Republic Day Poem in Hindi 2025: गणतंत्र दिवस पर वीर रस की लोकप्रिय कविताएं

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गणतंत्र दिवस पर वीर रस की कविता

Republic Day Poem in Hindi 2025: भारत के राष्ट्रीय पर्वों में से एक गणतंत्र दिवस भी है। बता दें कि हमारे देश में 26 जनवरी को संविधान को लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य भारत के हर नागरिक को समान अधिकार देना और न्याय की स्थापना था। तभी से हर वर्ष इस पर्व को पूरे उत्साह और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, इस दिन देशभर में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। बता दें कि इस वर्ष भारत अपना 76वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है। इस उपलक्ष्य में आप अपने स्कूल और कॉलेज में वीर रस की कविताओं के साथ इस दिन को और भी खास बना सकते हैं। इस लेख में आपके लिए गणतंत्र दिवस पर वीर रस की कविता (Republic Day Poem in Hindi 2025) दी गई हैं, जो आप में देशभक्ति की भावना का संचार करेंगी। गणतंत्र दिवस पर जोश भर देने वाली देशभक्ति कविता पढ़ने के लिए ब्लॉग को अंत तक जरूर पढ़ें।

गणतंत्र दिवस पर वीर रस की कविता – Republic Day Poem in Hindi 2025

गणतंत्र दिवस पर वीर रस की कविता (Republic Day Poem in Hindi 2025) निम्नलिखित हैं, जो आप में जोश और देशप्रेम की भावना को भर देंगे –

वीरों का कैसा हो वसंत

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

- सुभद्राकुमारी चौहान
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मुक्त गगन है, मुक्त पवन है

‘मुक्त गनन है, मुक्त पवन है, मुक्त सांस गरबीली’ 
लांघ सात लंबी सदियों को हुई शृंखला ढीली। 

टूटी नहीं कि लगा अभी तक उपनिवेश का दाग़
बोल तिरंगे तुझे उड़ाऊं या कि जगाऊं आग?

उठ रणराते, ओ बलखाते, विजयी भारतवर्ष
नक्षत्रों पर बैठे पूर्वज माप रहे उत्कर्ष। 

ओ पूरब के प्रलयी पंथी, ओ जग के सेनानी
होने दे भूकंप कि तूने, आज भृकुटियां तानी। 

नभ तेरा है? तो उड़ते हैं वायुयान ये किसके?
भुज-वज्रों पर मुक्ति-स्वर्ण को देख लिया है कसके?

तीन ओर सागर तेरा है, लहरें दौड़ी आती चरण,
भुजा, कटिबंध देश तक वे अभिषेक सजातीं। 

क्या लहरों से खेल रहे वे हैं जलयान तुम्हारे नहीं?
अरे तो हटे न अब तक लहरों के हत्यारे?

वह छूटी बंदूक़, गोलियां, क्या उधार हैं आई
तो हमने किसकी करुणा से यह आज़ादी पाई?

उठ पूरब के प्रहरी, पश्चिम जांच रहा घर तेरा
साबित कर तेरे घर पहले होता विश्व-सवेरा?

तुझ पर पड़ जो किरणें जूठी हो जाती,
जग पाता जीने के ये मंत्र सूर्य से सीखो भाग्य-विधाता। 

सूझों में, सांसों में, संगर में, श्रम में, ज्वारों में जीने में,
मरने में, प्रतिभा में, आविष्कारों में।  

सागर की बांहें लांघे हैं तट-चुंबित भू-सीमा
तू भी सीमा लांघ, जगा एशिया, उठा भुज-भीमा। 

वह नेपाल प्रलय का प्रहरी, वह तिब्बत सुर-धामी
वह गांधार युगों का साथी, वीर सोवियत नामी। 

तुझे देख उन्मुक्त आज से उन्नत बोल रहे हैं
चीन, निपन, बर्मा, जाबा के मस्तक डोल रहे हैं। 

आज हो गई धन्य प्रबल, हिंदी वीरों की भाषा
कोटि-कोटि सिर क़लम किये फूली उसकी अभिलाषा

