Nirala ki Kavitayen: पढ़िए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रेरक कविताएं

3 minute read
Nirala ki Kavitayen
Nirala ki Kavitayen

Nirala ki Kavitayen आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि अपनी रचना के समय रही होंगी। साहित्य के समीप जाने पर ही युवाओं को एक प्रेरणा मिलती है, प्रेरणा ऐसी जो समाज को सशक्त करती है। हिंदी की महान कविताएं पढ़कर हर उम्र का व्यक्ति निज संघर्षों में कठिन परिश्रम करने को तैयार हो सकता है। हिंदी की महान कविताएं मानव को साहस के साथ लड़ना सिखाती हैं। हर दौर में-हर देश में अनेकों ऐसे महान कवि और कवियत्री हुए हैं, जिन्होंने मानव को सदैव सद्मार्ग दिखाया है। उन्हीं में से एक भारतीय कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी थे, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं आज तक भारतीय समाज के साथ-साथ पूरे विश्व को प्रेरित कर रहीं हैं। Nirala ki Kavitayen के माध्यम से आप Nirala Poems in Hindi पढ़ पाएंगे, जिसके लिए आपको ब्लॉग को अंत तक पढ़ना पड़ेगा।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में

Nirala ki Kavitayen पढ़ने के पहले आपको सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय होना चाहिए। हिन्दी साहित्य की अनमोल मणियों में से एक कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी भी थी, जिन्होंने हिंदी साहित्य के लिए अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म 21 फ़रवरी 1896 ई० को बंगाल की महिषादल रियासत (ज़िला मेदिनीपुर) में हुआ। निराला के बचपन में उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया। उनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) ज़िले गढ़ाकोला गाँव के रहने वाले थे। वह महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। हिंदी, संस्कृत और बांग्ला भाषा और साहित्य का ज्ञान उन्होंने स्वाध्याय से अर्जित किया।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं हर सदी में युवाओं को प्रेरित करती रही हैं। इसमें से कुछ सुप्रसिद्ध कविताएं या काव्य संग्रह “अनामिका”, “परिमल”, “गीतिका”, “अनामिका (द्वितीय)”, “तुलसीदास”, “कुकुरमुत्ता”, “अणिमा”, “बेला”, “नये पत्ते”, “अर्चना”, “आराधना”, “गीत कुंज”, “सांध्य काकली”, “अपरा (संचयन)” हैं। हिंदी साहित्य में अपना अविस्मरणीय योगदान देने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का 62 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर 1961 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में निधन हुआ था।

यह भी पढ़ें : राष्ट्रीय युवा दिवस पर कविता

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्द कविताओं की लिस्ट

Nirala ki Kavitayen जो भारत के साथ-साथ समूचे विश्व में प्रचलित हैं, यह कहना अनुचित न होगा कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं आज भी युवाओं को प्रेरित कर रही हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के सुप्रसिद्ध काव्य संग्रह कुछ इस प्रकार हैं;

  • अनामिका
  • परिमल
  • गीतिका
  • अनामिका
  • तुलसीदास
  • कुकुरमुत्ता
  • अणिमा
  • बेला
  • नये पत्ते
  • अर्चना
  • आराधना
  • गीत कुंज
  • सांध्य काकली
  • अपरा (संचयन)

Nirala Poems in Hindi : सरोज-स्मृति

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “सरोज-स्मृति” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

