शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ आधुनिक हिंदी कविता में एक मुख्य भूमिका निभाती हैं। शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ युवाओं का मार्गदर्शन करने के साथ-साथ, उन्हें प्रेरित करने का भी काम करती हैं। विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों को अपने दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए ज्यादा से ज्यादा कवियों की कविताओं को पढ़ना चाहिए, क्योंकि कविताएं उनकी चेतना को जागृत रखने में सहायक भूमिका निभा सकती हैं। हिंदी साहित्य में कई ऐसी अनमोल मणिया हुई है, जिनके लेखन ने समाज पर गहरा प्रभाव डाला, ऐसी ही एक अनमोल मणि “शमशेर बहादुर सिंह” भी थे। इस ब्लॉग के माध्यम से आप शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ पढ़ पाएंगे, जिससे आपके जीवन को नया दृष्टिकोण मिलेगा।
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शमशेर बहादुर सिंह का संक्षिप्त जीवन परिचय
शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ पढ़ने सेे पहले आपको शमशेर बहादुर सिंह का संक्षिप्त जीवन परिचय पढ़ लेना चाहिए। शमशेर बहादुर सिंह एक ऐसे लोकप्रिय कवि थे, जिनका हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त था, यानि कि वह दोनों ही भाषाओं के लोगों के बीच लोकप्रिय थे।
13 जनवरी, 1911 को शमशेर बहादुर सिंह का जन्म आज के उत्तराखंड के देहरादून में हुआ था। शमशेर बहादुर सिंह के पिता का नाम श्री बाबू तारीफ सिंह तथा माता का नाम श्रीमति प्रभुदेई था। शमशेर बहादुर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा गोंडा और देहरादून में हुई थी। इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद शमशेर बहादुर सिंह ने बी.ए की पढ़ाई के लिए ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय’ को चुना और यहाँ से अंग्रेजी साहित्य में बी.ए ऑनर्स की डिग्री हासिल की।
जीवन भर अपनी लेखनी से समाज को प्रभावित करने वाले शमशेर बहादुर सिंह को वर्ष 1977 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् का ‘तुलसी पुरस्कार’, वर्ष 1977 को साहित्य अकादमी पुरस्कार, वर्ष 1989 कबीर सम्मान और मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य के प्रति जीवन को समर्पित करने वाले शमशेर बहादुर सिंह का 82 वर्ष की आयु में 12 मई 1993 को अहमदाबाद में निधन हो गया।
शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ
शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ आपका परिचय साहित्य के सौंदर्य से करवाएंगी, जिसके लिए यहाँ आपको उनकी कविताओं को पढ़ने का अवसर मिलेगा। शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं की सूची कुछ इस प्रकार हैं:
कविता का नाम | कवि का नाम |
टूटी हुई, बिखरी हुई | शमशेर बहादुर सिंह |
बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा | शमशेर बहादुर सिंह |
कत्थई गुलाब | शमशेर बहादुर सिंह |
ओ मेरे घर | शमशेर बहादुर सिंह |
हमारे सिवा इनका रस कौन जाने! | शमशेर बहादुर सिंह |
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टूटी हुई, बिखरी हुई
शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ आपको बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करने का काम करेंगी। इन कविताओं में एक कविता “टूटी हुई, बिखरी हुई” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
टूटी हुई बिखरी हुई चाय की दली हुई पाँव के नीचे पत्तियाँ मेरी कविता बाल, झड़े हुए, मैले से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी चिपके ...कुछ ऐसी मेरी खाल, मुझसे अलग-सी, मिट्टी में मिली-सी दोपहर बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ जैसे मेरी पसलियाँ... ख़ाली मेरी पसलियाँ... ख़ाली बोरे सूजों से रफ़ू किए जा रहे हैं... जो मेरी आँखों का सूनापन हैं ठंड भी एक मुसकराहट लिए हुए है जो कि मेरी दोस्त है। कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई... मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफ़िए क्या थे, इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा उनका दर्द था। आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है। मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ और चमक रहा हूँ कहीं... न जाने