भारत का संविधान केवल एक कागज़ी दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह देश की मूल विचारधारा और देश की आत्मा का स्वरूप है। भारत के संविधान को उस समय लिखना पड़ा जब देश अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ। बता दें कि बंटवारा, सामाजिक असमानता और आर्थिक तंगी जैसे कई हालात संविधान निर्माण के समय मौजूद थे। इसलिए इस ब्लॉग में आपको ‘संविधान की आवश्यकता किन परिस्थितियों में हुई’, से जुड़ी विस्तृत जानकारी मिलेगी। आइए विस्तार से जानते हैं ‘संविधान की आवश्यकता किन परिस्थितियों में हुई?
संविधान की आवश्यकता किन परिस्थितियों में हुई
भारत के संविधान की आवश्यकता बहुत से घटनाओं और जुल्मों के बाद पड़ी, जब बहुत से सामाजिक-राजनीतिक कारक आपस में जुड़े। सदियों से चल रहे ब्रिटिश शासन के जुल्मों ने भारतीयों में स्वतंत्रता की प्यास जगाई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उभरे समानता, न्याय और स्वतंत्रता के आदर्शों को एक ऐसे स्थायी कानूनी ढांचे में स्थापित करने की आवश्यकता थी, जो भविष्य में इन मूल्यों की रक्षा कर सके।
बता दें कि विभाजन की त्रासदी ने एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण की अनिवार्यता को और अधिक बल दिया जहाँ सभी समुदायों के अधिकार सुरक्षित हों और अल्पसंख्यक वर्गों को बहुसंख्यकवाद के भय से मुक्ति मिले। एक नए, स्वतंत्र राष्ट्र के सामने शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने, विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों को एकजुट रखने और विकास की दिशा तय करने जैसी चुनौतियाँ थीं, जिनके लिए एक सर्वमान्य और सर्वोच्च कानून की आवश्यकता महसूस हुई। इस प्रकार, भारत के संविधान की आवश्यकता एक ऐसे मजबूत नींव की तलाश थी जिस पर एक स्वतंत्र भारत का निर्माण किया जा सके, जो अपने सभी नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता का वचन दे सके। यहाँ आपके लिए संविधान की परिस्तिथियाँ और इससे जुड़ी विस्तृत जानकारी को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है –
आज़ादी के बाद क्या हुआ
भारत को जब अंग्रेजों से 15 अगस्त 1947 में जब आज़ादी मिली। देश दो हिस्सों में बट गया, भारत से अलगकर पाकिस्तान देश बनाया गया। जिससे कई लोग विस्थापित हुए। लोगों में उथल-पुथल मच गयी थी, लाखों की संख्या में लोग मारे जा रहे थे। असुरक्षा, डर और घबराहट का माहौल था। हिंसा, दंगे और हत्या जैसी घटनाएं मानो आम सी हो गयी। ऐसे में सरकार के मुख्य कदम देश में शांति बनाये रखने और कानून व्यवस्था कायम रखना था। ऐसे में एक समावेशी और मजबूत संविधान बनाने की आवश्यकता थी। जो देश को सही दिशा और नागरिको को उनका अधिकार दे सके।
भारत विभाजन के बाद भटकते लोग
भारत-पकिस्तान का जब बंटवारा हुआ तो लाखों लाखों लोगों को बेघर होना पड़ा अपनी ज़मीन ज्यादाद छोड़कर एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ा। जगह छोड़ने जैसी मजबूरी के अलावा लोगों के पास कोई और चारा भी नहीं था। भारत में भारी संख्या में रेफ्यूजी आए, जिनका रहना, खाना, सुरक्षा और रोजगार का प्रबंध करना आवश्यक था। सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती थी की कैसे एक संविधान बनाया जाए, जिसमें लोगों की ये सारी मुश्किलें हल हो जाएं और लोगों को आत्मसम्मान के साथ समान अधिकार मिले।
भारत में जाति प्रथा और सामाजिक असमानता
