शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हिंदी साहित्य के एक प्रख्यात कवि थे, जिनकी कविताएं समाज को सही दिशा दिखाने के साथ-साथ उनका मार्गदर्शन करने का काम भी करती हैं। शिवमंगल सिंह सुमन की रचनाओं में मानवता, राष्ट्रप्रेम, प्रकृति और मानवीय संवेदनाओं की गहरी झलक देखने को मिलती है। उनकी कविताएं सरल भाषा में गहरे भावों को व्यक्त करती हैं, जो समाज को जगाए रखने का काम करती हैं। विद्यार्थियों को शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएं पढ़कर साहित्य के आँगन में पलने-बढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जिससे उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएं पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
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शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएं
शिवमंगल सिंह सुमन की लोकप्रिय कविताएं जिन्होंने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं, वे हैं –
- सांसों का हिसाब
- चलना हमारा काम है
- मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
- असमंजस
- पतवार
- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला
- सूनी साँझ
- विवशता
- मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ
- आभार
- पर आँखें नहीं भरीं
- मृत्तिका दीप
- बात की बात
- हम पंछी उन्मुक्त गगन के
- वरदान माँगूँगा नहीं
- मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ
- तूफानों की ओर घुमा दो नाविक
- मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला
वरदान माँगूँगा नहीं
यह हार एक विराम है जीवन महासंग्राम है तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं । वरदान माँगूँगा नहीं ।। स्मृति सुखद प्रहरों के लिए अपने खण्डहरों के लिए यह जान लो मैं विश्व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं । वरदान माँगूँगा नहीं ।। क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही । वरदान माँगूँगा नहीं ।। लघुता न अब मेरी छुओ तुम हो महान बने रहो अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं । वरदान माँगूँगा नहीं ।। चाहे हृदय को ताप दो चाहे मुझे अभिशाप दो कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं । वरदान माँगूँगा नहीं ।। -शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
जीवन के कुसुमित उपवन में गुंजित मधुमय कण-कण होगा शैशव के कुछ सपने होंगे मदमाता-सा यौवन होगा यौवन की उच्छृंखलता में पथ भूल न जाना पथिक कहीं। पथ में काँटे तो होंगे ही दूर्वादल, सरिता, सर होंगे सुंदर गिरि, वन, वापी होंगी सुंदर सुंदर निर्झर होंगे सुंदरता की मृगतृष्णा में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! मधुवेला की मादकता से कितने ही मन उन्मन होंगे पलकों के अंचल में लिपटे अलसाए से लोचन होंगे नयनों की सुघड़ सरलता में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! साक़ीबाला के अधरों पर कितने ही मधुर अधर होंगे प्रत्येक हृदय के कंपन पर रुनझुन-रुनझुन नूपुर होंगे पग पायल की झनकारों में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! यौवन के अल्हड़ वेगों में बनता मिटता छिन-छिन होगा माधुर्य्य सरसता देख-देख भूखा प्यासा तन-मन होगा क्षण भर की क्षुधा पिपासा में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! जब विरही के आँगन में घिर सावन घन कड़क रहे होंगे जब मिलन-प्रतीक्षा में बैठे दृढ़ युगभुज फड़क रहे होंगे तब प्रथम-मिलन उत्कंठा में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! जब मृदुल हथेली गुंफन कर भुज वल्लरियाँ बन जाएँगी जब नव-कलिका-सी अधर पँखुरियाँ भी संपुट कर जाएँगी तब मधु की मदिर सरसता में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! जब कठिन कर्म पगडंडी पर राही का मन उन्मुख होगा जब सब सपने मिट जाएँगे कर्तव्य मार्ग सन्मुख होगा तब अपनी प्रथम विफलता में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! अपने भी विमुख पराए बन कर आँखों के सन्मुख आएँगे पग-पग पर घोर निराशा के काले बादल छा जाएँगे तब अपने एकाकी-पन में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! जब चिर-संचित आकांक्षाएँ पलभर में ही ढह जाएँगी जब कहने सुनने को केवल स्मृतियाँ बाक़ी रह जाएँगी विचलित हो उन आघातों में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! हाहाकारों से आवेष्टित तेरा मेरा जीवन होगा होंगे विलीन ये मादक स्वर मानवता का क्रंदन होगा विस्मित हो उन चीत्कारों में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! रणभेरी सुन कह ‘विदा, विदा! जब सैनिक पुलक रहे होंगे हाथों में कुंकुम थाल लिए कुछ जलकण ढुलक रहे होंगे कर्तव्य प्रणय की उलझन में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! वेदी पर बैठा महाकाल जब नर बलि चढ़ा रहा होगा बलिदानी अपने ही कर सेना निज मस्तक बढ़ा रहा होगा तब उस बलिदान प्रतिष्ठा में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! कुछ मस्तक कम पड़ते होंगे जब महाकाल की माला में माँ माँग रही होगी आहुति जब स्वतंत्रता की ज्वाला में पलभर भी पड़ असमंजस में पथ भूल न जाना पथिक कहीं! -शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला
घर-आँगन सब आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन दर-दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन। तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन। दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। भाई की गर्दन पर भाई का तन गया दुधारा सब झगड़े की जड़ है पुरखों के घर का बँटवारा। एक अकड़ कर कहता अपने मन का हक़ ले लेंगे और दूसरा कहता तिलभर भूमि न बँटने देंगे। पंच बना बैठा है घर में, फूट डालनेवाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। दोनों के नेतागण बनते अधिकारों के हामी किंतु एक दिन को भी हमको अखरी नहीं ग़ुलामी। दानों को मोहताज हो गए दर-दर बने भिखारी भूख, अकाल, महामारी से दोनों की लाचारी। आज धार्मिक बना, धर्म का नाम मिटानेवाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। होकर बड़े लड़ेंगे यों यदि कहीं जान मैं लेती कुल-कलंक-संतान सौर में गला घोंट मैं देती। लोग निपूती कहते पर यह दिन न देखना पड़ता मैं न बंधनों में सड़ती छाती में शूल न गड़ता। बैठी यही बिसूर रही माँ, नीचों ने घर घाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। भगत सिंह, अशफ़ाक़, लालमोहन, गणेश बलिदानी सोच रहे होंगे, हम सबकी व्यर्थ गई क़ुर्बानी। जिस धरती को तन की देकर खाद, ख़ून से सींचा अंकुर लेते समय, उसी पर किसने ज़हर उलीचा। हरी भरी खेती पर ओले गिरे, पड़ गया पाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। जब भूखा बंगाल, तड़प मर गया ठोककर क़िस्मत बीच हाट में बिकी तुम्हारी माँ बहनों की अस्मत। जब कुत्तों की मौत मर गए बिलख-बिलख नर-नारी कहाँ कई थी भाग उस समय मर्दानगी तुम्हारी। तब अन्यायी का गढ़ तुमने क्यों न चूर कर डाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला। पुरखों का अभिमान तुम्हारा और वीरता देखी, राम-मुहम्मद की संतानो व्यर्थ न मारो शेख़ी। सर्वनाश की लपटों में सुख-शांति झोंकनेवालो भोले बच्चों, अबलाओं के छुरा भोंकनेवालो। ऐसी बर्बरता का इतिहासों में नहीं हवाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। घर-घर माँ की कलख पिता की आह, बहन का क्रंदन हाय, दुधमुँहे बच्चे भी हो गए तुम्हारे दुश्मन? इस दिन की ख़ातिर ही थी शमशीर तुम्हारी प्यासी? मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी रहे न भारतवासी। हँसते हैं सब देख ग़ुलामों का यह ढंग निराला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। जाति-धर्म-गृह-हीन युगों का नंगा-भूखा-प्यासा आज सर्वहारा तू ही है एक हमारी आशा। ये छल-छंद शोषकों के हैं कुत्सित, ओछे, गंदे तेरा ख़ून चूसने को ही ये दंगों के फँदे। तेरा एका, गुमराहों को राह दिखानेवाला। मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला। -शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
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फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
पलकों के पलने पर प्रेयसि यदि क्षण भर तुम्हें झुला न सका विश्रांत तुम्हारी गोदी में अपना सुख-दुःख भुला न सका क्यों तुममें इतना आकर्षण, क्यों कनक वलय की खनन-खनन फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन आहों से शोले, नयनों से निकली यदि चिनगारी न प्रखर अधरों में भर असीम तृष्णा यदि पी न सका अहरह सागर लेकर इतनी वेदना व्यथा, किस योग मिला फिर यह यौवन फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन अपने क्रंदन को निर्बल के रोदन में अगर मिला न सका हाहाकारी चीत्कारों से प्रस्तर उर हाय हिला न सका बन मन की मुखरित आकांक्षा, किस अर्थ मिला फिर चिर-क्रंदन फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन निश्वासों की तापों से यदि शोषक हिमदुर्ग गला न सका उर उच्छ्वासों की लपटों से सोने के महल जला न सका क्यों भाव प्रबल, क्यों स्वर लयमय, किस काम हमारा यह गायन फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन यदि निपट निरीहों का संबल बनने की तुझमें शक्ति न थी यदि मानव बन मानवता के हित मिटने की अनुरक्ति न थी क्यों आह कर उठा था उस दिन, क्यों बिखर पड़े थे कुछ जलकण फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन अग्नि-स्फुलिंग-मय वाणी से पल पल पावक कण फूँक-फूँक यदि कर न सका परवशता की यह लौह शृंखला टूट-टूक क्यों बलिदानी इतना आतुर, क्यों आज बेड़ियों की झनझन फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन यदि अटल साधना के बल पर कर पाया विष मधुपेय नहीं यदि आत्म-विसर्जन कर तुममें पाया अपना चिर-ध्येय नहीं क्यों जग-जग में परिवर्तन मिस, बनता मिटता रहता कण-कण फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन। -शिवमंगल सिंह सुमन
आज देश की मिट्टी बोल उठी है
लौह-पदाघातों से मर्दित हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी रक्तधार से सिंचित पंकिल युगों-युगों से कुचली रौंदी। व्याकुल वसुंधरा की काया नव-निर्माण नयन में छाया। कण-कण सिहर उठे अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका शेषनाग फूत्कार उठे साँसों से निःसृत अग्नि-शलाका। धुआँधार नभी का वक्षस्थल उठे बवंडर, आँधी आई, पदमर्दिता रेणु अकुलाकर छाती पर, मस्तक पर छाई। हिले चरण, मतिहरण आततायी का अंतर थर-थर काँपा भूसुत जगे तीन डग में । बावन ने तीन लोक फिर नापा। धरा गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है। आज देश की मिट्टी बोल उठी है। आज विदेशी बहेलिए को उपवन ने ललकारा कातर-कंठ क्रौंचिनी चीख़ी कहाँ गया हत्यारा? कण-कण में विद्रोह जग पड़ा शांति क्रांति बन बैठी, अंकुर-अंकुर शीश उठाए डाल-डाल तन बैठी। कोकिल कुहुक उठी चातक की चाह आग सुलगाए शांति-स्नेह-सुख-हंता दंभी पामर भाग न