अज्ञेय की कविताएं आज भी युवाओं को हिंदी साहित्य की ओर आकर्षित करती हैं, उनकी लेखनी ने सदा ही समाज को आईना दिखाने का काम किया है। अज्ञेय एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएं आज के समय में भी पूरी तरह प्रासंगिक हैं, उनकी कविताएं समाज को गहन, सशक्त, और आधुनिक हिंदी साहित्य में एक नई दृष्टि प्रदान करती हैं। ‘अज्ञेय’ का सारा जीवन हिंदी साहित्य के प्रति समर्पित रहा, जिसमें उन्होंने अपनी लेखनी से समय-समय पर समाज की चेतना जगाने के सफल प्रयास किए। इस ब्लॉग में आप हिंदी साहित्य के अनमोल खजाने में से अज्ञेय की कविताएं (Agyeya Poems) पढ़ पाएंगे, जो आपका जीवनभर मार्गदर्शन करेंगी। यहाँ दी गई कविताएं आपको प्रोत्साहित करेंगी, जो सदा के लिए बनकर रह गयीं संवेदना, सृजन और विद्रोह का बुलंद स्वर।
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अज्ञेय जी का जीवन परिचय
भारतीय साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि अज्ञेय भी थे, जिनका पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय था। 7 मार्च 1911 को अज्ञेय का जन्म उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था। हिंदी साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा एक बहुमुखी प्रतिभासंपन्न कवि, संपादक, ललित-निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में मानी जाती है। अज्ञेय की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई थी, जिसमें उन्होंने संस्कृत, फ़ारसी, अँग्रेज़ी और बांग्ला भाषा और साहित्य की शिक्षा प्राप्त की।
अज्ञेय की महान रचनाओं के कारण उन्हें वर्ष 1964 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 1978 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सदी के महान क्रांतिकारी कवि अज्ञेय ने 4 अप्रैल 1987 को नई दिल्ली में अपनी अंतिम साँस ली।
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अज्ञेय की कविताएं – Ashok Vajpeyi Poems
अज्ञेयकी कविताएं (Agyeya Poems) समाज का दर्पण कहलाती हैं, जिसने सदैव समाज का सच से सामना करवाया है, वे कुछ इस प्रकार हैं –
- उधार
- हवाएँ चैत की
- मैं ने देखा, एक बूँद
- नया कवि : आत्म-स्वीकार
- अरे ! ऋतुराज आ गया !!
- शिशिर ने पहन लिया
- मेरे देश की आँखें
- वसंत आ गया
- शब्द और सत्य
- नदी के द्वीप
- मन बहुत सोचता है
- मुझे तीन दो शब्द
- जो पल बनाएंगे
- असाध्य वीणा
- क्योंकि तुम हो
- शरद
- यह दीप अकेला
- वन झरने की धार
- देखिये न मेरी कारगुज़ारी
- सत्य तो बहुत मिले
- जो कहा नही गया
- चांदनी जी लो
- मैंने आहुति बन कर देखा
- ताजमहल की छाया में
- ये मेघ साहसिक सैलानी
- उड़ चल हारिल
- हँसती रहने देना
- सर्जना के क्षण
- वसीयत
- प्रतीक्षा-गीत
- सारस अकेले
- दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब
- पराजय है याद
- मैं वह धनु हूँ
- पानी बरसा
- साँप
- दूर्वांचल
- कतकी पूनो
- खुल गई नाव
- क्वाँर की बयार
- प्रथम किरण
- उषा-दर्शन
- योगफल
- सर्जना के क्षण
- शब्द और सत्य
- औद्योगिक बस्ती
- रात में गाँव
- मैं ने देखा : एक बूंद
- अनुभव-परिपक्व
- आंगन के पार द्वार खुले
- वासंती
- अलाव
- जो पुल बनाएंगे
- फूल की स्मरण-प्रतिमा
- जाड़ों में
- याद
- विपर्यय
- काँपती है
- हमारा देश
- क्योंकि मैं
- पक गई खेती
- हीरो
- शोषक भैया
- रात होते-प्रात होते
- देना-पाना
- प्राण तुम्हारी पदरज़ फूली
- पराजय है याद
- चाँदनी चुपचाप सारी रात
- तुम्हारी पलकों का कँपना
- खुल गई नाव
- सम्भावनाएँ
- कलगी बाजरे की
- मैंने पूछा क्या कर रही हो
- एक ऑटोग्राफ
- शरणार्थी-6 समानांतर साँप
- पूनो की साँझ
- नंदा देवी
- नये कवि से
- पाठक के प्रति कवि इत्यादि।
उधार
सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी। मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी— तिनके की नोक-भर? शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी— किरण की ओक-भर? मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास, लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास। मैने आकाश से मांगी आँख की झपकी-भर असीमता—उधार। सब से उधार मांगा, सब ने दिया । यों मैं जिया और जीता हूँ क्योंकि यही सब तो है जीवन— गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला, गन्धवाही मुक्त खुलापन, लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह, और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का: ये सब उधार पाये हुए द्रव्य। रात के अकेले अन्धकार में सामने से जागा जिस में एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर मुझ से पूछा था: "क्यों जी, तुम्हारे इस जीवन के इतने विविध अनुभव हैं इतने तुम धनी हो, तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा— और वह भी सौ-सौ बार गिन के— जब-जब मैं आऊँगा?" मैने कहा: प्यार? उधार? स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार । उस अनदेखे अरूप ने कहा: "हाँ, क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं— यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट, आर्त अनुभव, यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय विरह व्यथा, यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि जो मेरा है वही ममेतर है यह सब तुम्हारे पास है तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार— मुझे जो चरम आवश्यकता है। उस ने यह कहा, पर रात के घुप अंधेरे में मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ: अनदेखे अरूप को उधार देते मैं डरता हूँ: क्या जाने यह याचक कौन है? -अज्ञेय
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हवाएँ चैत की
बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की कट गईं पूलें हमारे खेत की कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की गिन रहा होगा महाजन सेंत की। -अज्ञेय
मैं ने देखा, एक बूँद
मैं ने देखा एक बूंद सहसा उछली सागर के झाग से रंगी गई क्षण-भर ढलते सूरज की आग से। मुझ को दीख गया: सूने विराट के सम्मुख हर आलोक-छुआ अपनापन है उन्मोचन नश्वरता के दाग से। -अज्ञेय
नया कवि : आत्म-स्वीकार
किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ में जोड़ दिया । कोई मधुकोष काट लाया था, मैंने निचोड़ लिया । किसी की उक्ति में गरिमा थी मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया, किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया । कोई हुनरमन्द था: मैंने देखा और कहा, 'यों!' थका भारवाही पाया - घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!' किसी की पौध थी, मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली। किसी की लगाई लता थी, मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली । किसी की कली थी मैंने अनदेखे में बीन ली, किसी की बात थी मैंने मुँह से छीन ली । यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ: काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ? चाहता हूँ आप मुझे एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें । पर प्रतिमा--अरे, वह तो जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें । -अज्ञेय
अरे ! ऋतुराज आ गया !!
शिशर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल गंध बह उड़ रहा पराग धूल झूले काँटे का किरीट धारे बने देवदूत पीत वसन दमक रहे तिरस्कृत बबूल अरे! ऋतुराज आ गया!! -अज्ञेय
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शब्द और सत्य
यह नहीं कि मैंने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझको शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है :
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाए रहते हैं
मैं कब, कैसे, उनके अनदेखे
उसमें सेंध लगा दूँ
या भरकर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ?
कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है :
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ—
दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।
-अज्ञेय
नदी के द्वीप
हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हम को छोड़ कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत कूल,
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप।
हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी या धार बन सकते?
