Uday Prakash Poems : उदय प्रकाश, हिंदी साहित्य के आँगन का सम्मान बढ़ाने वाले उन कवियों में से एक हैं, जिनकी कविताएं साधारण और सरल भाषा में होते हुए भी गहरे भाव को खुद में समेटे हुए है। उदय प्रकाश की कविताएं वर्तमान में समाज का दर्पण बनने के साथ-साथ, समाज का मार्गदर्शन करने का काम करती हैं। उनकी कविताओं मेंजीवन के संघर्ष, सामाजिक विषमताएं, व्यक्तिगत अनुभव, और मानवीय भावनाओं का अद्भुत संगम मिलता है। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों ‘रात में हारमोनियम’, ‘अंबर में अबाबील’, ‘एक भाषा हुआ करती है’ ने युवाओं को भी हिंदी साहित्य की ओर आकर्षित किया है। इस ब्लॉग में आपको उदय प्रकाश की कविताएं (Uday Prakash Poems) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
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उदय प्रकाश की कविताएं – Uday Prakash Poems
उदय प्रकाश की कविताएं (Uday Prakash Poems) जिन्होंने लोगों के दिलों में अपना विशेष स्थान बनाया है, वे कुछ इस प्रकार हैं –
- नींव की ईंट हो तुम दीदी
- ताना बाना
- धन्य प्रिया तुम जागीं
- आँकड़े
- उस दिन गिर रही थी नीम की एक पत्ती
- एक अलग-सा मंगलवार
- तिब्बत
- एक भाषा हुआ करती है
- वे यहीं कहीं हैं
- डाकिया
- सुअर (दो)
- कुतुबमीनार की ऊँचाई
- पिंजड़ा
- वसंत
- मारना
- दिन
- रात
- शरारत
- दिल्ली
- घोड़े की सवारी
- मेरी बारी
- कुछ बन जाते हैं
- अब लौटें
- घर की दूरी
- रात का फूल
- रंगा-बिल्ला
- खेल
- गांधीजी
- दुआ
- व्यवस्था
- करीमन और अशर्फ़ी
- छींक
- पाँड़े जी
- चंकी पांडे मुकर गया है
- राजधानी में बैल 1
- राजधानी में बैल 2
- राजधानी में बैल 3
- राजधानी में बैल 4
- राजधानी में बैल 5
- राजधानी में बैल 6
- माँ इत्यादि।
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नींव की ईंट हो तुम दीदी
पीपल होतीं तुम पीपल, दीदी पिछवाड़े का, तो तुम्हारी खूब घनी-हरी टहनियों में हारिल हम बसेरा लेते हारिल होते हैं हमारी तरह ही घोंसले नहीं बनाते कहीं बसते नहीं कभी दूर पहाड़ों से आते हैं दूर जंगलों को उड़ जाते हैं पीपल की छाँह तुम्हारी तरह ही ठण्डी होती है दोपहर ढिबरी थीं दीदी तुम हमारे बचपन की आचार का तलछट तेल अपनी कपास की बाटी में सोखकर जलती रहीं हमने सीखे थे पहले-पहल अक्षर और अनुभवों से भरे किस्से तुम्हारी उजली साँस के स्पर्श में जलती रहीं तुम तुम्हारा धुआँ सोखती रहीं घर की गूंगी दीवारें छप्पर के तिनके-तिनके धुँधले होते गए और तुम्हारी थोड़ी-सी कठिन रौशनी में हम बड़े होते रहे नदी होतीं, तो हम मछलियाँ होकर किसी चमकदार लहर की उछाह में छुपते कभी-कभी बूँदें लेते सीपी बन किनारों पर चमकते चट्टान थीं दीदी तुम सालों पुरानी तुम्हारे भीतर के ठोस पत्थर में जहाँ कोई सोता नहीं निझरता, हमीं पैदा करते थे हलचल हमीं उड़ाते थे पतंग चट्टान थीं तुम और तुम्हारी चढ़ती उम्र के ठोस सन्नाटे में हमीं थे छोटे-छोटे पक्षी उड़ते तुम्हारे भीतर वहाँ झूले पड़े थे हमारी खातिर गुड्डे रखे थे हमारी खातिर मालदह पकता था हमारी खातिर हमारी गेंदें वहाँ गुम हो गई थीं दीदी, अब अपने दूसरे घर की नींव की ईंट हो तुम तो तुम्हारी नई दुनिया में भी होंगी कहीं हमारी खोई हुई गेंदें होंगे कहीं हमारे पतंग और खिलौने अब तो ढिबरी हुईं तुम नए आँगन की कोई और बचपन चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर सुनता होगा किस्से और यों दुनिया को समझता होगा हमारा क्या है, दिदिया री ! हारिल हैं हम तो आएँगे बरस-दो बरस में कभी दो-चार दिन मेहमान-सा ठहरकर फ़िर उड़ लेंगे कहीं और घोंसले नहीं बनाए हमने बसे नहीं आज तक कठिन है हमारा जीवन भी तुम्हारी तरह ही -उदय प्रकाश
