राजेंद्र यादव की कविताएँ, जो भावनाओं की गहराई और साहित्य की शिल्पकारी से आपका परिचय करवाएंगी

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राजेंद्र यादव की कविताएँ

राजेंद्र यादव हिंदी साहित्य के उन प्रमुख लेखक, संपादक और आलोचकों में से एक थे, उनकी लेखनी ने सही मायनों में हिंदी साहित्य को एक नई दिशा देने का काम किया। राजेंद्र यादव की प्रमुख कृतियों में “सारा आकाश”, “शह और मात”, “उखड़े हुए लोग”, “कुलटा” और “सांस-सांस” शामिल हैं, ये रचनाएं लोकप्रिय हैं। उनकी कविताएं सरल भाषा में गहरे भावों को व्यक्त करती हैं, जो समाज को जगाए रखने का काम करती हैं। विद्यार्थियों को राजेंद्र यादव की कविताएँ पढ़कर साहित्य के आँगन में पलने-बढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जिससे उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको राजेंद्र यादव की कविताएँ पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।

राजेंद्र यादव की कविताएँ

राजेंद्र यादव की कविताएँ जिन्होंने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं, वे हैं –

  • अक्षर
  • दुहरी ज़िंदगी
  • अन-बोले क्षण
  • आवाज़ तेरी है
  • जागे नयन किसी के, सारी रात
  • बीमार आदमी फ़रार दोस्त
  • बदलीवाला एक दिन
  • इतना लंबा आकाश
  • क़र्ज़ख़ोर
  • प्रतीक्षा इत्यादि।

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अक्षर

हम सब अक्षर हैं
अक्षर हरे काग़ज़ पर हों या सफ़ेद पर
खुरदरे में हों या चिकने में
टोपी पहने हों या नंगे सिर
अँग्रेज़ हों या हब्शी
उन्हें लिखने वाला क़लम पार्कर हो या नरसल
लिखने वाली उँगलियों में क्यूटैक्स लगा हो या मेहँदी
अक्षर, अक्षर ही है
शब्द वह नहीं है
अमर होते हुए भी अपने आपमें वह सूना है

अक्षर अर्थ वहन करने का एक प्रतीक है, माध्यम है
अक्षर-अक्षर का ढेर, टाइप-केस में भरा सीसा मात्र है
शब्द बनाता है—अक्षर-अक्षर का संबंध
वही देता है उसे गौरव, गरिमा और गाम्भीर्य
क्योंकि शब्द ब्रह्म है

हम सब अक्षर हैं
और सभी मिलकर एक सामाजिक सत्य को अभिव्यक्ति देते हैं

सत्य जड़ नहीं, चेतन है
सामाजिक सत्य एक गतिमान नदी है
वह अपनी बाढ़ में कभी हमें बहा देती है, बिखरा देती है
कभी नदी बह जाती है
तो घोंघे की तरह हम किनारों से लगे झूलते रहते हैं
इधर-उधर हाथ-पाँव मारते हैं
लेकिन फिर मिलते हैं
शब्द बनते हैं—वाक्य बनते हैं
और फिर नए सामाजिक सूत्र को वाणी देते हैं
क्योंकि मरते हम नहीं हैं
हम अक्षर जो हैं

शब्द बनकर सत्य को समोना हमारी सार्थकता है
वाक्य बनना हमारी सफलता

हमें पढ़ो,
हमारा एक व्याकरण है।

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

दुहरी ज़िंदगी

सुनो,
ये आँसू,
ये शब्द,
ये बहसें,
ये लेखन,
ये तस्वीरें,
सब सतही हैं
सब नक़ली हैं
सब झूठे हैं
मेरे छूटे सत्य
मेरे सपने,
मेरी ख़ुशियाँ,
मेरी पीड़ा,
कहीं भी तो इनमें
कभी भी तो इनमें
मुखरित न हुए
झाँके तक न ज़रा।

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

अन-बोले क्षण

न,
कुछ न बोलो
मौन पीने दो मुझे
अपनी हथेली से तुम्हारी उँगलियों का कंप

उँह, गुज़रते सैलानियों की दृष्टि
अँधेरे को भेद
रह-रह रीढ़ पर से रेंगती थी—अब नहीं है।

नहीं,
कुछ भी तो नहीं,
ऊपर का पखेरू सपने में शायद चिंहुक कर डगमगाया है
डैने तोलता है।

तट की भुजाओं के ढाल

अ-देखे ज्वार की अँगड़ाइयों में टूटते हैं
पार जलती रौशनी के साँप
लहरों पर हुमस कर
इस किनारे तक लपकते हैं
लौटते हैं

सुनो,
बोलना क्या चाहिए ही?
मौन क्या गहराइयों को स्वर नहीं देता?
शब्द तो है वस्त्र,
भावों के—अभावों के।

इस समय अनुभव करें चुप
परस्पर को हम नक़ाबों में ही नहीं हैं

हम निरावृत, अनावरण हैं
क्या चरम-आत्मीय क्षण यों अ-बोले होते नहीं हैं?

