Samay Par Kavita: समय का महत्व समझाने वाली बेहतरीन कविताएँ

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Samay Par Kavita

Poem on Time in Hindi: समय जीवन का सबसे अनमोल उपहार है, जो हमें अनुशासन और संयम सिखाता है। यह न किसी के लिए रुकता है, न ही किसी का इंतजार करता है। हर बीता हुआ क्षण हमें यह सीख देता है कि हमें अपने समय का सही उपयोग करना चाहिए। चाहे हम जीवन के किसी भी पड़ाव पर हों, समय की कीमत हर दौर में अमूल्य होती है। यही कारण है कि हमारे बड़े-बुजुर्ग हमेशा यही सिखाते हैं कि जो समय की कद्र करते हैं, वही सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचते हैं। अनेकों कवियों ने समय के महत्व को अपने शब्दों में पिरोकर सुंदर कविताएँ लिखी हैं, जो हमें इसकी अहमियत को समझाने के साथ-साथ इसका सदुपयोग करना भी सिखाती हैं। इस लेख में आपके लिए ऐसी ही प्रेरणादायक समय पर कविताएँ (Samay Par Kavita) दी गई हैं, जो आपको समय की कीमत पहचानने और इसे सार्थक रूप से जीने की प्रेरणा देंगी।

समय पर कविता – Samay Par Kavita

समय पर कविता (Samay Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
समयरामधारी सिंह “दिनकर”
समयदुष्यंत कुमार
समय के हस्ताक्षरमृदुल कीर्ति
हम अपना समय लिख नहीं पाएँगेअशोक वाजपेयी
हमको तुमको फेर समय काफ़िराक़ गोरखपुरी
उठ समय से मोरचा लेहरिवंशराय बच्चन
चलते समयसुभद्राकुमारी चौहान
वक्तलता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’
समय का पहियागोरख पाण्डेय
समय के समर्थ अश्वमाखनलाल चतुर्वेदी

रामधारी सिंह दिनकर की कविता – समय

जर्जरवपुष्‌! विशाल!
महादनुज! विकराल!

भीमाकृति! बढ़, बढ़, कबन्ध-सा कर फैलाए;
लील, दीर्घ भुज-बन्ध-बीच जो कुछ आ पाए।
बढ़, बढ़, चारों ओर, छोड़, निज ग्रास न कोई,
रह जाए अविशिष्ट सृष्टि का ह्रास न कोई।

भर बुभुक्षु! निज उदर तुच्छतम द्रव्य-निकर से,
केवल, अचिर, असार, त्याज्य, मिथ्या, नश्वर से;
सब खाकर भी हाय, मिला कितना कम तुझको!
सब खोकर भी किन्तु, घटा कितना कम मुझको!

खाकर जग का दुरित एक दिन तू मदमाता,
होगा अन्तिम ग्रास स्वयं सर्वभुक क्षुधा का।
तब भी कमल-प्रफुल्ल रहेगा शास्वत जीवन,
लहरायेगा जिसे घेर किरणों का प्लावन।

आयेगी वह घड़ी, मलिन पट मिट्टी का तज,
रश्मि-स्नात सब प्राण तारकों से निज को सज,
आ बैठेंगे घेर देवता का सिंहासन;
लील, समय, मल, कलुष कि हम पायें नवजीवन।

वह जीवन जिसमें न जरा, रुज, क्षय का भय है,
जो निसर्गतः कलजयी है, मृत्युंजय है।

– रामधारी सिंह “दिनकर”

समय

नहीं!
अभी रहने दो!
अभी यह पुकार मत उठाओ!
नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन!
भूला भटका कोई स्वर
अब भी उठता है-आता है!
निस्वन हवा में तैर जाता है!

रोशनी भी है कहीं?
मद्धिम सी लौ अभी बुझी नहीं,
नभ में एक तारा टिमटिमाता है!

अभी और सब्र करो!
जल नहीं, रहने दो!
अभी यह पुकार मत उठाओ!
अभी एक बूँद बाकी है!
सोतों में पहली सी धार प्रवहमान है!
कहीं कहीं मानसून उड़ते हैं!
और हरियाली भी दिखाई दे जाती है!
ऐसा नहीं है बन्धु!
सब कहीं सूखा हो!