जग कहता है तू विशाल है, तू महान, जय तेरी
लोक-लोक से बरस रही तुझ पर पुष्पों की ढेरी।

तीन तरफ़ सागर की लहरें जिसका बने बसेरा
पतवारों पर नियति सजाती जिसका सांझ-सवेरा। 

बनती हो मल्लाह-मुट्ठियां सतत भाग्य की रेखा
रतनाकर रतनों का देता हो टकराकर लेखा।

उस लहरीले घर के झंडे देश-देश में लहरें
लहरों से जागृत नर-प्रहरी कभी न रुककर ठहरें। 

उठता हो आकाश, हिमालय दिव्य द्वार हो अपना
सागर हो विजया मां तेरा उस परसों का सपना। 

चिंतक, चिंताधारा तेरी आज प्राण पा बैठी
रे योद्धा प्रत्यंचा तेरी, उठ कि बाण पा बैठी।

लाल किले का झंडा हो, अंगुलि-निर्देश तुम्हारा
और कटे धड़ वाला अर्पित तुमको देश तुम्हारा। 

धड़ से धड़ को जोड़ बना तू भारत एक अखंडित
तेरे यश का गान करेंगे प्रलय-नाद के पंडित। 

ब्रिटिश राज टुकड़े-टुकड़े है क्या समाज का भय है
उठ कि मसल दे शिथिल रूढ़ियां तेरी आज विजय है। 

तोड़ अमीरों के मनसूबे, गिन न दिनों की घड़ियां
बुला रही हैं, तुझे देश की कोटि-कोटि झोपड़ियां

मिले रक्त से रक्त, मने अपना त्यौहार सलौना
भरा रहे अपनी बलि से मां की पूजा का दौना। 

हथकड़ियों वाले हाथों हैं, शत-शत वंदनवारें
और चूड़ियों की कलाइयां उठ आरती उतारें।

हो नन्हीं दुनियां के हाथों कोटि-कोटि जयमाला
मस्तक पर दायित्व, हृदय में वज्र, दृगों में ज्वाला। 

तीस करोड़ धड़ों पर गर्वित, उठे, तने, ये शिर
हैं तुम संकेत करो, कि हथेली पर शत-शत हाज़िर हैं।’

- माखनलाल चतुर्वेदी

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गणतंत्र दिवस पर जोश भर देने वाली देशभक्ति कविता

गणतंत्र दिवस पर जोश भर देने वाली देशभक्ति कविता आप में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेंगी, साथ ही ये कविताएं आप में देशभक्ति के जोश को भर देंगी। जोश भर देने वाली देशभक्ति कविता निम्नलिखित हैं –