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

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आवाज़ तेरी है

यह तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

कि जैसे डोर बंसी की तड़पती मीन को खींचे
कि जैसे ज्योति की रेखा, पथिक ध्रुवहीन को खींचे
कि जैसे दीप की लौ को अरुण का सारथी टेरे
कि जैसे ऐंद्रजालिक मोहिनी से चेतना घेरे

सिसकती धार को जैसे कि सागर खींच लेता है—
लहर की बाँह फैलाकर।
अचानक यों मुझे झकझोर कर किसने जगा डाला?
अँधेरे के नक़ाबों में स्वयं मुझको बुलाता-सा
चला जाता,
कि बादल में उलझ कर धूप पावस की
सरकती भागती जाती
बिछी हरियालियों, अमराइयों के पार!
क्षितिज-सा भागता यह स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

मगर यह कौन है
जो यों समय-असमय बुलाता है?
यही स्वर एक दिन
चुपचाप हातिम के हृदय में फूट उछला था
कि जैसे क्षुब्ध ज्वाला-मुखि!
निदा की वह पहाड़ी गूँज!

सालस अज़दहों-से सुप्त लेटे कुंडली मारे पहाड़ों को
उफनती सर्पिणी-सी दौड़ती-फुफकारती नदियाँ,
विचारों के कँटीले झाड़-से उलझे घने जंगल
बुझे दिल से चिलकते धूप में निर्जल
बगूलों में गरजते-गूँजते विस्तीर्ण रेगिस्तान
खिंचती डोरियों-सी झूलती-मुड़ती तनी सड़कें
चमकती पटरियों की रेख
कातर-सी सहस पग दौड़ती रेलें
सभी कुछ लाँघता चलता चला जाता
बेसुध, बेहोश!

‘‘कहीं है एक
जो मुझको बुलाता है।’’
यहीं तो एक स्वर है
न जिसको मैं झुठा पाता,
झुठाया आप अपने को।

वही आवाज़ आती है।
न मुझको रोक, पथ दे छोड़,
इस आवाज़ का मुझको कि उद्गम छोर छूना है!
जहाँ पर एक है कोई कि मेरी राह में बेठा
गिना करता कनेरी उँगलियों की पोर।

सत्य है यह
भूख से ठिठुरे हुए इंसान की शिशु-हड्डियों के तख़्त पर
बैठा हुआ भगवान
मेरा सिर झुकाने में हमेशा ही रहा असमर्थ
मेरे भाग्य को
ये अधोमुख लटके हुए नक्षत्र छू पाए नहीं।
औ’ जगत-जीवन के जटिल गंभीर प्रश्नों को न पल भर टाल
अपना बोझ सारा भूल
पाया गिन कभी सूनी लकीरें हाथ की मैं।
आज की तारीख़ तक मैंने टटोले ही नहीं हैं
भाव-कंपित उँगलियों से मूक बेबस
झुकी भौहों पर उभरती सलवटों के मोड़!
हार का अभिषेक!

किंतु तब भी, एक यह विश्वास
मेरी आत्मा से उठ हृदय में गूँज
जलमय पुतलियों पर, तैर कहता
‘‘कहीं कोई राह मेरी देखता है।’’

ओ, भविष्यत् के क़िले में क़ैद
रानी स्वप्न की,
मैं काल-सागर पर क्षणों की लहरियों से जूझ
लघु व्यक्तित्व की नौका धकेले
चल पड़ा हूँ खोजने वह तीर
जिसके आ क्षितिज सिकता किनारे पर
महा-सुनसान में
खोले वातायन दुर्ग के
टेके हथेली पर चिबुक
तू झाँकती दिन-रात
सूनी दृष्टि से चुपचाप!
बूँदें कोरकों से ढुलकती हैं
खोई ताकती अनिमेष
सपने भेजती हैं।
और सपनों की निरंतर गूँजती आवाज़
कितनी दूर
कितनी पास!

निर्मम टेर,
रुक ज़रा
मुझको कभी आराम करने दे,
कभी कुछ साँस लेने दे!

मगर तू कौन है
हे, स्वर?
कि निर्दय ठेलता जाता
न पीछे घूमने देता
निगाहें बाँध डाली हैं
कि जैसे मंत्र की कौड़ी विवश-से सर्प को खींचे
सलज सौंदर्य का जादू असुर के दर्प को खींचे,
थकन, अवसाद के विष को
कली-से ओंठ चुंबन में कि जैसे खींच लेते हैं
पराजित स्वर्ग का वैभव मृणाली बाहु-बंधन में!
यह किसी का स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

हज़ारों टूटती साँसें,
कराहें, चीख़, आहें, व्यंग्य, ताड़न,
कि बढ़ता जा रहा है कुछ
किंतु तम के बीच में यह तड़ित जैसी टेर
किसी स्निग्ध कंपन के मधुर आरोह
मेरे कान युग-युग से इन्हें पहचानते हैं
नित्य परिचित है हृदय, मन, आत्मा सब
क्योंकि इसके गाढ़े आलिंगन में बँधे वे
अलस सपनीली बदलते करवट कब से।
कि मेरे कान की लौ को
नशीली भावविह्वल साँस से छूती
लरजती-सी टेर
केवल एक तेरी है।