गंध नहीं:
शक्ति नहीं:
तप नहीं:
त्याग नहीं:
कुछ नहीं-
न हो बन्धु! रहने दो
अभी यह पुकार मत उठाओ!
और कष्ट सहो।
फसलें यदि पीली हो रही हैं तो होने दो
बच्चे यदि प्यासे रो रहे हैं तो रोने दो
भट्टी सी धरती की छाती सुलगने दो
मन के अलावों में और आग जगने दो
कार्य का कारण सिर्फ इच्छा नहीं होती…!
फल के हेतु कृषक भूमि धूप में निरोता है
हर एक बदली यूँही नहीं बरस जाती है!
बल्कि समय होता है!

– दुष्यंत कुमार

समय पर कविता

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समय के हस्ताक्षर

मरण धर्मा जीव और जीवन के सभी सुख,
छल छद्म और अविश्वास से भरें हैं।
हर व्यक्ति और वस्तु में, क्षरण और मरण का कीट ,
जाने कौन तब मरे और अब मरे है।

जन्म अपने गर्भ में , मरण लेकर ही जन्मती है।
मरण अपने गर्भ में जन्म लेकर ही संवारती है।
भोगने की भावना पर मर्त्य सुख का भाव
मन को उचाट कर देता है।
साँस में व्यथा की आरियों सी चलतीं हैं,
जो सब कुछ सपाट कर देता है।

एक -एक मोह ग्रंथि बार -बार यहॉं चटक कर टूटती है
तिल -तिल कर बने विकसित उपवन और यौवन
निर्दयता से एक पल में कूटती है।
निः शंक , निर्भय , निर्द्वंद और शाश्वती में जीना हो तो,
अपने ही शरीर की मूल धरती पर उतरना होगा।

गहराव में ठहराव ,
बहाव में बिखराव है.
समय के प्रवाह में
शाश्वती प्रभाव की अभीप्सा है।
तो काल के भाल पर,
अनाहत पौरुष और पराक्रम के,
ध्रुवीय शिलालेख लिख दो,
जिस पर समय के हस्ताक्षर हों।
ऐसे ही जन्म-मरण कृतित्व अक्षर हों।

– मृदुल कीर्ति

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हम अपना समय लिख नहीं पाएँगे

यह ठहरा हुआ निर्जन समय
जिसमें पक्षी और चिड़ियाँ तक चुप हैं,
जिसमें रोज़मर्रा की आवाज़ें नहीं सिर्फ़ गूँजें भर हैं,
जिसमें प्रार्थना, पुकार और विलाप सब मौन में बिला गए हैं,
जिसमें संग-साथ कहीं दुबका हुआ है,
जिसमें हर कुछ पर चुप्पी समय की तरह पसर गई है,
ऐसे समय को हम कैसे लिख पाएँगे?

पता नहीं यह हमारा समय है
यहाँ हम किसी और समय में बलात् आ गए हैं
इतना सपाट है यह समय
कि इसमें कोई सलवटें, परतें, दरारें, नज़र नहीं आतीं
और इससे भागने की कोई पगडंडी तक नहीं सूझती।
हम अपना समय लिख नहीं पाएँगे।

यह समय धीरे चल रहा है
लगता सब घड़ियों ने विलम्बित होना ठान लिया है;
बेमौसम हवा ठंडी है;
यों वसंत है और फूल खिलखिला रहे हैं

मानो हमारे कुसमय पर हँस रहे हों
और गिलहरियाँ तेज़ी से भागते हुए
मुँह चिढ़ाती पेड़ों या खंभों पर चढ़ रही है;
अचानक कबूतर कुछ कम हो गए हैं जैसे
दिहाड़ी मज़दूरों की तरह अपने घर-गाँव वापस
जाने की दुखद यात्रा पर निकल गए हों :

हमें इतना दिलासा भर है कि
अपने समय में भले न हों, हम अपने घर में हैं।
उम्मीद किसी कचरे के छूट गए हिस्से की तरह
किसी कोने में दुबकी पड़ी है
जो आज नहीं तो कल बुहारकर फेंक दी जाएगी।
हम अपना समय लिख नहीं पाएँगे।

– अशोक वाजपेयी

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हमको तुमको फेर समय का

हमको तुमको फेर समय का ले आई ये हयात कहाँ?
हम भी वही हैं तुम भी वही हो लेकिन अब वो बात कहाँ?
कितनी उठती हुई जवानी खिलने से पहले मुरझाएँ.
मन उदास तन सूखे-सूखे इन रुखों में पात कहाँ?

ये संयोग-वियोग की दुनिया कल हमको बिछुड़ा देगी
देख लूँ तुमको आँख भर के आएगी अब ये रात कहाँ?
मोती के दो थाल सजाए आज हमारी आँखों ने,
तुम जाने किस देस सिधारे भेंजें ये सौगात कहाँ?

