Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen: देशप्रेम और संवेदनाओं की झलक प्रस्तुत करतीं मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं

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Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen

Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen: हिंदी के “राष्ट्रकवि” के रूप में प्रसिद्ध मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं भारतीय संस्कृति और मातृभूमि के प्रति अपनी गहरी भावनाओं के लिए जानी जाती हैं। उनका साहित्य भारतीय जनमानस में राष्ट्रप्रेम और सांस्कृतिक गौरव का संदेश देता है। बता दें कि उनकी कविताओं ने आम जनमानस की चेतना को जगाकर समाज को उन्नति और विकास का मार्ग दिखाया है। उनकी कविताओं को सरल भाषा, सहज प्रवाह और गहन भावनाओं का अद्भुत संगम माना जाता है। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’, ‘अर्जन-विसर्जन’, और ‘काबा-करबला’ बेहद लोकप्रिय है। 

इस ब्लॉग में आप देशप्रेम और संवेदनाओं की झलक प्रस्तुत करतीं मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं (Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen) पढ़ पाएंगे, जो उनके साहित्यिक योगदान और उत्तम काव्य शैली को दर्शाती हैं।

मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं – Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen 

मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं (Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen in Hindi) समाज का दर्पण कहलाती हैं, जिसने सदैव समाज का सच से सामना करवाया है, वे कुछ इस प्रकार हैं:-

  • आर्य
  • किसान
  • नर हो, न निराश करो मन को
  • दोनों ओर प्रेम पलता है
  • जीवन की ही जय हो
  • अर्जुन की प्रतिज्ञा
  • होली
  • चेतना
  • प्रतिशोध
  • नहुष का पतन
  • माँ कह एक कहानी
  • सरकस
  • ओला
  • चारु चंद्र की चंचल किरणें
  • सखि वे मुझसे कह कर जाते
  • कुशलगीत
  • मनुष्यता
  • मातृ-मूर्ति
  • मुझे फूल मत मारो
  • शिशिर न फिर गिरि वन में
  • निरख सखी ये खंजन आए
  • एकांत में यशोधरा
  • गुणगान
  • जगौनी
  • मातृभूमि
  • भारत माता का मंदिर यह
  • भजो भारत को तन-मन से
  • भारत का झण्डा
  • भारतवर्ष इत्यादि।

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मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं

यहाँ मैथिलीशरण गुप्त की चुनिंदा लोकप्रिय कविताएं (Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen) दी गई हैं:-

आर्य

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
संपूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे
मैथिलीशरण गुप्त

किसान

हेमंत में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
मैथिलीशरण गुप्त

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नर हो, न निराश करो मन को

नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जन हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
मैथिलीशरण गुप्त

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दोनों ओर प्रेम पलता है

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलने में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किंतु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
– मैथिलीशरण गुप्त

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जीवन की ही जय हो

मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।

जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।

नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।

जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।
– मैथिलीशरण गुप्त

अर्जुन की प्रतिज्ञा

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ?

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दिखेंगे सभी।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिए रौख नरक का द्वार है।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ।
– मैथिलीशरण गुप्त

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होली

जो कुछ होनी थी, सब होली!
धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली।
आँखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली।
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली!
– मैथिलीशरण गुप्त

चेतना

अरे भारत! उठ, आँखें खोल
उड़कर यंत्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल!

अवसर तेरे लिए खड़ा है
फिर भी तू चुपचाप पड़ा है।
तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है,
पल पल है अनमोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

बहुत हुआ अब क्या होना है
रहा सहा भी क्या खोना है?
तेरी मिट्टी में सोना है,
तू अपने को तोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

दिखला कर भी अपनी माया,
अब तक जो न जगत ने पाया;
देकर वही भाव मन भाया,
जीवन की जय बोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥

तेरी ऐसी वसुन्धरा है
जिस पर स्वयं स्वर्ग उतरा है।
अब भी भावुक भाव भरा है,
उठे कर्म-कल्लोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥
– मैथिलीशरण गुप्त

प्रतिशोध

किसी जन ने किसी से क्लेश पाया
नबी के पास वह अभियोग लाया।
मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।
नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।
उन्होंने शांत कर उसको कहा यों
स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।
चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने
स्वयं भी घात पाकर घात देने
क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा
तुम्हारे शील का साक्षी रहूंगा
दिखावो बंधु क्रम-विक्रम नया तुम
यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।
– मैथिलीशरण गुप्त

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मैथिलीशरण गुप्त की कविता मातृभूमि

मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen) की कविता ‘मातृभूमि’ एक प्रेरणादायक एवं भावनात्मक काव्य रचना है। इस कविता में कवि ने मातृभूमि के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए वीरों के बलिदान को सम्मानित किया है, साथ ही कवि ने कविता में मातृभूमि की वंदना करते हुए इसका बखूबी चित्रण किया है। मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘मातृभूमि’ कुछ इस प्रकार है:-

मातृभूमि

नीलांबर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
फिर अंत समय तू ही इसे अचल देख अपनाएगी।
हे मातृभूमि! यह अंत में तुझमें ही मिल जायेगी॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥
– मैथिलीशरण गुप्त

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आशा है कि आपको इस लेख में मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं (Maithili Sharan Gupt Ki Kavitayen) पसंद आई होंगी। ऐसी ही अन्य लोकप्रिय हिंदी कविताओं को पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें। 

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