ऊनविंश पर जो प्रथम चरण 
तेरा वह जीवन-सिंधु-तरण; 
तनय, ली कर दृक्-पात तरुण 
जनक से जन्म की विदा अरुण! 
गीते मेरी, तज रूप-नाम 
वर लिया अमर शाश्वत विराम 
पूरे कर शुचितर सपर्याय 
जीवन के अष्टादशाध्याय, 
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण 
कह—“पितः, पूर्ण आलोक वरण 
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण, 
'सरोज' का ज्योतिःशरण—तरण— 
अशब्द अधरों का, सुना, भाष, 
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश 
मैंने कुछ अहरह रह निर्भर 
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर। 
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर 
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर 
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार— 
“जब पिता करेंगे मार्ग पार 
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम, 
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?” 
कहता तेरा प्रयाण सविनय,— 
कोई न अन्य था भावोदय। 
श्रावण-नभ का स्तब्धांधकार 
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार! 
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, 
कुछ भी तेरे हित न कर सका। 
जाना तो अर्थागमोपाय 
पर रहा सदा संकुचित-काय 
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर 
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर। 
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक 
रख सका न तुझे अतः दधिमुख। 
क्षीण का न छीना कभी अन्न, 
मैं लख न सका वे दृग विपन्न; 
अपने आँसुओं अतः बिंबित 
देखे हैं अपने ही मुख-चित। 
सोचा है नत हो बार-बार— 
“यह हिंदी का स्नेहोपहार, 
यह नहीं हार मेरी, भास्वर 
वह रत्नहार—लोकोत्तर वर। 
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध 
साहित्य-कला-कौशल-प्रबुद्ध, 
हैं दिए हुए मेरे प्रमाण 
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान,— 
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त 
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। 
देखें वे; हँसते हुए प्रवर 
जो रहे देखते सदा समर, 
एक साथ जब शत घात घूर्ण 
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण। 
देखता रहा मैं खड़ा अपल 
वह शर क्षेप, वह रण-कौशल। 
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल 
ऋद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल। 
और भी फलित होगी वह छवि, 
जागे जीवन जीवन का रवि, 
लेकर, कर कल तूलिका कला, 
देखो क्या रंग भरती विमला, 
वांछित उस किस लांछित छवि पर 
फेरती स्नेह की कूची भर। 
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम 
कर नहीं सका पोषण उत्तम 
कुछ दिन को, जब तू रही साथ, 
अपने गौरव से झुका माथ। 
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर, 
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर। 
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक, 
पूरी न हुई जो रही कलक 
प्राणों की प्राणों में दबकर 
कहती लघु-लघु उसाँस में भर; 
समझता हुआ मैं रहा देख 
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक। 
तू सवा साल की जब कोमल; 
पहचान रही ज्ञान में चपल, 
माँ का मुख, हो चुंबित क्षण-क्षण, 
भरती जीवन में नव जीवन, 
वह चरित पूर्ण कर गई चली, 
तू नानी की गोद जा पली। 
सब किए वहीं कौतुक-विनोद 
उस घर निशि-वासर भरे मोद; 
खाई भाई की मार, विकल 
रोई, उत्पल-दल-दृग-छलछल; 
चुमकारा सिर उसने निहार, 
फिर गंगा-तट-सैकत विहार 
करने को लेकर साथ चला, 
तू गहकर चली हाथ चपला; 
आँसुओं धुला मुख हासोच्छल, 
लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल। 
तब भी मैं इसी तरह समस्त, 
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त; 
लिखता अबाध गति मुक्त छंद, 
पर संपादकगण निरानंद 
वापस कर देते पढ़ सत्वर 
दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर। 
लौटी रचना लेकर उदास 
ताकता हुआ मैं दिशाकाश 
बैठा प्रांतर में दीर्घ प्रहर 
व्यतीत करता था गुन-गुन कर 
संपादक के गुण; यथाभ्यास 
पास की नोचता हुआ घास 
अज्ञात फेंकता इधर-उधर 
भाव की चढ़ी पूजा उन पर। 
याद है दिवस की प्रथम धूप 
थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप, 
खेलती हुई तू परी चपल, 
मैं दूरस्थित प्रवास से चल 
दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक 
देखने के लिए अपने मुख 
था गया हुआ, बैठा बाहर 
आँगन में फाटक के भीतर 
मोढ़े पर, ले कुंडली हाथ 
अपने जीवन की दीर्घ गाथ। 
पढ़, लिखे हुए शुभ दो विवाह 
हँसता था, मन में बढ़ी चाह 
खंडित करने को भाग्य-अंक, 
देखा भविष्य के प्रति अशंक। 
इससे पहले आत्मीय स्वजन 
सस्नेह कह चुके थे, जीवन 
सुखमय होगा, विवाह कर लो। 
जो पढ़ी-लिखी हो—सुंदर हो। 
आए ऐसे अनेक परिणय, 
पर विदा किया मैंने सविनय 
सबको, जो अड़े प्रार्थना भर 
नयनों में, पाने को उत्तर 
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर— 
“मैं हूँ मंगली”, मुड़े सुनकर। 
इस बार एक आया विवाह 
जो किसी तरह भी हतोत्साह 
होने को न था, पड़ी अड़चन, 
आया मन में भर आकर्षण 
उन नयनों का; सासु ने कहा— 
“वे बड़े भले जन हैं, भय्या, 
एन्ट्रेंस पास है लड़की वह, 
बोले मुझ से, छब्बिस ही तो 
वर की है उम्र, ठीक ही है, 
लड़की भी अट्ठारह की है।” 
फिर हाथ जोड़ने लगे, कहा— 
'वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा! 
हैं सुधरे हुए बड़े सज्जन! 
अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन! 
हैं बड़े नाम उनके! शिक्षित 
लड़की भी रूपवती, समुचित 
आपको यही होगा कि कहें 
‘हर तरह उन्हें, वर सुखी रहें।’ 
आएँगे कल।” दृष्टि थी शिथिल, 
आई पुतली तू खिल-खिल-खिल 
हँसती, मैं हुआ पुनः चेतन, 
सोचता हुआ विवाह-बंधन। 
कुंडली दिखा बोला—“ए-लो” 
आई तू, दिया, कहा “खेलो!'' 
कर स्नान-शेष, उन्मुक्त-केश 
सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश 
आई करने को बातचीत 
जो कल होने वाली, अजीत; 
संकेत किया मैंने अखिन्न 
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न, 
देखने लगीं वे विस्मय भर 
तू बैठी संचित टुकड़ों पर! 
धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण, 
बाल्य की केलियों का प्रांगण 
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर 
आई, लावण्य-भार थर-थर 
काँपा कोमलता पर सस्वर 
ज्यों मालकौश नव वीणा पर; 
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद-मंद 
फूटी ऊषा—जागरण-छंद; 
