कविताएं समाज का दर्पण बनकर क्रांति को नई दिशा देती हैं, और निर्मला पुतुल की कविताएं इसका सटीक उदाहरण हैं। हिंदी साहित्य की इस प्रमुख आदिवासी कवयित्री ने अपने काव्य में आदिवासी समाज के जीवन, संघर्ष और सांस्कृतिक विविधताओं को अनोखे अंदाज में प्रस्तुत किया है। उनकी कविताएं आदिवासी समाज की आवाज बनकर उनके अधिकारों की मांग करती हैं, अन्याय का विरोध करती हैं और समाज को न्याय की राह पर चलने की प्रेरणा देती हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों, जैसे “नगाड़े की तरह बजते शब्द,” “अपने घर की तलाश में,” और “फूटेगा एक नया विद्रोह,” ने समाज की चेतना को झकझोरने का कार्य किया है। इस ब्लॉग में आप उनकी कविताओं के जरिए संस्कृति, संघर्ष और सृजन के अनोखे संगम से परिचित होंगे।
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निर्मला पुतुल की कविताएं
निर्मला पुतुल की कविताएं समाज का दर्पण कहलाती हैं, जिसने सदैव समाज का सच से सामना करवाया है, वे कुछ इस प्रकार हैं –
- एक बार फिर
- अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री
- आदिवासी स्त्रियाँ
- क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
- मर के भी अमर रहते हैं सच्चाई के लिए लड़ने वाले
- मैंने अपने आंगन में गुलाब लगाए
- जगमगाती रोशनियों से दूर अँधेरों से घिरा आदमी
- तुम्हें आपत्ति है
- क्या तुम जानते हो
- बाहामुनी
- बिटिया मुर्मू के लिए-1
- बिटिया मुर्मू के लिए-2
- बिटिया मुर्मू के लिए-3
- उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!
- आदिवासी लड़कियों के बारे में
- चुड़का सोरेन से
- कुछ मत कहो सजोनी किस्कू!
- बाँस
- क्या तुम जानते हो
- कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम
- अगर तुम मेरी जगह होते
- मिटा पाओगे सब कुछ
- आख़िर कहें तो किससे कहें
- जब टेबुल पर गुलदस्ते की जगह बेसलरी की बोतलें सजती हैं
- पिलचू बूढ़ी से
- गजरा बेचने वाली स्त्री
- वह जो अक्सर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है
- अखबार बेचती लड़की
- स्वर्गवासी पिता के नाम पाती इत्यादि।
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एक बार फिर
एक बार फिर हम इकट्ठे होंगे विशाल सभागार में किराए की भीड़ के बीच एक बार फिर ऊँची नाक वाली अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएँ करेंगी हमारे जुलुस का नेतृत्व और प्रतिनिधित्व के नाम पर मंचासीन होंगी सामने एक बार फिर किसी विशाल बैनर के तले मंच से खड़ी माइक पर वे चीख़ेंगी व्यवस्था के विरुद्ध और हमारी तालियाँ बटोरते हाथ उठा कर देंगी साथ होने का भरम एक बार फिर शब्दों के उड़न-खटोले पर बिठा वे ले जाएँगी हमे संसद के गलियारों में जहाँ पुरुषों के अहम से टकराएँगे हमारे मुद्दे और चकनाचूर हो जाएँगे उसमे निहित हमारे सपने एक बार फिर हमारी सभा को सम्बोधित करेंगे माननीय मुख्यमंत्री और हम गौरवान्वित होंगे हम पर अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से एक बार फिर बहस की तेज़ आँच पर पकेंगे नपुंसक विचार और लिए जाएँगे दहेज़-हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीडन वेश्यावृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर लड़ने के