ताना बाना
हम हैं ताना हम हैं बाना। हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना। नाद हमीं, अनुनाद हमीं, निश्शब्द हमीं, गंभीरा अंधकार हम, चांद-सूरज हम, हम कान्हां, हम मीरा। हमीं अकेले, हमीं दुकेले, हम चुग्गा, हम दाना। मंदिर-मस्जिद, हम गुरुद्वारा, हम मठ, हम बैरागी हमीं पुजारी, हमीं देवता, हम कीर्तन, हम रागी। आखत-रोली, अलख-भभूती, रूप घरें हम नाना। मूल-फूल हम, स्र्त बादल हम, हम माटी, हम पानी हमीं यहूदी-शेख-बरहमन, हरिजन हम क्रिस्तानी। पीर-अघोरी, सिद्ध औलिया, हमीं पेट, हम खाना। नाम-पता ना ठौर-ठिकाना, जात-धरम ना कोई मुलक-खलक, राजा-परजा हम, हम बेलन, हम लोई। हम ही दुलहा, हमीं बराती, हम फूंका, हम छाना। हम हैं ताना, हम हैं बाना। हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना। -उदय प्रकाश
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धन्य प्रिया तुम जागीं
धन्य प्रिया तुम जागीं ना जाने दुखभरी रैन में कब तेरी अँखियाँ लागीं । जीवन नदिया, बैरी केवट, पार न कोई अपना घाट पराया, देस बिराना, हाट-बाट सब सपना । क्या मन की, क्या तन की, किहनी अपनी अँसुअन पागी । दाना-पानी, ठौर-ठिकाना, कहाँ बसेरा अपना निस दिन चलना, पल-पल जलना, नींद भई एक छलना । पाखी रूख न पाएँ, अँखियाँ बरस-बरस की जागीं । प्रेम न साँचा, शपथ न साँचा, साँच न संग हमारा एक साँस का जीवन सारा, बिरथा का चौबारा । जीवन के इस पल फिर तुम क्यों जनम-जनम की लागीं । धन्य प्रिया तुम जागीं ना जाने दुखभरी रैन में कब तेरी अँखियाँ लागीं ...। -उदय प्रकाश
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आँकड़े
अब से तकरीबन पचास साल हो गए होंगे जब कहा जाता है कि गांधी जी ने अपने अनुयायियों से कहीं कहा था सोचो अपने समाज के आख़िरी आदमी के बारे में करो जो उसके लिए तुम कर सकते हो उसका चेहरा हर तुम्हारे कर्म में टंगा होना चाहिए तुम्हारी आंख के सामने अगर भविष्य की कोई सत्ता कभी यातना दे उस आख़िरी आदमी को तो तुम भी वही करना जो मैंने किया है अंग्रेजों के साथ आज हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि यह बात कहां कही गई होगी किसी प्रार्थना सभा में या किसी राजनीतिक दल की किसी मीटिंग में या पदयात्रा के दौरान थक कर किसी जगह पर बैठते हुए या अपने अख़बार में लिखते हुए लेकिन आज जब अभिलेखों को संरक्षित रखने की तकनीक इतनी विकसित है हम आसानी से पा सकते हैं उसका संदर्भ उसकी तारीख और जगह के साथ बाद में, उन्नीस सौ अड़तालीस की घटना का ब्यौरा हम सबको पता है सबसे पहले मारा गया गांधी को और फिर शुरू हुआ लगातार मारने का सिलसिला अभी तक हर रोज़ चल रही हैं सुनियोजित गोलियां हर पल जारी हैं दुरभिसंधियां पचास साल तक समाज के आख़िरी आदमी की सारी हत्याओं का आंकड़ा कौन छुपा रहा है? कौन है जो कविता में रोक रहा है उसका वृत्तांत? समकालीन संस्कृति में कहां छुपा है अपराधियों का वह एजेंट? -उदय प्रकाश
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उस दिन गिर रही थी नीम की एक पत्ती