कहाँ। मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार— जिसके स्वर गीले हो गए हैं, छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है... छप् छप् छप्। वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है। वह दुकान मैंने खोली है जहाँ ‘प्वाइज़न’ का लेबुल लिए हुए दवाइयाँ हँसती हैं— उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है। वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होंठों पर एक तलुए के बल खड़ी है मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह खुरच रहे हैं उसके एक चुंबन की स्पष्ट परछाईं मुहर बनकर उसके तलुओं के ठप्पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है। मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ। मुझको सूरज की किरनों में जलने दो— ताकि उसकी आँच और लपट में तुम फ़ौवारे की तरह नाचो। मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो, ताकि उसकी दबी हुई ख़ुशबू से अपने पलकों की उनींदी जलन को तुम भिंगो सको, मुमकिन है तो। हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाज़े की शर्माती चूलें सवाल करतीं हैं बार-बार... मेरे दिल के अनगिनती कमरों से। हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं ...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं, जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ। आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में मुझे लिखो और मुझे पढ़ो। आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो। आईनो, मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ। एक फूल ऊषा की खिलखिलाहट पहनकर रात का गड़ता हुआ काला कंबल उतारता हुआ मुझसे लिपट गया। उसमें काँटे नहीं थे—सिर्फ़ एक बहुत काली, बहुत लंबी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक साया किए हुए थी... जहाँ मेरे पाँव खो गए थे। वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर एक ज़िंदा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा— और तब मैंने देखा कि सिर्फ़ एक साँस हूँ जो उसकी बूँदों में बस गई है। जो तुम्हारे सीनों में फाँस की तरह ख़ाब में अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी। मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका, क्योंकि मेरे झुकते न झुकते उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर खो गई थी। जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफ़ाफ़ा तुम्हारे हाथ आया। बहुत उसे उलटा-पलटा—उसमें कुछ न था— तुमने उसे फेंक दिया ׃ तभी जाकर मैं नीचे पड़ा हुआ तुम्हें ‘मैं’ लगा। तुम उसे उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर मुझे वहीं छोड़ दिया। मैं तुमसे यों ही मिल लिया था। मेरी याददाश्त को तुमने गुनाहगार बनाया—और उसका सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया। और तब मैंने कहा—अगले जनम में। मैं इस तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में डूबते पहाड़ ग़मगीन मुसकराते हैं। मेरी कविता की तुमने ख़ूब दाद दी—मैंने समझा तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो। तुमने मेरी कविता की ख़ूब दाद दी। तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया ׃ और जब लपेट न खुले—तुमने मुझे जला दिया। मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे ׃ और वह मुझे अच्छा लगता रहा। एक ख़ुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं-सी स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी-सी, तिरछी स्पेलिंग। आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी, आज तक मेरी नींद में गड़ती है। अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता ׃ पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ— तुम्हारी बरकत! बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए मुझको लिए, सबके सब। तुमने समझा कि उनमें तुम थे। नहीं, नहीं, नहीं। उनमें कोई न था। सिर्फ़ बीती हुई अनहोनी और होनी की उदास रंगीनियाँ थीं। फ़क़त। -शमशेर बहादुर सिंह
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बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा
शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में से एक कविता “बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