काँपी भर निज आलोक-भार, 
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार। 
परिचय-परिचय पर खिला सकल— 
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय-दल। 
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धार 
ज्यों भोगावती उठी अपार, 
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील 
जल टलमल करता नील-नील, 
पर बँधा देह के दिव्य बाँध, 
छलकता दृगों से साध-साध। 
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर 
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर। 
हर पिता-कंठ की दृप्त-धार 
उत्कलित रागिनी की बहार! 
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि, 
मेरे स्वर की रागिनी वह्लि 
साकार हुई दृष्टि में सुघर, 
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर। 
शिक्षा के बिना बना वह स्वर 
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर! 
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम 
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम 
होती उड़ने को, अपना स्वर 
भर करती ध्वनित मौन प्रांतर। 
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि, 
जागा उर में तेरा प्रिय कवि, 
उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज 
तरु-पल्लव कलि-दल पुंज-पुंज, 
बह चली एक अज्ञात बात 
चूमती केश—मृदु नवल गात, 
देखती सकल निष्पलक-नयन 
तू, समझा मैं तेरा जीवन। 
सासु ने कहा लख एक दिवस— 
“भैया अब नहीं हमारा बस, 
पालना-पोसना रहा काम, 
देना ‘सरोज’ को धन्य-धाम, 
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर, 
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर; 
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर 
अपने घर रहो, ढूँढ़कर वर 
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह 
होंगे सहाय हम सहोत्साह।” 
सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा, 
कुछ भी न कहा, न अहो, न अहा,— 
ले चला साथ मैं तुझे, कनक 
ज्यों भिक्षुक लेकर; स्वर्ण-झनक 
अपने जीवन की, प्रभा विमल 
ले आया निज गृह-छाया-तल। 
सोचा मन में हत बार-बार— 
‘ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलांगार 
खाकर पत्तल में करें छेद, 
इनके कर कन्या, अर्थ खेद; 
इस विषय-बेलि में विष ही फल, 
यह दग्ध मरुस्थल,—नहीं सुजल।' 
फिर सोचा—‘मेरे पूर्वजगण 
गुजरे जिस राह, वही शोभन 
होगा मुझको, यह लोक-रीति 
कर दें पूरी, गो नहीं भीति 
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार; 
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार 
ढोने में हूँ अक्षम; निश्चय 
आएगी मुझमें नहीं विनय 
उतनी जो रेखा करे पार 
सौहार्द-बंध की, निराधार। 
वे जो जमुना के-से कछार 
पद, फटे बिवाई के, उधार 
खाए के मुख ज्यों, पिए तेल 
चमरौधे जूते से सकेल 
निकले, जी लेते, घोर-गंध, 
उन चरणों को मैं यथा अंध, 
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति 
हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति। 
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह 
करने की मुझको नहीं चाह।' 
फिर आई याद—मुझे सज्जन 
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन 
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक, 
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक 
होगा कोई इंगित अदृश्य, 
मेरे हित है हित यही स्पृश्य 
अभिनंदनीय। बंध गया भाव, 
खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव; 
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण, 
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन। 
बोला मैं—“मैं हूँ रिक्त हस्त इस समय, 
विवेचन में समस्त— 
जो कुछ है मेरा अपना धन 
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण 
यदि महाजनों को, तो विवाह 
कर सकता हूँ; पर नहीं चाह 
मेरी ऐसी, दहेज देकर 
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर, 
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय 
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय। 
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम 
मैं सामाजिक योग के प्रथम, 
लग्न के, पढूँगा स्वयं मंत्र 
यदि पंडितजी होंगे स्वतंत्र। 
जो कुछ मेरा, वह कन्या का, 
निश्चय समझो, कुल धन्या का।'' 
आए पंडितजी, प्रजावर्ग 
आमंत्रित साहित्यिक, ससर्ग 
देखा विवाह आमूल नवल; 
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल। 
देखती मुझे तू, हँसी मंद, 
होठों में बिजली फँसी, स्पंद 
उर में भर झूली छबि सुंदर, 
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर 
तू खुली एक उच्छ्वास-संग, 
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग, 
नत नयनों से आलोक उतर 
काँपा अधरों पर थर-थर-थर। 
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति 
मेरे वसंत की प्रथम गीति— 
शृंगार, रहा जो निराकार 
रस कविता में उच्छ्वसित-धार 
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग 
भरता प्राणों में राग-रंग 
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही, 
आकाश बदलकर बना मही। 
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन 
कोई थे नहीं, न आमंत्रण 
था भेजा गया, विवाह-राग 
भर रहा न घर निशि-दिवस-जाग; 
प्रिय मौन एक संगीत भरा 
नव जीवन के स्वर पर उतरा। 
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी, 
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची, 
सोचा मन में—'वह शकुंतला, 
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।' 
कुछ दिन रह गृह, तू फिर समोद, 
बैठी नानी की स्नेह-गोद। 
मामा-मामी का रहा प्यार, 
भर जलद धरा को ज्यों अपार; 
वे ही सुख-दु:ख में रहे न्यस्त, 
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त; 
वह लता वहीं की, जहाँ कली 
तू खिली, स्नेह से हिली, पली; 
अंत भी उसी गोद में शरण 
ली, मूँदे दृग वर महामरण! 
मुझ भाग्यहीन की तू संबल 
युग वर्ष बाद जब हुई विकल, 
दु:ख ही जीवन की कथा रही, 
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही! 
हो इसी कर्म पर वज्रपात 
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ 
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल 
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल! 
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण 
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

