‘हिन्दी दिवस’ के अवसर पर हमें भाषा के प्रति गर्व महसूस कराने के लिए और इस दिन का उत्सव हास्य कविताओं के साथ और अच्छे से मनाया जा सकता है। इस अवसर पर हम न केवल हिंदी के महत्व को जानेंगे, बल्कि व्यंग्य या हसी के अंदाज में वर्तमान की परिस्थिति के बारे में भी जानेंगे। हास्य कविताओं का उद्देश्य आपके समक्ष व्यंग्यात्मक ढंग से भाषा का महत्व रखना है। हिंदी दिवस पर हास्य कविताएं हमें हंसाती तो हैं ही, साथ ही ये हमें हिंदी भाषा की महिमा के बारे में भी बताती हैं। हास्य कविताएं हिंदी साहित्य की वो अनमोल धरोहर होती हैं, जिन्होंने अपने हल्के-फुल्के अंदाज़ में समाज के मार्मिक विषयों पर अपनी बेबाक राय रखी। इस ‘हिन्दी दिवस’ पर आप इस ब्लॉग में हिंदी दिवस पर हास्य कविता (Hindi Diwas Par Hasya Kavita) पढ़कर इस दिन को धूमधाम से मना पाएंगे।
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हिंदी दिवस पर हास्य कविता – Hindi Diwas Par Hasya Kavita
हिंदी दिवस पर हास्य कविता (Hindi Diwas Par Hasya Kavita) में आपको हिंदी भाषा पर आधारित कविताएं पढ़ने का अवसर मिलेगा। इसमें आप भाषा के हर मार्मिक विषय पर कविताएं पढ़ पाएंगे, जो कुछ इस प्रकार हैं –
हिंदी की दुर्दशा
बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा
कहँ ‘काका’, जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में
पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस
हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस
जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी
इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी
कहँ ‘काका’ कविराय, ध्येय को भेजो लानत
अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत
-काका हाथरसी
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छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।
हाथी-से चिंघाड़ो मत, सिंह से दहाड़ो मत
ऐसे गला फाड़ो मत, श्रोता डर जाएंगे।
घर के सताए हुए आए हैं बेचारे यहाँ
यहाँ भी सताओगे तो ये किधर जाएंगे।
-ओम प्रकाश आदित्य
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कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ
प्रकृति बदलती क्षण-क्षण देखो,
बदल रहे अणु, कण-कण देखो
तुम निष्क्रिय से पड़े हुए हो
भाग्य वाद पर अड़े हुए हो।
छोड़ो मित्र! पुरानी डफली,
जीवन में परिवर्तन लाओ
परंपरा से ऊंचे उठ कर,
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ।
जब तक घर मे धन संपति हो,
बने रहो प्रिय आज्ञाकारी
पढो, लिखो, शादी करवा लो ,
फिर मानो यह बात हमारी।
माता पिता से काट कनेक्शन,
अपना दड़बा अलग बसाओ
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ।
करो प्रार्थना, हे प्रभु हमको,
पैसे की है सख़्त ज़रूरत
अर्थ समस्या हल हो जाए,
शीघ्र निकालो ऐसी सूरत।
हिन्दी के हिमायती बन कर,
संस्थाओं से नेह जोड़िये
किंतु आपसी बातचीत में,
अंग्रेजी की टांग तोड़िये।
इसे प्रयोगवाद कहते हैं,
समझो गहराई में जाओ
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ
कवि बनने की इच्छा हो तो,
यह भी कला बहुत मामूली
नुस्खा बतलाता हूं, लिख लो,
कविता क्या है, गाजर मूली
कोश खोल कर रख लो आगे,
क्लिष्ट शब्द उसमें से चुन लो
उन शब्दों का जाल बिछा कर,
चाहो जैसी कविता बुन लो
श्रोता जिसका अर्थ समझ लें,
वह तो तुकबंदी है भाई
जिसे स्वयं कवि समझ न पाए,
वह कविता है सबसे हाई
इसी युक्ती से बनो महाकवि,
उसे “नई कविता” बतलाओ
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ
चलते चलते मेन रोड पर,
फिल्मी गाने गा सकते हो
चौराहे पर खड़े खड़े तुम,
चाट पकोड़ी खा सकते हो।
बड़े चलो उन्नति के पथ पर,
रोक सके किस का बल बूता?