जाए। संध्या-स्नेह-सँयोग-सुनहला चिर वियोग सा छूटा युग-तमसा-तट खड़े मूक कवि का पहला स्वर फूटा। ठहर आततायी, हिंसक पशु रक्त पिपासु प्रवंचक हरे भरे वन के दावानल क्रूर कुटिल विध्वंसक। देख न सका सृष्टि शोभा वर सुख-समतामय जीवन ठट्ठा मार हँस रहा बर्बर सुन जगती का क्रंदन। घृणित लुटेरे, शोषक समझा पर धन-हरण बपौती तिनका-तिनका खड़ा दे रहा तुझको खुली चुनौती। जर्जर-कंकालों पर वैभव का प्रासाद बसाया भूखे मुख से कौर छीनते तू न तनिक शरमाया। तेरे कारण मिटी मनुजता माँग-माँग कर रोटी नोची श्वान-शृगालों ने जीवित मानव की बोटी। तेरे कारण मरघट-सा जल उठा हमारा नंदन, लाखों लाल अनाथ लुटा अबलाओं का सुहाग-धन। झूठों का साम्राज्य बस गया रहे न न्यायी सच्चे, तेरे कारण बूँद-बूँद को तरस मर गए बच्चे। लुटा पितृ-वात्सल्य मिट गया माता का मातापन मृत्यु सुखद बन गई विष बना जीवन का भी जीवन। तुझे देखना तक हराम है छाया तलक अखरती तेरे कारण रही न रहने लायक सुंदर धरती रक्तपात करता तू धिक्-धिक् अमृत पीनेवालो, फिर भी तू जीता है धिक्-धिक् जग के जीनेवालो! देखें कल दुनिया में तेरी होगी कहाँ निशानी? जा तुझको न डूब मरने को भी चुल्लू भर पानी। शाप न देंगे हम बदला लेने को आन हमारी बहुत सुनाई तूने अपनी आज हमारी बारी। आज ख़ून के लिए ख़ून गोली का उत्तर गोली हस्ती चाहे मिटे, न बदलेगी बेबस की बोली। तोप-टैंक-एटमबम सबकुछ हमने सुना-गुना था यह न भूल मानव की हड्डी से ही वज्र बना था। कौन कह रहा हमको हिंसक आपत् धर्म हमारा, भूखों नंगों को न सिखाओ शांति-शांति का नारा। कायर की सी मौत जगत में सबसे गर्हित हिंसा जीने का अधिकार जगत में सबसे बड़ी अहिंसा। प्राण-प्राण में आज रक्त की सरिता खौल उठी है। आज देश की मिट्टी बोल उठी है। इस मिट्टी के गीत सुनाना कवि का धन सर्वोत्तम अब जनता जनार्दन ही है मर्यादा-पुरुषोत्तम। यह वह मिट्टी जिससे उपजे ब्रह्मा, विष्णु, भवानी यह वह मिट्टी जिसे रमाए फिरते शिव वरदानी। खाते रहे कन्हैया घर-घर गीत सुनाते नारद, इस मिट्टी को चूम चुके हैं ईसा और मुहम्मद। व्यास, अरस्तू, शंकर अफ़लातून के बँधी न बाँधी बार-बार ललचाए इसके लिए बुद्ध औ' गाँधी। यह वह मिट्टी जिसके रस से जीवन पलता आया, जिसके बल पर आदिम युग से मानव चलता आया। यह तेरी सभ्यता संस्कृति इस पर ही अवलंबित युगों-युगों के चरणचिह्न इसकी छाती पर अंकित। रूपगर्विता यौवन-निधियाँ इन्हीं कणों से निखरी पिता पितामह की पदरज भी इन्हीं कणों में बिखरी। लोहा-ताँबा चाँदी-सोना प्लैटिनम् पूरित अंतर छिपे गर्भ में जाने कितने माणिक, लाल, जवाहर। मुक्ति इसी की मधुर कल्पना दर्शन नव मूल्यांकन इसके कण-कण में उलझे हैं जन्म-मरण के बंधन। रोई तो पल्लव-पल्लव पर बिखरे हिम के दाने, विहँस उठी तो फूल खिले अलि गाने लगे तराने। लहर उमंग हृदय की, आशा- अंकुर, मधुस्मित कलियाँ नयन-ज्योति की प्रतिछवि बनकर बिखरी तारावलियाँ। रोमपुलक वनराजि, भावव्यंजन कल-कल ध्वनि निर्झर घन उच्छ्वास, श्वास झंझा नव-अंग-उभार गिरि-शिखर। सिंधु चरण धोकर कृतार्थ अंचल थामे छिति-अंबर, चंद्र-सूर्य उपकृत निशिदिन कर किरणों से छू-छूकर। अंतस्ताप तरल लावा करवट भूचाल भयंकर अंगड़ाई कलपांत प्रणय-प्रतिद्वंद्व प्रथम मन्वंतर। किस उपवन में उगे न अंकुर कली नहीं मुसकाई अंतिम शांति इसी की गोदी में मिलती है भाई। सृष्टिधारिणी माँ वसुंधरे योग-समाधि अखंडित, काया हुई पवित्र न किसकी चरण-धूलि से मंडित। चिर-सहिष्णु, कितने कुलिशों को व्यर्थ नहीं कर डाला जेठ-दुपहरी की लू झेली माघ-पूस का पाला। भूखी-भूखी स्वयं शस्य-श्यामला बनी प्रतिमाला, तन का स्नेह निचोड़ अँधेरे घर में किया उजाला। सब पर स्नेह समान दुलार भरे अंचल की छाया इसलिए, जिससे बच्चों की व्यर्थ न कलपे काया। किंतु कपूतों