यह भी पढ़ें : विश्व हिंदी दिवस पर कविता

विनय

Nirala ki Kavitayen आपको साहित्य के सौंदर्य से परिचित करवाएंगी। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “सरोज-स्मृति” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

पथ पर मेरा जीवन भर दो,

बादल हे, अनंत अंबर के!

बरस सलिल, गति ऊर्मिल कर दो!

तट हों विटप छाँह के, निर्जन,

सस्मित-कलिदल-चुंबित-जलकण,

शीतल शीतल बहे समीरण,

कूजें द्रुम-विहंगगण, वर दो!

दूर ग्राम की कोई वामा

आए मंद चरण अभिरामा,

उतरे जल में अवसन श्यामा,

अंकित उर छबि सुंदरतर हो!

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

राम की शक्ति-पूजा

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “राम की शक्ति-पूजा” भी है, जो कि निम्नलिखित हैं;

रवि हुआ अस्त : ज्योति के पत्र पर लिखा अमर 
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर 
आज का, तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर वेग-प्रखर, 
शतशेलसंवरणशील, नीलनभ-गर्ज्जित-स्वर, 
प्रतिपल-परिवर्तित-व्यूह-भेद-कौशल-समूह,— 
राक्षस-विरुद्ध प्रत्यूह,—क्रुद्ध-कपि-विषम—हूह, 
विच्छुरितवह्नि—राजीवनयन-हत-लक्ष्य-बाण, 
लोहितलोचन-रावण-मदमोचन-महीयान, 
राघव-लाघव-रावण-वारण—गत-युग्म-प्रहर, 
उद्धत-लंकापति-मर्दित-कपि-दल-बल-विस्तर, 
अनिमेष-राम-विश्वजिद्दिव्य-शर-भंग-भाव,— 
विद्धांग-बद्ध-कोदंड-मुष्टि—खर-रुधिर-स्राव, 
रावण-प्रहार-दुर्वार-विकल-वानर दल-बल,— 
मूर्च्छित-सुग्रीवांगद-भीषण-गवाक्ष-गय-नल, 
वारित-सौमित्र-भल्लपति—अगणित-मल्ल-रोध, 
गर्ज्जित-प्रलयाब्धि—क्षुब्ध—हनुमत्-केवल-प्रबोध, 
उद्गीरित-वह्नि-भीम-पर्वत-कपि-चतुः प्रहर, 
जानकी-भीरु-उर—आशाभर—रावण-सम्वर। 
लौटे युग-दल। राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल, 
बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल। 
वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज-पति-चरण-चिह्न 
चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों विभिन्न; 
प्रशमित है वातावरण; नमित-मुख सांध्य कमल 
लक्ष्मण चिंता-पल, पीछे वानर-वीर सकल; 
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण, 
श्लथ धनु-गुण है कटिबंध स्रस्त—तूणीर-धरण, 
दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल 
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल 
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकार, 
चमकती दूर ताराएँ ज्यों हों कहीं पार। 
आए सब शिविर, सानु पर पर्वत के, मंथर, 
सुग्रीव, विभीषण, जांबवान आदिक वानर, 
सेनापति दल-विशेष के, अंगद, हनुमान 
नल, नील, गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान 
करने के लिए, फेर वानर-दल आश्रय-स्थल। 
बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर; निर्मल जल 
ले आए कर-पद-क्षालनार्थ पटु हनुमान; 
अन्य वीर सर के गए तीर संध्या-विधान— 
वंदना ईश की करने को, लौटे सत्वर, 
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर। 
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर, 
सुग्रीव, प्रांत पर पाद-पद्म के महावीर; 
यूथपति अन्य जो, यथास्थान, हो निर्निमेष 
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश। 
है अमानिशा; उगलता गगन घन अंधकार; 
खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन-चार; 
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल; 
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल। 
स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, 
रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय; 
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रांत,— 
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रांत, 
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार, 
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार। 
ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत 
जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका-छवि, अच्युत 
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन 
विदेह का,—प्रथम स्नेह का लतांतराल मिलन 
नयनों का—नयनों से गोपन—प्रिय संभाषण, 
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन, 
काँपते हुए किसलय,—झरते पराग-समुदय, 
गाते खग-नव-जीवन-परिचय,—तरु मलय—वलय, 
ज्योति प्रपात स्वर्गीय,—ज्ञात छवि प्रथम स्वीय, 
जानकी—नयन—कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय। 
सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त, 
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त, 
फूटी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर, 
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आई भर, 
वे आए याद दिव्य शर अगणित मंत्रपूत,— 
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत, 
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर, 
ताड़का, सुबाहु, विराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर; 
फिर देखी भीमा मूर्ति आज रण देखी जो 
आच्छादित किए हुए सम्मुख समग्र नभ को, 
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझकर हुए क्षीण, 
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन, 
लख शंकाकुल हो गए अतुल-बल शेष-शयन,— 
खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन; 
फिर सुना—हँस रहा अट्टहास रावण खलखल, 
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल। 
बैठे मारुति देखते राम—चरणारविंद 
युग ‘अस्ति-नास्ति' के एक-रूप, गुण-गण—अनिंद्य; 
साधना-मध्य भी साम्य—वाम-कर दक्षिण-पद, 
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद्-गद् 
पा सत्य, सच्चिदानंदरूप, विश्राम-धाम, 
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम-नाम। 
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल, 
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल; 
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,— 
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ; 
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल, 
संदिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल 
बैठे वे वही कमल-लोचन, पर सजल नयन, 
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख, निश्चेतन। 
'ये अश्रु राम के' आते ही मन में विचार, 
उद्वेल हो उठा शक्ति-खेल-सागर अपार, 
हो श्वसित पवन-उनचास, पिता-पक्ष से तुमुल, 
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल, 
शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग उठते पहाड़, 
जल राशि-राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़ 
तोड़ता बंध—प्रतिसंध धरा, हो स्फीत-वक्ष 
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष। 
शत-वायु-वेग-बल, डुबा अतल में देश-भाव, 
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव 
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश 
पहुँचा, एकादशरुद्र क्षुब्ध कर अट्टहास। 
रावण-महिमा श्मामा विभावरी-अंधकार, 
यह रुद्र राम-पूजन-प्रताप तेजःप्रसार; 
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कंध-पूजित, 
इस ओर रुद्र-वंदन जो रघुनंदन-कूजित; 
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल, 
लख महानाश शिव अचल हुए क्षण-भर चंचल, 
श्यामा के पदतल भारधरण हर मंद्रस्वर 
बोले—“संबरो देवि, निज तेज, नहीं वानर 
यह,—नहीं हुआ शृंगार-युग्म-गत, महावीर, 
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर, 
चिर-ब्रह्मचर्य-रत, ये एकादश रुद्र धन्य, 
मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य 
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार 
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार; 
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध, 
झुक जाएगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध। 
कह हुए मौन शिव; पवन-तनय में भर विस्मय 
सहसा नभ में अंजना-रूप का हुआ उदय; 
बोली माता—“तुमने रवि को जब लिया निगल 
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल; 
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह-रह, 
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह-सह; 
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल— 
पूजते जिन्हें श्रीराम, उसे ग्रसने को चल 
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ?—सोचो मन में; 
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्रीरघुनंदन ने? 
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य— 
क्या असंभाव्य हो यह राघव के लिए धार्य? 
कपि हुए नम्र, क्षण में माताछवि हुई लीन, 
उतरे धीरे-धीरे, गह प्रभु-पद हुए दीन। 
राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण, 
'हे सखा'', विभीषण बोले, “आज प्रसन्न वदन 
वह नहीं, देखकर जिसे समग्र वीर वानर— 
भल्लूक विगत-श्रम हो पाते जीवन—निर्जर; 
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित, 
है वही वक्ष, रण-कुशल हस्त, बल वही अमित, 
हैं वही सुमित्रानंदन मेघनाद-जित-रण, 
हैं वही भल्लपति, वानरेंद्र सुग्रीव प्रमन, 
तारा-कुमार भी वही महाबल श्वेत धीर, 
अप्रतिभट वही एक—अर्बुद-सम, महावीर, 
है वही दक्ष सेना-नायक, है वही समर, फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव-प्रहर? 
रघुकुल गौरव, लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण, 
तुम फेर रहे हो पीठ हो रहा जब जय रण! 
कितना श्रम हुआ व्यर्थ! आया जब मिलन-समय, 
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय! 