कई-कई संकल्प एक बार फिर अपनी ताक़त का सामूहिक प्रदर्शन करते हम गुज़रेंगे शहर की गालियों से पुरुष-सत्ता के खिलाफ़ हवा में मुट्ठी बाँधे हाथ लहराते और हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से गरम हो जाएगी शहर की हवा एक बार फिर सड़क के किनारे खडे मनचले सेकेंगे अपनी ऑंखें और रोमांचित होकर बतियाएँगे आपस में कि यार, शहर में बसंत उतर आया है एक बार फिर जहाँ शहर के व्यस्ततम चौराहे पर इकट्ठे होकर हम लगाएँगे उत्तेजक नारे वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में ब्रा-पेंटी वाली सिने-तारिकाएँ बेशर्मी से नायक की बाँहों में झूलती दिखाएँगी हमें ठेंगा धीर-धीरे ठंडी पड़ जाएगी भीतर की आग और एक बार फिर छितरा जाएँगे हम चौराहे से अपने-अपने पति और बच्चों के दफ़्तर व स्कूल से लौट आने की चिंता में -निर्मला पुतुल
अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री
यह कैसी विडम्बना है कि हम सहज अभ्यस्त हैं एक मानक पुरुष-दृष्टि से देखने स्वयं की दुनिया मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते मुक्त होना चाहती हूँ अपनी जाति से क्या है मात्र एक स्वप्न के स्त्री के लिए-घर सन्तान और प्रेम ? क्या है ? एक स्त्री यथार्थ में जितना अधिक घिरती जाती है इससे उतना ही अमूर्त होता चला जाता है सपने में वह सब कुछ अपनी कल्पना में हर रोज़ एक ही समय में स्वयं को हर बेचैन स्त्री तलाशती है घर, प्रेम और जाति से अलग अपनी एक ऐसी ज़मीन जो सिर्फ़ उसकी अपनी हो एक उन्मुक्त आकाश जो शब्द से परे हो एक हाथ जो हाथ नहीं उसके होने का आभास हो ! -निर्मला पुतुल
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आदिवासी स्त्रियाँ
उनकी आँखों की पहुँच तक ही सीमित होती उनकी दुनिया उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ शामिल हैं इस दुनिया में/नहीं जानतीं वे वे नहीं जानतीं कि कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीज़ें दिल्ली जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ नहीं जानतीं कि कैसे सूख जाती हैं उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ तस्वीरें कैसे पहुँच जातीं हैं उनकी महानगर नहीं जानती वे! नहीं जानतीं!! -निर्मला पुतुल
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क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...? एक तकिया कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया कोई खूँटी कि ऊब, उदासी थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी या आँगन में तनी अरगनी कि घर-भर के कपड़े लाद दिए कोई घर कि सुबह निकला शाम लौट आया कोई डायरी कि जब चाहा कुछ न कुछ लिख दिया या ख़ामोश खड़ी दीवार कि जब जहाँ चाहा कील ठोक दी कोई गेंद कि जब तब जैसे चाहा उछाल दी या कोई चादर कि जब जहाँ जैसे-तैसे ओढ-बिछा ली? चुप क्यूँ हो! कहो न, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए? -निर्मला पुतुल
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मर के भी अमर रहते हैं सच्चाई के लिए लड़ने वाले