तेरा देखना सोच रहा हूँ दिल पर खा के गहरे घाव
इतने दिनों छुपा रक्खी थी आँखों ने ये घात कहाँ?
ऐ दिल कैसे चोट लगी जो आँखों से तारे टूटे,
कहाँ टपाटप गिरते आँसू और मर्द की जात कहाँ?

यूँ तो बाजी जीत चुका था एक चाल थी चलने की
उफ़ वो अचानक राह पड़ जाना इश्क़ ने खाई मात कहाँ?
झिलमिल-झिलमिल तारों ने भी पायल की झंकार सुनी थी
चली गई कल छमछम करती पिया मिलन की रात कहाँ?

– फ़िराक़ गोरखपुरी

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समय पर लोकप्रिय कविताएं – Poem on Time in Hindi

समय पर लोकप्रिय कविताएं (Poem on Time in Hindi) इस प्रकार हैं, जो समय की महत्ता को दर्शाते हुए हमें अनुशासन, धैर्य और परिश्रम का पाठ सिखाती हैं।

उठ समय से मोरचा ले

उठ समय से मोरचा ले।

जिस धरा से यत्न युग-युग
कर उठे पूर्वज मनुज के,
हो मनुज संतान तू उस-पर पड़ा है शर्म खाले।
उठ समय से मोरचा ले।

देखता कोई नहीं है
निर्बलों की यह निशानी,
लोचनों के बीच आँसू औ’ पगों के बीच छाले!
उठ समय से मोरचा ले।

धूलि धूसर वस्त्र मानव-
देह पर फबते नहीं हैं,
देह के ही रक्त से तू देह के कपड़े रँगाले।
उठ समय से मोरचा ले।

– हरिवंशराय बच्चन

चलते समय

तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो!
’जा…’ कहते रुकती है जबान
किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!

सेवा करना था जहाँ मुझे
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला
बलि होकर जहाँ चुकाना था॥

मैं सदा रूठती ही आई,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना॥

– सुभद्राकुमारी चौहान

वक्त

पल-पल, क्षिण-क्षिण कर फिसल रहा है
हाथ से वक्त का धागा रे
ओ मन… अब तू जरा संभल संभल
क्या नींद खुली, क्या जागा रे…?

न वक्त के बढ़ते कदम रुके
न कोई चाल कभी देखे,
इस समय को वश में करने की
कोई लाखों चालाकी सीखे
है वक्त का पहिया घूम रहा
स्वयं ब्रह्म इसी में लागा रे…?

ओ मन… अब तू जरा संभल संभल
क्या नींद खुली, क्या जागा रे…?

कोई राज करे कोई रंक भले
पर एक विधाता की न चले
जो आज गिरा हो गर्दिश में
कल उदयमान हो गगन मिले
वक्त ने हर एक जख्म भरे
मरहम बनकर जब लागा रे…
ओ मन. अब तू, जरा संभल संभल
क्या नींद खुली… क्या जागा रे…?

एक वक्त रहा यहाँ रामराज
वही राम कभी वनवास किए
गांधारी के सौ पुत्र रहे
सब धर्म विरुद्ध ही काज किए
जो फंसा समय के चक्रव्यूह में
अभिमन्यु क्या भागा रे…?
ओ मन… अब तू, जरा संभल संभल
क्या नींद खुली… क्या जागा रे…?

कर नवयुग की स्थापना, चल
युग बदलेगा, निश्चय हो अटल
कई क्रांतिवीर की उपलब्धि
मिली शिलालेख, थी एक पहल
स्वर्णिम अक्षर हो ज्योतिर्मय
टूटे जब श्वास का धागा रे…!
ओ मन. अब तू, जरा संभल संभल
क्या नींद खुली, क्या जागा रे…?

– लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

समय का पहिया

समय का पहिया चले रे साथी
समय का पहिया चले
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले

– गोरख पाण्डेय

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समय के समर्थ अश्व

समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।
छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ
तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।।

रूप फूल का कि रंग पत्र का
बढ़ चले कि धूप-छाँव ही चलो।।
समय के समर्थ उश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।।

वह खगोल के निराश स्वप्न-सा
तीर आज आर-पार हो गया
आँधियों भरे अ-नाथ बोल तो
आज प्यार! क्यों उदार हो गया?

इस मनुष्य का ज़रा मज़ा चखो
किन्तु यार एक दाँव ही चलो।।
समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।।

– माखनलाल चतुर्वेदी

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