भारत में छुआछूत, ऊंच-नीच, जात-पात का भेदभाव आम था। महिलाओं की स्थिति बहुत कमजोर थी और उन्हें शिक्षा, रोजगार और समान अधिकार का कोई अधिकार नहीं था। भारत का समाज उस समय गहरी असमानताओं से जूझ रहा था।
वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के समय, जाति प्रथा देश में सामाजिक असमानता का एक जटिल और ऐतिहासिक रूप से स्थापित ढांचा थी। यह मुख्य रूप से दो स्तरों में विभाजित थी:
- वर्ण: यह व्यक्तियों के व्यवसाय और भूमिका पर आधारित एक सैद्धांतिक सामाजिक वर्गीकरण था। आसान भाषा में कहा जाए तो व्यक्तियों के व्यवसाय और भूमिका के आधार पर चार वर्ण जैसे – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और इनसे बाहर दलित के आधार पर समाज को पहचान मिलती थी।
- जाति: यह जन्म के आधार पर निर्धारित होती थी और पूरे परिवार में हस्तांतरित होती थी। जबकि वर्ण व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से प्रतिभा पर आधारित मानी जाती थी, जाति जन्मजात और अपरिवर्तनीय मानी जाती थी।
ब्रिटिश शासन के दौरान, इस प्राचीन व्यवस्था को और अधिक सुदृढ़ किया गया, जिससे यह स्वतंत्रता के समय भारतीय समाज में एक गहरी जड़ें जमा चुकी वास्तविकता बन गई। जाति ने सामाजिक संरचना, आर्थिक अवसरों और राजनीतिक भागीदारी को गहराई से प्रभावित किया। स्वतंत्रता के बाद, भारत के सामने यह चुनौती थी कि वह इस असमानतापूर्ण व्यवस्था को संबोधित करे और सभी नागरिकों के लिए सामाजिक न्याय और समानता स्थापित करे।
इन सारी चीज़ों को मध्यनज़र रखते हुए संविधान को इस तरह से बनाया गया कि उसमें सामाजिक न्याय,समानता, और स्वतंत्रता को प्रमुख स्थान दिया गया।
ब्रिटिश कानून से आज़ादी
ब्रिटिश रूल जब चल रहा था तब बहुत से ऐसे कानून थे जो भारतीयों और उनके अधिकारों को दबाते थे। रौलट एक्ट, डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट, जैसे अन्य कई कानून थे जो जो नागरिकों की स्वतंत्रता के विरुद्ध थे। भारतवासियों को आपने ही देश में दूसरे दर्जे पर रखा गया था।
भाषाई विविधिता
भारत में अनेक धर्म, भाषाएं, जातियां और संस्कृतियां पाई जाती हैं। यह विविधता किसी अन्य देश में नहीं है। ऐसी स्थिति में एक ऐसा संविधान बनाना था जो सभी समुदायों को समान अधिकार दे सके। धर्मनिरपेक्षता को अपनाकर यह सुनिश्चित किया गया कि कोई भी धर्म, भाषा या जाति, राज्य द्वारा विशेष प्राथमिकता न पाए।
स्वतंत्र संग्राम के आदर्श
भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल विदेशी हुकूमत से मुक्ति पाने का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह समानता, न्याय, स्वतंत्रता, और लोकतंत्र की स्थापना के लिए भी था। संविधान को इन सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करना था ताकि स्वतंत्र भारत इन आदर्शों पर चले। नेताओं ने इन मूल्यों को स्वतंत्र भारत की नींव बताया। कुछ नाम नीचे दिए गए हैं:
- गांधीजी
- नेहरू
- सुभाष चंद्र बोस
- सरदार बल्लवभाई पटेल
इनके अलावा भी कई अन्य महत्वपूर्ण नेता थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया, जिनमें से कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं:
- भगत सिंह
- लाला लाजपत राय
- बाल गंगाधर तिलक
- गोपाल कृष्ण गोखले
- सरोजिनी नायडू
- डॉ. बी.आर. अम्बेडकर
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
- राजेंद्र प्रसाद
- चित्तरंजन दास
लोकतंत्र का निर्माण
संविधान निर्माताओं ने यह निर्णय लिया कि भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया जाएगा। इसका मतलब था कि सत्ता का स्रोत जनता होगी। हर व्यक्ति को समान मताधिकार मिलेगा। सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होगी।
अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन
भारत के संविधान निर्माताओं ने दुनिया के कई देशों के संविधान का अध्ययन किया:
- अमेरिका से मौलिक अधिकारों की अवधारणा ली गई।
- ब्रिटेन से संसदीय प्रणाली।
- आयरलैंड से नीति निदेशक तत्व।
- कनाडा से संघीय ढांचा।
संविधान सभा का गठन
संविधान सभा के इस गठन में विभिन्न क्षेत्रों, वर्गों और समुदायों के प्रतिनिधि थे, जिसमें ये सुनिश्चित हुआ कि संविधान सबकी आवाज़ को दर्शाए:
- संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ।
- इसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे और प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर थे।
- संविधान बनाने में 2 साल, 11 महीने और 18 दिन लगे थे।
- 26 नवंबर 1949 को संविधान बनकर तैयार हुआ और 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ था।
महिलाओं की हिस्सेदारी
भारतीय संविधान का निर्माण बेहद चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में हुआ, लेकिन यह संविधान विश्व के सबसे मजबूत और व्यापक संविधानों में से एक बनकर उभरा। इसमें भारत की विविधता को सम्मान, समानता को प्राथमिकता और न्याय को केंद्र में रखा गया है। उस समय महिलाओं की स्थिति कमजोर थी, लेकिन संविधान सभा में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित किया गया। महिला अधिकारों, समान वेतन, शिक्षा और संपत्ति अधिकार को संविधान में स्थान दिया गया। यह संविधान न केवल कानूनों का संग्रह है, बल्कि यह भारत के भविष्य का मार्गदर्शक भी है। यह देशवासियों को उनके अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों की भी याद दिलाता है। यह उस संकल्प का प्रतीक है, जो भारत को एक एकजुट, मजबूत और न्यायप्रिय राष्ट्र बनाता है।
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FAQs
संविधान की आवश्यकता व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हुई।
संविधान पर हस्ताक्षर करने वाला पहला व्यक्ति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया 1946 में शुरू हुई जब संविधान सभा का गठन हुआ क्योंकि देश को ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद एक नया प्रशासनिक ढांचा चाहिए था।
संविधान ने देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास की एक स्पष्ट दिशा तय की जिससे भारत एक मजबूत और समावेशी राष्ट्र बन सके।
संविधान का उद्देश्य लोकतंत्र को शामिल करके भारत के नागरिकों को शासन करने की शक्ति प्रदान करना था।
भारतीय संविधान के अंग्रेजी संस्करण में लगभग 1,17,369 शब्द हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक परिचयात्मक कथन है जो संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों और मूल मूल्यों को रेखांकित करती है।
भारतीय संविधान पर प्रेम बिहारी नारायण रायजादा की लिखावट है।
भारत का संविधान 7 लोगों की एक समिति द्वारा लिखा गया था।
संविधान ने राष्ट्रीय संकटों और विवादों के समाधान के लिए एक स्पष्ट और वैधानिक प्रक्रिया प्रदान की जिससे देश में शांति और स्थिरता बनी रहे।
आशा करते हैं कि आपको ‘संविधान की आवश्यकता किन परिस्थितियों में हुई’ से संबंधित सम्पूर्ण जानकारी इस ब्लॉग में मिली होगी। UPSC और सामान्य ज्ञान से जुड़े ब्लॉग्स पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ जुड़े रहें।