तुम मरे नही हो, ललित मेहता मरा नहीं है तुम्हारा ज़मीर तुम्हारी ईमानदारी की पुकार जनता के बीच गूँजती रहेगी हमेशा सदियों तक। तुम्हारी क़ब्र की दरारों से आवाज़ें आती रहेंगी और हमें बुलाती रहेंगी और लहू के कतरे जो ज़मीन पर गिरे उनसे प्रस्फुटित होंगे हज़ारों-हज़ार ललित मेहता इससे पहले भी इस धरती पर कई योद्धाओं ने देश की ख़ातिर कुरबानी दी, उसी के लहू के कतरों से तुम जैसे संघर्षरत योद्धा अंकुरित हुए और आगे भी अंकुरित होते रहेंगे। तुम्हारा लहू जहाँ गिरे वहाँ से पेड़ भी जनमेंगे तो तुम्हारी शक्लों में दिखेंगे और चीख़ेंगे व्यवस्था के विरुद्ध, तुम्हारी हत्या साबित करती है कि सच बोलने वाले ऐसे ही मार दिए जाते हैं उनको जीतने से पहले हरा दिया जाता है मार दिया जाता है ज़िन्द रहने से पहले पर इतिहास गवाह ऎसे लोग मरते नहीं कभी ज़िन्दा रहते हैं मरकर भी। ठीक वैसे ही तुम भी रहोगे ज़िन्दा यहाँ की आबोहवा में एक-एक मनुष्य की स्मृतियों में और हमेशा-हमेशा के लिए ज़िन्दा रहोगे इतिहास के पन्नों में। -निर्मला पुतुल
मैंने अपने आंगन में गुलाब लगाए
इस उम्मीद से कि उसमें फूल खिलेंगे लेकिन अफ़सोस कि उसमें काँटें ही निकले मैं सींचती रोज़ सुबह-शाम और देखती रही उसका तेज़ी से बढ़ना। वह तेज़ी सेबढ़ा भी पर उसमें फूल नहीं आए वो फूल जिससे मेरे सपने जुड़े थे जिससे मै जुड़ी थी पर लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी उसमें फूल का नहीं आना मेरे सपनों का मर जाना था। एक दिन लगा कि मैं इसे उखाड़कर फेंक दूँ और इसकी जगह दूसरा फूल लगा दूँ पर सोचती हूँ बार-बार उखाड़कर फेंक देने और उसकी जगह नए फूल लगा देने से क्या मेरी ज़िन्दगी के सारे काँटें निकल जाएंगे? हक़ीकत तो यह है कि चाहे जितने फूल बदल दें हम लेकिन कुछ फूलों की नियति ही ऎसी होती है जो फूल की जगह काँटें लेकर आते हैं शायद मेरे आँगन में लगा गुलाब भी कुछ ऎसा ही है मेरी ज़िन्दगी के लिए। -निर्मला पुतुल
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जगमगाती रोशनियों से दूर अँधेरों से घिरा आदमी
चारों ओर जगमगाती रोशनियाँ हैं और उन जगमगाती रोशनियों के बीच हँसती हुई ऊँची-ऊँची इमारते हैं और उन इमारतों में हँसते हुए लोग हैं जहाँ देखो उधर रोशनी ही रोशनी है और उन जगमगाती रोशनियों से दूर शहर के आख़िरी छोर पर झुग्गी-झोपडियाँ हैं जहाँ टिमटिमाते हुए कुछ दिए जल रहे हैं दिए की लौ लगातार लड़ रही है अँधेरों से और अँधेरा है कि भागने का नाम नहीं ले रहा है अँधेरो से घिरी झोपडियों में बैठा आदमी देख रहा है दिए को अँधेरे से लड़ते अजीब विडम्बना है एक अँधेरा बाहर है जो उसे चारों ओर से घेरे है और दूसरा उसके भीतर का अँधेरा है जो वर्षों से दूर नहीं हो रहा है अँधेरो से घिरा आदमी लगातार लड़ रहा है अपने बाहर और भीतर के अंधेरों से और सामने रोशनी से नहाई अट्टालिकाएँ हैं जो बरसों से हँस रही हैं । -निर्मला पुतुल
तुम्हें आपत्ति है
तुम कहते हो मेरी सोच ग़लत है चीज़ों और मुद्दों को देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा आपत्ति है तुम्हें मेरे विरोध जताने के तरीके पर तुम्हारा मानना है कि इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता धारणा है तुम्हारी कि स्त्री होने की अपनी एक मर्यादा होती है अपनी एक सीमा होती है स्त्रियों की सहनशक्ति होनी चाहिए उसमें मीठा बोलना चाहिए लाख कडुवाहट के बावजूद पर यह कैसे संभव है कि हम