Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita: नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बनती हरिवंश राय बच्चन की कविताएं

1 minute read
Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita

Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita: कविताएं समाज का आईना होती हैं, कविताओं को ही समाज की प्रेरणा माना जाता है। जब-जब मातृभूमि, संस्कृति और माटी पर संकट का समय आता है, या जब-जब सभ्य समाज कहीं नींद गहरी सो जाता है। तब-तब कविताएं समाज की सोई चेतना को जगाती हैं, तब-तब कविताएं मानव को साहस से लड़ना सिखाती हैं। देखा जाए तो हर दौर-हर देश में ऐसे अनेक महान कवि हुए हैं, जिन्होंने परिवर्तन की पुकार बनने के साथ-साथ युवाओं को प्रोत्साहित करने का काम किया। ऐसे ही महान कवियों में से एक भारत के लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन भी हैं, जिनकी कविताएं भारतीय जनमानस पर आज तक अपना गहरा प्रभाव डालती हैं। इस लेख में आपके लिए हरिवंशराय बच्चन की कविताएं (Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita) दी गई हैं, जो नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर युवाओं को प्रोत्साहित करती हैं।

हरिवंश राय बच्चन की कविता हिंदी में – Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita

हरिवंश राय बच्चन की कविता हिंदी में (Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita) पढ़कर आपका परिचय साहित्य में उनके द्वारा किए गए योगदान से होगा। हरिवंश राय बच्चन की कविता हिंदी में निम्नलिखित हैं –

  • जो बीत गई सो बात गयी
  • अग्निपथ
  • आज मुझसे दूर दुनिया
  • मुझे पुकार लो
  • इसकी मुझको लाज नहीं है
  • आओ हम पथ से हट जाएँ
  • कोई पार नदी के गाता
  • क्या है मेरी बारी में
  • लो दिन बीता लो रात गयी
  • क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
  • मैं कल रात नहीं रोया था
  • ऐसे मैं मन बहलाता हूँ
  • आत्‍मपरिचय
  • नीड का निर्माण
  • त्राहि त्राहि कर उठता जीवन
  • स्वप्न था मेरा भयंकर
  • इतने मत उन्‍मत्‍त बनो
  • तुम तूफान समझ पाओगे
  • रात आधी खींच कर मेरी हथेली
  • मेघदूत के प्रति
  • साथी, साँझ लगी अब होने!
  • लहर सागर का श्रृंगार नहीं
  • आ रही रवि की सवारी
  • चिडिया और चुरूंगुन
  • पतझड़ की शाम
  • राष्ट्रिय ध्वज
  • साजन आ‌ए, सावन आया
  • गीत मेरे
  • प्रतीक्षा
  • चल मरदाने
  • आदर्श प्रेम
  • आज फिर से
  • आत्मदीप
  • आज़ादी का गीत
  • बहुत दिनों पर
  • एकांत-संगीत (कविता)
  • ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब
  • इस पार उस पार
  • जाओ कल्पित साथी मन के
  • किस कर में यह वीणा धर दूँ
  • को‌ई गाता मैं सो जाता
  • साथी, सब कुछ सहना होगा
  • जुगनू
  • कहते हैं तारे गाते हैं
  • कोई पार नदी के गाता
  • कवि की वासना
  • क्या भूलूं क्या याद करूँ मैं
  • मेरा संबल
  • मुझसे चांद कहा करता है
  • पथ की पहचान
  • साथी साथ ना देगा दुख भी
  • यात्रा और यात्री
  • युग की उदासी
  • आज मुझसे बोल बादल
  • क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी
  • तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाये
  • साथी सो ना कर कुछ बात
  • तब रोक ना पाया मैं आंसू
  • आज तुम मेरे लिये हो
  • मनुष्य की मूर्ति
  • हम ऐसे आज़ाद
  • रीढ़ की हड्डी
  • उस पार न जाने क्या होगा
  • हिंया नहीं कोऊ हमार!
  • एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो
  • जीवन का दिन बीत चुका था छाई थी जीवन की रात
  • हो गयी मौन बुलबुले-हिंद
  • गर्म लोहा
  • टूटा हुआ इंसान
  • मौन और शब्द
  • शहीद की माँ
  • क़दम बढाने वाले: कलम चलाने वाले
  • एक नया अनुभव
  • दो पीढियाँ
  • क्यों जीता हूँ
  • कौन मिलनातुर नहीं है?
  • है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
  • तीर पर कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण!
  • क्यों पैदा किया था?