बाबा हमारे, अली बाबा नागार्जुन बाबा!! ‘खुल सीसेम!’ सबों के सामने— कहते—सबों के सामने— ख़ज़ानों की गुफाएँ सबों के लिए खुल पड़तीं, क्लासिक क्रांतिकारी ख़ज़ाने बाहदुर कविता के जीते-जागते, कभी न हार मानने वाली जनता के बहादुर तराने और ज़िंदा फ़साने आँखों को चमकाने वाले, दिलों को गरमाने वाले, आज के इतिहास को छंद में समझाने वाले : —कभी धीमी गुनगुनाहटों में, कभी थिरकते व्यंग्य में, कभी करुण सन्नाटे में, तो कभी बिगुल बजाते और कभी चिमटा; कभी बच्चों को हँसाते, तो कभी जवानों को रिझाते, और बूढ़ों की आँखों में मस्ती लाते, —ऐसे ख़ज़ाने कविता की झोली में बरसाते हमारे बाबा अली बाबा नागार्जुन बाबा!! “काहे घबराऽऽएऽ!!” इस फ़िल्मी गीत के बोल अपने बेटे के साथ मिलकर गाते हुए जब मैंने सुना था —वह समाँ मुझे याद है! चुटकी बजा-बजाकर, मौज से भूख और अभाव को बहलाते हुए, मेरे अली बाबा, गीतों के दस्तरख़ान बिछाए, कविताओं के जाम चढ़ाए, अभावों की गहरी छाने, बेफ़िक्र, मस्त; इसी मस्ती से क्रोध और आवेश के कड़ुए घूँट को किसी तरह मीठा-सा कुछ बनाए, जनता के, जलते हुए अभावों की आग में नाचते हुए अजब अमृत बरसाते अनोखे ख़ज़ाने लुटाते, आत्मा को तृप्त करते, युग की गंगा में ग़ोते लगाते अद्भुत स्वाँग बनाए, आए मेरे बाबा अली बाबा नागार्जुन!! -शमशेर बहादुर सिंह
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कत्थई गुलाब
शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में से एक कविता “कत्थई गुलाब” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
कत्थई गुलाब दबाए हुए हैं नर्म नर्म केसरिया साँवलापन मानो शाम की अंगूरी रेशम की झलक, कोमल कोहरिल बिजलियाँ-सी लहराए हुए हैं आकाशीय गंगा की झिलमिली ओढ़े तुम्हारे तन का छंद गतस्पर्श अति अति अति नवीन आशाओं भरा तुम्हारा बंद बंद “ये लहरें घेर लेती हैं ये लहरें... उभरकर अर्द्धद्वितीया टूट जाता है...” किसका होगा यह पद किस कवि-मन का किस सरि-तट पर सुना? ओ प्रेम की असंभव सरलते सदैव सदैव! -शमशेर बहादुर सिंह
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ओ मेरे घर
शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में से एक कविता “ओ मेरे घर” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
ओ मेरे घर ओ हे मेरी पृथ्वी साँस के एवज़ तूने क्या दिया मुझे —ओ मेरी माँ? तूने युद्ध ही मुझे दिया प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम और क्या दिया मुझे भगवान दिए कई-कई मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह! और अद्भुत शक्तिशाली मकानीकी प्रतिमाएँ! ऐसी मुझे ज़िंदगी दी ओह आँखें दीं जो गीली मिट्टी का बुदबुद-सी हैं और तारे दिए मुझे अनगिनती साँसों की तरह अनगिनती इकाइयों में मुझसे लगातार दूर जाते मौत की व्यर्थ प्रतीक्षाओं-से! और दी मुझे एक लंबे नाटक की हँसी फैली हुई दर्शकशाला के इस छोर से उस छोर तक लहराती कटु-क्रूर। फिर मुझे जागना दिया, यह कहकर कि लो और सोओ! और वही तलवारें अँधेरे की अंतिम लोरियों के बजाय! इंसान के अँखौटे में डालकर मुझे सब कुछ तो दे दिया : जब मुझे मेरे कवि का बीज दिया कटु-तिक्त। फिर एक ही जन्म में और क्या-क्या चाहिए! -शमशेर बहादुर सिंह
हमारे सिवा इनका रस कौन जाने!
शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में से एक कविता “हमारे सिवा इनका रस कौन जाने!” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
वो अपनों की बातें, वो अपनों की ख़ू—बू हमारी ही हिंदी, हमारी ही उर्दू! ये कोयल्-ओ-बुलबुल के मीठे तराने : हमारे सिवा इनका रस कौन जाने! -शमशेर बहादुर सिंह
शमशेर बहादुर सिंह की प्रमुख रचनाएँ
इस कविता के माध्यम से आपको शमशेर बहादुर सिंह की प्रमुख रचनाएँ पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा। शमशेर बहादुर सिंह की प्रमुख रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक और लोकप्रिय हैं, जितने वह अपनी रचनाओं के समय रही होंगी। शमशेर बहादुर सिंह की प्रमुख रचनाएँ कुछ इस प्रकार हैं;
- टूटी हुई, बिखरी हुई
- बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा
- कत्थई गुलाब
- काल तुझसे होड़ है मेरी
- उदिता : अभिव्यक्ति का संघर्ष
- बात बोलेगी
- इतने पास अपने
- चुका भी नहीं हूँ मैं
- ओ मेरे घर
- दोआब आदि।
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