भारत में ऐसे कई महान कवि और कवयित्री हुई हैं, जिन्होंने जनता की पीड़ाओं को प्रखरता से कहने के साथ-साथ, भारतीय समाज की चेतना को जागृत करने का कार्य किया। ऐसे ही कवियों और कवयित्रियों में से एक कवयित्री “सुभद्रा कुमारी चौहान” भी थीं, जिनकी कविता ने समाज में व्याप्त हर कुरीति का प्रखरता से विरोध किया। उनकी कालजेयी रचनाएं आज की परिस्थितियों में भी प्रासंगिक होकर युवाओं को प्रेरित करती हैं। कविताएं ही सभ्यताओं का गुणगान करते हुए मानव को समाज की कुरीतियों और अन्याय के विरुद्ध लड़ना सिखाती हैं। इसी कड़ी में Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi (सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं) भी आती हैं, जिन्हें पढ़कर विद्यार्थियों को प्रेरणा मिल सकती है, जिसके बाद उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल सकते हैं।
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कौन थीं सुभद्रा कुमारी चौहान?
Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi (सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं) पढ़ने सेे पहले आपको सुभद्रा कुमारी चौहान का जीवन परिचय पढ़ लेना चाहिए। भारतीय साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि सुभद्रा कुमारी चौहान भी हैं, जिनकी लेखनी आज के समय में भी प्रासंगिक हैं और लाखों युवाओं को प्रेरित कर रही हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की गिनती भारत की एक प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका के रूप में की जाती है।
16 अगस्त 1904 को सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म उत्तर प्रदेश के निहालपुर में हुआ था। सुभद्रा कुमारी चौहान का विद्यार्थी जीवन प्रयाग के क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में बीता, जिसके बाद वर्ष 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका ‘मर्यादा’ में प्रकाशित हुई थी।
सुभद्रा कुमारी चौहान जी की अधिकांश कविताएं देश प्रेम, वीरता, प्रकृति आदि पर आधारित हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की रचनाओं में “जलियाँवाला बाग में बसंत”, “वीरों का कैसा हो वसंत”, “पानी और धूप”, “झाँसी की रानी”, “कोयल”, “ठुकरा दो या प्यार करो” आदि बेहद लोकप्रिय हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान जी के साहित्य के लिए दिए गए अविस्मरणीय योगदान को देखते हुए वर्ष 1946 में “पद्म भूषण” से सम्मानित किया गया था। अपने समय के एक महान कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का निधन 15 फरवरी 1948 को मध्य प्रदेश के सिवनी में हुआ था।
वीरों का कैसा हो वसंत
Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi (सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं) आपको साहित्य से परिचित करवाएंगी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक “वीरों का कैसा हो वसंत” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त वीरों का कैसा हो वसंत फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग अंग; है वीर देश में किन्तु कंत वीरों का कैसा हो वसंत भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत वीरों का कैसा हो वसंत गलबाहें हों या कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण हो रसविलास या दलितत्राण; अब यही समस्या है दुरंत वीरों का कैसा हो वसंत कह दे अतीत अब मौन त्याग लंके तुझमें क्यों लगी आग ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग; बतला अपने अनुभव अनंत वीरों का कैसा हो वसंत हल्दीघाटी के शिला खण्ड ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड राणा ताना का कर घमंड; दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत वीरों का कैसा हो वसंत भूषण अथवा कवि चंद नहीं बिजली भर दे वह छन्द नहीं है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं; फिर हमें बताए कौन हन्त वीरों का कैसा हो वसंत -सुभद्रा कुमारी चौहान
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से सुभद्रा कुमारी चौहान वीरों के वसंत का वर्णन करती हैं। कविता के आरंभ में वह हिमालय से प्रश्न करती हैं कि वीरों का वसंत कैसा होगा? कविता के माध्यम से वह कहती हैं कि वीरों का वसंत सामान्य लोगों के वसंत से अलग होता है। कविता के माध्यम से वह आगे कहती हैं कि वीरों का वसंत रणभूमि में होगा, जहाँ वीर रक्त बहाते हुए अपने देश की रक्षा करेंगे। कविता में कवयित्री आगे कहती हैं कि वीरों का वसंत सुगंध से भरा नहीं, बल्कि बारूद की गंध से भरा होगा। कविता अंत तक यही बताने का सफल प्रयास करती है कि वीरों का वसंत देशभक्ति, बलिदान, गर्व और सम्मान से भरा होगा। यह कविता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1923 में लिखी गई थी।
ठुकरा दो या प्यार करो
Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi (सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं) आपको साहित्य से परिचित करवाएंगी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं में से एक रचना “ठुकरा दो या प्यार करो” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लाई फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आई धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आई पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आई पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आई हूँ जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो -सुभद्रा कुमारी चौहान