नीम की एक छोटी सी पत्ती हवा जिसे उड़ा ले जा सकती थी किसी भी ओर जिसे देखा मैंने गिरते हुए आंखें बचाकर बायीं ओर उस तरफ़ आकाश जहां ख़त्म होता था या शुरू उस रोज़ कुछ दिन बीत चुके हैं या कई बरस आज तक और वह है कि गिरती जा रही है उसी तरह अब तक स्थगित करती समय को इसी तरह टूटता-फूटता अचानक किसी दिन आता है जीवन में प्यार अपनी दास्र्ण जर्जरता में पीला किसी हरे-भरे डाल की स्मृति से टूटकर अनाथ किसी पुराने पेड़ के अंगों से बिछुड़ कर दिशाहारा हवा में अनिश्चित दिशाओं में आह-आह बिलखता दीन और मलीन मेरे जीवन के अब तक के जैसे-तैसे लिखे जाते वाक्यों को बिना मुझसे पूछे इस आकस्मिक तरीके से बदलता हुआ मुझे नयी तरह से लिखता और विकट ढंग से पढ़ता हुआ इसके पहले यह जीवन एक वाक्य था हर पल लिखा जाता हुआ अब तक किसी तरह कुछ सांसों, उम्मीदों, विपदाओं और बदहवासियों के आलम में टेढ़ी-मेढ़ी हैंडराइटिंग में, कुछ अशुद्धियों और व्याकरण की तमाम ऐसी भूलों के साथ जो हुआ ही करती हैं उस भाषा में जिसके पीछे होती है ऐसी नगण्यता और मृत या छूटे परिजनों और जगहों की स्मृतियां प्यार कहता है अपनी भर्राई हुई आवाज़ में - भविष्य और मैं देखता हूं उसे सांत्वना की हंसी के साथ हंसी जिसकी आंख से रिसता है आंसू और शरीर के सारे जोड़ों से लहू वह नीम की पत्ती जो गिरती चली जा रही है इस निचाट निर्जनता में खोजती हुई भविष्य मैं उसे सुनाना चाहता हूं शमशेर की वह पंक्ति जिसे भूले हुए अब तक कई बरस हो गए । -उदय प्रकाश
एक अलग-सा मंगलवार
वह एक कोई भी दोपहर हो सकती थी कोई-सा भी एक मंगलवार जिसमें कोई-सा भी तीन बज सकता था एक कोई-सा ऐसा कुछ जिसमें यह जीवन यों ही-सा कुछ होता पर ऐसा होना नहीं था एक छांह जैसी कुछ जो मेज़ के ऊपर कांप रही थी थोड़ी-सी कटी-फटी धूप, जो चेहरे पर गिरती थी पसीने की कुछ बूंदे जो ओस बनती जाती थीं वह एक नन्हीं-सी लड़की आकाश से गिरती एक पत्ती से छू जाने से खुद को बार-बार किसी कदर बचा रही थी एक हथेली थी, जिसने गिलास मेज़ पर रख दिया था और किसी दूसरी हथेली की गोद में बैठने की ज़िद में थी चेहरा वह नन्हा-सा कांच का पारदर्शी ओस में भीगा, जिसके पार एक हंसी जल जैसी बे-हद आकांक्षाओं में लिपटी वह चेहरा तुम्हारा था एक आंख थी वहां उस नन्हे-से चेहरे में मेज़ की दूसरी तरफ़ या मेरी आत्मा के अतल में किसी नक्षत्र की टकटकी हो जिस तरह उस मंगलवार में जिसमें बहुत मुष्किल से थोड़ी-सी छांह थी उस दिन कुछ अलग तरह से तीन बजा इस शताब्दी में जिसमें यह जीवन मेरा था, जो पहले कभी जिया नहीं गया था इस तरह जिसमें होठ थे हमारे जिन्हें कुछ कहने में सब कुछ छुपाना था वह एक बिलकुल अलग-सी दोपहर जिसमें अब तक के जाने गए रंगों से अलग रंग की कोई धूप थी एक कोई बिल्कुल दूसरा-सा मंगलवार जिसमें कभी नहीं पहले जैसा पहला तीन बजा था और फिर एक-आध मिनट और कुछ सेकेंड के बीतने के बाद अगस्त की उमस में माथे पर बनती ओस की बूंदों को मुटि्ठयों में भींचे एक सफ़ेद बादल के छोटे से टुकड़े से पोंछते हुए तुमने कहा था तिनका हो जा, तिनका हुआ। पानी हो जा, पानी हुआ। घास हो जा, घास हुई। तुम हो जाओ, मैं हुआ। अगस्त हो जा, मंगलवार हो जा। दोपहर हो जा। तीन बज। इस तरह अगस्त के उस मंगलवार को तीन बज कर एकाध मिनट और कुछ सेकेंड पर हमने सृष्टि की रचना की ईश्वर क्या तुम भी डरे थे इस तरह उस दिन जिस तरह हम किन्हीं परिंदों-सा? -उदय प्रकाश
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तिब्बत
तिब्बत से आये हुए लामा घूमते रहते हैं आजकल मंत्र बुदबुदाते उनके खच्चरों के झुंड बगीचों में उतरते हैं गेंदे के पौधों को नहीं चरते गेंदे के एक फूल में कितने फूल होते हैं पापा? तिब्बत में बरसात जब होती है तब हम किस मौसम में होते हैं? तिब्बत में जब तीन बजते हैं तब हम किस समय में होते हैं? तिब्बत में गेंदे के फूल होते हैं क्या पापा? लामा शंख बजाते है पापा? पापा लामाओं को कंबल ओढ़ कर अंधेरे में तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है कभी? जब लोग मर जाते हैं तब उनकी कब्रों के चारों ओर सिर झुका कर खड़े हो जाते हैं लामा वे मंत्र नहीं पढ़ते। वे फुसफुसाते हैं…. तिब्बत तिब्बत, तिब्बत - तिब्बत तिब्बत - तिब्बत - तिब्बत तिब्बत-तिब्बत, तिब्बत तिब्बत -तिब्बत, तिब्बत और रोते रहते हैं रात-रात भर। क्या लामा हमारी तरह ही रोते हैं पापा? -उदय प्रकाश