रेत बन कर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
द्वीप हैं हम।
यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड़ में।
वह बृहद् भूखंड से हमको मिलती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी, तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, संस्कार देती चलो :
यदि ऐसा कभी हो
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से—अतिचार
से—
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे,
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाश कीर्तिनाशा घोर
काल-प्रवाहिनी बन जाए
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर
फिर छिनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
-अज्ञेय
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मन बहुत सोचता है
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?
शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!
नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए!
-अज्ञेय
मुझे तीन दो शब्द
मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊँ।
एक शब्द वह जो न कभी जिह्वा पर लाऊँ,
और दूसरा : जिसे कह सकूँ
किंतु दर्द मेरे से जो ओछा पड़ता हो।
और तीसरा : खरा धातु, पर जिसको पाकर पूछूँ—
क्या न बिना इसके भी काम चलेगा? और मौन रह जाऊँ।
मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊँ।
-अज्ञेय
जो पुल बनाएँगे
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे।
-अज्ञेय
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असाध्य वीणा
आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह!
राजा ने आसन दिया। कहा :
‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझको
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!’
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़। लाए असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको, हट गए।
सभी की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गईं
प्रियंवद के चेहरे पर।
‘यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से
—घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी—
बहुत समय पहले आई थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किंतु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढ़ा था—
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उस की करि-शुंडों-सी डालें
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और—सुना है—जड़ उसकी जा पहुँची थी पाताल-लोक,
उस की ग्रंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि
सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढ़ा :
हठ-साधना यही थी उस साधक की—
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।’
राजा रुके साँस लंबी लेकर फिर बोले :
‘मेरे हार गए सब जाने-माने कलावंत,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ्र-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
इसे जब सच्चा-स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारी
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन-मात्र प्रतीक्षमाण!’
केशकंबली गुफा-गेह ने खोला कंबल।
धरती पर चुप-चाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला : ‘राजन्! पर मैं तो
कलावंत हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ—
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमंत्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गद्-गद् विह्वल कर देने वाला है!’
चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी—अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकंबली अथवा होकर पराभूत
झुक गया वाद्य पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पंदित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा—
नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था।
सघन निविड में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को।
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भर की साधना रही?
भूल गया था केशकंबली राजा-सभा को :
कंबल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित वही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कंधे पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य।
संबोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
‘ओ विशाल तरु!
शत्-सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गए गुँजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनकथ मंगल-गान सुनाए,
साँझ-सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा-काकलि
डाली-डाली को कँपा गई—
ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृंदगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे!
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गई वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वयं न जाने कितनों के स्पंदित प्राण रच गए!
‘नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे,
किंतु मैं ही तो
तेरी गोद बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
ओ तरु-तात! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाए :
मैं सुनूँ,
गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ
तेरे अनुभव का एक-एक अंत:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय—
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पाएँ।
‘गा तू!
यह वीणा रक्खी है : तेरा अंग-अपंग!
किंतु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद्
तू गा :
मेरे अँधियारे अंतस् में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का—
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा!
‘हाँ, मुझे स्मरण है :
बदली—कौंध—पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट।
घनी रात में महुए का चुप-चाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निदान।
कुहरे में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रियों की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन—इतनी कोमल, तरल
कि झरते-झरते मानो
हरसिंगार का फूल बन गई।
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजों का क्रेंकार। काँद लंबी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनों में गंध-अंध उन्मद पतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रताप का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय-साँय।
‘हाँ, मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छप्-छड़ाप।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
ओले की कर्री चपत।
जमे पाले से तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घाम में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुप-चाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूँज—
काँपती मंद्र गूँज—अनुगूँज—साँस खोई-सी, धीरे-धीरे नीरव।
‘मुझे स्मरण है :
हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाविध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख़, भूक, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप
थाप दादुर की चकित छलाँगों की।
पंथी के घोड़े की टाप अधीर।
अचंचल धीर थाप भैंसों के भारी खुर की।
‘मुझे स्मरण है :
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुँजार—
उस लंबे विलमे क्षण का तंद्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है—
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशीर्वाद—
उस संधि-निमिष की पुलकन लीयमान।
‘मुझे स्मरण है :
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कंपन लेता है मुझको मुझसे सोख—
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ।…
मुझे स्मरण है—
पर मझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं—
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।
‘मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!