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति और समर्पण को व्यक्त करती हैं। कविता की शुरुआत में, कवयित्री कहती हैं कि वह ईश्वर की भक्त हैं, और वह ईश्वर से ही प्रेम करती हैं। कविता की आगे की पंक्ति बताती हैं कि वह कहती हैं कि वह ईश्वर के लिए कोई दिखावा नहीं करती हैं, और वह ईश्वर से सच्चे मन से प्रेम करती हैं। कविता में वह ईश्वर से कोई भौतिक सुख या धन नहीं चाहती हैं, बल्कि वह केवल ईश्वर का आशीर्वाद और प्रेम चाहती हैं।
साध
Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi आपको प्रेरणा से भर देंगी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं की श्रेणी में से एक रचना “साध” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन। भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन। वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर। बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर। कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल। पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल। सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों। तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों। सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन। हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन। रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली। दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली। तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान। निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान। -सुभद्रा कुमारी चौहान
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान एक शांत और संतोषजनक जीवन की कामना करती हैं। इस कविता के अनुसार कवयित्री जीवन की सच्ची खुशी सादगी और संयम को कहती हैं अथवा मानती हैं। इस कविता के माध्यम से वह कहना चाहती हैं कि वह दुनिया के शोर और ग्लैमर से दूर रहना चाहती हैं। इस कविता में कवयित्री इसी बात पर अधिक बल देती हैं कि उन्हें भौतिक सुखों की कोई इच्छा नहीं है। यह कविता महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित वर्ष 1932 में लिखा गया था।
कोयल
Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi आपको साहित्य के सौंदर्य से परिचित करवाएंगी, साथ ही आपको प्रेरित करेंगी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं में से एक रचना “कोयल” भी है, यह कुछ इस प्रकार है:
देखो कोयल काली है पर मीठी है इसकी बोली इसने ही तो कूक कूक कर आमों में मिश्री घोली कोयल कोयल सच बतलाना क्या संदेसा लाई हो बहुत दिनों के बाद आज फिर इस डाली पर आई हो क्या गाती हो किसे बुलाती बतला दो कोयल रानी प्यासी धरती देख मांगती हो क्या मेघों से पानी? कोयल यह मिठास क्या तुमने अपनी माँ से पाई है? माँ ने ही क्या तुमको मीठी बोली यह सिखलाई है? डाल डाल पर उड़ना गाना जिसने तुम्हें सिखाया है सबसे मीठे मीठे बोलो यह भी तुम्हें बताया है बहुत भली हो तुमने माँ की बात सदा ही है मानी इसीलिये तो तुम कहलाती हो सब चिड़ियों की रानी -सुभद्रा कुमारी चौहान
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान कोयल के मधुर गायन का वर्णन करती हैं। कविता के माध्यम से वह कहती हैं कि कोयल का गायन वसंत ऋतु का संकेत है, और यह मन को खुशी से भर देता है। इस कविता में कोयल के गायन मन को मोह लेने वाला और आत्मा को प्रसन्न कर देने वाला कहा गया है, जो हमें जीवन का आनंद लेने के लिए प्रेरित करता है। प्रकृति के प्रति प्रेम और प्रशंसा को व्यक्त करने के लिए इस कविता को वर्ष 1930 में लिखा गया था।
झांसी की रानी
Subhadra Kumari Chauhan Poem in Hindi आपको प्रेरित करेंगी, साथ ही आपका परिचय साहस से करवाएंगी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की महान रचनाओं में से एक रचना “झांसी की रानी” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई थी झांसी में। चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई। निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। रानी रोईं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, विजई रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी, दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। -सुभद्रा कुमारी चौहान
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से सुभद्रा कुमारी चौहान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और साहस का वर्णन करती हैं। कवयित्री कविता में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म, पालन-पोषण, न्याय व्यवस्था और आज़ादी के लिए ब्रिटिश सेना से हुए उनके संघर्षों का वर्णन करती हैं। यह कविता भारत की स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1930 में लिखी गई थी, जिसका उद्देश्य झाँसी की रानी के साहस को सच्ची श्रृद्धांजलि देना था। इस कविता ने आज़ादी के संघर्षों के दौरान युवाओं में देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना को जागृत किया।
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