ने सब सपने नष्ट-भ्रष्ट कर डाले, स्वर्ग नर्क बन गया पड़ गए जीने के भी लाले। भिगो-भिगो नख-दंत रक्त में लोहित रेखा रचा दी, चाँदी की टुकड़ों की ख़ातिर लूट-खसोट मचा दी। कुत्सित स्वार्थ, जघन्य वितृष्णा फैली घर-घर बरबस, उत्तम कुल पुलस्त्य का था पर स्वयं बन गए राक्षस। प्रभुता के मद में मदमाते पशुता के अभिमानी बलात्कार धरती की बेटी से करने की ठानी। धरती का अभिमान जग पड़ा जगा मानवी गौरव, जिस ज्वाला में भस्म हो गया घृणित दानवी रौरव। आज छिड़ा फिर मानव-दानव में संघर्ष पुरातन उधर खड़े शोषण के दंभी इधर सर्वहारागण। पथ मंज़िल की ओर बढ़ रहा मिट-मिट नूतन बनता त्रेता बानर भालु, जगी अब देश-देश की जनता। पार हो चुकी थीं सीमाएँ शेष न था कुछ सहना, साथ जगी मिट्टी की महिमा मिट्टी का क्या कहना? धूल उड़ेगी, उभरेगी ही जितना दाबो-पाटो, यह धरती की फ़सल उगेगी जितना काटो-छाँटो। नव-जीवन के लिए व्यग्र तन-मन-यौवन जलता है हृदय-हृदय में, श्वास-श्वास में बल है, व्याकुलता है। वैदिक अग्नि प्रज्वलित पल में रक्त मांस की बलि अंजुलि में पूर्णाहुति-हित उत्सुक होता अब कैसा किससे समझौता? बलिवेदी पर विह्वल-जनता जीवन तौल उठी है आज देश की मिट्टी बोल उठी है। -शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
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जेल में आती तुम्हारी याद
प्यार जो तुमने सिखाया वह यहाँ पर बाँध लाया प्रीति के बंदी नहीं करते कभी फ़रियाद जेल में आती तुम्हारी याद। बात पर अपनी अड़ा हूँ सींकचे पकड़े खड़ा हूँ सकपकाया-सा खड़ा है सामने सय्याद जेल में आती तुम्हारी याद। विश्व मुझ पर आँख गाड़े मैं खड़ा छाती उघाड़े देख जिसको तेग़ कुंठित, कँप रहा जल्लाद जेल में आती तुम्हारी याद। दृढ़ दीवालें फोड़ दूँगा लौह कड़ियाँ तोड़ दूँगा कर नहीं सकतीं मुझे ये बेड़ियाँ बर्बाद जेल में आती तुम्हारी याद। सुमन उपवन में खिलेंगे और फिर हम तुम मिलेंगे किंतु जब हो जाएगा हिंदोस्ताँ आज़ाद जेल में आती तुम्हारी याद। -शिवमंगल सिंह सुमन
विद्रोह करो, विद्रोह करो
आओ वीरोचित कर्म करो मानव हो कुछ तो शर्म करो यों कब तक सहते जाओगे, इस परवशता के जीवन से विद्रोह करो, विद्रोह करो। जिसने निज स्वार्थ सदा साधा जिसने सीमाओं में बाँधा आओ उससे, उसकी निर्मित जगती के अणु-अणु कण-कण से विद्रोह करो, विद्रोह करो। मनमानी सहना हमें नहीं पशु बनकर रहना हमें नहीं विधि के मत्थे पर भाग्य पटक, इस नियति नटी की उलझन से विद्रोह करो, विद्रोह करो। विप्लव गायन गाना होगा सुख स्वर्ग यहाँ लाना होगा अपने ही पौरुष के बल पर, जर्जर जीवन के क्रंदन से विद्रोह करो, विद्रोह करो। क्या जीवन व्यर्थ गँवाना है कायरता पशु का बाना है इस निरुत्साह मुर्दा दिल से, अपने तन से, अपने तन से विद्रोह करो, विद्रोह करो। -शिवमंगल सिंह सुमन
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हम पंछी उन्मुक्त गगन के
हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाएँगे। हम बहता जल पीनेवाले मर जाएँगे भूखे-प्यास, कहीं भली है कटुक निबौरी कनक-कटोरी की मैदा से। स्वर्ण-शृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं तरु की फुनगी पर के झूले। ऐसे थे अरमान कि उड़ते नीले नभ की सीमा पाने, लाल किरण-सी चोंच खोल चुगते तारक-अनार के दाने। होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी, या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती साँसों की डोरी। नीड़ न दो, चाहे टहनी का आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो, लेकिन पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो। -शिवमंगल सिंह सुमन
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