भारत में ऐसे कई साहित्यकार हुए जिनकी रचनाओं ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला और समाज की चेतना को जगाने में एक मुख्य भूमिका निभाई, ऐसे ही महान साहित्यकारों में से एक मैथिलीशरण गुप्त भी थे। मैथिलीशरण गुप्त को हिंदी साहित्य के एक ऐसे मजबूत स्तंभ के रूप में देखा जाता है, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारत को एक नई पहचान दी। मैथिलीशरण गुप्त हिंदी खड़ी बोली के महत्वपूर्ण और प्रसिद्धि कवि थे। उनकी कला और राष्ट्र प्रेम के कारण ही उन्हें राष्ट्र कवि का दर्जा प्राप्त हुआ था। मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करने और उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन करने का प्रयास करती हैं। इस ब्लॉग में आपको मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
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मैथिलीशरण गुप्त के बारे में
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी के चिरगाँव में 3 अगस्त, सन 1866 ई० में हुआ था। इनके पिताजी भी एक कवि थे जिनसे प्रेरित होकर बचपन से ही मैथिलीशरण गुप्त की लेखन में रूचि हुई। मैथिलीशरण गुप्त की पढ़ाई घर पर ही हुई जिसके साथ ही उन्होंने अपना लेखन भी जारी रखा। इन्होने हिंदी के अतिरिक्त बंगला ,मराठी भाषाओं का भी अध्ययन किया और जैसे-जैसे समय बीतता गया महावीर प्रसाद उनके प्रेरणास्तोत्र बन गए, जिसकी झलक आपको उनके लेखन में भी देखने को मिल सकती है।
मैथिलीशरण गुप्त ने अपने जीवन काल में अपने लेखन द्वारा कई लोगो को देश प्रेम के लिए प्रेरित किया और एक मज़बूत प्रभाव डाला। सन 1907 में अपनी पत्रिका सरस्वती में उनका पहली बार खड़ी बोली कवि में “हेमंत शीर्षक” से प्रकाशित हुआ। ‘भारत-भारती’ उनकी बेहतरीन देश प्रेम में से एक है जो गुप्ता जी के स्वदेश प्रेम को दर्शाती है। मैथिलीशरण गुप्त जी की मृत्यु 12 दिसंबर 1964 को हृदय गति रुकने से हो गयी। इस प्रकार 78 वर्ष की अवस्था में हिन्दी साहित्य का जगमगाता सितारा सदा-सदा के लिए आस्थाचाल की ओट में छिप गया।
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मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं
मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं राष्ट्रीयता, संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिकता का अनोखा चित्रण प्रस्तुत करती हैं। मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं आपका मार्गदर्शन करने का प्रयास करेंगी, जो कुछ इस प्रकार हैं;
नर हो, न निराश करो मन को
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “नर हो, न निराश करो मन को” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।
प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जन हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
-मैथिलीशरण गुप्त
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जीवन की ही जय हो
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “जीवन की ही जय हो” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।
जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।
नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।
जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।
-मैथिलीशरण गुप्त
नहुष का पतन
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “नहुष का पतन” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में
व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में
पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की
अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की
दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना
अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना?
बस क्या यही है बस बैठ विधियाँ गढ़ो?
अश्व से अडो ना अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो
बार बार कन्धे फेरने को ऋषि अटके
आतुर हो राजा ने सरौष पैर पटके
क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जा लगा
सातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा
भार बहे, बातें सुने, लातें भी सहे क्या हम
तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम
पैर था या सांप यह, डस गया संग ही
पमर पतित हो तु होकर भुंजग ही
राजा हतेज हुआ शाप सुनते ही काँप
मानो डस गया हो उसे जैसे पिना साँप
श्वास टुटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला
“हा ! ये हुआ क्या?” यही व्यग्र वाक्य निकला
जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके
पालकी का नाल डूबते का तृण धरके
शून्य-पट-चित्र धुलता हुआ सा दृष्टि से
देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से
दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा
चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा –
“संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ?
दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?”
सँभला अद्मय मानी वह खींचकर ढीले अंग –
“कुछ नहीं स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग.
कठिन कठोर सत्य तो भी शिरोधार्य है
शांत हो महर्षि मुझे, सांप अंगीकार्य है”
दुख में भी राजा मुसकराया पूर्व दर्प से
मानते हो तुम अपने को डसा सर्प से
होते ही परन्तु पद स्पर्श भुल चुक से
मैं भी क्या डसा नहीं गया हुँ दन्डशूक से
मानता हुँ भुल हुई, खेद मुझे इसका
सौंपे वही कार्य, उसे धार्य हो जो जिसका
स्वर्ग से पतन, किन्तु गोत्रीणी की गोद में
और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में
काल गतिशील मुझे लेके नहीं बेठैगा
किन्तु उस जीवन में विष घुस पैठेगा
फिर भी खोजने का कुछ रास्ता तो उठायेगें
विष में भी अमर्त छुपा वे कृति पायेगें
मानता हुँ भुल गया नारद का कहना
दैत्यों से बचाये भोग धाम रहना
आप घुसा असुर हाय मेरे ही ह्रदय में
मानता हुँ आप लज्जा पाप अविनय में
मानता हुँ आड ही ली मेने स्वाधिकार की
मुल में तो प्रेरणा थी काम के विकार की
माँगता हुँ आज में शची से भी खुली क्षमा
विधि से बहिर्गता में भी साधवी वह ज्यों रमा
मानता हुँ और सब हार नहीं मानता
अपनी अगाति आज भी मैं जानता
आज मेरा भुकत्योजित हो गया है स्वर्ग भी
लेके दिखा दूँगा कल मैं ही अपवर्ग भी
तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है
चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अँधेरा है
चलना मुझे है बस अंत तक चलना
गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना
गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी
मैं ही तो उठा था आप गिरता हुँ जो अभी
फिर भी ऊठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं
नर हूँ, पुरुष हूँ, चढ़ के रहुँगा मैं
चाहे जहाँ मेरे उठने के लिये ठौर है
किन्तु लिया भार आज मेने कुछ और है
उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ
मेरा देवता भी और ऊंचा उठे मेरे साथ
-मैथिलीशरण गुप्त
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किसान
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “किसान” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
हेमन्त में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
-मैथिलीशरण गुप्त
कुशलगीत
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “कुशलगीत” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
हाँ, निशान्त आया,
तूने जब टेर प्रिये, कान्त, कान्त, उठो, गाया—
चौँक शकुन-कुम्भ लिये हाँ, निशान्त गाया।
आहा! यह अभिव्यक्ति,
द्रवित सार-धार-शक्ति।
तृण तृण की मसृण भक्ति
भाव खींच लाया।
तूने जब टेर प्रिये, “कान्त, उठो” गाया!
मगध वा सूत गये,
किन्तु स्वर्ग-दूत नये,
तेरे स्वर पूत अये,
मैंने भर पाया।
तूने जब टेर प्रिये, “कान्त, उठो” गाया।
-मैथिलीशरण गुप्त
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अर्जुन की प्रतिज्ञा
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “अर्जुन की प्रतिज्ञा” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ?
युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही।
साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी।
अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है।
उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं।
अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ।
-मैथिलीशरण गुप्त
दोनों ओर प्रेम पलता है
मैथिलीशरण गुप्त की लोकप्रिय कविताओं में से एक कविता “दोनों ओर प्रेम पलता है” भी है, जो कुछ इस प्रकार है;
दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
कहता है पतंग मन मारे–
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलने में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
-मैथिलीशरण गुप्त
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