Bhartendu Harishchandra Poems in Hindi: साहित्य ही समाज को साहसिक निर्णय लेने में सक्षम बनाता हैं, साहित्य का एक मुख्य भाग कविताएं होती हैं, जिन्हें साहित्य के श्रृंगार के रूप में भी देखा जाता है। कविताओं के माध्यम से समाज की चेतना को जागृत करने वाले कवि “भारतेंदु हरिश्चंद्र” की लेखनी ने सदा ही समाज के हर वर्ग को प्रेरित करने का काम किया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य के “भारतीय नवजागरण के जनक” और “आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह” के रूप में भी जाना जाता है, उनकी कविताओं में समाज, देशभक्ति, प्रेम, और मानवता के विविध पहलुओं का उत्कृष्ट चित्रण मिलता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएं (Bhartendu Harishchandra Poems in Hindi) प्रेम, समाज और क्रांति की बुलंद आवाज़ के रूप में समाज की चेतना को जगाने का काम करती हैं। उनकी कविताएं युवाओं को प्रेरणा से भर देने में पूरी तरह सक्षम हैं, जो उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाती है।
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भारतेंदु हरिश्चंद्र के बारे में
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएं आज के आधुनिक दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी महान लेखनी और साहित्य की समझ से आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह होने की अपनी भूमिका को बखूबी निभाया।
9 सितंबर 1850 को भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता गोपाल चंद्र एक संस्कृत पंडित थे, जिनकी देखरेख में भारतेंदु हरिश्चंद्र अपनी प्रारंभिक शिक्षा को घर पर ही प्राप्त की। भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्य का आधार संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषाओं का अध्ययन था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने जीवन में साहित्य के आँगन में एक ऐसा बीज बोया, जो एक विशाल वृक्ष की भांति आज संसार को तपती धूप से छाया प्रदान करता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाट्य रचनाओं में प्रेम-संयोग, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, विद्यापति, चंद्रावली, वीर दुर्गादास तथा काव्य रचनाओं में राष्ट्रगीत, शांति-गीत आदि सुप्रसिद्ध हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह के रूप में जाना जाता है। हिंदी के एक महान कवि और समाज सुधारक भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का निधन 6 जनवरी 1885 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था।
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भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएं – Bhartendu Harishchandra Poems in Hindi
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएं (Bhartendu Harishchandra Poems in Hindi) कुछ इस प्रकार हैं, जो आपका परिचय साहित्य के सौंदर्य से करवाएंगी –
- हरी हुई सब भूमि
- गंगा-वर्णन
- रोअहूं सब मिलिकै
- लहौ सुख सब विधि भारतवासी
- धन्य ये मुनि वृन्दाबन बासी
- मातृभाषा प्रेम पर दोहे
- होली
- बसंत होली
- है है उर्दू हाय हाय
- जागे मंगल-रूप सकल ब्रज-जन-रखवारे
- दशरथ विलाप
- नैन भरि देखौ गोकुल-चंद
- बन्दर सभा
- उतरार्द्ध भक्तमाल
- वर्षा-विनोद
- उरहना
- होली डफ की
- नये जमाने की मुकरी
- संस्कृत लावनी
- प्रबोधिनी
- अपवर्गदाष्टक
- अथ श्री सर्वोत्तम-स्तोत्र (भाषा)
- निवेदन-पंचक
- अपवर्ग-पंचक
- जातीय संगीत
- स्फुट कविताएँ
- भक्तसर्वस्व
- प्रेममालिका
- प्रेम-माधुरी
- वर्षा-विनोद
- प्रेमाश्रु-वर्षण
- प्रेम-तरंग
- प्रेम-प्रलाप
- गीत-गोविंदानंद
- कार्तिक-स्नान
- वैशाख-माहात्म्य
- प्रेम सरोवर
- जैन-कौतूहल
- सतसई-सिंगार
- मधु-मुकुल
- राग-संग्रह
- विनय-प्रेम पचासा
- फूलों का गुच्छा
- प्रेम-फुलवारी
- कृष्ण-चरित
- छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनाएँ
- सुमनोऽज्जलि
- देवी छद्म-लीला
- प्रातः स्मरण मंगल-पाठ
- दैन्य-प्रलाप
- तन्मय लीला
- दान-लीला
- रानी छद्म-लीला
- स्फुट समस्या
- मुँह-दिखावनी
- प्रात-समीरन
- बकरी विलाप
- स्वरूप-चिन्तन
- श्री राजकुमार-शुभागमन-वर्णन
- भारत-भिक्षा
- श्री पंचमी
- मानसोपायन
- प्रातः स्मरण स्तोत्र
- हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान
- मनोमुकुल-माला
- भाषा सहज
- श्री राज-राजेश्वरी स्तुति
- वेणु-गीति
- श्री नाथ-स्तुति
- पुरुषोत्तम-पंचक
- भारत-वीरत्व
- श्री सीता-वल्लभ-स्तोत्र
- श्री रामलीला
- भीष्मस्तवराज
- मान-लीला फूल-बुझौअल
- विजय-बल्लरी
- विजयिनी विजय-पताका या वैजयंती
- रिपनाष्टक इत्यादि।
हरी हुई सब भूमि
बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण-गण झूमि करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लीग बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सोग खोल-खोल छाता चले लोग सड़क के बीच कीचड़ में जूते फँसे जैसे अघ में नीच
