Poem on Himalaya : हिमालय पर कविताएं, जो प्रकृति की अनमोल धरोहर का करेंगी महिमामंडन

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Poem on Himalaya in Hindi

हिमालय भारत के शीश पर सुसज्जित वह ताज है, जिसकी विशालता, प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक महत्व, और प्रेरणादायक छवि ने सदियों से संसार को आकर्षित और प्रेरित किया है। हिमालय प्रकृति की अद्भुत महिमा को परिभाषित करता एक ऐसा प्रतीक है, जिस पर भारत के कवियों ने अनेक भाषाओं में आकर्षित कविताएं और लेख लिखें हैं। ऐसी ही कई रचनाओं में हिमालय को दृढ़ निश्चय और साहस के रूप में सम्मानित किया गया है। प्रकृति की अनमोल धरोहर हिमालय की जैव विविधता, पर्यावरणीय महत्व, और इसे सुरक्षित रखने के उद्देश्य से हर साल 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाया जाता है। इस हिमालय दिवस पर आप प्रकृति की इस महान धरोहर पर कुछ विशेष कविताएं पढ़ सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको हिमालय पर कविताएं (Poem on Himalaya in Hindi) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जिनके माध्यम से आप प्रकृति की अनमोल धरोहर का महिमामंडन कर पाएंगे।

हिमालय पर कविताएं – Poem on Himalaya in Hindi

हिमालय पर कविताएं (Poem on Himalaya in Hindi) पढ़कर आप प्रकृति को बेहद करीब से जान पाएंगे। ये कविता कुछ इस प्रकार हैं –

हिमालय

मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
'पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'

उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?

प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।

कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।

ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल

- रामधारी सिंह "दिनकर"

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हिमालय

युग-युग से है अपने पथ पर
देखो कैसा खड़ा हिमालय!
डिगता कभी न अपने प्रण से
रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!

ज- जो भी बाधायें आईं
उन सब से ही लड़ा हिमालय,
इसीलिए तो दुनिया भर में
हुआ सभी से बड़ा हिमालय!

अगर न करता काम कभी कुछ
रहता हरदम पड़ा हिमालय
तो भारत के शीश चमकता
नहीं मुकुट-सा जड़ा हिमालय!

खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आँधी पानी में,
खड़े रहो अपने पथ पर
सब कठिनाई तूफानी में!

डिगो न अपने प्रण से तो
सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
तुम भी ऊँचे हो सकते हो
छू सकते नभ के तारे!!

अचल रहा जो अपने पथ पर
लाख मुसीबत आने में,
मिली सफलता जग में उसको
जीने में मर जाने में!

- सोहनलाल द्विवेदी

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हिमालय और हम

गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।

इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्‍तक नहीं झुकाता है।
ग‍िरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती।
फिर संध्‍या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्‍या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी?
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्‍त अपनाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

हर संध्‍या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी।।
कोई क्‍या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्‍या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।

- गोपाल सिंह नेपाली

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आज हिमालय की चोटी से

आज हिमालय की चोटी से फिर हम ने ललकरा है
दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है

जहाँ हमारा ताज-महल है और क़ुतब-मीनारा है
जहाँ हमारे मन्दिर मस्जिद सिखों का गुरुद्वारा है
इस धरती पर क़दम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है

शुरू हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठो हिन्दुस्तानी
तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी
आज सभी के लिये हमारा यही क़ौमी नारा है

- प्रदीप

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हाय, हिमालय ही पल में हो गया तिरोहित

हाय, हिमालय ही पल में हो गया तिरोहित
ज्योतिर्मय जल से जन धरणी को कर प्लावित!
हाँ, हिमाद्रि ही तो उठ गया धरा से निश्चित
रजत वाष्प सा अंतर्नभ में हो अंतर्हित!

आत्मा का वह शिखर, चेतना में लय क्षण में,
व्याप्त हो गया सूक्ष्म चाँदनी सा जन मन में!
मानवता का मेरु, रजत किरणों से मंडित,
अभी अभी चलता था जो जग को कर विस्मित
लुप्त हो गया : लोक चेतना के क्षत पट पर,
अपनी स्वर्गिक स्मृति की शाश्वत छाप छोड़कर!

आओ, उसकी अक्षय स्मृति को नींव बनाएँ,
उसपर संस्कृति का लोकोत्तर भवन उठाएँ!
स्वर्ण शुभ्र धर सत्य कलश स्वर्गोच्च शिखर पर
विश्व प्रेम में खोल अहिंसा के गवाक्ष वर!

- सुमित्रानंदन पंत

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उच्च हिमालय-सा अभिमान

अडिग हिमालय खड़ा हुआ है
आँधी हो या चाहे तूफान,
सुना रहा नीले अंबर को
भारत की महिमा का गान।

सुनो-सुनो यह बता रहा है
भारत का गौरव-इतिहास,
भारत जिसने दुनिया बदली-
दिया सभी को शुभ्र उजास।

इसकी गोदी में लहराती
गंगा की पावन जलधार,
सिखलाता है, बढ़ो-बढ़ो तुम
जाओ कभी न हिम्मत हार।

आओ, भारत की सुंदरता
के गाएँ हम मिलकर गान,
और देश पर रखें सदा ही
उच्च हिमालय-सा अभिमान!

- प्रकाश मनु

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