यदि मिलती न हिंसा को चुनौती, क्यों कि गाँधी व्यर्थ यदि अन्याय की ही जीत होती, क्यों कि गाँधी व्यर्थ जाति स्वतंत्र होकर यदि न अपने पाप धोती !
-हरिवंश राय बच्चन
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि हरिवंश राय बच्चन जी महात्मा गांधी के जीवन और कार्यों का एक संक्षिप्त और प्रभावशाली वर्णन करते हैं। यह कविता हम युवाओं को गांधी जी के अहिंसा के विचारों और आदर्शों का स्मरण कराती है, साथ ही यह कविता महात्मा गाँधी के दिखाए मार्ग पर चलने के लिए हर युवा को प्रेरित करती है। कविता के माध्यम से बच्चन जी ने भारत की आज़ादी के लिए महात्मा गाँधी द्वारा किए गए योगदान पर प्रकाश डालने का कार्य किया है।
जो कुछ था देय, दिया तुमने
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi में से एक लोकप्रिय कविता “जो कुछ था देय, दिया तुमने” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में; लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती, बेबसी बोलती है आंसू की भाषा में। वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये, किरणों का बन्धन काट उन्हें उन्मुक्त किया, आंसुओं-पसीनों से न आग जब बुझ पायी, बापू! तुमने आख़िर को अपना रक्त दिया।
-रामधारी सिंह दिनकर
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने महात्मा गांधी के जीवन, उनके कार्यों और उनकी कार्यशैली के बारे में संक्षिप्त और प्रभावशाली वर्णन करने का प्रयास किया है। यह कविता हमें गांधी जी के विचारों और आदर्शों से परिचित करवाती है, साथ ही यह कविता हमें जाति और धर्म के भेदभाव को खत्म करने के लिए प्रेरित करती है और सभी धर्मों के बीच एकता का संदेश देने का प्रयास करती है।
गांधी के चित्र को देखकर
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi में से एक लोकप्रिय कविता “गांधी के चित्र को देखकर” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
दुख से दूर पहुँचकर गाँधी। सुख से मौन खड़े हो मरते-खपते इंसानों के इस भारत में तुम्हीं बड़े हो जीकर जीवन को अब जीना नहीं सुलभ है हमको मरकर जीवन को फिर जीना सहज सुलभ है तुमको
-केदारनाथ अग्रवाल
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि ने महात्मा गाँधी को भारत के महानायक और एक युग के युगपुरुष के रूप में वर्णित करने का प्रयास किया है। कविता में कवि ने कहा है कि गांधी जी ने भारत को स्वतंत्र बनाया और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने का सपना देखा। यह कविता गांधी जी को महान सपने देखने वाले एक महान इंसान के रूप में चित्रित किया है। यह कविता महात्मा गाँधी का जीवन परिचय बताकर उस समय के एक महान जन-नेता का महिमामंडन करती है।
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गांधी
Poems on Mahatma Gandhi in Hindi में से एक लोकप्रिय कविता “गांधी” भी है, जो निम्नलिखित हैं-