एक भाषा हुआ करती है
एक भाषा हुआ करती है जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं `आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द हर बार बहने लगती है रक्त की धार एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएं और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती, गाती-बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूंख़ार, सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा, अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और ग़रीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा, वह भाषा जिसे वक़्त ज़रूरत तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंड़ुए, रंडियां और कुछ जुनूनी नौजवान भी बोला करते हैं वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है आत्मघात करती हैं प्रतिभाएं `ईश्वर´ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध जिसमें पान की पीक है, बीड़ी का धुआं, तम्बाकू का झार, जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के मंहगे लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय अखबार सिफ़त मगर यह कि इसी में चलता है कैडबरीज, सांडे का तेल, सुजूकी, पिजा, आटा-दाल और स्वामी जी और हाई साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाज़ार एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीने वाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बांटता है सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिटि्ठयां वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं जिसकी लिपियां स्वीकार करने से इंकार करता है इस दुनिया का समूचा सूचना संजाल आत्मा के सबसे उत्पीड़ित और विकल हिस्से में जहां जन्म लेते हैं शब्द और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूंगे कुएं में डूब जाते हैं चुपचाप अतीत की किसी कंदरा से एक अज्ञात सूक्ति को अपनी व्याकुल थरथराहट में थामे लौटता है कोई जीनियस और घोषित हो जाता है सार्वजनिक तौर पर पागल नष्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ की स्मृति नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद भविष्य भर के लिए अंधा हो जाता है सिर्फ हमारी नींद में सुनाई देती रहती है उसकी अनंत बड़बड़ाहट मंगल..शुक्र.. बृहस्पति...सप्त-ॠषि..अरुंधति...ध्रुव.. हम स्वप्न में डरे हुए देखते हैं टूटते उल्का-पिंडों की तरह उस भाषा के अंतरिक्ष से लुप्त होते चले जाते हैं एक-एक कर सारे नक्षत्र भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को अपनी छाती हिलाने की छूट है जिसमें दण्डनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबधित विमर्श प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां वर्जित हैं विचार वह भाषा जिसमें की गयी प्रार्थना तक घोषित कर दी जाती है सांप्रदायिक वही भाषा जिसमें किसी जिद में अब भी करता है तप कभी-कभी कोई शम्बूक और उसे निशाने की जद में ले आती है हर तरह की सत्ता की ब्राह्मण-बंदूक भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस शाल ओढ़ते हैं मसखरे, चाकर टांगते हैं तमगे जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं किसी अफसर या हुक्काम या किसी पंडे के सफेद दांत और तमाम मठों पर नियुक्त होते जाते हैं बर्बर बुलडॉग अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि यह वही भाषा है जिसको इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी, कोई तिजारती, कोई फिरंग अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौंदता तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षो तक आर्तनाद सुनो दायोनीसियस, कान खोल कर सुनो यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल, एक अपराजेय हत्यारे हर छठे मिनट पर तुम काट देते हो इस भाषा को बोलने वाली एक और जीभ तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों, गूंगे गुलामों और दोगले एजेंटों के विराट संग्रहालय के तुम स्वामी हो अंतरिक्ष में तैरते कृत्रिम उपग्रहों, ध्वनि तरंगों, संस्कृतियों और सूचनाओं हथियारों और सरकारों के यह सच है लेकिन देखो, हर पांचवें सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा और इसी भाषा में भरता है किलकारी और कहता है - `मां ´! -उदय प्रकाश
वे यहीं कहीं हैं
वे कहीं गए नहीं हैं वे यहीं कहीं हैं उनके लिए रोना नहीं । वे बच्चों की टोली में रंगीन बुश्शर्ट पहने बच्चों के बीच गुम हैं वे मैली बनियान पहने मलबे के ढेर से बीन रहे हैं हरी-पीली लाल प्लास्टिक की चीज़ें वे तुम्हारे हाथ में चाय का कप पकड़ा जाते हैं अख़बार थमा जाते हैं वे किसी मशीन, किसी पेड़, किसी दीवार, किसी किताब के पीछे छुपकर गाते हैं पहाड़ियों की तलहटी में गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर वे हँसते हैं उनके हाथों में गेहूँ और मकई की बालियाँ, मटर की फलियाँ हैं बहनें जब होती हैं किसी जंगल, किसी गली, किसी अँधेरे में अकेली तो वे साइकिल पर अचानक कहीं से तेज़-तेज़ आते हैं और उनके आस-पास घण्टी बजा जाते हैं वे हवा की ज़िन्दगी, सूरज की साँस, पानी की बाँसुरी, धरती की धड़कन हैं वे परछाइयाँ हैं समुद्र में दूर-दूर तक फैली तिरती हुईं वे सिर्फ़ हड्डियाँ और सिर्फ़ त्वचा नहीं थे कि मौसम के अम्ल में गल जाएँगे वे फ़क़त खून नहीं थे कि मिट्टी में सूख जाएँगे वे कोई नौकरी नहीं थे कि बर्ख्वास्त कर दिए जाएँगे वे जड़े हैं हज़ारों साल पुरानी, वे पानी के सोते हैं धरती के भीतर-भीतर पूरी पृथ्वी और पाताल तक वे रेंग रहे हैं वे अपने काम में लगे हैं जब कि हत्यारे ख़ुश हैं कि हमने उन्हें ख़त्म कर डाला है वे किसी दौलतमन्द का सपना नहीं हैं कि सिक्कों और अशर्फ़ियों की आवाज़ से टूट जाएँगे वे यहीं कहीं हैं वे यहीं कहीं हैं किसी दोस्त से गप्प लड़ा रहे हैं कोई लड़की अपनी नींद में उनके सपने देख रही है वे किसी से छुपकर किसी से मिलने गए हैं उनके लिए रोना नहीं कोइ रेलगाड़ी आ रही है दूर से सीटी देती हुई उनके लिए आँसू नासमझी है उनके लिए रोना नहीं देखो, वे तीनों - सफ़दर, पाश और सुकान्त और लोर्का और नज़रुल और मोलाइसे और नागार्जुन और वे सारे के सारे जल्दबाजी में आएँगे कास्ट्यूम बदलकर नाटक में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाएँगे और तालियों और कोरस और मंच की जलती-बुझती रोशनी के बीच फिर गायब हो जाएँगे हाँ, उन्हें ढूँढ़ना जरूर हर चेहरे को गौर से देखना पर उनके लिए रोना नहीं रोकर उन्हें खोना नहीं वे यहीं कहीं हैं वे यहीं कहीं हैं।। -उदय प्रकाश
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