मैं भारत का संविधान हूं, लालकिले से बोल रहा हूं

मैं भारत का संविधान हूं, लालकिले से बोल रहा हूं
मेरा अंतर्मन घायल है, दुःख की गांठें खोल रहा हूं।।
मैं शक्ति का अमर गर्व हूं
आजादी का विजय पर्व हूं
पहले राष्ट्रपति का गुण हूं
बाबा भीमराव का मन हूं
मैं बलिदानों का चन्दन हूं
कर्त्तव्यों का अभिनन्दन हूं
लोकतंत्र का उदबोधन हूं
अधिकारों का संबोधन हूं
मैं आचरणों का लेखा हूं
कानूनी लक्ष्मन रेखा हूं
कभी-कभी मैं रामायण हूं
कभी-कभी गीता होता हूं
रावण वध पर हंस लेता हूं
दुर्योधन हठ पर रोता हूं
मेरे वादे समता के हैं
दीन दुखी से ममता के हैं
कोई भूखा नहीं रहेगा
कोई आंसू नहीं बहेगा
मेरा मन क्रन्दन करता है
जब कोई भूखा मरता है
मैं जब से आजाद हुआ हूं
और अधिक बर्बाद हुआ हूं
मैं ऊपर से हरा-भरा हूं
संसद में सौ बार मरा हूं
मैंने तो उपहार दिए हैं
मौलिक भी अधिकार दिए हैं
धर्म कर्म संसार दिया है
जीने का अधिकार दिया है
सबको भाषण की आजादी
कोई भी बन जाये गांधी
लेकिन तुमने अधिकारों का
मुझमे लिक्खे उपचारों का
क्यों ऐसा उपयोग किया है
सब नाजायज भोग किया है
मेरा यूं अनुकरण किया है
जैसे सीता हरण किया है।
मैंने तो समता सौंपी थी
तुमने फर्क व्यवस्था कर दी
मैंने न्याय व्यवस्था दी थी
तुमने नर्क व्यवस्था कर दी
हर मंजिल थैली कर डाली
गंगा भी मैली कर डाली
शांति व्यवस्था हास्य हो गयी
विस्फोटों का भाष्य हो गयी
आज अहिंसा बनवासी है
कायरता के घर दासी है
न्याय व्यवस्था भी रोती है
गुंडों के घर में सोती है
पूरे कांप रहे आधों से
राजा डरता है प्यादों से
गांधी को गाली मिलती है
डाकू को ताली मिलती है
क्या अपराधिक चलन हुआ है
मेरा भी अपहरण हुआ है
मैं चोटिल हूं क्षत विक्षत हूं
मैंने यूं आघात सहा है
जैसे घायल पड़ा जटायु
हारा थका कराह रहा है
जिन्दा हूं या मरा पड़ा हूं, अपनी नब्ज टटोल रहा हूं
मैं भारत का संविधान हूं, लालकिले से बोल रहा हूं।।
मेरे बदकिस्मत लेखे हैं
मैंने काले दिन देखें हैं
मेरे भी जज्बात जले हैं
जब दिल्ली गुजरात जले हैं
हिंसा गली-गली देखी है
मैंने रेल जली देखी है
संसद पर हमला देखा है
अक्षरधाम जला देखा है
मैं दंगों में जला पड़ा हूं
आरक्षण से छला पड़ा हूं
मुझे निठारी नाम मिला है
खूनी नंदीग्राम मिला है
माथे पर मजबूर लिखा है
सीने पर सिंगूर लिखा है
गर्दन पर जो दाग दिखा है
ये लश्कर का नाम लिखा है
मेरी पीठ झुकी दिखती है
मेरी सांस रुकी दिखती है
आंखें गंगा यमुना जल हैं
मेरे सब सूबे घायल हैं
माओवादी नक्सलवादी
घायल कर डाली आजादी
पूरा भारत आग हुआ है
जलियांवाला बाग़ हुआ है
मेरा गलत अर्थ करते हो
सब गुणगान व्यर्थ करते हो
खूनी फाग मनाते तुम हो
मुझ पर दाग लगाते तुम हो
मुझको वोट समझने वालो
मुझमे खोट समझने वालो
पहरेदारो आंखें खोलो
दिल पर हाथ रखो फिर बोलो
जैसा हिन्दुस्तान दिखा है
वैसा मुझमे कहां लिखा है

वर्दी की पड़ताल देखकर
नाली में कंकाल देखकर
मेरे दिल पर क्या बीती है
जिसमे संप्रभुता जीती है
जब खुद को जलते देखा है
ध्रुव तारा चलते देखा है
जनता मौन साध बैठी है
सत्ता हाथ बांध बैठी है
चौखट पर आतंक खड़ा है
दिल में भय का डंक गड़ा है
कोई खिड़की नहीं खोलता
आंसू भी कुछ नहीं बोलता
सबके आगे प्रश्न खड़ा है
देश बड़ा या स्वार्थ बड़ा है
इस पर भी खामोश जहां है
तो फिर मेरा दोष कहां है

संसद मेरा अपना दिल है
तुमने चकनाचूर कर दिया
राजघाट में सोया गांधी
सपनों से भी दूर कर दिया
राजनीति जो कर दे कम है
नैतिकता का किसमें दम है
आरोपी हो गये उजाले
मर्यादा है राम हवाले
भाग्य वतन के फूट गए हैं
दिन में तारे टूट गए हैं
मेरे तन मन डाले छाले
जब संसद में नोट उछाले