इंद्रधनुषों के मुलायम दायरे
यहीं मुझको लिए जाते
कि यो उँगली पकड़
अजानी घूमती पगडंडियों की ओर
चंपई उँगली,
गुलाबी नख,
किरन की डोर-सी चूड़ी
सरल आग्रह भरा यह दान,
कितना प्यार।
सच, मैं मुड़ पड़ूँगा।

मैं विवश हूँ,
यह किसी का स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

कौन मुझसे कह रहा हर बार
रुकना असंभव है!
घूम पीछे देखने का अर्थ होता है
हज़ारों मूर्तियों में एक अपने को गिना।
ये निशानी उन थकित मजबूरियों की है
भटक कर मोड़ में
या इस बवंडर में हुए दिग्भ्रांत
पीछे घूम पड़ते थे।
न हरगिज़ रुक,
न पीछे देख,
झूठा मोह, झूठा प्यार।
मत सुन, ये पुकारें झूठ!

उस पहाड़ी शिखर की यह राह
मंज़िल तक
जहाँ रोती पड़ी हैं वे कुंजियाँ
दिन-रात कहतीं
‘‘सुनो, हमको खा रही है ज़ंग
उस दुर्ग का वह तिलस्माती जाल टूटेगा
तुम्हारे स्वप्न की रानी जहाँ पर क़ैद बैठी है।’’
वहीं वह तलवार है,
जो गल रही, बेकार।
नहीं पहुँचा हाय, जो झपटे, उठा ले
काट डाले शीश दानव के
कि तेरे भाग्य की सीता हृदय से आ लगे।
धो ले लहू से केश
रक्तिम माँग भर ले।
वहीं सूखा जा रहा है अमृत-घट।

हर क़दम पर खड़ी थक कर
पत्थरों की मूर्तियाँ ख़ामोश आँखों से कहेंगी :
‘सुनो,
हम भी तो तुम्हारी ही तरह थे!
एक छलना, एक तृष्णा हमें भी खींचा किए थी
अब यहाँ हम चुक गए हैं।
एक पल रुक ले न तू भी?’

लेकिन ख़ूब सुन ले,
यह पराजय, भीति, आँसू
यदि ज़रा भी रोक पाए गति तुम्हारी,
यदि ज़रा भी बन गए दुविधा हृदय की
एक झटका, मंत्र-सा
ज्यों तीर बिजली का तड़पकर बेध जाए
मील का पत्थर बना-सा मूर्तियों में जा मिलेगा!
बाँह फैलाकर तुझे ये बाँध लेंगी।

यह बड़ी दुर्गम डगर है
यह छुरे की धार—‘सूली पर पिया है’
हर क़दम पर मोड़,
लेकिन मोड़, चढ़ने की कला है!

कुछ नहीं,
मैं कुछ नहीं सुनता
समझने ही नहीं देता मुझे यह अंध आमंत्रण
किसी का स्वर मुझे बाँधे लिए जाता!

हमेशा एक-सा स्वर है
सदा सपने उगाता है।
हृदय के गुंबदों में गूँजता उठता!
घुटे-से धूम्र में धुँधली लपट का शीश
जैसे फन!

अजाने हिम शिखर पर बैठ कोई बाँसुरी फूँके
कि राधा-सा रगों में कुछ मचलता है,
मृगों की साँस के धागे लपेटे जा रहा निष्ठुर।
चला जाता मैं
विवश,
गलते युधिष्ठिर-सा!
किसी का स्वर मुझे खींचे लिए जाता।

-शिवमंगल सिंह सुमन

जागे नयन किसी के, सारी रात

आज दीपावली
तिमिर के खेत में अंकुर प्रभा के फूटते हैं
झुकी शाख़ों पर तमस की—
ज्योति के कोंपल सुनहले थरथराते उठ रहे हैं।
और सोया मन गगन का फुलझड़ी बन घूमता है!

आज अंतस का रुँधा विक्षोभ
लोहित लपट में यों विस्फुरित हो
भस्म करने को हुआ कटि-बद्ध बाक़ी स्नेह-कण,
‘क्यो हमारा चाँद कोई ले गया।’
चाँद, मुझको आह, तुमसे प्यार कितना।
दिवा सपनों की नशीली रश्मियों के केंद्र मेरे!

यह सिकुड़नें,
यह लाल डोरे
खिंची भोहों पर उभरती सलवटें
सब साफ़ ही तो कह रहीं ये
नयन के सूने बिछौनों पर
हृदय के दिव्य मर्मों में पली
अवचेतना की गहन वीथी से
चली आई कुमारी स्वप्न की।
पर रात भर बेचैन करवट ही बदलती वह रही है
आज सारी रात मैं भी एक पल को सो न पाया!

-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

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