भगवती चरण वर्मा हिंदी साहित्य के उन प्रमुख लेखक और कवियों में से एक थे, जिनकी लेखनी और रचनाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया। भगवती चरण वर्मा ने अपनी कविताओं और रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, साथ ही युवा पीढ़ी तक साहित्य को पहुंचाने का सफल प्रयास किया। भगवती चरण वर्मा के काव्य में जीवन की सजीवता, मानवीय संवेदनाएँ और समाज के प्रति उनकी गहरी समझ झलकती है। उनके काव्य संग्रहों में अनेक कविताएँ हैं, जो आपके समक्ष साहित्य का महिमामंडन करने का काम करती हैं। इस ब्लॉग में आपको भगवती चरण वर्मा की कविताएं पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
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भगवती चरण वर्मा की कविताएं
भगवती चरण वर्मा की कविताएं जिन्होंने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं, वे हैं –
- आज मानव का
- तुम मृगनयनी
- तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
- आज शाम है बहुत उदास
- स्मृतिकण
- देखो-सोचो-समझो
- पतझड़ के पीले पत्तों ने
- कल सहसा यह सन्देश मिला
- संकोच-भार को सह न सका
- मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
- बस इतना–अब चलना होगा
- तुम अपनी हो, जग अपना है
- आज मानव का सुनहला प्रात है
- मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम
- हम दीवानों की क्या हस्ती
- अज्ञात देश से आना
- बसन्तोत्सव
- भैंसागाड़ी
- मानव इत्यादि।
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आज मानव का
आज मानव का सुनहला प्रात है,
आज विस्मृत का मृदुल आघात है;
आज अलसित और मादकता-भरे,
सुखद सपनों से शिथिल यह गात है;
मानिनी हँसकर हृदय को खोल दो,
आज तो तुम प्यार से कुछ बोल दो ।
आज सौरभ में भरा उच्छ्वास है,
आज कम्पित-भ्रमित-सा बातास है;
आज शतदल पर मुदित सा झूलता,
कर रहा अठखेलियाँ हिमहास है;
लाज की सीमा प्रिये, तुम तोड़ दो
आज मिल लो, मान करना छोड़ दो ।
आज मधुकर कर रहा मधुपान है,
आज कलिका दे रही रसदान है;
आज बौरों पर विकल बौरी हुई,
कोकिला करती प्रणय का गान है;
यह हृदय की भेंट है, स्वीकार हो
आज यौवन का सुमुखि, अभिसार हो ।
आज नयनों में भरा उत्साह है,
आज उर में एक पुलकित चाह है;
आज श्चासों में उमड़कर बह रहा,
प्रेम का स्वच्छन्द मुक्त प्रवाह है;
डूब जायें देवि, हम-तुम एक हो
आज मनसिज का प्रथम अभिषेक हो।
-भगवती चरण वर्मा
तुम मृगनयनी
तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी
तुम छवि की परिणीता-सी,
अपनी बेसुध मादकता में
भूली-सी, भयभीता सी ।
तुम उल्लास भरी आई हो
तुम आईं उच्छ्वास भरी,
तुम क्या जानो मेरे उर में
कितने युग की प्यास भरी ।
शत-शत मधु के शत-शत सपनों
की पुलकित परछाईं-सी,
मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की
अनुरंजित अरुणाई-सी ;
तुम अभिमान-भरी आई हो
अपना नव-अनुराग लिए,
तुम क्या जानो कि मैं तप रहा
किस आशा की आग लिए ।
भरे हुए सूनेपन के तम
में विद्युत की रेखा-सी;
असफलता के पट पर अंकित
तुम आशा की लेखा-सी ;
आज हृदय में खिंच आई हो
तुम असीम उन्माद लिए,
जब कि मिट रहा था मैं तिल-तिल
सीमा का अपवाद लिए ।
चकित और अलसित आँखों में
तुम सुख का संसार लिए,
मंथर गति में तुम जीवन का
गर्व भरा अधिकार लिए ।
डोल रही हो आज हाट में
बोल प्यार के बोल यहाँ,
मैं दीवाना निज प्राणों से
करने आया मोल यहाँ ।
अरुण कपोलों पर लज्जा की
भीनी-सी मुस्कान लिए,
सुरभित श्वासों में यौवन के
अलसाए-से गान लिए ,
बरस पड़ी हो मेरे मरू में
तुम सहसा रसधार बनी,
तुममें लय होकर अभिलाषा
एक बार साकार बनी ।
तुम हँसती-हँसती आई हो
हँसने और हँसाने को,
मैं बैठा हूँ पाने को फिर
पा करके लुट जाने को ।
तुम क्रीड़ा की उत्सुकता-सी,
तुम रति की तन्मयता-सी;
मेरे जीवन में तुम आओ,
तुम जीवन की ममता-सी।
-भगवती चरण वर्मा
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे?
फिर विस्मृति बन तन्मयता का
दे जाती हो उपहार मुझे।
मैं करके पीड़ा को विलीन
पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ
अब असह बन गया देवि,
तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे।
माना वह केवल सपना था,
पर कितना सुन्दर सपना था
जब मैं अपना था, और सुमुखि
तुम अपनी थीं, जग अपना था।
जिसको समझा था प्यार, वही
अधिकार बना पागलपन का
अब मिटा रहा प्रतिपल,
तिल-तिल, मेरा निर्मित संसार मुझे।
-भगवती चरण वर्मा
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आज शाम है बहुत उदास
आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास।
दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास।
कुछ भूला सा और भ्रमा सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुन्ध में कुछ सहमी सी
आज शाम है बहुत उदास।
एकाकीपन का एकान्त
कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त।
थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त।
अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकान्त
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त।
उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार।
आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर?
एक प्रश्न मैं हूँ साकार।
क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार।
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास।
जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस।
जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास।
-भगवती चरण वर्मा
स्मृतिकण
क्या जाग रही होगी तुम भी?
निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये! अपना यह व्यापक अंधकार,
मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार;
मेरी पीडाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल;
किस आशंका की विसुध आह! इन सपनों को कर गई पार
मैं बेचैनी में तडप रहा; क्या जाग रही होगी तुम भी?
अपने सुख-दुख से पीडित जग, निश्चिंत पडा है शयित-शांत,
मैं अपने सुख-दुख को तुममें, हूँ ढूँढ रहा विक्षिप्त-भ्रांत;
यदि एक साँस बन उड सकता, यदि हो सकता वैसा अदृश्य
यदि सुमुखि तुम्हारे सिरहाने, मैं आ सकता आकुल अशांत
पर नहीं, बँधा सीमाओं से, मैं सिसक रहा हूँ मौन विवश;
मैं पूछ रहा हूँ बस इतना- भर कर नयनों में सजल याद,
क्या जाग रही होगी तुम भी?
-भगवती चरण वर्मा
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