रावण, रावण, लंपट, खल, कल्मष-गताचार, 
जिसने हित कहते किया मुझे पाद-प्रहार, 
बैठा उपवन में देगा दु:ख सीता को फिर,—
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर;— 
सुनता वसंत में उपवन में कल-कूजित पिक 
मैं बना किंतु लंकापति, धिक्, राघव, धिक् धिक्! 
सब सभा रही निस्तब्ध : राम के स्तिमित नयन 
छोड़ते हुए, शीतल प्रकाश देखते विमन, 
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव 
उससे न इन्हें कुछ चाव, न हो कोई दुराव; 
ज्यों हों वे शब्द मात्र,—मैत्री की समनुरक्ति, 
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति। 
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर 
बोले रघुमणि—मित्रवर, विजय होगी न समर; 
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण, 
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण; 
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति! कहते छल-छल 
हो गए नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल, 
रुक गया कंठ, चमका लक्ष्मण-तेजः प्रचंड, 
धँस गया धरा में कपि गह युग पद मसक दंड, 
स्थिर जांबवान,—समझते हुए ज्यों सकल भाव, 
व्याकुल सुग्रीव,—हुआ उर में ज्यों विषम घाव, 
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्य-क्रम, 
मौन में रहा यों स्पंदित वातावरण विषम। 
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण 
बोले—“आया न समझ में यह दैवी विधान; 
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर— 
यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर! 
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित 
हो सकती जिनसे यह संसृति संपूर्ण विजित, 
जो तेजःपुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार 
है जिनमें निहित पतनघातक संस्कृति अपार— 
शत-शुद्धि-बोध—सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक, 
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक, 
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित, 
वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खंडित! 
देखा, हैं महाशक्ति रावण को लिए अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक; 
हत मंत्रपूत शर संवृत करतीं बार-बार, 
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार! 
विचलित लख कपिदल, क्रुद्ध युद्ध को मैं ज्यों-ज्यों, 
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों, 
पश्चात्, देखने लगीं मुझे, बँध गए हस्त, 
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं हुआ त्रस्त! 
कह हुए भानुकुलभूषण वहाँ मौन क्षण-भर, 
बोले विश्वस्त कंठ से जांबवान—रघुवर, 
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, 
हे पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, 
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, 
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर; 
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त 
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त, 
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, 
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन! 
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक 
मध्य भाग में, अंगद दक्षिण-श्वेत सहायक, 
मैं भल्ल-सैन्य; हैं वाम पार्श्व में हनूमान, 
नल, नील और छोटे कपिगण—उनके प्रधान; 
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय 
आएँगे रक्षाहेतु जहाँ भी होगा भय।” 
खिल गई सभा। ‘‘उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!” 
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ। 
हो गए ध्यान में लीन पुनः करते विचार, 
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार। 
कुछ समय अनंतर इंदीवर निंदित लोचन 
खुल गए, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन। 
बोले आवेग-रहित स्वर से विश्वास-स्थित— 
मातः, दशभुजा, विश्व-ज्योतिः, मैं हूँ आश्रित; 
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित, 
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्ज्जित! 
यह, यह मेरा प्रतीक, मातः, समझा इंगित; 
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनंदित।” 
कुछ समय स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न, 
फिर खोले पलक कमल-ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न; 
हैं देख रहे मंत्री, सेनापति, वीरासन 
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन। 
बोले भावस्थ चंद्र-मुख-निंदित रामचंद्र, 
प्राणों में पावन कंपन भर, स्वर मेघमंद्र— 
“देखो, बंधुवर सामने स्थित जो यह भूधर 
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुंदर, 
पार्वती कल्पना हैं। इसकी, मकरंद-बिंदु; 
गरजता चरण-प्रांत पर सिंह वह, नहीं सिंधु; 
दशदिक-समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर, 
अंबर में हुए दिगंबर अर्चित शशि-शेखर; 
लख महाभाव-मंगल पदतल धँस रहा गर्व— 
मानव के मन का असुर मंद, हो रहा खर्व’’ 
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए— 
बोले प्रियतर स्वर से अंतर सींचते हुए 
“चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इंदीवर, 
कम-से-कम अधिक और हों, अधिक और सुंदर, 
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर, 
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।” 
अवगत हो जांबवान से पथ, दूरत्व, स्थान, 
प्रभु-पद-रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान। 
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय, 
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय। 
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण 
फूटी, रघुनंदन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण; 
है नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कंध, 
वह नहीं सोहता निविड़-जटा दृढ़ मुकुट-बंध; 
सुन पड़ता सिंहनाद,—रण-कोलाहल अपार, 
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार; 
पूजोपरांत जपते दुर्गा, दशभुजा नाम, 
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम; 
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण, 
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन। 
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस, 
चक्र से चक्र मन चढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस; 
कर-जप पूरा कर एक चढ़ाते इंदीवर, 
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर। 
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित मन, 
प्रति जप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण; 
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर, 
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अंबर; 
दो दिन-निष्पंद एक आसन पर रहे राम, 
अर्पित करते इंदीवर, जपते हुए नाम; 
आठवाँ दिवस, मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर 
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर, 
हो गया विजित ब्रह्मांड पूर्ण, देवता स्तब्ध, 
हो गए दग्ध जीवन के तप के समारब्ध, 
रह गया एक इंदीवर, मन देखता-पार 
प्रायः करने को हुआ दुर्ग जो सहस्रार, 
द्विप्रहर रात्रि, साकार हुईं दुर्गा छिपकर, 
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इंदीवर। 
यह अंतिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल 
राम ने बढ़ाया कर लेने को नील कमल; 
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल 
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल, 
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय 
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गए नयनद्वयः— 
“धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, 
धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध! 
जानकी! हाय, उद्धार प्रिया का न हो सका।” 
वह एक और मन रहा राम का जो न थका; 
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय 
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय, 
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा, विद्युत्-गति हतचेतन 
राम में जगी स्मृति, हुए सजग पा भाव प्रमन। 
“यह है उपाय” कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन— 
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन! 
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण 
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।'' 
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक, 
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक; 
ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन 
ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन। 
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय, 
काँपा ब्रह्मांड, हुआ देवी का त्वरित उदय :— 
‘‘साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!” 
कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम। 
देखा राम ने—सामने श्री दुर्गा, भास्वर 
वाम पद असुर-स्कंध पर, रहा दक्षिण हरि पर: 
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र-सज्जित, 
मंद स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित, 
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग, 
दक्षिण गणेश, कार्तिक बाएँ रण-रंग राग, 
मस्तक पर शंकर। पदपद्मों पर श्रद्धाभर 
श्री राघव हुए प्रणत मंदस्वर वंदन कर। 
'होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!'' 
कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