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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गंगा-वर्णन
नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति। बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥ लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत । जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥ सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत। दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥ श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस। ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥ शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल। एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥ सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन। अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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रोअहूं सब मिलिकै
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ धु्रव॥ सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो। सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो॥ सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो। सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो॥ अब सबके पीछे सोई परत लखाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती। जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती॥ जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती। तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती॥ अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी। करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी॥ तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी। छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी॥ भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी। पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी॥ ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी। दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री॥ सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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लहौ सुख सब विधि भारतवासी
लहौ सुख सब विधि भारतवासी। विद्या कला जगत की सीखो, तजि आलस की फाँसी। अपने देश, धरम, कुल समझो, छोड वृत्ति निज दासी। पंचपीर की भगति छोडि, होवहु हरिचरन उपासी। जग के और नरन सम होऊ, येऊ होय सबै गुन रासी।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
धन्य ये मुनि वृन्दाबन बासी
धन्य ये मुनि वृन्दाबन बासी। दरसन हेतु बिहंगम ह्वै रहे, मूरति मधुर उपासी। नव कोमल दल पल्लव द्रुम पै, मिलि बैठत हैं आई। नैनन मूँदि त्यागि कोलाहल, सुनहिं बेनु धुनि माई। प्राननाथ के मुख की बानी, करहिं अमृत रस-पान। 'हरिचंद' हमको सौउ दुरलभ, यह बिधि गति की आन॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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मातृभाषा प्रेम पर दोहे
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन। उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय। निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय। इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग। और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात। तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय। विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार। भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात। सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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होली
कैसी होरी खिलाई। आग तन-मन में लगाई॥ पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई। पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥ तबौ नहिं हबस बुझाई। भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई। टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥ तुम्हें कैसर दोहाई। कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई। आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥ तुन्हें कछु लाज न आई।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
बसंत होली
जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत । बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।। चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज । याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।। परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग । तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।। कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान । सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।। है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय । साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।। रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु । हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।। मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज । रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।। गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय । दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।। हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय । मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।। रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास । खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।। चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र । तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।। यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान । चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।। परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात । टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।। निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात । पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।। टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत । गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।। वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय । रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविता – Bhartendu Harishchandra Ki Kavita
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविता (Bhartendu Harishchandra Ki Kavita) कुछ इस प्रकार है, जो आपको उनकी रचनाओं के बारे में जान पाएंगे –
संस्कृत लावनी
कुंज कुंज सखि सत्वरं । चल चल दयित: प्रतीक्षते त्वां तनोति बहु आदरं । सर्वा अपि संगता:। नो दृष्ट्वा त्वां तासि प्रियसखिहरिणा हं प्रेषिता । मानं तज वल्लभे । नास्ति श्रीहरिसदृशो दयितो वच्मि इदं ते शुभे । गतिर्भिन्ना । परिधेहि निचोलं लघु । जायते बिलम्बो बहु । सुंदरि त्वरां त्वं कुरु । श्रीहरि मानसे वृणु । चल चल शीघ्रं नोचेत्सव निष्यन्तिहि सुन्दरं । अन्यद्वन मन्दिरं चल चल दयित: ।।1।। ॠणु वेणुनादमागतं । त्वदर्थमेव श्रीहरिरेष: समानयत्स्त्रीशतं । त्वय्येव हरिं सद्रतं । तवैतार्थीमह प्रमदाशतकं प्रियेण विनियोजितं । श्रृण्वन्यमृतां संरुतं । आकरायन्ति सर्वे समाप्यहरिणोमधुरं मतं । बिभिन्नगति:। दिशति ते प्रियतमसंदेशं ।। ग्रहीत्वा मदन: पिकवेशं । जनयति मनसि स्वावेशं ।। समुत्साहयतरेतिलेशं । न कुरु विलम्बं क्षणमपि मत्वा दुर्ल्लभमौल्याकारं ।। ॠणु वचनं मे हितभरं । चल चल दयित: ।।2।। सूर्योप्यरतंगत:। गोपिगोपयितुमभिसरणं तव अंधकारइहतत: ।। दृश्यते पश्यनोमुखं । कस्यापिहि जीवस्य प्रणयिन्यभिसरणौत्सुखं ।। ब्रज ब्रजेन्द्र कुलनन्दनं । करोतियत्स्मृनिरपि सखि सकलव्याधे: सुनिकन्दनं । गति: ।। चन्द्रमुखि चन्द्रंरवे समुदितं ।। करैस्त्वामालाम्बितुमुद्यतं । आलि अवलोक्य तारावृतं ।। भाति बिष्टयं चन्द्रिकायुतं । चकोरायितश्चन्द्रस्त्यत्वा स्थलमपि रत्नाकरं ।। मुखं ते दृष्टुं सखि सुन्दरं । चल चल दयित:।।3।। परित्यज चंचलमंजीरं । अवगुण्ठय चन्द्राननसिंह सखि धेहि नील चीरं ।। रमय रसिकेश्वरमाभीरं । युवतीशतसंग्रामसुरतरमचमेकवीरं ।। भयं त्यज हृदि धारय धीरं । शोभयस्वमुखकान्तिविराजितरवितनया तीरं ।। गति: ।। मुञ्चमानं मानय वचनं ।। विलम्बं मा कुरु कुरु गमनं ।। प्रियांके प्रिये रचय शयनं ।। सुतनुतनु सुखमयमालिजनं । दासौ दामोदर हरिचन्दौ पार्थयतस्तेवरं ।। वरय राधे त्वं राधावरं । चल चल दयित: प्रतीक्षते त्वां तनोति बहु आदरं ।।4।।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
भीतर भीतर सब रस चूसै
भीतर भीतर सब रस चूसै। हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै। जाहिर बातन मैं अति तेज। क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
सब गुरुजन को बुरो बतावै
सब गुरुजन को बुरो बतावै । अपनी खिचड़ी अलग पकावै । भीतर तत्व न झूठी तेजी । क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
है है उर्दू हाय हाय
है है उर्दू हाय हाय । कहाँ सिधारी हाय हाय । मेरी प्यारी हाय हाय । मुंशी मुल्ला हाय हाय । बल्ला बिल्ला हाय हाय । रोये पीटें हाय हाय । टाँग घसीटैं हाय हाय । सब छिन सोचैं हाय हाय । डाढ़ी नोचैं हाय हाय । दुनिया उल्टी हाय हाय । रोजी बिल्टी हाय हाय । सब मुखतारी हाय हाय । किसने मारी हाय हाय । खबर नवीसी हाय हाय । दाँत पीसी हाय हाय । एडिटर पोसी हाय हाय । बात फरोशी हाय हाय । वह लस्सानी हाय हाय । चरब-जुबानी हाय हाय । शोख बयानि हाय हाय । फिर नहीं आनी हाय हाय ।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