जो बीत गई

जो बीत गई सो बात गई है
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था 
वह डूब गया तो डूब गया 
अम्बर के आनन को देखो 
कितने इसके तारे टूटे 
कितने इसके प्यारे छूटे 
जो छूट गए फिर कहाँ मिले 
पर बोलो टूटे तारों पर 
कब अम्बर शोक मनाता है 
जो बीत गई सो बात गई 

जीवन में वह था एक कुसुम 
थे उस पर नित्य निछावर तुम 
वह सूख गया तो सूख गया 
मधुवन की छाती को देखो 
सूखी कितनी इसकी कलियाँ 
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ 
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं 
पर बोलो सूखे फूलों पर 
कब मधुवन शोर मचाता है 

जो बीत गई सो बात गई 
जीवन में मधु का प्याला था 
तुमने तन मन दे डाला था 
वह टूट गया तो टूट गया 
मदिरालय का आँगन देखो 
कितने प्याले हिल जाते हैं 
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं 
जो गिरते हैं कब उठते हैं 
पर बोलो टूटे प्यालों पर 
कब मदिरालय पछताता है 

जो बीत गई सो बात गई 
मृदु मिटटी के हैं बने हुए 
मधु घट फूटा ही करते हैं 
लघु जीवन लेकर आए हैं 
प्याले टूटा ही करते हैं 
फिर भी मदिरालय के अंदर 
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं 
जो मादकता के मारे हैं 
वे मधु लूटा ही करते हैं 
वह कच्चा पीने वाला है 
जिसकी ममता घट प्यालों पर 
जो सच्चे मधु से जला हुआ 
कब रोता है चिल्लाता है 
जो बीत गई सो बात गई 
-हरिवंश राय बच्चन

Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita

अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

वृक्ष हों भलें खड़े, 
हों घने, हों बड़ें, 
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत! 
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ! 

तू न थकेगा कभी! 
तू न थमेगा कभी! 
तू न मुड़ेगा कभी!—कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ! 
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ! 

यह महान दृश्य है— 
चल रहा मनुष्य है 
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ! 
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ! 
हरिवंश राय बच्चन

Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita

आज मुझसे दूर दुनिया

आज मुझसे दूर दुनिया! 
भावनाओं से विनिर्मित, 
कल्पनाओं से सुसज्जित, 
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकना चूर दुनिया! 
आज मुझसे दूर दुनिया! 
‘बात पिछली भूल जाओ, 
दूसरी नगरी बसाओ’— 

प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया! 
आज मुझसे दूर दुनिया! 
वह समझ मुझको न पाती, 
और मेरा दिल जलाती, 
है चिता की राख कर मैं माँगती सिंदूर दुनिया! 
आज मुझसे दूर दुनिया! 
हरिवंश राय बच्चन

Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita

मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!

ज़मीन है न बोलती
न आसमान बोलता, 
जहान देखकर मुझे 
नहीं ज़बान खोलता, 
नहीं जगह कहीं जहाँ
न अजनबी गिना गया, 
कहाँ-कहाँ न फिर चुका 
दिमाग़-दिल टटोलता, 
कहाँ मनुष्य है कि जो 
उमीद छोड़कर जिया, 
इसीलिए अड़ा रहा 
कि तुम मुझे पुकार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!

तिमिर-समुद्र कर सकी 
न पार नेत्र की तरी, 
विनष्ट स्वप्न से लदी, 
विषाद याद से भरी, 
न कूल भूमि का मिला, 
न कोर भोर की मिली, 
न कट सकी, न घट सकी
विरह-घिरी विभावरी, 
कहाँ मनुष्य है जिसे 
कमी ख़ली न प्यार की, 
इसीलिए खड़ा रहा 
कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा 
कि तुम मुझे पुकार लो!

उजाड़ से लगा चुका 
उमीद मैं बहार की, 
निदाघ से उमीद की, 
बसंत के बयार की, 
मरुस्थली मरीचिका 
सुधामयी मुझे लगी, 
अंगार से लगा चुका
उमीद मैं तुषार की, 
कहाँ मनुष्य है जिसे 
न भूल शूल-सी गड़ी, 
इसीलिए खड़ा रहा
कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!
हरिवंश राय बच्चन

इसकी मुझको लाज नहीं है

मैं सुख पर सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है। 
जिसने कलियों के अधरों में 
रस रक्खा पहले शरमाए, 
जिसने अलियों के पंखों में 
प्यास भरी वह सिर लटकाए, 
आँख करे वह नीची जिसने 
यौवन का उन्माद उभारा, 
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है। 

