Teachers Day Poem in Hindi : शिक्षक दिवस पर कविता, जो करेंगी साहित्य के माध्यम से गुरु का सम्मान

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Teachers Day Poem in Hindi

शिक्षक दिवस के अवसर पर आप अपने गुरुओं के साथ कुछ विशेष कविताएं साझा कर सकते हैं, जो आपके गुरुओं का सम्मान करेंगी। शिक्षक दिवस एक ऐसा दिन है, जो भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के अवसर पर हर साल 5 सितंबर को मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन एक ऐसे महान शिक्षक और विद्वान थे, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र से लेकर राष्ट्र निर्माण में एक अहम भूमिका निभाई। शिक्षक दिवस ऐसे ही कई महान शिक्षकों को सम्मानित करने का दिन हैं, जिनके महत्वपूर्ण योगदान और मार्गदर्शन से हम अपने जीवन में सकारात्मकता के साथ सफलता के शीर्ष तक पहुँच सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको शिक्षक दिवस पर कविता (Teachers Day Poem in Hindi) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जिनके माध्यम से आप अपने गुरुओं को सम्मानित कर पाएंगे।

शिक्षक दिवस पर कविता – Teachers Day Poem in Hindi

शिक्षक दिवस पर कविता (Teachers Day Poem in Hindi) पढ़कर आप इन्हें अपने गुरुजनों के साथ साझा कर पाएंगे। ये कविता कुछ इस प्रकार हैं –

मेरे गुरुदेव

‘यह लोक ही मेरा कुटुम्ब है; 
तृण-पल्लव कीट-पतंग ही मेरे परिजन हैं; 
त्याग ही सम्पत्ति है; विनय ही उन्नति है
ऐसा मानने वाले योग के ज्ञाता मेरे गुरुदेव की जय हो! 

तारक-रत्न-माल्य पहनाया जाए तो भी ठीक, और 
काले मेघों से ढक दिया जाए तो भी ठीक! 
वे हैं सर्वथा निःसंग, निर्लिप्त! सम स्वच्छ 
आकाश जैसे हैं मेरे गुरुदेव! 

मेरे गुरुदेव ऐसे दुर्लभ तीर्थ-हृदय हैं जो दुर्जन्तु-रहित हैं, 
वे ऐसे हैं जिनसे कालिमा नहीं फैलती, 
वे ऐसे माणिक्य महानिधि हैं जिन पर सर्पों की छाया 
भी कभी नहीं पड़ी 
मेरे गुरुदेव ऐसी चाँदनी हैं जिसने कभी छाया नहीं 
डाली 

बिना शस्त्र के धर्म-युद्ध करने वाले 
बिना पुस्तक के पुण्याध्ययन करने वाले 
बिना औषधि के रोग नष्ट करने वाले 
बिना हिंसा-दोष के यज्ञ करने वाले हैं मेरे गुरुदेव! 

शाश्वत अहिंसा है उन महात्मा का व्रत 
शांति प्रारंभ से ही उनकी इष्ट देवी है 
वे कहा करते हैं, ‘अहिंसा-रूपी कवच किस 
तलवार की धार नहीं मोड़ देता?’ 

अहिंसा-रूपी पत्नी से मिले धर्म का सरस संलाप, 
आर्य-सत्य की सभा का संगीत एवं 
मुक्ति के रत्न-मंजरी की झनकार हैं
मेरे गरुवर्य के शोभन वचन! 