यों प्रसिद्ध हो जाओ जैसे,
भारत में बाटा का जूता
नई सभ्यता, नई संस्कृति,
के नित चमत्कार दिखलाओ
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ
पिकनिक का जब मूड बने तो,
ताजमहल पर जा सकते हो
शरद-पूर्णिमा दिखलाने को,
‘उन्हें’ साथ ले जा सकते हो
वे देखें जिस समय चंद्रमा,
तब तुम निरखो सुघर चांदनी
फिर दोनों मिल कर के गाओ,
मधुर स्वरों में मधुर रागिनी।
(तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी)
आलू छोला, कोका-कोला,
‘उनका’ भोग लगा कर पाओ।
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ।
-काका हाथरसी
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बस में थी भीड़ और धक्के ही धक्के
बस में थी भीड़
और धक्के ही धक्के,
यात्री थे अनुभवी,
और पक्के।
पर अपने बौड़म जी तो
अंग्रेज़ी में
सफ़र कर रहे थे,
धक्कों में विचर रहे थे।
भीड़ कभी आगे ठेले,
कभी पीछे धकेले।
इस रेलमपेल
और ठेलमठेल में,
आगे आ गए
धकापेल में।
और जैसे ही स्टाप पर
उतरने लगे
कण्डक्टर बोला-
ओ मेरे सगे!
टिकिट तो ले जा!
बौड़म जी बोले-
चाट मत भेजा!
मैं बिना टिकिट के
भला हूं,
सारे रास्ते तो
पैदल ही चला हूं।
-अशोक चक्रधर
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हिंदी दिवस का ज्यों आया त्योहार
हिंदी दिवस का ज्यों आया त्योहार
करने लगे मालिक सोच-विचार
बहुत किया जब सोच-विचार
फिर जा पहुंचे वे नींद का पार
नींद-नींद में लगे बड़बड़ाने
लगे पैर पटकने, तो कभी हाथ उठाने
नींद में मालिक बोले शब्द चार
क्या देखता है बे, “आई एम हैप्पी यार”
अंग्रेजी को सिर पर लगे चढ़ाने
हिंदी को करने लगे अस्वीकार
मालिक जैसे कई और थे मालिक हजार
जो उनकी ही करते थे जय-जयकार
ये देख लगा मालिक को
कि वास्तव में वे ही बड़े हैं
सपनों से इतर तो मालिक
हक़ीक़त में चित्त ही पड़े हैं
फिर सब लगे सोचने
कि अब मालिक को कौन उठाए
कौन इनकी टूटी अंग्रेजी सुने
कौन इनका मुँह बंद कराए
गुलामों में मची फिर होड़ नई
कि जो मालिक की अंग्रेजी दोहराए
हिंदी का तिरस्कार करे बस
मालिक जैसा खाए और उनके जैसा पाए
फिर क्या था?
हुआ वही जो होना था।
लगी मूर्खों की टोली टूटी अंग्रेजी दोहराने
मालिक को मूर्खों का सच्चा सरदार बताने
ये सब देख मुस्कुरा रही थी
हिंदी की लंबी कतार
मालिक की कट्टर सेना का
केवल है यही आधार
हिंदी की यहाँ सुने कौन?
यहाँ हिंदी है लाचार
इंग्लिश, इंग्लिश करती सेना
इंग्लिश का करती जय-जयकार
मालिक जी भी बड़े बेचारे
कहते यही हर बार
हिंदी दिवस पर मैं क्या बोलूं
आई एम सो फनी यार!”
-मयंक विश्नोई
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