यह भी पढ़ें : प्रेरणादायक प्रसिद्ध हिंदी कविताएँ

कुकुरमुत्ता

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताओं (Nirala Poems in Hindi) की श्रेणी में एक कविता “कुकुरमुत्ता” भी है, जो कि कुछ इस प्रकार है:

एक थे नव्वाब,
फ़ारस के मँगाए थे गुलाब।
बड़ी बाड़ी में लगाए
देशी पौधे भी उगाए
रखे माली कई नौकर
ग़ज़नवी का बाग़ मनहर
लग रहा था।
एक सपना जग रहा था
साँस पर तहज़ीब की,
गोद पर तरतीब की।
क्यारियाँ सुंदर बनी
चमन में फैली घनी।
फूलों के पौधे वहाँ
लग रहे थे ख़ुशनुमा।
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
जुही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
चंपा, गुलमेहंदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़ी, गंधराज,
और कितने फूल, फ़व्वारे कई,
रंग अनेकों—सुर्ख़, धानी, चंपई,
आसमानी, सब्ज़, फ़ीरोज़ी, सफ़ेद,
ज़र्द, बादामी, बसंती, सभी भेद।
फलों के भी पेड़ थे,
आम, लीची, संतरे और फालसे।
चटकती कलियाँ, निकलती मृदुल गंध,
गले लगकर हवा चलती मंद-मंद,
चहकते बुलबुल, मचलती टहनियाँ,
बाग़ चिड़ियों का बना था आशियाँ।
साफ़ राहें, सरो दोनों ओर,
दूर तक फैले हुए कुल छोर,
बीच में आरामगाह
दे रही थी बड़प्पन की थाह।
कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
कहीं सुथरा चमन, नक़ली कहीं झाड़ी।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग़ पर उसका पड़ा था रोबोदाब;
वहीं गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता—
“अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पाई ख़ुशबू, रंगोआब,
ख़ून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है ग़ुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर व' पीछे को भगा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
काँटों ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर काँटा हुई होती कभी।
रोज़ पड़ता रहा पानी,
तू हरामी ख़ानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरुन्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख़्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, ज़बाँ पर लफ्ज़ प्यारा।
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊँचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
क़लम मेरा नहीं लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नक़ली, मैं हूँ मौलिक
तू है बकरा, मैं हूँ कौलिक
तू रँगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुल्बुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली ज़नख़ा बनाकर
एक की दीं तीन मैंने गुन सुनाकर।
काम मुझ ही से सधा है
शेर भी मुझसे गधा है।
चीन में मेरी नक़ल, छाता बना
छत्र भारत का वही, कैसा तना
सब जगह तू देख ले
आज का फिर रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।
काम दुनिया में पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।
उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
और भी लंबी कहानी—
सामने ला, कर मुझे बेंड़ा
देख कैंड़ा।
तीर से खींचा धनुष मैं राम का।
काम का—
पड़ा कंधे पर हूँ हल बलराम का।
सुबह का सूरज हूँ मैं ही
चाँद मैं ही शाम का।
कलजुगी मैं ढाल 
नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
मैं ही डाँड़ी से लगा पल्ला
सारी दुनिया तोलती गल्ला
मुझसे मूँछे, मुझसे कल्ला
मेरे लल्लू, मेरे लल्ला
कहे रुपया या अधन्ना
हो बनारस या न्यवन्ना
रूप मेरा, मैं चमकता
गोला मेरा ही बमकता।
लगाता हूँ पार मैं ही
डुबाता मँझदार मैं ही।
डब्बे का मैं ही नमूना
पान मैं ही, मैं ही चूना।
मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
पर बेन्ज़ाइन (Bengoin) वैसे'
बने दर्शनशास्त्र जैसे।
ओम्फलस (Omphalos) और ब्रह्मावर्त
वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
जैसे सिकुड़न और साड़ी,
ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
कास्मोपॉलीटन् और मेट्रोपालीटन् 
जैसे फ्रायड् और लीटन्।
फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
ज़रूरत और हो रफ़ा।
सरसता में फ़्राड
केपीटल में जैसे लेनिनग्राड।
सच समझ जैसे रक़ीब
लेखकों में लंठ जैसे ख़ुशनसीब।
मैं डबल जब, बना डमरू
इकबग़ल, तब बना वीणा।
मंद्र होकर कभी निकला
कभी बनकर ध्वनि क्षीणा।
मैं पुरुष और मैं ही अबला।
मैं मृदंग और मैं ही तबला।
चुन्ने ख़ाँ के हाथ का मैं ही सितार
दिगंबर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
मैं ही लायर, लीरिक मुझसे ही बने
संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने
मंत्र, ग़ज़लें, गीत मुझसे ही हुए शैदा
जीते हैं, फिर मरते हैं, फिर होते हैं पैदा।
वायलिन मुझसे बजा
बेंजो मुझसे सजा।
घंटा, घंटी, ढोल, डफ, घड़ियाल,
शंख, तुरही, मजीरे, करताल,
कारनेट्, क्लेरीअनेट्, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,
बजाने वाले हसन ख़ाँ, बुद्ध, पीटर,
मानते हैं सब मुझे ए बाएँ से,
जानते हैं दाएँ से।
ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह
देख, सबमें लगी है मेरी गिरह।
नाच में यह मेरा ही जीवन खुला
पैरों से मैं ही तुला।
कत्थक हो या कथकली या बालडांस,
क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमांस
बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,
पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौहें मटकानाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,
सब में मेरी ही गढ़न।
किसी भी तरह का हावभाव,
मेरा ही रहता है, सबमें ताव।
मैंने बदले पैंतरे, 
जहाँ भी शासक लड़े।
पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहाँ,
मियाँ-बीवी के, क्या कहना है वहाँ।
नाचता है सूदख़ोर जहाँ कहीं ब्याज डुचता,
नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुँचता।
नहीं मेरे हाड़; काँटे, काठ या,
नहीं मेरा बदन आठोगाँठ का।
रस ही रस मैं हो रहा
सफ़ेदी को जहन्नम रोकर रहा।
दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,
रस में मैं डूबा-उतराया।
मुझी में ग़ोते लगाए वाल्मीकि-व्यास ने 
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।
टुकुर-टुकुर देखा किए मेरे ही किनारे खड़े
हाफ़िज़-रवींद्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
कहीं का रोड़ा, कहीं का पत्थर
टी. एस. एलीयट ने जैसे दे मारा
पढ़ने वालों ने भी जिगर पर रखकर
हाथ, कहा, ‘लिख दिया जहाँ सारा’ 
ज़्यादा देखने को आँख दबाकर
शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
जैसे प्रोग्रेसीव का क़लम लेते ही
रोका नहीं रुकता जोश का पारा।
यहीं से यह कुल हुआ
जैसे अम्मा से बुआ।
मेरी सूरत के नमूने पीरामीड्
मेरा चेला था यूक्लीड्।
रामेश्वर, मीनाक्षी, भुवनेश्वर,
जगन्नाथ, जितने मंदिर सुंदर
मैं ही सबका जनक
जेवर जैसे कनक।
हो क़ुतुबमीनार,
ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,
विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,
मस्जिद, बग़दाद, जुम्मा, अलबत्ता
सेंट पीटर्स गिरजा हो या घंटाघर,
गुंबदों में, गढ़न में मेरी मुहर।
एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च
पड़ती है मेरी ही टार्च।
पहले के हों, बीच के या आज के
चेहरे से पिद्दी के हों या बाज़ के।
चीन के फ़ारस के या जापान के
अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।
ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के
कहीं की भी मकड़ी के।
बुने जाले जैसे मकाँ कुल मेरे
छत्ते के हैं घेरे।
सर सभी का फाँसने वाला हूँ ट्रेप
टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।
और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,