प्रेम से लोक को जीतने वाले इस योद्धा के लिए 
प्राण ही मनुष्य है, आत्मा ही बाण, और ब्रह्म ही लक्ष्य! 
ओंकार को भी धीरे-धीरे पिघलाकर वे 
उसका एक सूक्ष्मतम अंश ही अपने लिए लेते हैं 

भगवान् ईसा का त्याग, साक्षात् 
श्रीकृष्ण का धर्म-रक्षा-उपाय 
बुद्धदेव की अहिंसा, शंकराचार्य की प्रतिभा 
रन्तिदेव की करुणा, हरिश्चन्द्र का सत्य 
मुहम्मद की स्थिरता सब एक साथ 
एक व्यक्ति में देखना हो तो 
आइए मेरे गुरु के पास 

उनके चरणों का दर्शन कर लेने पर 
एक बार कायर भी धीर बन जाता है; क्रूर भी कृपालु 
कृपण भी दानवीर, परुषवादी भी प्रियवादी 
अशुद्ध भी परिशुद्ध और आलसी भी परिश्रमी बन जाता है 

चारों ओर शांति फैलाने वाले उस तपस्वी के सामने 
आततायी की कटार नीलोत्पल-माला है 
द्रष्टा-कराल केसरी, मृग-शावक और 
भयंकर लहरें उठाने वाला सागर क्रीड़ा-पुष्करिणी है! 

गंभीर कार्य-चिंतन के समय उस नेता के लिए 
कानन-प्रदेश भी कांचन-सभा-मंडप है 
निश्चल समाधि में स्थित होने पर उस योगी के लिए 
नगर-मध्यस्थल भी पर्वत-गुहांतर है 

उस धर्म-कर्षक का सत्कर्म, खेत-खेत में 
शुद्ध स्वर्ण ही पैदा करता है 
और उस सिद्ध की आँखें स्वर्ण को भी 
इस भूमि की पीली मिट्टी-जैसा ही देखती हैं। 

उस महा-विरक्त के लिए संपूज्य साम्राज्यश्री भी 
चामर-चलन से दाँत दिखाने वाली पिशाचिनी है 
किसी मृदुतम, कुसुम-कोमल चरण को भी पीड़ा न हो 
इसलिए जो महात्मा स्वातंत्र्य के दुर्गम मार्ग पर रेशमी 
पांवड़े बिछा रहे हैं 
वह महानुभाव स्वयं वल्कल का टुकड़ा 
पहनकर सदा अर्धनग्न रहते हैं! 

गीता-जननी भारत-भूमि ही 
ऐसे किसी कर्मयोगी को जन्म दे सकती है 
हिमवत्-विंध्याचल, मध्य प्रदेश में ही 
शम की साधना करने वाला ऐसा सिंह दिखाई देगा 
गंगा नदी जिस प्रदेश में प्रवाहित होती है उसी में 
मंगल-फल देने ऐसा कल्प-वृक्ष उग सकता है 

नमस्ते गतवर्ष! नमस्ते दुराधर्ष। 
नमस्ते सुमहात्मन्! नमस्ते जगद्गुरो!”

-वल्लत्तोल

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गुरु और चेला

गुरु एक थे और था एक चेला,
चले घूमने पास में था न धेला।
चले चलते-चलते मिली एक नगरी,
चमाचम थी सड़कें चमाचम थी डगरी।

मिली एक ग्वालिन धरे शीश गगरी,
गुरु ने कहा तेज़ ग्वालिन न भग री।
बता कौन नगरी, बता कौन राजा,
कि जिसके सुयश का यहाँ बजता बाजा।

कहा बढ़के ग्वालिन ने महाराज पंडित,
पधारे भले हो यहाँ आज पंडित।
यह अँधेर नगरी है अनबूझ राजा,
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।

गुरु ने कहा-जान देना नहीं है,
मुसीबत मुझे मोल लेना नहीं है।
न जाने की अँधेर हो कौन छन में?
यहाँ ठीक रहना समझता न मन में।

गुरु ने कहा किंतु चेला न माना,
गुरु को विवश हो पड़ा लौट जाना।
गुरुजी गए, रह गया किंतु चेला,
यही सोचता हूँगा मोटा अकेला।

चला हाट को देखने आज चेला,
तो देखा वहाँ पर अजब रेल-पेला।
टके सेर हल्दी, टके सेर जीरा,
टके सेर ककड़ी टके सेर खीरा।

टके सेर मिलती थी रबड़ी मलाई,
बहुत रोज़ उसने मलाई उड़ाई।
सुनो और आगे का सिर हाल ताज़ा।
थी अँधेर नगरी, था अनबूझ राजा।

बरसता था पानी, चमकती थी बिजली,
थी बरसात आई, दमकती थी बिजली।
गरजते थे बादल, झमकती थी बिजली,
थी बरसात गहरी, धमकती थी बिजली।

गिरी राज्य की एक दीवार भारी,
जहाँ राजा पहुँचे तुरत ले सवारी।
झपट संतरी को डपटकर बुलाया,
गिरी क्यों यह दीवार, किसने गिराया?

