Lakshya Par Kavita: हर इंसान के जीवन में कोई न कोई लक्ष्य जरूर होता है। कोई अपने जीवन में अच्छा डॉक्टर बनना चाहता है, तो कोई इंजीनियर, कोई लेखक बनने का सपना देखता है, तो कोई अपने जीवन में एक बेहतर खिलाड़ी बनने का लक्ष्य रखता है। लेकिन लक्ष्य तक पहुंचने का सफर आसान नहीं होता। क्योंकि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें कड़ी मेहनत, संघर्ष, धैर्य और समर्पण से गुजरना पड़ता है। वहीं सही दिशा में प्रयास और आत्मविश्वास ही हमें सफलता की ओर ले जाता है।
“लक्ष्य पर कविता” एक ऐसा विषय है, जो हमें अपने सपनों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। यह केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि एक विचारधारा है जो हमें यह सिखाती है कि अगर हमारा इरादा मजबूत है, तो हम अपने जीवन में आई हर बाधा को पार करके आगे निकल सकते हैं। इस लेख में लक्ष्य पर कविता (Lakshya Par Kavita) दी गई हैं। यहाँ पढ़ें लक्ष्य पर कविताएं।
लक्ष्य पर कविता – Lakshya Par Kavita
लक्ष्य पर कविता (Lakshya Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
लक्ष्य | प्रयागनारायण त्रिपाठी |
लक्ष्य-भेद के उतावले तीर से | माखनलाल चतुर्वेदी |
लक्ष्य-वेध | प्रयागनारायण त्रिपाठी |
वो नित नवीन लक्ष्य है गढ़ता चला गया | रंजना वर्मा |
लक्ष्य संधान | सुरेश ऋतुपर्ण |
द्रोण को पहचानिए | संदीप द्विवेदी |
लक्ष्य
सौदा सौदा है तभी, अगर सेवा है,
सेवा सेवा है तभी, अगर अर्पण है।
अर्पण अर्पण है तभी, अगर पीड़ा है
पीड़ा पीड़ा है तभी, अगर सोऽहं है।
सोऽहं जब त्वं हो जाय तभी सोऽहं है,
सोऽहं का त्वं में लय ही लक्ष्य परम है।
– प्रयागनारायण त्रिपाठी
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लक्ष्य-भेद के उतावले तीर से
“तू धीर धर हे वीर वर”–उस तीर से मैंने कहा!
“बस छूट पड़ने दो अजी, मुझसे नहीं जाता रहा”।
-जाता रहा, तो काम से ही जान ले जाता रहा,
छूटा कि छूटा, और हो होकर टूक ठुकराता रहा।
मैदान में है सीख तू
बाजी लड़ाना सूर का।
पीछे खिचा भरपूर, बस मारा निशाना दूर का।
– माखनलाल चतुर्वेदी
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लक्ष्य-वेध
आँखें लीं मींच
और खींच ली कमान
और छोड़ दिया शब्द-वेधी बाण
लक्ष्य बिंध गया।
ओ रे ओ अहेरी !
दृष्टि आभ्यंतर तेरी
कैसे इस अदृष्ट बिंदु
इस लक्ष्य पर पड़ गई?
मात्र एक क्षण को कुछ सिहरन हुई थी
ध्वनि झंकृत हुई थी उसी क्षण की
मर्म-थल में
तक कर उसे ही तू ने
तन कर जतन से
कान तक तान एक तीक्ष्ण तीर
छोड़ दिया
अब इस लक्ष्य वेदना के निरुवारन का
कोई तो सुगम उपचार समझाता जा,
अथवा इसे झेलने का
सहज सह जाने का
ओ रे दुर्निवार!
कोई भेद ही बताता जा!
– प्रयागनारायण त्रिपाठी
वो नित नवीन लक्ष्य है गढ़ता चला गया
वो नित नवीन लक्ष्य है गढ़ता चला गया।
हर मोड़ गिरा किन्तु सँभलता चला गया॥
ठोकर उसी को ‘राह में’ हर बार है मिली
जो मात्र सत्य के लिये लड़ता चला गया॥
है न्याय मिल सका नहीं’ संसार से कभी
कानून पे ‘विश्वास ही’ करता चला गया॥
नफ़रत की ‘आँधियों ने’ जिसे था सुखा दिया
उपवन मिला जो’ प्यार तो खिलता चला गया॥
था डूबता जहाज नहीं साथ कोई’ भी
फिर भी रुके बिना ही ‘वो’ बढ़ता चला गया॥
सीमा न टूट जाये ‘सहनशीलता की’ अब
अन्याय दिल जहान के सहता चला गया॥
प्रण तो नहीं लिया परोपकार का कभी
खुद से ही ‘मगर धर्म ये’ निभता चला गया॥
– रंजना वर्मा
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लक्ष्य संधान
बार-बार कहा गुरु ने –
वत्स!
उठाओ धनुष
चढ़ाओ प्रत्यंचा
करो लक्ष्य संधान
छोड़ो कसकर बाण
बार-बार पूछता है शिष्य-
लक्ष्य कहाँ है?
नहीं दीखती
वृक्ष पर रखी चिड़िया की आँख।
हँस कर कहता है गुरु-
यही तो है परीक्षा
दीखता, तो अब तक
मैं ही न कर चुका होता
लक्ष्य-संधान!
– सुरेश ऋतुपर्ण
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द्रोण को पहचानिए
झरनों के जल झंकार में
शिला पृष्ठ को जानिए
अर्जुन के लक्ष्य विवेध में
द्रोण को पहचानिए..
नदियों की बहती अथक धारा
चलती मधुर एक साज पर
सागर से होता मिलन कैसे
रहती नही जो ढाल पर
ग़र कोई आगे बढ़ा है
अपने कदमो में खड़ा है
होती है कोई ढाल ही
जिसने उसे पहचान दी
मेहनत के महलों में छिपे
उत्साह को पहचानिए
अर्जुन के लक्ष्य विवेध में
द्रोण को पहचानिए….
बिन तराशे रत्न की
कब चमक दुगुनी हुई है
कब दिए की लौ कहीं
निर्वात में रोशन हुई है
आंच गुरु की बिन पड़े
निखरी नही प्रतिभा कोई
जो दीप्त हो गुरु के बिना
है नही आभा कोई
हर लक्ष्य में छिपे
उत्साह को पहचानिए
अर्जुन के लक्ष्य विवेध में
द्रोण को पहचानिए…
– संदीप द्विवेदी
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