जागे मंगल-रूप सकल ब्रज-जन-रखवारे
जागे मंगल-रूप सकल ब्रज-जन-रखवारे । जागो नन्दानन्द -करन जसुदा के बारे । जागे बलदेवानुज रोहिनि मात-दुलारे । जागो श्री राधा के प्रानन तें प्यारे । जागो कीरति-लोचन-सुखद भानु-मान-वर्द्धित-करन । जागो गोपी-गो-गोप-प्रिय भक्त-सुखद असरन-सरन ।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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दशरथ विलाप
कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे। किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे।। बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था।। छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत। दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत।। छिपे हो कौन-से परदे में बेटा। निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा।। बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते। तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते।। किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा। अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा।। गई संग में जनक की जो लली है इसी में मुझको और बेकली है।। कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर।। गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ।। मेरी आँखों की पुतली कहाँ है बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है।। कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो।। लगी है आग छाती में हमारे बुझाओ कोई उनका हाल कह के।। मुझे सूना दिखाता है ज़माना। कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना।। अँधेरा हो गया घर हाय मेरा हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना।। मेरा धन लूटकर के कौन भागा भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा।। हमारा बोलता तोता कहाँ है अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है।। कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे।। कोई कुछ हाल तो आकर के कहता है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा।। हवा और धूप में कुम्हका के थककर। कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर।। जो डरती देखकर मट्टी का चीता वो वन-वन फिर रही है आज सीता।। कभी उतरी न सेजों से जमीं पर वो फिरती है पियोदे आज दर-दर।। न निकली जान अब तक बेहया हूँ भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ।। मेरा है वज्र का लोगो कलेजा कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता।। मेरे जीने का दिन बस हाय बीता कहाँ हैं राम लछमन और सीता।। कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे न रह जाये हविस जी में हमारे।। कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम।। मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान हुए क्या हाय मेरे राम भगवान।। कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे।।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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नैन भरि देखौ गोकुल-चंद
नैन भरि देखौ गोकुल-चंद श्याम बरन तन खौर बिराजत अति सुंदर नंद-नंद विथुरी अलकैं मुख पै झलकैं मनु दोऊ मन के फंद मुकुट लटक निरखत रबि लाजत छबि लखि होत अनंद संग सोहत बृषभानु-नंदिनी प्रमुदित आनंद-कंद ’हरीचंद’ मन लुब्ध मधुप तहं पीवत रस मकरंद
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
मदवा पीले पागल जोबन बीत्यो जात
मदवा पीले पागल जोबन बीत्यो जात। बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात॥ पी प्याला छक-छक आनंद से नितहि सांझ और प्रात। झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात॥ हाथी मच्छड़, सूरज जुगूनू जाके पिए लखात। ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा। मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा॥ बिस्तर प मिस्ले लोथ पड़े रहना हमेशा। बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा॥ “रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।” छोड़ो न नक्शेपा हैं मिटाना नहीं अच्छा॥ उठ करके घर से कौन चले यार के घर तक। “मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा।” धोती भी पहिने जब कि कोई गेर पिन्हा दे। उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा॥ सिर भारी चीज है इसे तकलीफ हो तो हो। पर जीभ बिचारी को सताना नहीं अच्छा॥ फ़ाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए। दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा॥ सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए। दोज़ख़ ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा॥ मिल जाय हिन्द ख़ाक में हम काहिलों का क्या। ऐ मीरे फ़र्श रंज उठाना नहीं अच्छा॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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चूरन अमल बेद का भारी