कहा संतरी ने-महाराज साहब,
न इसमें ख़ता मेरी, ना मेरा करतब!
यह दीवार कमज़ोर पहले बनी थी,
इसी से गिरी, यह न मोटी घनी थी।

ख़ता कारीगर की महाराज साहब,
न इसमें ख़ता मेरी, या मेरा करतब!
बुलाया गया, कारीगर झट वहाँ पर,
बिठाया गया, कारीगर झट वहाँ पर।

कहा राजा ने-कारीगर को सज़ा दो
ख़ता इसकी है आज इसको कज़ा दो।
कहा कारीगर ने, ज़रा की न देरी,
महाराज! इसमें ख़ता कुछ न मेरी।

यह भिश्ती की ग़लती यह उसकी शरारत,
किया गारा गीला उसी की यह ग़फ़लत।
कहा राजा ने-जल्द भिश्ती बुलाओ।
पकड़कर उसे जल्द फाँसी चढ़ाओ।

चला आया भिश्ती, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने-इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह ग़लती है जिसने मशक़ को बनाया,
कि ज़्यादा ही जिसमें था पानी समाया।

मशकवाला आया, हुई कुछ न देरी,
कहा उसने इसमें ख़ता कुछ न मेरी।
यह मंत्री की ग़लती, है मंत्री की ग़फ़लत,
उन्हीं की शरारत, उन्हीं की है हिकमत।

बड़े जानवर का था चमड़ा दिलाया,
चुराया न चमड़ा मशक को बनाया।
बड़ी है मशक ख़ूब भरता है पानी,
ये ग़लती न मेरी, यह ग़लती बिरानी।

है मंत्री की ग़लती तो मंत्री को लाओ,
हुआ हुक्म मंत्री को फाँसी चढ़ाओ।
चले मंत्री को लेके जल्लाद फ़ौरन,
चढाने को फाँसी उसी दम उसी क्षण।

मगर मंत्री था इतना दुबला दिखाता,
न गर्दन में फाँसी का फंदा था आता।
कहा राजा ने जिसकी मोटी हो गर्दन,
पकड़कर उसे फाँसी दो तुम इसी क्षण।

चले संतरी ढूँढ़ने मोटी गर्दन,
मिला चेला खाता था हलुआ दनादन।
कहा संतरी ने चलें आप फ़ौरन,
महाराज ने भेजा न्यौता इसी क्षण।

बहुत मन में ख़ुश हो चला आज चेला,
कहा आज न्यौता छकूँगा अकेला!!
मगर आके पहुँचा तो देखा झमेला,
वहाँ तो जुड़ा था अजब एक मेला।

यह मोटी है गर्दन, इसे तुम बढ़ाओ,
कहा राजा ने इसको फाँसी चढ़ाओ!
कहा चेले ने-कुछ ख़ता तो बताओ,
कहा राजा ने-‘चुप’ न बकबक मचाओ।

मगर था न बुद्ध-था चालाक चेला,
मचाया बड़ा ही वहीं पर झमेला!!
कहा पहले गुरु जी के दर्शन कराओ,
मुझे बाद में चाहे फाँसी चढ़ाओ।

गुरुजी बुलाए गए झट वहाँ पर,
कि रोता था चेला खड़ा था जहाँ पर।
गुरु जी ने चेले को आकर बुलाया,
तुरत कान में मंत्र कुछ गुनगुनाया।

