Poem on Love in Hindi: प्रेम मानव जीवन का सबसे सुंदर और अनमोल अहसास है। सही मायनों में यह एक ऐसी भावना है जो दिलों को जोड़ती है, भावनाओं को संजोती है और जीवन को नई दिशा प्रदान करने का काम करती है। प्रेम को शब्दों में पिरोना आसान नहीं, लेकिन कविताएं इस भावना को सरल और सहज रूप में व्यक्त करने का एक बेहतरीन माध्यम होती हैं। बता दें कि समय-समय पर कई लोकप्रिय कवियों ने प्रेम पर अपनी अद्भुत रचनाएं लिखीं हैं, जो वर्तमान में भी लोकप्रियता के एक नए आयाम पर हैं। इस लेख में आपके लिए प्रेम पर कविता (Prem Par Kavita) दी गई हैं, जो उनके प्रति अपनी सच्ची भावनाओं को व्यक्त करेंगी। प्यार पर कविता पढ़ने के लिए इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ें।
This Blog Includes:
प्रेम पर कविता – Prem Par Kavita
प्रेम पर कविता (Prem Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
---|---|
प्रेम | रामधारी सिंह “दिनकर” |
प्रेम-पथ हो न सूना | गोपालदास “नीरज” |
प्रेम | सुमित्रानंदन पंत |
प्रेम का सौदा | रामधारी सिंह “दिनकर” |
प्रेमपत्र | बद्री नारायण |
यदि मैं होता घन सावन का | गोपालदास “नीरज” |
सारा जग बंजारा होता | गोपालदास “नीरज” |
प्रेम की जगह अनिश्चित है | विनोद कुमार शुक्ल |
प्रगल्भ प्रेम | सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” |
प्रेम के प्रति | सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” |
रामधारी सिंह “दिनकर” की कविता – प्रेम
प्रेम की आकुलता का भेद
छिपा रहता भीतर मन में,
काम तब भी अपना मधु वेद
सदा अंकित करता तन में।
सुन रहे हो प्रिय?
तुम्हें मैं प्यार करती हूँ।
और जब नारी किसी नर से कहे,
प्रिय! तुम्हें मैं प्यार करती हूँ,
तो उचित है, नर इसे सुन ले ठहर कर,
प्रेम करने को भले ही वह न ठहरे।
मंत्र तुमने कौन यह मारा
कि मेरा हर कदम बेहोश है सुख से?
नाचती है रक्त की धारा,
वचन कोई निकलता ही नहीं मुख से।
पुरुष का प्रेम तब उद्दाम होता है,
प्रिया जब अंक में होती।
त्रिया का प्रेम स्थिर अविराम होता है,
सदा बढता प्रतीक्षा में।
प्रेम नारी के हृदय में जन्म जब लेता,
एक कोने में न रुक
सारे हृदय को घेर लेता है।
पुरुष में जितनी प्रबल होती विजय की लालसा,
नारियों में प्रीति उससे भी अधिक उद्दाम होती है।
प्रेम नारी के हृदय की ज्योति है,
प्रेम उसकी जिन्दगी की साँस है;
प्रेम में निष्फल त्रिया जीना नहीं फिर चाहती।
शब्द जब मिलते नहीं मन के,
प्रेम तब इंगित दिखाता है,
बोलने में लाज जब लगती,
प्रेम तब लिखना सिखाता है।
पुरुष प्रेम सतत करता है, पर, प्रायः, थोड़ा-थोड़ा,
नारी प्रेम बहुत करती है, सच है, लेकिन, कभी-कभी।
स्नेह मिला तो मिली नहीं क्या वस्तु तुम्हें?
नहीं मिला यदि स्नेह बन्धु!
