Grishm Ritu Par Kavita: ग्रीष्म ऋतु को ही आम बोलचाल की भाषा में गर्मी का मौसम कहा जाता है, यह ऋतु साल की चार प्रमुख ऋतुओं में से एक है। यह ऋतु तपिश, तेज धूप और लू के झोंकों का संदेश लेकर आती है। लेकिन इसके साथ ही बच्चों के लिए यह समय मौज-मस्ती और छुट्टियों का समय होता है, जबकि किसानों के लिए यह खेतों में फसलों की कटाई और नई फसल की तैयारी का समय होता है। बता दें कि ग्रीष्म ऋतु पर कविता के माध्यम से आप इस ऋतु के महत्व को समझने के साथ-साथ, इस पर लिखी कविताओं की भाषा-शैली के बारे में भी जान पाएंगे। इस लेख में कुछ लोकप्रिय ग्रीष्म ऋतु पर कविता (Grishm Ritu Par Kavita) दी गई हैं, जो प्रकृति की तपिश को शब्दों में संजोएं रखने का प्रयास करेंगी। गर्मी पर कविता पढ़ने के लिए इस ब्लॉग को अंत तक जरूर पढ़ें।
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ग्रीष्म ऋतु पर कविता – Grishm Ritu Par Kavita
ग्रीष्म ऋतु पर कविता (Grishm Ritu Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
---|---|
ग्रीष्म : एक कविता | शैलेन्द्र चौहान |
ग्रीष्म | महेन्द्र भटनागर |
ग्रीष्म के स्तूप | पूर्णिमा वर्मन |
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर | कालिदास |
गरमी में प्रात:काल | हरिवंशराय बच्चन |
एक घर : गर्मी की दुपहरी में | गोविन्द माथुर |
गर्मी | दीनदयाल शर्मा |
गर्मी के दिन | शशि पाधा |
गर्मी में सूखते हुए कपड़े | केदारनाथ सिंह |
ग्रीष्म : एक कविता
झंकृत होती हैं
नाड़ियाँ
शिराओं का बढ़ जाता है चाप
तापमापी करता दर्ज़
तापमान
अड़तालीस डिग्री सैलसियस
कविताऍ होती वाष्पित जल-सी
उत्सर्जित होती
स्वेद-सी
फूटती मन और शरीर से
फैल जाती हैं
ब्रह्मांड में
– शैलेन्द्र चौहान
ग्रीष्म
तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण!
त्रास्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन!
जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया न कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन!
भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन!
रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण!
– महेन्द्र भटनागर
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ग्रीष्म के स्तूप
झर रही है
ताड़ की इन उँगलियों से धूप
करतलों की
छाँह बैठा
दिन फटकता सूप
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
कोचिया के
सघन हरियल केश
क्यारियों में
फूल के उपदेश
खिलखिलाता दूब का टुकड़ा
दिखाता स्वप्न के दर्पन
सफलता के –
उफनते कूप
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
पारदर्शी याद के
खरगोश
रेत के पार बैठे
ताकते ख़ामोश
ऊपर चढ़ रही बेलें
अलिंदों पर
काटती हैं
द्वार लटकी ऊब
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
चहकते
मन बोल चिड़ियों के
दहकते
गुलमोहर परियों से
रंग रही
प्राचीर पर सोना
लहकती
दोपहर है खूब
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
– पूर्णिमा वर्मन
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प्रिये आया ग्रीष्म खरतर
प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !
सूर्य भीषण हो गया अब,चन्द्रमा स्पृहणीय सुन्दर
कर दिये हैं रिक्त सारे वारिसंचय स्नान कर-कर
रम्य सुखकर सांध्यवेला शांति देती मनोहर ।
शान्त मन्मथ का हुआ वेग अपने आप बुझकर
दीर्घ तप्त निदाघ देखो, छा गया कैसा अवनि पर
प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !
सविभ्रमसस्मित नयन बंकिम मनोहर जब चलातीं
प्रिय कटाक्षों से विलासिनी रूप प्रतिमा गढ़ जगातीं
प्रवासी उर में मदन का नवल संदीपन जगा कर
रात शशि के चारु भूषण से हृदय जैसे भूला कर
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
तीव्र जलती है तृषा अब भीम विक्रम और उद्यम
भूल अपना, श्वास लेता बार बार विश्राम शमदम
खोल मुख निज जीभ लटका अग्रकेसरचलित केशरि
पास के गज भी न उठ कर मारता है अब मृगेश्वर
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
किरण दग्ध, विशुष्क अपने कण्ठ से अब शीत सीकर
ग्रहण करने, तीव्र वर्धित तृषा पीड़ित आर्त्त कातर
वे जलार्थी दीर्घगज भी केसरी का त्याग कर डर
घूमते हैं पास उसके, अग्नि सी बरसी हहर कर
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
क्लांत तन मन रे कलापी तीक्ष्ण ज्वाला मे झुलसता
बर्ह में धरशीश बैठे सर्प से कुछ न कहता,
भद्रमोथा सहित कर्म शुष्क-सर को दीर्घ अपने
पोतृमण्डल से खनन कर भूमि के भीतर दुबकने
वराहों के यूथ रत हैं, सूर्य्य-ज्वाला में सुलग कर
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्रसे फैला विकल फन
निकल सर से कील भीगे भेक फनतल स्थित अयमन,
निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,
भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,
एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
रवि प्रभा से लुप्त शिर- मणि- प्रभा जिसकी फणिधर
लोल जिहव, अधिर मारुत पीरहा, आलीढ़
सूर्य्य ताप तपा हुआ विष अग्नि झुलसा आर्त्त कातर
त॓षाकुल मण्डूक कुल को मारता है अब न विषधर
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्यास से आकुल फुलाये वक्त्र नथुने उठा कर मुख
रक्त जिह्व सफेन चंचल गिरि गुहा से निकल उन्मुख
ढ़ूंढने जल चल पड़ा महिषीसमूह अधिर होकर
धूलि उड़ती है खुरों के घात से रूँद ऊष्ण सत्वर
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
– कालिदास
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गरमी में प्रात:काल
गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया सी वे घड़ियाँ
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घड़ियों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
चितवन जिस ओर गई उसने
मृदों फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्पों से गुच्छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात: काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
– हरिवंशराय बच्चन
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गर्मी पर कविता – Garmi Par Kavita
गर्मी पर कविता (Garmi Par Kavita) के माध्यम से आप इस ऋतु के बारे में आसानी से जान सकेंगे। गर्मी पर कविता (Garmi Par Kavita) निम्नलिखित हैं –
एक घर : गर्मी की दुपहरी में
तुम अपने कैनवास पर
बनाओ एक चित्र
गर्मी की दुपहरी का
रंग अपनी पसन्द के भरो
पर गर्मी में ताप होना चाहिए
और दुपहरी में अलसायापन
धारीदार जांघिया पहने बच्चे
तख्ती-सा मुल्तानी मिट्टी से
पुता हुआ बदन जिस पर
कोलतार से तुम लिख सकते हो
एक दुपहरी गर्मी की
अगर तुम्हारा कैनवास बड़ा हो
तुम दिखा सकते हो
प्याज और आम का अचार
सूखी रोटियाँ और ठंडा पानी
अगर तुम पैदा कर सको
भूने हुए चनों और जौं की गंध
तब तुम्हारा कैनवास बन जाएगा
एक घर गर्मी की दुपहरी में
– गोविन्द माथुर
गर्मी
तपता सूरज लू चलती है
हम सब की काया जलती है।
गर्मी आग का है तंदूर
इससे कैसे रहेंगे दूर।
मन करता हम कुल्फ़ी खाएँ
कूलर के आगे सो जाएँ।
खेलने को हम हैं मज़बूर
खेलेंगे हम सभी ज़रूर।
पेड़ों की छाया में चलकर
झूला झूल के आएँगे।
फिर चाहे कितनी हो गर्मी
इससे ना घबराएँगे।।
– दीनदयाल शर्मा
गर्मी के दिन
कुछ अलसाये
कुछ कुम्हलाये
आम्रगन्ध भीजे, बौराये
काटे ना
कटते ये पल छिन
निठुर बड़े हैं गर्मी के दिन
धूप-छाँव
अँगना में खेलें
कोमल कलियाँ पावक झेलें
उन्नींदी
अँखियां विहगों की
पात-पात में झपकी ले लें
रात बिताई
घड़ियां गिन-गिन
बीतें ना कुन्दन से ये दिन
मुर्झाया
धरती का आनन
झुलस गये वन उपवन कानन
क्षीण हुई
नदिया की धारा
लहर-लहर
में उठता क्रन्दन
कब लौटेगा बैरी सावन
अगन लगायें गर्मी के दिन।
सुलग- सुलग
अधरों से झरतीं
विरहन के गीतों की कड़ियाँ
तारों से पूछें दो नयना
रूठ गई
क्यों नींद की परियाँ
भरी दोपहरी
सिहरे तन-मन
विरहन की पीड़ा से ये दिन
– शशि पाधा
गर्मी में सूखते हुए कपड़े
कपड़े सूख रहे हैं
हज़ारों-हज़ार
मेरे या न जाने किस के कपड़े
रस्सियों पर टँगे हैं
और सूख रहे हैं
मैं पिछले कई दिनों से
शहर में कपड़ों का सूखना देख रहा हूँ
मैं देख रहा हूँ हवा को
वह पिछले कई दिनों से कपड़े सुखा रही है
उन्हें फिर से धागों और कपास में बदलती हुई
कपड़ों को धुन रही है हवा
कपड़े फिर से बुने जा रहे हैं
फिर से काटे और सिले जा रहे हैं कपड़े
आदमी के हाथ
और घुटनों के बराबर
मैं देख रहा हूँ
धूप देर से लोहा गरमा रही है
हाथ और घुटनों को
बराबर करने के लिए
कपड़े सूख रहे हैं
और सुबह से धीरे-धीरे
गर्म हो रहा है लोहा।
– केदारनाथ सिंह
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