झगड़ने लगे फिर गुरु और चेला,
मचा उनमें धक्का रेल-पेला।
गुरु ने कहा-फाँसी पर मैं चढ़ूँगा,
कहा चेले ने-फाँसी पर मैं मरूँगा।

हटाए न हटते अड़े ऐसे दोनों,
छुटाए न छुटते लड़े ऐसे दोनों।
बढ़े राजा फ़ौरन कहा बात क्या है?
गुरु ने बताया करामात क्या है।

चढ़ेगा जो फाँसी महूरत है ऐसी,
न ऐसी महूरत बनी बढ़िया जैसी।
वह राजा नहीं, चक्रवर्ती बनेगा,
यह संसार का छत्र उस पर तनेगा।

कहा राजा ने बात सच गर यही
गुरु का कथन, झूठ होता नहीं है
कहा राजा ने फाँसी पर मैं चढ़ूँगा
इसी दम फाँसी पर मैं ही टँगूँगा।

चढ़ा फाँसी राजा बजा ख़ूब बाजा
प्रजा ख़ुश हुई जब मरा मूर्ख़ राजा
बजा ख़ूब घर-घर बधाई का बाजा।
थी अँधेर नगरी, था अनबूझ राजा

-सोहनलाल द्विवेदी

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प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका

प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका 
अपने जीवन के लिए एक कविता माँगती है 
उसे मिलती है हरी सब्ज़ियाँ खाने की सलाह 
घूरती हुई अजीब निगाहें 

रास्तें में मिलता है एक बच्चा 
लालच भरी नज़रों से देखता 
उन स्तनों की ओर 
जिनमें हो सकता था दूध 

कितनी दूर से आकर 
एक अनजान क़स्बे में 
कमरा ढूँढ़ती है अकेली औरत 

कुएँ में कूद नहीं जाती है 
आग में जल नहीं जाती है 
नदी में डूब नहीं जाती है 
अकेली औरत एक कमरा ढूँढ़ती है 

जहाँ पर सुलगा सके सिगड़ी 
सुखा सके कपड़े 
पहुँच सके हर सुबह 
क़स्बे की धूल को चीरते हुए 
स्कूल के मैदान तक 
राज्यादेश भटकाता है औरतों को 
एक शहर से दूसरे शहर 
वे चौराहों पर भटकती हैं 
गणतंत्र की उदास गायें 

कितनी तकलीफ़ कितना अफ़सोस होता है 
कि वह औरत वेश्या नहीं है 
जो अभी-अभी उतरी है बस से 
क़स्बे के स्कूल की नई अध्यापिका।

-कृष्ण कल्पित

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जग में गुरु महान है

गुरु शिक्षा की खान है,
जग में गुरु महान है।
सीख देने वाले भू-तल में,
देवतुल्य इंसान है।।

ज्ञान का अलख जगाते,
अच्छे संस्कार दे जाते हैं।
गुरु का ज्ञान पाकर,
हम खुद को धन्य पाते हैं।।

कुम्हार मिट्टी थाप लगाकर,
देता उसे नई पहचान है।
गुरु शून्यरूपी नादान को,
बनाते उच्च कोटि इंसान है।।

गुरु की महिमा तो,
गाता सारा जहान है।
मिलता ऊँचा शिखर,
गुरु से राष्ट्र निर्माण है।।

गुरु ही साक्षात पारब्रह्म,
ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
इनके पथ प्रदर्शन से,
जीवन में न होता क्लेश।।

महामानव गुरु को,
लगाऊँ तिलक चंदन।
नव सृजनकर्ता गुरु का,
करूँ बारम्बार वंदन।।
करूँ बारम्बार वंदन।।

-महेन्द्र साहू

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शिक्षा की ज्योति – अध्यापिका

जो हैं अटके, भूले-भटके,
उनको राह दिखाएँगे
ज्ञान-विज्ञान संस्कार सिखा,
शिक्षा जोत जलाएँगे