जीवन में तुमने क्या पाया।
फूलों के दिन में पौधों को प्यार सभी जन करते हैं,
मैं तो तब जानूँगी जब पतझर में भी तुम प्यार करो।
जब ये केश श्वेत हो जायें और गाल मुरझाये हों,
बड़ी बात हो रसमय चुम्बन से तब भी सत्कार करो।
प्रेम होने पर गली के श्वान भी
काव्य की लय में गरजते, भूँकते हैं।
प्रातः काल कमल भेजा था शुचि, हिमधौत, समुज्जवल,
और साँझ को भेज रहा हूँ लाल-लाल ये पाटल।
दिन भर प्रेम जलज सा रहता शीतल, शुभ्र, असंग,
पर, धरने लगता होते ही साँझ गुलाबी रंग।
उसका भी भाग्य नहीं खोटा
जिसको न प्रेम-प्रतिदान मिला,
छू सका नहीं, पर, इन्द्रधनुष
शोभित तो उसके उर में है।
- रामधारी सिंह "दिनकर"
प्रेम-पथ हो न सूना
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल
शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ,
मौत की राह में, मौत की छाँह में
चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ,
जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,
मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए
जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो।
प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया,
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो,
कौन है जो हँसे फिर चमन में कली?
प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहाँ एक अपमान है,
आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
एक दिन काल-तम की किसी रात ने
दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया,
धार पर यह जला, पार पर यह जला
बार अपना हिया विश्व का तम पिया,
पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब
रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं,
आँधियों के नगर में बिना प्यार के
दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं,
पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए
जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह,
धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए,
रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन-
'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?'
इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही,
ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में,
जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा
कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में,
छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो।
- गोपालदास "नीरज"
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प्रेम
मैंने
गुलाब की
मौन शोभा को देखा!
उससे विनती की
तुम अपनी
अनिमेष सुषमा को
शुभ्र गहराइयों का रहस्य
मेरे मन की आँखों में
खोलो!
मैं अवाक् रह गया!
वह सजीव प्रेम था!
मैंने सूँघा,
वह उन्मुक्त प्रेम था!
मेरा हृदय
असीम माधुर्य से भर गया!
मैंने
गुलाब को
ओंठों से लगाया!
उसका सौकुमार्य
शुभ्र अशरीरी प्रेम था!
मैं गुलाब की
अक्षय शोभा को
निहारता रह गया!
- सुमित्रानंदन पंत
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प्रेम का सौदा
सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो।
फूँक दे सोचे बिना संसार को,
तोड़ दे मँझधार जा पतवार को।
कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे,
कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे।
हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए,
रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए।
बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं,
कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं।
प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे!
निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे!
मिल गया तो प्राण में रस घोल रे!
पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे!
प्रेम का भी क्या मनोरम देश है!
जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है।
जल गए जो-जो लिपट अंगार से,
चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से।
प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी,
चढ़ सका आकाश पर विरला यशी।
हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है,
भार का पन्थी! तुम्हें कुछ ज्ञान है?
है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी?
साथ जलने का लिया सामान भी?
बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने,
एक पद रखना कठिन है सामने।
प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा,
मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा।
मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है।
बेखुदी इस देश में त्योहार है।
खोजते -ही-खोजते जो खो गया,
चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया।
जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं?
दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं।
‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो,
भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो।
हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले,
वेदना हर गाँठ पर धीरे जले।
एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो,
नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो।
पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो,
जान लो, आराध्य के तुम पास हो।
आग से मालिन्य जब धुल जायगा,
एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा।
आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है,
प्रेम को समझे हुए आसान है।
फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में,
ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में ।
बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या?
कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या?
प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं ।
प्यार भी जीकर किया जाता कहीं?
मिल सके निज को मिटा जो राख में,
वीर ऐसा एक कोई लाख में।
भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया?
प्यार दिल से ही किया तो क्या किया?
चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी,
प्रेम की टीका सरल बलिदान ही।
- रामधारी सिंह "दिनकर"
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प्रेमपत्र
प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जाएगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा
चोर आएगा तो प्रेमपत्र चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र पर ही दाँव लगाएगा
ऋषि आएँगे तो दान में माँगेंगे प्रेमपत्र
बारिश आएगी तो
प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र पर ही लगाई जाएँगी
साँप आएगा तो डँसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आएँगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे
प्रलय के दिनों में
सप्तर्षि, मछली और मनु
सब वेद बचाएँगे
कोई नहीं बचाएगा प्रेमपत्र
कोई रोम बचाएगा
कोई मदीना
कोई चाँदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊँगा तुम्हारा प्रेमपत्र।
- बद्री नारायण
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प्यार पर कविता – Poem on Love in Hindi
प्यार पर कविता (Poem on Love in Hindi) आपको इसका महत्व बताएंगी, जो कुछ इस प्रकार हैं –
यदि मैं होता घन सावन का
पिया पिया कह मुझको भी पपिहरी बुलाती कोई,
मेरे हित भी मृग-नयनी निज सेज सजाती कोई,
निरख मुझे भी थिरक उठा करता मन-मोर किसी का,
श्याम-संदेशा मुझसे भी राधा मँगवाती कोई,
किसी माँग का मोती बनता ढल मेरा भी आँसू,
मैं भी बनता दर्द किसी कवि कालिदास के मन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
आगे आगे चलती मेरे ज्योति-परी इठलाती,
झांक कली के घूंघट से पीछे बहार मुस्काती,
पवन चढ़ाता फूल, बजाता सागर शंख विजय का,
तृषा तृषित जग की पथ पर निज पलकें पोंछ बिछाती,
झूम झूम निज मस्त कनखियों की मृदु अंगड़ाई से,
मुझे पिलाती मधुबाला मधु यौवन आकर्षण का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
प्रेम-हिंडोले डाल झुलाती मुझे शरीर जवानी,
गा गा मेघ-मल्हार सुनाती अपनी विरह कहानी,
किरन-कामिनी भर मुझको अरुणालिंगन में अपने,
अंकित करती भाल चूम चुम्बन की प्रथम निशानी,
अनिल बिठा निज चपल पंख पर मुझे वहाँले जाती,
खिलकर जहाँन मुरझाता है विरही फूल मिलन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
खेतों-खलिहानों में जाकर सोना मैं बरसाता,
मधुबन में बनकर बसंत मैं पातों में छिप जाता,
ढहा-बहाकर मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और शिवाले,
ऊंची नीची विषम धरा को समतल सहज बनाता,
कोयल की बांसुरी बजाता आमों के झुरमुट में,
सुन जिसको शरमाता साँवरिया वृन्दावन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
जीवन की दोपहरी मुझको छू छाया बन जाती,
साँझ किसी की सुधि बन प्यासी पलकों में लहराती,
द्वार द्वार पर, डगर डगर पर दीप चला जुगनू के,
सजल शरबती रात रूप की दीपावली मनाती,
सतरंगी साया में शीतल उतर प्रभात सुनहला
बनता कुन्द कटाक्ष कली की खुली धुली चितवन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
बिहग-बाल के नरम परों में बन कँपन बसता मैं,
उरोभार सा अंग अंग पर मुग्धा के हँसता मैं,
मदिरालय में मँदिर नशा बन प्याले में ढल जाता,
बन अनंग-अंजन अलसाई आँकों में अंजता मैं,
स्वप्न नयन में, सिरहन तन में, मस्ती मन में बनकर,
अमर बनाता एक क्षुद्र क्षण मैं इस लघु जीवन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
जब मैं जाता वहाँ जहाँ मेरी निष्ठुर वह सुन्दर,
साँझ-सितारा देख रही होगी बैठी निज छत पर,
पहले गरज घुमड़ भय बन मन में उसके छिप जाता,
फिर तरंग बन बहता तन में रिमझिम बरस बरस कर,
गोल कपोलों कर ढुलका कर प्रथम बूँद वर्षा की,
याद दिलाता मिलन-प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥
- गोपालदास "नीरज"
सारा जग बंजारा होता
सारा जग बंजारा होता...
प्यार अगर थामता न पथ में उंगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता।
निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरन की,
और ज़िन्दगी लगती जैसे-
डोली कोई बिना दुल्हन की,
दुख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आंगन गर न बुहारा होता।
प्यार अगर…
सबका होकर भी न किसी का...
मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हंसी का
और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता।
प्यार अगर…
कहे इसे वह भी पछताए...
जीवन क्या है एक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए-
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए
मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़ भावना के संग किया गुज़ारा होता।
प्यार अगर...
और व्यर्थ लगती सब गीता...
मेघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन होती हर सीता
सुन्दरता कंकड़ी आंख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर
अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता।
प्यार अगर…
भीतर से लगता पहचाना...