देख, मेरी नक़्ल है अँगरेज़ी हेट।
घूमता हूँ सर चढ़ा,
तू नहीं, मैं ही बड़ा।दो बाग़ के बाहर पड़े थे झोंपड़े
दूर से जो दिख रहे थे अधगड़े।
जगह गंदी, रुका, सड़ता हुआ पानी
रियों में; ज़िंदगी की लंतरानी—
बिलबिलाते कीड़े, बिखरी हड्डियाँलरों की, परों की थीं गड्डियाँ
कहीं मुर्ग़ी, कहीं अंडे
धूप खाते हुए कंडे।
हवा बदबू से मिली
हर तरह की बासीली पड़ गई।
रहते थे नव्वाब के ख़ादिम
अफ़्रीका के आदमी आदिम—
ख़ानसामाँ, बावर्ची और चोबदार;
सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,
तामजानवाले कुछ देशी कहार,
नाई, धोबी, तेली, तंबोली, कुम्हार,
फ़ीलवान, ऊँटवान, गाड़ीवान
एक ख़ासा हिंदू-मुस्लिम ख़ानदान।
एक ही रस्सी से क़िस्मत की बँधा
काटता था ज़िंदगी गिरता-सधा।
बच्चे, बुड्ढे, औरतें और नौजवान
रहते थे उस बस्ती में, कुछ बाग़बान
पेट के मारे वहाँ पर आ बसे,
साथ उनके रहे, रोए और हँसे।
एक मालिन
बीबी मोना माली की थी बंगालिन;
लड़की उसकी, नाम गोली
वह नव्वाबज़ादी की थी हमजोली।
नाम था नव्वाबज़ादी का बहार
नज़रों में सारा जहाँ फ़र्माबरदार।
सारंगी जैसी चढ़ी
पोएट्री में बोलती थी
प्रोज़ में बिल्कुल अड़ी।
गोली की माँ बंगालिन, बहुत शिष्ट
पोएट्री की स्पेशलिस्ट।
बातों जैसे मजती थी।
सारंगी वह बजती थी।
सुनकर राग, सरगम, तान 
खिलती थी बहार की जान।
गोली की माँ सोचती थी—
गुरु मिला, 
बिना पकड़े खींचे कान 
देखादेखी बोली में
माँ की अदा सीखी नन्ही गोली ने।
इसलिए बहार वहाँ बारहोमास ।
डटी रही गोली की माँ के
कभी गोली के पास।
सुब्हो-शाम दोनों वक़्त जाती थी
ख़ुशामद से तनतनाई आती थी।
गोली डाँडी पर पासंगवाली कौड़ी।
स्टीमबोट की डोंगी, फिरती दौड़ी।
पर कहेंगे—
‘साथ ही साथ वहाँ दोनों रहती थीं
अपनी-अपनी कहती थीं।
दोनों के दिल मिले थे
तारे खुले-खिले थे।
हाथ पकड़े घूमती थीं।
खिलखिलाती झूमती थीं।
इक पर इक करती थीं चोट
हँसकर होतीं लोटपोट।
सात का दोनों का सिन
ख़ुशी से कटते थे दिन।'
महल में भी गोली जाया करती थी।
जैसे यहाँ बहार आया करती थी।
एक दिन हँसकर बहार यह बोली—
“चलो, बाग़ घूम आएँ हम, गोली।”
दोनों चलीं, जैसे धूप, और छाँह
गोली के गले पड़ी बहार की बाँह।
साथ टेरियर और एक नौकरानी।
सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी
सिटपिटाई जैसे अड़गड़े में देखा मर्द को
बाबू ने देखा हो उठती गर्द को।
निकल जाने पर बहार के, बोली
पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली
मोना बंगाली की लड़की।
भैंस भड़की,
ऐसी उसकी माँ की सूरत
मगर है नव्वाब की आँखों में मूरत।
रोज़ जाती है महल को, जगे भाग 
आँख का जब उतरा पानी, लगे आग,
रोज़ ढोया आ रहा है माल-असबाब
बन रहे हैं गहने-ज़ेवर
पकता है कलिया-कबाब।”
झटके से सिर-काँख पर फिर लिए घड़े
चली ठनकाती कड़े।
बाग़ में आई बहार 
चंपे की लंबी क़तार
देखती बढ़ती गई
फूल पर अड़ती गई।
मौलसिरी की छाँह में
कुछ देर बैठी बेंच पर 
फिर निगाह डाली एक रेंज पर 
देखा फिर कुछ उड़ रही थीं तितलियाँ
डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियाँ।
भौरे गूँजते, हुए मतवाले-से 
उड़ गया इक मकड़ी के फँसकर बड़े-से जाले से।
फिर निगाह उठाई आसमान की ओर
देखती रही कि कितनी दूर तक छोर।
देखा, उठ रही थी धूप—
पड़ती फुनगियों पर, चमचमाया रूप।
पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े
ताज पहने, हैं खड़े।
आया माली, हाथ गुलदस्ते लिए
गुलबहार को दिए।
गोली को इक गुलदस्ता
सूँघकर हँसकर बहार ने दिया।
ज़रा बैठकर उठी, तिरछी गली
होती कुंज को चली!
देखी फ़ारांसीसी लिली
और गुलबकावली।
फिर गुलाबजामुन का बाग़ छोड़ा
तूतों के पेड़ों से बाएँ मुँह मोड़ा।
एक बग़ल की झाड़ी
बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।
देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फूल
लहराया जी का सागर अकूल।
दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता।
जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता'।
सकपकाई, बहार देखने लगी 
जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दग़ी।
भूल गई, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार
सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।
टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार
तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनपे निसार।
बहुत उगे थे तब तक
उसने कुल अपने आँचल में 
तोड़कर रखे अब तक
घूमी प्यार से 
मुसकराती देखकर बोली बहार से—
“देखो जी भरकर गुलाब
हम खाएँगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी उससे, जीभ में बहार की आया पानी।
पूछा “क्या इसका कबाब
होगा ऐसा भी लज़ीज़?
जितनी भाजियाँ दुनिया में
इसके सामने नाचीज़?''
गोली बोली—“जैसी ख़ुशबू
इसका वैसा ही सवाद,
खाते-खाते हर एक को
आ जाती है बिहिश्त की याद
सच समझ लो, इसका कलिया
तेल का भूना कबाब,
भाजियों में वैसा
जैसा आदमियों में नवाब।”
“नहीं ऐसा कहते री मालिन की
छोकड़ी बंगालिन की!”
डाँटा नौकरानी ने—
चढ़ी-आँख कानी ने।
लेकिन यह, कुछ एक घूँट लार के
जा चुके थे पेट में तब तक बहार के।
“नहीं-नहीं, अगर इसको कुछ कहा”
पलटकर बहार ने उसे डाँटा—
“कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,
इसके साथ यहाँ जाना है।”
“बता, गोली” पूछा उसने,
कुकुरमुत्ते का कबाब
वैसी ख़ुशबू देता है 
जैसी कि देता है गुलाब!”
गोली ने बनाया मुँह 
बाएँ घूमकर फिर एक छोटी-सी निकाली “ऊँह!”
कहा, “बकरा हो या दुंबा
मुर्ग़ या कोई परिंदा
इसके सामने सब छू:
सबसे बढ़कर इसकी ख़ुशबू।
भरता है गुलाब पानी
इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।
चाव से गोली चली
बहार उसके पीछे हो ली,
उसके पीछे टेरियर, फिर नौकरानी
पोंछती जो आँख कानी।
चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।
उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर—
आधुनिक पोएट (Poet)
पीछे बाँदी बचत की सोचती
केपीटलिस्ट क्वेट।
झोंपड़ी में जल्द चलकर गोली आई
ज़ोर से 'माँ' चिल्लाई।
माँ ने दरवाज़ा खोला,
आँखों से सबको तोला।
भीतर आ डलिए में रक्खे
गोली ने वे कुकुरमुत्ते।
देखकर माँ खिल गई,
निधि जैसे मिल गई।
कहा गोली ने “अम्मा,
कलिया-कबाब जल्द बना।
पकाना मसालेदार
अच्छा, खाएँगी बहार।
पतली-पतली चपातियाँ
उनके लिए सेंक लेना।
जला ज्यों ही उधर चूल्हा,
खेलने लगीं दोनों दूल्हन-दूल्हा।
कोठरी में अलग चलकर
बाँदी की कानी को छलकर।
टेरियर था बराती
आज का गोली का साथी।
हो गई शादी की फिर दूल्हन-बहार से।
दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।
इस तरह कुछ वक़्त बीता, खाना तैयार
हो गया, खाने चलीं गोली और बहार।
कैसे कहें भाव जो माँ की आँखों से बरसे
थाली लगाई बड़े समादर से।
खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,
“ऐसा खाना आज तक नहीं खाया।
शौक़ से लेकर सवाद
खाती रहीं दोनों
कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।
बाँदी को भी थोड़ा-सा
गोली की माँ ने कबाब परोसा।
अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी
बाद को ला दिया,
हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी जब बहार से
नव्वाब के मुँह आया पानी।
बाँदी से की पूछताछ,
उनको हो गया विश्वास।
माली को बुला भेजा,
कहा, “कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताज़ा-ताज़ा।
माली ने कहा, हुज़ूर,
कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज़ हो मंज़ूर,
रहे हैं अब सिर्फ़ गुलाब।
ग़ुस्सा आया, काँपने लगे नव्वाब।
बोले, चल, गुलाब जहाँ थे, उगा,
सबके साथ हम भी चाहते हैं अब कुकुरमुत्ता।
बोला माली, फ़रमाएँ मआफ़ ख़ता,
कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