कल मैंने तुमको फिर देखा हे खर्वकाय, हे कृश शरीर, हे महापुरुष, हे महावीर! हां, लगभग ग्यारह साल बाद कल मैंने तुमको फिर देखा हे देव तुम्हारे दर्शन को कल जुटे आदमी दस हज़ार! उस संघशक्ति को श्रद्धा से दोनों हाथों को जोड़ किया तुमने ही पहले नमस्कार, फिर नन्हीं-सी तर्जनी दिखा, उद्वेल जलधि-सी जनता को क्षण-भर में तुमने किया शांत! घर हो, बाहर हो, कारा हो लाचारी हो, बीमारी हो सत्याग्रह की तैयारी हो बंबई हो कि या लंदन हो हो क्षुद्र गांव या महानगर कुछ भी हो, कैसी भी स्थिति हो, तुम सुबह-शाम उस परमपिता परमेश्वर की प्रार्थना नित्य— करते आए हो जीवन भर, दो-चार और दस-बीस जने शामिल हो जाते हैं उसमें. पर कभी-कभी दस-दस पंद्रह-पंद्रह हज़ार यह सहस-शीश यह सहस-बाहु जनता भी शामिल होती है. कल मुझे लगा ऐसा कि, नहीं— उस परमपिता परमेश्वर की प्रार्थना हेतु; पर, दरस तुम्हारा पाने को एकत्रित होती है जनता उद्वेलित सागर-सी अधरी, हे खर्वकाय, हे कृश शरीर! जय रघुपति राघव राम राम! बिस्मिल्ला हिर्रहमाने रहीम! प्रार्थना सुनी, देखी नमाज़ फिर भी जनता ज्यों की त्यों थी उद्वेलित सागर-सी अधीर! तुम लगे बोलने तब जाकर वह हुई शांत! देखा तुमको भर-आंख और भर-कान सुना, कुछ तृप्ति हुई, कुछ शांति मिली; बोले तुम केवल पांच मिनट! चुप रहे आदमी दस हज़ार, बस पांच मिनट! तुम चले गए, जनता उठकर बन गई भीड़ उच्छृंखल सागर-सी अधीर फिर धन भर में सब बिखर गए कुछ इधर गए, कुछ उधर गए देखा बिड़ला की कोठी का वह महाद्वार तैनात वहां थी स्वयंसेवकों की क़तार हे धनकुबेर के अतिथि…नहीं, हे जननायक! कल तेरे दर्शन के निमित्त थे जुटे आदमी दस हज़ार इस दुखी देश के हे फ़क़ीर, हे खर्वकाय, हे कृश शरीर! जिस सागर का मैं एक बिंदु तुम उसकी तरंगों का करने आए हो प्रतिनिधित्व यद्यपि ख़ुद भी तुम बिंदुमात्र यद्यपि ख़ुद भी तुम व्यक्तिमात्र फिर भी लाखों जन से पाकर प्रेरणा बने हो महाप्राण हे खर्वकाय, हे कृश शरीर! संध्या को साढ़े सात बजे कल तेरे दर्शन के निमित्त जुटे थे दस हज़ार मैं उनमें था : तुमको देखा फिर लगभग ग्यारह साल बाद.
-नागार्जुन
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि नागार्जुन ने महात्मा गाँधी की हत्या के बाद उत्पन्न हुए शोक से भरे दृश्य पर आधारित भावनाओं को दर्शाने का प्रयास किया है। यह कविता गाँधी जी के योगदान, उनके नेतृत्व की कुशलता और उनकी अंतिम यात्रा में उमड़े जन-सैलाब की भावनाओं का सम्मान करने का प्रयास करती है। यह कविता उस सदी के एक बड़े जन नेता की गाथाओं को जाती है, जिससे आज तक युवाओं को प्रेरणा मिलती है।
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महात्मा गाँधी पर कविता – Hindi Poems on Mahatma Gandhi
महात्मा गाँधी पर कविता (Hindi Poems on Mahatma Gandhi) आपका मार्गदर्शन करने का काम करेंगी, ये कविता कुछ इस प्रकार हैं जो आपको गांधी जी के बारे में बताएंगे;
बापू के प्रति
बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि, तो क्या भजते होते तुमको ऐरे-ग़ैरे नत्थू-ख़ैरे? सर के बल खड़े हुए होते हिंदी के इतने लेखक-कवि, बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि? बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि, तो लोकमान्य से क्या तुमने लोहा भी कभी लिया होता? दक्खिन में हिंदी चलवाकर लिखते हिंदुस्तानी की छवि, बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि? बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि तो क्या अवतार हुए होते कुल के कुल कायथ-बनियों के? दुनिया के सबसे बड़े पुरुष आदम-भेड़ों के होते भी! बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि? बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि तो क्या पटेल, राजन, टंडन, गोपालाचारी भी भजते? भजता होता तुमको मैं औ’ मेरी प्यारी अल्लारक्खी, बापू, तुम मुर्ग़ी खाते यदि!
– सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
बापू की याद
बापू जी आपके पास थे तो केवल तीन पर यहाँ चौथा भी है। पहला जब कहता : ‘बुरा मत कहो' तो चौथा कहता है : मुझे बुरा मत कहो। जब दूसरा कहता ‘बुरा मत देखो' तो चौथा कहता है : मुझमें बुराई मत देखो। इसी तरह जब तीसरा कहता : ‘बुरा मत सुनो' तो चौथा कहता है मेरी बुराई मत सुनो। बापू इस समय चौथे का ही बोलबाला है। वह बुरा बोलता है बुरा देखता है और बुरा ही सुनता है। आपके तीनों तो बापू अब भी वैसे ही बैठे हैं मूर्तियाँ बने हुए और हमारा सामना इस चौथे से है।
– अनिल त्रिपाठी
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श्री गांधी-स्तव
जय-जय सदगुन सदन अखिल भारत के प्यारे। जय जगमधि अनवधि कीरति कल विमल उज्यारे। जयति भुवन-विख्यात सहन-प्रतिरोध सुमूरति। सज्जन सम भ्रातृत्व शांति की सुखमय सूरति। जय कर्मवीर त्यागी परम आत्म-त्यागि-विकास-कर। जय यस-सुगंधि-बितरन करन गांधी मोहनदास वर॥ जय परकाज निबाहन कृत बंदी गृह पावन। किंतु मुदित मन वही भाव मंजुल मनभावन। मातृभक्त जातीय भाव-रक्षण के नेमी। हिंदी हिंदू हिंद देश के साँचे प्रेमी। निज रिपुहू कौ अपराध नित छमत न कुछ शंका धरत। नव नवनीत समान अस मृदुल भाव जग-हिय हरत॥ जयति तनय अरु दार सकल परिवार मोह तजि। एकहि व्रत पावन साधारन ताहि रहै भजि। जय स्वकार्य तत्परता-रत अरु सहनशील अति। उदाहरन करतव्य-परायनता के शुचमति। जय देशभक्ति-आदर्श प्रिय शुद्ध चरित अनुपम अमल। जय जय जातीय तड़ाग के अभिनव अति कोमल कमल॥ जय बिपत्ति में धैर्य्य धरन अविकल अविचल मन। दृढ़ व्रत शुच निष्कपट दीन दुखियन आस्वासन। जय निस्स्वारथ दिव्य जोति पावन उज्जलतर। परमारथ प्रिय प्रेम-बेलि अलबेलि मनोहर। तुमसे बस तुमहीं लसत और कहा कहि चित भरैं। सिवराज प्रताप Sरु मेज़िनी किन-किन सों तुलना करैं॥ एक ओर अन्याय, स्वार्थ की चिंता बाढ़ी। अत्याचार अपार घृणित निर्दयता ठाढ़ी। अपर ओर मनुष्यत्व स्वत्व की मूरति निर्मल। कोमल अति कमनीय किंतु प्रतिपल प्रण अविचल। यहि देवासुर संग्राम में विदित जगत की नीति है। बस किंकर्तव्य विमूढ़ बहु भूलि परस्पर प्रीति है॥ अपुहिं सारथी बने कमलदल आयत लोचन। अरजुन सों बतरात विहँसि त्रयताप-बिमोचन। धीरज सब विधि देत यही पुनि-पुनि समझावत। दैन्य पलायन एकहु ना मोहि रन में भावत। इक निमितमात्र है तू अहो क्यों निज चित विस्मय धरै। गोपालकृष्ण मोहन मदन सों तुम्हार रक्षा करै॥ यहि अवसर जो दियौ आत्मबल कों तुम परिचय। लची निरंकुश शक्ति भई मुदमई सत्य जय। जननी जन्मभूमि भाषा यह आज यथारथ। पूत सपूत आप जैसों लहि परम कृतारथ। लखि मोहन मुखचंद तव याकें हृदय उमंग है। त्रयतापहरत मन मुद भरत लहरत भाव तरंग है॥ निज कोमल वाणी सों हिंदू जाति जगावौ। नवजीवन यहि नीरस मानस में उमगावौ। अब या हिंदी को सिर निर्भय उच्च उठावौ। सुभग सुमन याकें पद पदमनु चारु चढ़ावौ। यह नम्र निवेदन आप सों जिनकों प्रेम अनन्य है। ह्वै न्यौछावर तव चरनु पै हम जीवनधन धन्य है॥