तुम्हारे बने बनाए फ्रेम में जड़ जाएँ ढल जाएँ मनमाफिक तुम्हारे सांचे में कैसे संभव है कि तुम्हारी तरह ही सोचें सब कुछ देखें तुम्हारी ही नज़र से दुनिया और उसके कारोबार को तुम्हारी तरह ही बोलें तुम्हारे बीच रहते। कैसे संभव है? मैंने तो चाहा था साथ चलना मिल बैठकर साथ तुम्हारे सोचना चाहती थी कुछ करना चाहती थी कुछ नया गढ़ना चाहती थी बस्ती का नया मानचित्र एक योजना बनाना चाहती थी जो योजना की तरह नहीं होती पर अफ़सोस! तुम मेरे साथ बैठकर बस्ती के बारे में कम और मेरे बारे में ज़्यादा सोचते रहे बस्ती का मानचित्र गढ़ने की बजाय गढ़ते रहे अपने भीतर मेरी तस्वीर और बनाते रहे मुझ तक पहुँचने की योजनाएँ हँसने की बात पर जब हँसते खुलकर साथ तुम्हारे तुम उसका ग़लत मतलब निकालते बुनते रहे रात-रात भर सपने और अपने आसपास के मुद्दे पर लिखने की बजाय लिखते रहे मुझे रिझाने बाज़ारू शायरी हम जब भी तुमसे देश-दुनिया पर शिद्दत से बतियाना चाहे तुम जल्दी से जल्दी नितांत निजी बातों की तरफ़ मोड़ देते रहे बातों का रुख मुझे याद है! मुझे याद है- जब मैं तल्लीन होती किसी योजना का प्रारूप बनाने में या फिर तैयार करने में बस्ती का नक्शा तुम्हारे भीतर बैठा आदमी मेरे तन के भूगोल का अध्ययन करने लग जाता। अब तुम्हीं बताओ! ऐसे में भला कैसे तुम्हारे संग-साथ बैठकर हँसू-बोलूँ? कैसे मिल-जुलकर कुछ करने के बारे में सोचूँ? भला, कैसे तुम्हारे बारे में अच्छा सोचकर मीठा बतियाऊँ तुमसे? करूँ कैसे नहीं विरोध विरोध की पूरी गुंजाईश के बावजूद? कैसे धीरे से रखूँ वह बात जो धीरे रखने की मांग नहीं करती! क्यू माँ के गर्भ से ही ऐसा पैदा हुई मैं? -निर्मला पुतुल
कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम
तुम्हारे पास थोड़ा-सा वक़्त है अगर नहीं तो निकालो थोड़ी फ़ुर्सत याद करो अपने उन तमाम पत्रों को जिससे बहुत कुछ बचाने की बात करते रहे हो तुम बताओ दिल पर हाथ रखकर सच-सच तुमने क्या-क्या बचाया अपने भीतर संकट के इस दौर में बचा सके मेरा विश्वास मेरी तस्वीर, मेरे ख़त, मेरी स्मृतियाँ मेरी रींग, मेरी डायरी, मेरे गीत मेरा प्यार, मेरा सम्मान, मेरी इज्ज़त मेरा नाम, मेरी शोहरत, मेरी प्रतिष्ठा? निभा सके अपना वचन, अपनी क़समें लड़ सके अपने अस्तित्व और इज्ज़त के लिए अपने वादे, अपने विश्वास की रक्षा के लिए लड़ सके वहाँ-वहाँ उससे जहाँ-जहाँ जिससे लड़ने की ज़रूरत थी कर सके विरोध जहाँ विरोध की पूरी संभावना थी? माँगा है कभी तुमने अपने आपसे उसका जवाब सवाल करते रहे हो तुम एक पुरूष होकर, हज़ारों पुरूषों से. आलिंगन, स्पर्श, चुंबन बचा सके तुम जिसके दूर-दूर तक बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं ओैर न ही विश्वास दिलाने को पुख्ता सबूत? बचा पाए अपने भीतर, थोड़ी सी पवित्र जगह जहाँ पुनर्स्थापित कर सको अपनी खोई देवी को? अभी-अभी यह सब पढ़ते किसी चील के झपटदार चंगुल से बचा सकोगे इसे जिसके एक-एक शब्द ख़ून, आँसू, नफ़रत और प्रेम के गाढ़े घोल में डूबी है। कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम और तो और तन-मन भी बचा नहीं सके तुम जिस पर थोड़ा-सा भी गर्व करके ख़ुद को कर सकूँ तैयार तुम्हारी वापसी पर -निर्मला पुतुल
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