यह भी पढ़ें : पढ़िए हिंदी की महान कविताएं, जो आपके भीतर साहस का संचार करेंगी

तोड़ती पत्थर

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “तोड़ती पत्थर” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

वह तोड़ती पत्थर; 
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर— 
वह तोड़ती पत्थर। 
कोई न छायादार 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार; 
श्याम तन, भर बँधा यौवन, 
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन, 
गुरु हथौड़ा हाथ, 
करती बार-बार प्रहार :— 
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार। 
चढ़ रही थी धूप; 
गर्मियों के दिन 
दिवा का तमतमाता रूप; 
उठी झुलसाती हुई लू, 
रुई ज्यों जलती हुई भू, 
गर्द चिनगीं छा गईं, 
प्राय: हुई दुपहर :— 
वह तोड़ती पत्थर। 
देखते देखा मुझे तो एक बार 
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार; 
देखकर कोई नहीं, 
देखा मुझे उस दृष्टि से 
जो मार खा रोई नहीं, 
सजा सहज सितार, 
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार 
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर, 
ढुलक माथे से गिरे सीकर, 
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा— 
‘मैं तोड़ती पत्थर।’

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

सच है

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “सच है” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;

यह सच है :— 
तुमने जो दिया दान दान वह, 
हिंदी के हित का अभिमान वह, 
जनता का जन-ताका ज्ञान वह, 
सच्चा कल्याण वह अथच है— 
यह सच है! 
बार बार हार हार मैं गया, 
खोजा जो हार क्षार में नया, — 
उड़ी धूल, तन सारा भर गया, 
नहीं फूल, जीवन अविकच है— 
यह सच है!

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ। 
आज अमीरों की हवेली 
किसानों की होगी पाठशाला, 
धोबी, पासी, चमार, तेली 
खोलेंगे अँधेरे का ताला, 
एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ। 
यहाँ जहाँ सेठ जी बैठे थे 
बनिए की आँख दिखाते हुए, 
उनके ऐंठाए ऐंठे थे 
धोखे पर धोखा खाते हुए, 
बैंक किसानों का खुलाओ। 
सारी संपत्ति देश की हो, 
सारी आपत्ति देश की बने, 
जनता जातीय वेश की हो, 
वाद से विवाद यह ठने, 
काँटा काँटे से कढ़ाओ।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

यह भी पढ़ें : Poem on Lohri in Hindi

राजे ने अपनी रखवाली की

Nirala ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “राजे ने अपनी रखवाली की” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

राजे ने अपनी रखवाली की; 
क़िला बनाकर रहा; 
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं। 
चापलूस कितने सामंत आए। 
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए। 
कितने ब्राह्मण आए 
पोथियों में जनता को बाँधे हुए। 
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए, 
लेखकों ने लेख लिखे, 
ऐतिहासिकों ने इतिहासों के पन्ने भरे, 
नाट्यकलाकारों ने कितने नाटक रचे, 
रंगमंच पर खेले। 
जनता पर जादू चला राजे के समाज का। 
लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं। 
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ। 
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर। 
ख़ून की नदी बही। 
आँख-कान मूँदकर जनता ने डुबकियाँ लीं। 
आँख खुली-राजे ने अपनी रखवाली की।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

वर दे वीणावादिनी वर दे

वर दे, वीणावादिनि वर दे!

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव

     भारत में भर दे!

काट अंध-उर के बंधन-स्तर

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;

कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर

        जगमग जग कर दे!

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव

नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;

नव नभ के नव विहग-वृंद को

     नव पर, नव स्वर दे! 

वर दे, वीणावादिनि वर दे।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

संबंधित आर्टिकल

Rabindranath Tagore PoemsHindi Kavita on Dr BR Ambedkar
Christmas Poems in HindiBhartendu Harishchandra Poems in Hindi
Atal Bihari Vajpayee ki KavitaPoem on Republic Day in Hindi
Arun Kamal Poems in HindiKunwar Narayan Poems in Hindi
Poem of Nagarjun in HindiBhawani Prasad Mishra Poems in Hindi
Agyeya Poems in HindiPoem on Diwali in Hindi
रामधारी सिंह दिनकर की वीर रस की कविताएंरामधारी सिंह दिनकर की प्रेम कविता
Ramdhari singh dinkar ki kavitayenMahadevi Verma ki Kavitayen
Lal Bahadur Shastri Poems in HindiNew Year Poems in Hindi
Phanishwar Nath Renu Poem in HindiPhanishwar Nath Renu Poem in Hindi

आशा है कि Nirala ki Kavitayen आपको एक नया दृष्टिकोण मिला होगा। इस ब्लॉग के माध्यम से आप सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं पढ़ पाएं होंगे, जो कि आपको सदा प्रेरित करती रहेंगी। हिंदी की महान कविताएं आपको जीवनभर प्रेरित करेंगी। इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहें।

प्रातिक्रिया दे

Required fields are marked *

*

*