जाने कैसा अजब शहर यह
कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अनजाना
जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में
कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता।
प्यार अगर…
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर...
हर घर-आंगन रंग मंच है
और हर एक सांस कठपुतली
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल, नाचे बिजली,
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता।
प्यार अगर…
आज तक हमसे न हमारी मुलाक़ात हुई
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुजरी?
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई
ज़िंदगी-भर तो हुई गुफ़्तगू गैरों से मगर,
आज तक हमसे न हमारी मुलाक़ात हुई
- गोपालदास "नीरज"
प्रेम की जगह अनिश्चित है
प्रेम की जगह अनिश्चित है
यहाँ कोई नहीं होगा की जगह भी कोई है।
आड़ भी ओट में होता है
कि अब कोई नहीं देखेगा
पर सबके हिस्से का एकांत
और सबके हिस्से की ओट निश्चित है।
वहाँ बहुत दुपहर में भी
थोड़ी-सा अँधेरा है
जैसे बदली छाई हो
बल्कि रात हो रही है
और रात हो गई हो।
बहुत अँधेरे के ज़्यादा अँधेरे में
प्रेम के सुख में
पलक मूँद लेने का अंधकार है।
अपने हिस्से की आड़ में
अचानक स्पर्श करते
उपस्थित हुए
और स्पर्श करते हुए विदा।
- विनोद कुमार शुक्ल
प्रगल्भ प्रेम
आज नहीं है मुझे और कुछ चाह,
अर्धविकव इस हॄदय-कमल में आ तू
प्रिये, छोड़ कर बन्धनमय छ्न्दों की छोटी राह!
गजगामिनि, वह पथ तेरा संकीर्ण,
कण्टकाकीर्ण,
कैसे होगी उससे पार?
काँटों में अंचल के तेरे तार निकल जायेंगे
और उलझ जायेगा तेरा हार
मैंने अभी अभी पहनाया
किन्तु नज़र भर देख न पाया-कैसा सुन्दर आया।
मेरे जीवन की तू प्रिये, साधना,
प्रस्तरमय जग में निर्झर बन
उतरी रसाराधना!
मेरे कुंज-कुटीर-द्वार पर आ तू
धीरे धीरे कोमल चरण बढ़ा कर,
ज्योत्स्नाकुल सुमनों की सुरा पिला तू
प्याला शुभ्र करों का रख अधरो पर!
बहे हृदय में मेरे, प्रिय, नूतन आनन्द प्रवाह,
सकल चेतना मेरी होये लुप्त
और जग जाये पहली चाह!
लखूँ तुझे ही चकित चतुर्दिक,
अपनापन मैं भूलूँ,
पड़ा पालने पर मैं सुख से लता-अंक के झूलूँ;
केवल अन्तस्तल में मेरे, सुख की स्मृति की अनुपम
धारा एक बहेगी,
मुझे देखती तू कितनी अस्फुट बातें मन-ही-मन
सोचेगी, न कहेगी!
एक लहर आ मेरे उर में मधुर कराघातों से
देगी खोल हृदय का तेरा चिरपरिचित वह द्वार,
कोमल चरण बढ़ा अपने सिंहासन पर बैठेगी,
फिर अपनी उर की वीणा के उतरे ढीले तार
कोमल-कली उँगुलियों से कर सज्जित,
प्रिये, बजायेगी, होंगी सुरललनाएँ भी लज्जित!
इमन-रागिनी की वह मधुर तरंग
मीठी थपकी मार करेगी मेरी निद्रा भंग;
जागूँगा जब, सम में समा जायगी तेरी तान,
व्याकुल होंगे प्राण,
सुप्त स्वरों के छाये सन्नाटे में
गूँजेगा यह भाव,
मौन छोड़ता हुआ हृदय पर विरह-व्यथित प्रभाव-
"क्या जाने वह कैसी थी आनन्द-सुरा
अधरों तक आकर
बिना मिटाये प्यास गई जो सूख जलाकर अन्तर!"
- सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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प्रेम के प्रति
चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम अनादि तब केवल तम;
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम।
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।
वसन वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया,
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया;
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।
प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार,
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।
- सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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