चूरन अमल बेद का भारी। जिस को खाते कृष्ण मुरारी॥ मेरा पाचक है पचलोना। जिसको खाता श्याम सलोना॥ चूरन बना मसालेदार। जिसमें खट्टे की बहार॥ मेरा चूरन जो कोइ खाय। मुझको छोड़ कहीं नहिं जाय॥ हिन्दू चूरन इसका नाम। विलायत पूरन इसका काम॥ चूरन जब से हिन्द में आया। इसका धन बल सभी घटाया॥ चूरन ऐसा हट्टा कट्टा। कीना दांत सभी का खट्टा॥ चूरन चला डाल की मंडी। इसको खाएंगी सब रंडी॥ चूरन अमले सब जो खावैं। दूनी रुशवत तुरत पचावैं॥ चूरन नाटकवाले खाते। इसकी नकल पचा कर लाते॥ चूरन सभी महाजन खाते। जिससे जमा हजम कर जाते॥ चूरन खाते लाला लोग। जिनको अकिल अजीरन रोग॥ चूरन खावै एडिटर जात। जिनके पेट पचै नहिं बात॥ चूरन साहेब लोग जो खाता। साहा हिंद हजम कर जाता॥ चूरन पूलिसवाले खाते। सब कानून हजम कर जाते॥ ले चूरन कर ढेर, बेचा टके सेर॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
चने जोर गरम
चने जोर गरम। चने बनावैं घासीराम। निज की झोली में दुकान॥ चना चुरमुर चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुंह खोलै॥ चना खावै तौकी मैना। बोलै अच्छा बना चबैना॥ चना खाय गफूरन मुन्ना। बोलै और नहीं कुछ सुन्ना॥ चना खाते सब बंगाली। जिन धोती ढीली ढाली॥ चना खाते मियां जुलाहे। डाढ़ी हिलती गाहे-बगाहे॥ चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते॥ चने जोर गरम-टके सेर।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
नाथ तुम अपनी ओर निहारो
नाथ तुम अपनी ओर निहारो। हमरी ओर न देखहु प्यारे निज गुन-गगन बिचारो॥ जौ लखते अब लौं जन-औगुन अपने गुन बिसराई। तौ तरते किमि अजामेल से पापी देहु बताई॥ अब लौं तो कबहूं नहिं देख्यौ जन के औगुन प्यारे। तो अब नाथ कई क्यौं ठानत भाखहु बार हमारे॥ तुव गुन छमा दया सों मेरे अब नहिं बड़े कन्हाई। तासों तारि लेहु नंद-नंदन ‘हरीचंद’ को धाई॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
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भारतेंदु हरिश्चंद्र की ग़ज़लें
यहाँ आपको भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएं पढ़ने के साथ-साथ, भारतेंदु हरिश्चंद्र की ग़ज़लें पढ़ने का भी अवसर प्राप्त होगा। भारतेंदु हरिश्चंद्र की ग़ज़लें कुछ इस प्रकार है :
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में
नहीं ये है गुलाल-ए-सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक़ की है उमड़ी आह-ए-आतिश-बार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझ को भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जान-ए-मन त्यौहार होली में
‘रसा’ गर जाम-ए-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझ को भी
नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में।
दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
ऐ शोला-रुख़ो आग लगाना नहीं अच्छा
किस गुल के तसव्वुर में है ऐ लाला जिगर-ख़ूँ
ये दाग़ कलेजे पे उठाना नहीं अच्छा
आया है अयादत को मसीहा सर-ए-बालीं
ऐ मर्ग ठहर जा अभी आना नहीं अच्छा
सोने दे शब-ए-वस्ल-ए-ग़रीबाँ है अभी से
ऐ मुर्ग़-ए-सहर शोर मचाना नहीं अच्छा
तुम जाते हो क्या जान मिरी जाती है साहिब
ऐ जान-ए-जहाँ आप का जाना नहीं अच्छा
आ जा शब-ए-फ़ुर्क़त में क़सम तुम को ख़ुदा की
ऐ मौत बस अब देर लगाना नहीं अच्छा
पहुँचा दे सबा कूचा-ए-जानाँ में पस-ए-मर्ग
जंगल में मिरी ख़ाक उड़ाना नहीं अच्छा
आ जाए न दिल आप का भी और किसी पर
देखो मिरी जाँ आँख लड़ाना नहीं अच्छा
कर दूँगा अभी हश्र बपा देखियो जल्लाद
धब्बा ये मिरे ख़ूँ का छुड़ाना नहीं अच्छा
ऐ फ़ाख़्ता उस सर्व-ए-सही क़द का हूँ शैदा
कू-कू की सदा मुझ को सुनाना नहीं अच्छा।
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
अफ़्सोस ऐ क़मर कि न मुतलक़ ख़बर हुई
अरमान-ए-वस्ल यूँही रहा सो गए नसीब
जब आँख खुल गई तो यकायक सहर हुई
दिल आशिक़ों के छिद गए तिरछी निगाह से
मिज़्गाँ की नोक-ए-दुश्मन-ए-जानी जिगर हुई
पछताता हूँ कि आँख अबस तुम से लड़ गई
बर्छी हमारे हक़ में तुम्हारी नज़र हुई
छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
मिट्टी मिरी ख़राब अबस दर-ब-दर हुई
ध्यान आ गया जो शाम को उस ज़ुल्फ़ का ‘रसा’
उलझन में सारी रात हमारी बसर हुई।
फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
अफ़्सोस ऐ क़मर कि न मुतलक़ ख़बर हुई
अरमान-ए-वस्ल यूँही रहा सो गए नसीब
जब आँख खुल गई तो यकायक सहर हुई
दिल आशिक़ों के छिद गए तिरछी निगाह से
मिज़्गाँ की नोक-ए-दुश्मन-ए-जानी जिगर हुई
पछताता हूँ कि आँख अबस तुम से लड़ गई
बर्छी हमारे हक़ में तुम्हारी नज़र हुई
छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
मिट्टी मिरी ख़राब अबस दर-ब-दर हुई
ध्यान आ गया जो शाम को उस ज़ुल्फ़ का ‘रसा’
उलझन में सारी रात हमारी बसर हुई।
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