Chidiya Par Kavita: चिड़िया, जो हमारे आसमान की शोभा बढ़ाती है, अपनी नन्ही चोंच से दुनिया को बड़ा संदेश देती है। उसकी चहचहाहट सुबह की सुरीली धुन बन जाती है और उसकी उड़ान हमें सपनों की ऊँचाइयों तक पहुँचने की प्रेरणा देती है। बता दें कि चिड़िया केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि मेहनत, स्वतंत्रता और खुशी का प्रतीक है। वह हमें सिखाती है कि अगर हौसले बुलंद हों, तो आसमान भी छोटा पड़ सकता है। चिड़िया पर कविता के माध्यम से हम मेहनत का महत्व समझ सकते हैं। इस लेख में कुछ लोकप्रिय चिड़िया पर कविता (Chidiya Par Kavita) दी गई हैं, जो नन्हीं चहचहाहट की मधुर अभिव्यक्ति बनेंगी।
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चिड़िया पर कविता – Chidiya Par Kavita
चिड़िया पर कविता (Chidiya Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
---|---|
चिड़िया और बच्चे | जगदीश व्योम |
चिड़िया का घर | हरिवंशराय बच्चन |
वह चिड़िया जो | केदारनाथ अग्रवाल |
चिड़िया का सन्देश | प्रभुदयाल श्रीवास्तव |
आती है ये चिड़िया | श्रीप्रसाद |
चिड़िया | आरसी प्रसाद सिंह |
चिड़िया का होना ज़रूरी है | शैलजा सक्सेना |
चिड़िया और बच्चे
चीं-चीं, चीं-चीं, चूँ-चूँ, चूँ-चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ
बरस रहा बाहर पानी
बादल करता मनमानी
निकलूँगी तो भीगूँगी
नाक बजेगी सूँ-सूँ, सूँ
चीं-चीं, चीं-चीं, चूँ-चूँ चूँ…
माँ बादल कैसा होता?
क्या काजल जैसा होता
पानी कैसे ले जाता है?
फिर इसको बरसाता क्यूँ?
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ…
मुझको उड़ना सिखला दो
बाहर क्या है दिखला दो
तुम घर में बैठा करना
उड़ूँ रात-दिन फर्रकफूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ…
बाहर धरती बहुत बड़ी
घूम रही है चाक चढ़ी
पंख निकलने दे पहले
फिर उड़ लेना जी भर तू
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ…
उड़ना तुझे सिखाऊँगी
बाहर खूब घुमाऊँगी
रात हो गई लोरी गा दूँ
सो जा, बोल रही म्याऊँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ?
– जगदीश व्योम
चिड़िया का घर
चिड़िया, ओ चिड़िया,
कहाँ है तेरा घर?
उड़-उड़ आती है
जहाँ से फर-फर!
चिड़िया, ओ चिड़िया,
कहाँ है तेरा घर?
उड़-उड़ जाती है-
जहाँ को फर-फर!
वन में खड़ा है जो
बड़ा-सा तरुवर,
उसी पर बना है
खर-पातों वाला घर!
उड़-उड़ आती हूँ
वहीं से फर-फर!
उड़-उड़ जाती हूँ
वहीं को फर-फर!
– हरिवंशराय बच्चन
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वह चिड़िया जो
वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
दूध-भरे जुंडी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्न से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो-
कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्यार है।
– केदारनाथ अग्रवाल
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चिड़िया का सन्देश
इतना छोटा बना घोंसला,
इसमें तुम कैसे रहती हो।
इसमें जगह कहाँ है चिड़िया,
जिसको अपना घर कहती हो।
कहाँ तुम्हारा शयन कक्ष है,
कहाँ तुम्हारा बैठक खाना।
यह भी तो बतला दो चिड़िया
कहाँ बनाती हो तुम खाना।
बेटे-बहू तुम्हारे होंगे,
उनके कमरे कहां-कहाँ हैं।
ब्याह किए होंगे बिटियों के,
पते बताओ जहां-जहाँ हैं।
नाती-पोते साथ तुम्हारे,
रहते हैं या अलग-अलग हैं।
सेवा करते कभी तुम्हारी,
बोलो उनके क्या रंग-ढंग हैं।
बातें सुनकर चिड़िया रानी,
खूब हंसी, हंसकर मुस्काई।
बोली अरे अक्ल के दुश्मन,
दुनिया तुमको समझ न आई।
हम पंछी तो एक नीड़ में,
दुनिया नई बसा लेते हैं।
वही हमारे बैठक खाने,
भोजन कक्ष वहीं होते हैं।
अपना-अपना काम हम सभी,
अपने हाथों से करते हैं।
छोटे से छोटे बच्चे भी,
अपने पर निर्भर रहते हैं।
नहीं जोड़ते दाना-पानी,
न ही बंगले-महल बनाते।
न नुकसान-नफे के हमको,
कोई भी दुःख-दर्द सताते।
नहीं बुढ़ापा हमको आता,
कभी नहीं बीमार पड़े हम।
किसी डॉक्टर किसी वैद्य के,
यहाँ कभी भी नहीं गए हम।