शिक्षक हैं हम,
शिक्षा की ज्योति जलाएँगे
देश-धर्म और जात-पात से,
हम ऊपर उठ जाएँगे

समता का नवगीत रचेंगे,
ज्ञान का अलख जगाएँगे
शिक्षक हैं हम,
शिक्षा की ज्योति जलाएँगे

छूट गए जो अंधियारे में,
अब अलग नहीं रह पाएँगे
शिक्षा के अमर उजाले में,
उनको भी हम लाएँगे

शिक्षक हैं हम,
शिक्षा की ज्योति जलाएँगे
खेल-खेल में पढ़ना होगा,
ढंग नए अपनाएँगे

महक उठेगा सबका जीवन,
सब बच्चे मुस्काएँगे
शिक्षक हैं हम,
शिक्षा की ज्योति जलाएँगे

-लोकेश्वरी कश्यप

ज्ञान की बातें

ज्ञान की बातें जो सिखलाता,
गुरु हमारा वह कहलाता
ज्ञान दीप की ज्योति देकर,
अंधकार को दूर भगाता

संस्कार सिखलाए गुरु जी,
बड़ो का मान बतलाए गुरुजी
अनुशासन भी वो सिखलाते,
त्याग समर्पण वह बतलाते

सबको ज्ञान बाँटते जाते,
अपना ज्ञान बढ़ाते जाते
उनकी ताकत होती कलम,
कलम नहीं किसी से कम

विद्यालय है घर जैसा,
हम सब उनके बच्चे जैसे
एक साथ रहना बतलाए,
सबसे स्नेह करना सिखलाए

उनके चरण कमल को मैं,
सत-सत नमन करती जाऊँ
ज्ञान दीप की ज्योति लेकर,
उनका मैं गौरव बन जाऊँ

-धारणी सोनवानी

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टीचर्स डे पर छोटी कविता – Teachers Day Short Poem in Hindi

टीचर्स डे पर छोटी कविता (Teachers Day Short Poem in Hindi) के माध्यम से आप कम शब्दों में अपने गुरुओं को सम्मानित कर पाएंगे। ये कविताएं कुछ इस प्रकार हैं –

गुरु की वाणी

गुरु आपकी ये अमृत वाणी
हमेशा मुझको याद रहे
जो अच्छा है जो बुरा है
उसकी हम पहचान करें
मार्ग मिले चाहे जैसा भी
उसका हम सम्मान करें
दीप जले या अंगारे हों
पाठ तुम्हारा याद रहे
अच्छाई और बुराई का
जब भी हम चुनाव करें
गुरु आपकी ये अमृत वाणी
हमेशा मुझको याद रहे

-सुजाता मिश्रा

गुरु महिमा

गुरु की महिमा निशि-दिन गाएँ,
हर दम उनको शीश नवाएँ।
जीवन में उजियारा भर लें,
अंधकार को मार भगाएँ।

सत्य मार्ग पर चलना बच्चो,
गुरुदेव हमको सिखलाएँ।
पर्यावरण बिगड़ न पाए,
धरती पर हम वृक्ष लगाएँ।

पानी अमृत है धरती का,
बूँद-बूँद हम रोज बचाएँ।
सिर्फ जिएँ न अपनी खातिर,
काम दूसरों के भी आएँ।

मात, पिता, गुरु, राष्ट्र की सेवा,
यह संकल्प सदा दोहराएँ।
बातें मानें गुरुदेव की,
अपना जीवन सफल बनाएँ।

-घनश्याम मैथिल

नए शिक्षक

मेरे पास 
या तो चुप्पी बची है 
या चीख़ 
लेकिन 
उन्हें न तो चुप्पी समझ आती है 
न चीख़ 

संवाद में 
उसे सिर्फ़ वाद समझ आता है 
प्रतिवाद नहीं 

दुर्भाग्य से ये नए शिक्षक हैं 
जो हमें नई सहमति की भाषा सिखा रहे हैं 
जिसका संबंध सीधा रीढ़ से होता है।

-परमेंद्र सिंह

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