जो भी सत्ता में आता है
वो मेरी कसमें खाता है
सबने कसमों को तोड़ा है
मुझको नंगा कर छोड़ा है
जब-जब कोई बम फटता है
तब-तब मेरा कद घटता है
ये शासन की नाकामी है
पर मेरी तो बदनामी है

दागी चेहरों वाली संसद
चम्बल घाटी दीख रही है
सांसदों की आवाजों में
हल्दी घाटी चीख रही है
मेरा संसद से सड़कों तक
चीर हरण जैसा होता है
चक्र सुदर्शनधारी बोलो
क्या कलयुग ऐसा होता है

मुझे तवायफ के कोठों की
एक झंकार बना डाला है
वोटों के बदले नोटों का
एक दरबार बना डाला है
मेरे तन में अपमानों के
भाले ऐसे गड़े हुए हैं
जैसे शर सैया के ऊपर
भीष्म पितामह पड़े हुए हैं
मुझको धृतराष्ट्र के मन का
गोरखधंधा बना दिया है
पट्टी बांधे गांधारी मां
जैसा अंधा बना दिया है

मेरे पहरेदारों ने ही
पथ में बोये ऐसे कांटें
जैसे कोई बेटा बूढ़ी
मां को मार गया हो चांटे
छोटे कद के अवतारों ने
मुझको बौना समझ लिया है
अपनी-अपनी खुदगर्जी के
लिए खिलौना समझ लिया है

मैं लोहू में लथ पथ होकर जनपथ हर पथ डोल रहा हूं
मैं भारत का संविधान हूँ लालकिले से बोल रहा हूं

- डॉ. हरिओम पंवार

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गणतंत्र दिवस

रात रा ईगियारा बजिया हा
नेताजी सोच में पजिया हा
बात नाक री जावे ही
आ सोच नींद ना आवे ही

जड़ बैचेनी बढ़ने लागी
तो टेलीफोन घुमायो
अर पी ऐ ने बुलवायो
बोल्या, 26 जनवरी है काले
अर, मन्ने भाषण देनो है
झंडो तो मैं फेरा द्युंगो
पण बता सरी, के कहनो है

बो बोल्यो सेवक हूँ थांरो
नयो-नयो मैं पी ऐ हूँ
दसवीं फेल हो
थांरी किरपा सू ही
तो अब बी. ऐ. हूँ

उगत नहीं इत्ती महा में
क्या थाने बतलाऊँ
रात हो गयी घनी
बताओ, कठ स्यूं मेटर ल्याऊं
इन बारे घनी नहीं जानूं
पण इत्ती लोग बतावे है
थांरे जेदो कोइ मोटो
नेता सभा में आवे है

नेताजी कद्क्या, चुप बावलिया
या तो मने खबर है रे
मैं सोच्यो, चोखो भाषण लिख देसी
पण तूं तो नीरो दफर है रे

अब बगत रे गयो है थोड़ो
तूं और करे है क्यूँ मोड़ो
कीं पध्या-लिख्या ने बुलवा ले
अर, चोखो भाषण लिखवा ले

अब पी ऐ ताबड़-तोड़ करी
अर, पध्या मिनख घर दौड़ भरी
पी ऐ ने घर रे बार देख
बो सोच्यो, किस्मत जाग गयी

आधी रात होयां पर भी
आंख्यां सू,नीन्दद्ली भाग गयी
बोल्यो,तकलीफ करी था क्यूँ
मैं खुद ही हाजिर हो जातो
भाषण री थें क्या बात करो
पूरो संविधान ही लिख लातो

फिर पूछ्यो, म्हारो काम तो हो जासी
बाबू लगवा दो या चपरासी
उम्र भर थांरा गुण गासूं
नींतर भूखों मर जासूं

ज्यूँ औरां ने टरकातो हो
पी ऐ इनने भी टरकायो
अर, खुद रो काम बना ल्यायो
दिन दिन उगियो, मिन्दर में झालर बाजन बाजण लाग्या
मोटा बंगला में
घड़ियाँ रा अलारम भी बाजण लाग्या
नेताजी रे

- निर्मल कुमार शर्मा

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