ओ रे तरु! ओ वन!
ओ स्वर-संभार!
नाद-मय संसृति!
ओ रस-प्लावन!
मुझे क्षमा कर—भूल अकिंचनता को मेरी—
मुझे ओट दे—ढँक ले—छा ले—
ओ शरण्य!
मेरे गूँगेपन को तेरे साए स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!
आ, मुझे भुला,
तू उतर वीन के तारों में
अपने से गा—
अपने को गा—
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!
तू गा, तू गा—
तू सन्निधि पा—तू खो
तू आ—तू हो—तू गा! तू गा!’
राजा जागे।
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था—
काँपी थीं उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई लेकर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पदा रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे-धीरे-धीरे
डाल रहा था जाल हेम-तारों का।
सहसा वीणा झनझना उठी—
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गई—
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयंभू
जिसमें सोता है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय।
डूब गए सब एक साथ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।
राजा ने अलग सुना :
जय देवी यश:काय
वरमाल लिए
गाती थी मंगल-गीत,
दुंदभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हल्का हो आया था, मानो हो फूल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झर गए, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा।
रानी ने अलग सुना :
छँटती बदली में एक कौंध कह गई—
तुम्हारे ये मणि-माणक, कंठहार, पट-वस्त्र,
मेखला-किंकिणि—
सब अंधकार के कण हैं ये! आलोक एक है
प्यार अनन्य! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी।
सबने भी अलग-अलग संगीत सुना।
इसको
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओ का।
उसको
आतंक-मुक्ति का आश्वासन!
इसको
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक।
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुदबुद।
किसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।
एक किसी को जाल-फँसी मझली की तड़पन—
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल, गाहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ,
चौथे को मंदिर की ताल-युक्त घंटा-ध्वनि!
और पाँचवे को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छटे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की
अविराम थपक।
बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिए—
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल।
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की।
उसे युद्ध का ढोल।
इसे संझा-गोधूलि की लघु टुन-टुन—
उसे प्रलय का डमरू-नाद।
इसको जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उसको महाजृंभ विकराल काल!
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे—
हो रहे वंशवद, स्तब्ध :
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गई विलय।
वीणा फिर मूक हो गई।
साधु! साधु!
राजा सिंहासन से उतरे—
रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
जनता विह्वल कह उठी ‘धन्य!
हे स्वरजित्! धन्य! धन्य!’
संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक—मानो
गोदी में सोए शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाए, दीठ से दुलराती—
उठ खड़ा हुआ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला :
‘श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में—
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था—
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।’
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकंबली।
लेकर कंबल गेह-गुफा को चला गया।
उठ गई सभा। सब अपने-अपने काम लगे।
युग पलट गया।
प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई।
-अज्ञेय
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क्योंकि तुम हो
मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है
तारागण से एक शांति-सी छन-छन कर आती है
क्योंकि तुम हो।
फुटकी की लहरिल उड़ान
शाश्वत के मूक गान की स्वर लिपी-सी संझा के पट पर अँक जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नए अर्थ की
अनपहचाने अभिप्राय की किरण चमक जाती है
क्योंकि तुम हो।
जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था का आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है
क्योंकि तुम हो।
कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पंदन मैं भरता हूँ
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूँ
क्योंकि तुम हो।
तुम तुम हो; मैं—क्या हूँ?
ऊँची उड़ान, छोटे कृतित्व की लंबी परंपरा हूँ,
पर कवि हूँ स्रष्टा, द्रष्टा, दाता :
जो पाता हूँ अपने को भट्टी कर उसे गलाता-चमकाता हूँ
अपने को मट्टी कर उसका अंकुर पनपाता हूँ
पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा, अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूँ
क्योंकि तुम हो।
-अज्ञेय
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