– सत्यनारायण कविरत्न
शुभागमन
चक्रपाणिता तज, धोने को पाप-पंक के परनाले, आहा! आ पहुँचा मोहन तू विप्लव की झाड़ू वाले! आवर्जन के ढेर हमारे इस आँगन में फैले हैं; ऊपर से हम स्वच्छ बने जो हृदय हमारे मैले हैं। हम सारे जग के अछूत जो, उच्च कह रहे हैं निज को; इस घर के सारे के सारे वातावरण विषैले हैं। आज झाड़ देगा निश्चय ही तू इस जड़ता के जाले; आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! खोल सकेगा खट से तू ही उर-उर के अवरुद्ध कपाट, हमें खड़ा करके चौड़े में देगा तू भय-बंधन काट। दृष्टि हमें देगा ऐसी तू देखेंगे हम विस्मय से— क्षुद्र नहीं हैं हम, हममें ही है यह तेरे तुल्य विराट। क्या चिंता, यदि पिये पड़े हम इस बेसुधपन के प्याले, आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! मधुर हुआ तेरी वाणी में आकर विप्लव का हुंकार; जा पहुँचा उर के भीतर वह करके कितने ही स्तर पार। पड़े पंगु-से थे अब तक जो प्रस्तुत हैं चल पड़ने को; तू आगे-आगे है पथ के काँटों का क्या सोच-विचार? नहीं हमें ही, सारे जग को तेरी पावनता छा ले; आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! निगल रही है इस जगती को लौह-यंत्रिणी दानवता; पड़ी धूल में है बेचारी आज विश्व की मानवता। दान अभयता का दे तूने उसे उठाया नीचे से, फिर से झलक उठी है उसमें जागृत जीवन की नवता। छिन्न-भिन्न हो उठे शीघ्र ही हिंसा के बादल काले, आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! तूने हमें बताया-हम सब एक पिता की हैं संतान, हैं हम सब भाई-भाई ही, हैं सबके अधिकार समान। नहीं रहेंगे मानव हम यदि मानव ही को पीसेंगे; सत्य, अहिंसा, निखिल-प्रेम में गूँज उठा तेरा जय-गान! टूटे तेरे मृदु प्रहार से, पड़े बुद्धि पर थे ताले; आहा! आ पहुँचा बापू, तू विप्लव की झाड़ू वाले!
– सियारामशरण गुप्त
चरखा गीत
भ्रम, भ्रम, भ्रम— घूम, घूम, भ्रम भ्रम रे चरखा कहता : 'मैं जन का परम सखा, जीवन का सीधा-सा नुसखा श्रम, श्रम, श्रम!' कहता : 'हे अगणित दरिद्रगण! जिनके पास न अन्न, धन, वसन, मैं जीवन उन्नति का साधन— क्रम, क्रम, क्रम!' भ्रम, भ्रम, भ्रम 'धुन रूई, निर्धनता दो धुन, कात सूत, जीवन पट लो बुन; अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन, थम, थम, थम!' 'नग्न गात यदि भारत मा का, तो खादी समृद्धि की राका, हरो देश की दरिद्रता का तम, तम, तम!' भ्रम, भ्रम, भ्रम,— कहता चरखा प्रजा तंत्र से : 'मैं कामद हूँ सभी मंत्र से'; कहता हँस आधुनिक यंत्र से : ‘नम, नम, नम!' 'सेवक पालक शोषित जन का, रक्षक मैं स्वदेश के धन का, कातो हे, काटो तन मन का भ्रम, भ्रम, भ्रम!'
– सुमित्रानंदन पंत
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