मन में सावन-भादों बरसे, 
जीभ करे, पर, पानी-पानी! 
चलती-फलती है दुनिया में 
बहुधा ऐसी बेईमानी, 
पूर्वज मेरे, किंतु, हृदय की 
सच्चाई पर मिटते आए, 
मधुवन भोगे, मरु उपदेशे मेरे वंश रिवाज़ नहीं है। 
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।

चला सफ़र पर जब तक मैंने 
पथ पूछा अपने अनुभव से, 
अपनी एक भूल से सीखा 
ज़्यादा, औरों के सच सौ से, 
मैं बोला जो मेरी नाड़ी 
में डोला, जो रग में घूमा, 
मेरी नाड़ी आज किताबी नक़्शों की मोहताज नहीं है। 
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है। 

अधरामृत की उस तह तक मैं 
पहुँचा विष को भी चख आया, 
और गया सुख को पिछुआता 
पीर जहाँ वह बनकर छाया, 
मृत्यु गोद में जीवन अपनी 
अंतिम सीमा पर लेटा था, 
राग जहाँ पर, तीव्र अधिकतम है, उसमें आवाज़ नहीं है। 
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
हरिवंश राय बच्चन

आओ हम पथ से हट जाएँ

आओ हम पथ से हट जाएँ! 
युवती और युवक मदमाते 
उत्सव आज मानने आते, 
लिए नयन में स्वप्न, वचन में हर्ष, हृदय में अभिलाषाएँ! 
आओ, हम पथ से हट जाएँ! 
इनकी इन मधुमय घड़ियों में, 
हास-लास की फुलझड़ियों में, 
हम न अमंगल शब्द निकालें, हम न अमंगल अश्रु बहाएँ! 
आओ, हम पथ से हट जाएँ! 
यदि इनका सुख सपना टूटे, 
काल इन्हें भी हम-सा लूटे, 
धैर्य बँधाएँ इनके उर को हम पथिकों की किरण कथाएँ! 
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
हरिवंश राय बच्चन

Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita

यह भी पढ़ें – हरिवंशराय बच्चन का जीवन परिचय, रचनाएँ, भाषा शैली और साहित्यिक योगदान

हरिवंशराय बच्चन की कविताएं

हरिवंशराय बच्चन की कविताएं निम्नलिखित हैं, जो आपको हिंदी साहित्य की गहरी समझ प्रदान करेंगे –

पथ की पहचान

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,
अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,
किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,
रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,
रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,
आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
-हरिवंशराय बच्चन

जुगनू

अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चांद औ' तारे,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

गगन में गर्व से उठउठ,
गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं,
नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

तिमिर के राज का ऐसा
कठिन आतंक छाया है,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय का सब समां बांधे
प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस
तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय की रात में सोचे
प्रणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पथ में पलकें बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-हरिवंशराय बच्चन

कवि की वासना

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुला‌ए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,
चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;
प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,
दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न को‌ई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
जो पलक पर कर निछावर
थी ग‌ई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हु‌ई है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;
मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विश्व भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
भंग कर देता तपस्या
सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;
शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पा‌एगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन
वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!
अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हु‌ई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूँ मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?
क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
-हरिवंशराय बच्चन

यह भी पढ़ें – मधुशाला के रचयिता हरिवंश राय बच्चन पर निबंध

आदर्श प्रेम

प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या

गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गा कर उसे सुनाना क्या
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या

ले लेना सुगंध सुमनों की
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या

त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या
दे कर हृदय हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या
-हरिवंशराय बच्चन

संबंधित आर्टिकल

रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाएंभारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएं
अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएंअरुण कमल की लोकप्रिय कविताएं
भगवती चरण वर्मा की कविताएंनागार्जुन की प्रसिद्ध कविताएं
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएंअज्ञेय की महान कविताएं
रामधारी सिंह दिनकर की वीर रस की कविताएंरामधारी सिंह दिनकर की प्रेम कविता
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविताएंमहादेवी वर्मा की कविताएं
महारथी शरद जोशी की कविताएंसुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं
विष्णु प्रभाकर की कविताएंमहावीर प्रसाद द्विवेदी की कविताएं
सोहन लाल द्विवेदी की कविताएंख़लील जिब्रान की कविताएं
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविताएंसावित्रीबाई फुले कविता
महारथी शरद जोशी की कविताएंबालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएं

आशा है कि इस लेख में दी गई हरिवंशराय बच्चन की कविताएं (Harivansh Rai Bachchan Ki Kavita) आपको पसंद आई होंगी। ऐसी ही अन्य लोकप्रिय हिंदी कविताओं को पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।

Leave a Reply

Required fields are marked *

*

*