यह सारा संसार हमारा,
धरती सारा अपना घर है।
यह तन तो नश्वर है भाई,
एक आत्मा अजर-अमर है।
– प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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चिड़िया पर छोटी सी कविता – Chidiya Par Kavita
यहाँ चिड़िया पर एक छोटी सी कविता (Chidiya Par Kavita) दी गई है, जो गहरे अर्थ से भरपूर हैं:
आती है ये चिड़िया
दाना खाने, गाना गाने, आती है ये चिड़िया
दाना खाकर मीठा गाना, गाती है ये चिड़िया
उड़कर आँगन में आती है, फिर यह छत पर जाती
फिर आँगन में जहाँ छाँह है, अपने पर फैलाती
देख-देख मुझको कैसे, मुसकाती है ये चिड़िया
दाना खाने, गाना गाने, आती है ये चिड़िया
दाना खाने, गाना गाने, आती है ये चिड़िया
नन्ही-नन्ही एक चोंच है, नन्ही-सी दो आँखें
नन्हा सिर, नन्हे पंजे हैं, नन्ही-नन्ही पाँखें
नन्हे रवि को सबसे ज्यादा भाती है ये चिड़िया
दाना खाने, गाना गाने, आती है ये चिड़िया
इसे पालकर घर में रख लूँ, कहीं नहीं फिर जाए
पर पिंजड़े में रहकर चिड़िया भला कहीं सुख पाए
मेरे घर में कभी न कुछ दुख पाती है ये चिड़िया
दाना खाने, गाना गाने, आती है ये चिड़िया
एक बार यह सुबह गीत गा, दाना खा जाती है
फिर दुपहर के बाद कहीं से, उड़कर यह आती है
फिर सूरज के छिप जाने तक, गाती है ये चिड़िया
दाना खाने, गाना गाने, आती है ये चिड़िया।
– श्रीप्रसाद
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चिड़िया
पीपल की ऊँची डाली पर बैठी चिड़िया गाती है
तुम्हें ज्ञात अपनी बोली में क्या संदेश सुनाती है?
चिड़िया बैठी प्रेम-प्रीति की रीति हमें सिखलाती है
वह जग के बंदी मानव को मुक्ति-मंत्र बतलाती है।।
वन में जितने पंछी हैं- खंजन, कपोत, चातक, कोकिल,
काक, हंस, शुक, आदि वास करते सब आपस में हिलमिल।।
सब मिल-जुलकर रहते हैं वे, सब मिल-जुलकर खाते हैं
आसमान ही उनका घर है, जहाँ चाहते, जाते हैं।।
रहते जहाँ, वहीं वे अपनी दुनिया एक बनाते हैं
दिनभर करते काम रात में पेड़ों पर सो जाते हैं।।
उनके मन में लोभ नहीं है, पाप नहीं, परवाह नहीं
जग का सारा माल हड़पकर जीने की भी चाह नहीं।।
जो मिलता है, अपने श्रम से उतना भर ले लेते हैं
बच जाता तो औरों के हित, उसे छोड़ वे देते हैं।।
सीमा-हीन गगन में उड़ते निर्भय विचरण करते हैं
नहीं कमाई से औरों की अपना घर वे भरते हैं।।
वे कहते हैं– मानव, सीखो तुम हमसे जीना जग में
हम स्वच्छंद, और क्यों तुमने डाली है बेड़ी पग में?
तुम देखो हमको, फिर अपनी सोने की कड़ियाँ तोड़ो
ओ मानव, तुम मानवता से द्रोह भावना को छोड़ो।।
पीपल की डाली पर चिड़िया यही सुनाने आती है
बैठ घड़ीभर, हमें चकित कर, गाकर फिर उड़ जाती है।।
– आरसी प्रसाद सिंह
चिड़िया का होना ज़रूरी है
पेड़ पर फुदकती है चिड़िया
पत्ते हिलते हैं, मुस्कुराते हैं
चिड़िया उनमें भरती है चमकदार हरापन,
डाली कुछ लचक कर समा लेती है
चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,
पेड़ खड़े हैं सदियों से,
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
चिड़िया की गान पर गा उठता है पूरा जंगल,
चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को
और तान देती है पेड़ों के सिरों परों पर
धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में
जो वंचित है सूरज की ममता से,
चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान,
जंगल है सदियों से
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
ठीक वैसे,
जैसे,
धान के लिये ज़रूरी है
कमर झुकाए,
कीचड़ में हाथ-पाँव सानें
पसीने और थकावट के बीच
धान रोपती औरतों का फूटता गान,
जैसे दुनिया की कैनवास पर
दिखाई देने वाले बहुत से बदनुमा धब्बों के बीच
खिलता किसी फूल का रंग,
जैसे मनुष्य के दिमाग के
तमाम जालों और कुतर्कों के बीच बची
जीने की इच्छा,
मुठ्ठी भर मनुष्यता,
सदियों से चल रही है दुनिया
क्षणिक है आदमी,
पर आदमी का होना ज़रूरी है,
हाँ, चिडिया का होना ज़रूरी है।
– शैलजा सक्सेना
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