रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं समाज को अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए प्रेरित करती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं समाज का दर्पण बनकर, इसमें छिपी कुरीतियों को दूर करने का प्रयास करती हैं। वर्तमान समय में भी रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं एक मुख्य भूमिका निभाते हुए युवाओं को प्रेरित करने का काम भी करती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं हिंदी साहित्य का वो अनमोल खजाना हैं, जिसके कारण आने वाली पीढ़ियां भी हिंदी भाषा के महत्व को जान पाएंगी। इस ब्लॉग में आपको रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं (Ramdhari singh dinkar ki kavitayen) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो भारत के साथ-साथ विश्व भर के युवाओं को प्रेरित करने का प्रयास करेगी। इन कविताओं को पढ़ने के लिए आपको इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ना पड़ेगा।
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रामधारी सिंह दिनकर का संक्षिप्त जीवन परिचय
Ramdhari singh dinkar ki kavitayen पढ़ने के पहले आपको रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के अनमोल रत्न राष्ट्रकवि दिनकर जी का जन्म वर्ष 1908 में उत्तर प्रदेश के सिमरा गांव में पैदा हुआ था। मुख्य रूप से रामधारी सिंह दिनकर जी की कविताएँ और काव्यग्रंथ भारतीय संस्कृति, धर्म, और समाज के मुद्दों पर आधारित थे।
उनकी कविताएँ धैर्य, संघर्ष, और उत्कृष्ट भाषा के गर्भ से प्रखरता से पैदा हुई थी। उनकी लेखनी और मर्यादित भाषा के चलते ही उन्हें “राष्ट्रकवि” का उपनाम भी दिया गया है, और उनकी कविताएँ आज भी हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में अपना योगदान देती हैं।
रामधारी सिंह दिनकर भारतीय साहित्य के मशहूर हिन्दी कवि और लेखक थे। उन्हें हिन्दी साहित्य में अपने काव्य, काव्यग्रंथ, और नाटकों के लिए खूब यश कमाया था। वर्ष 1974 में भारत के महान राष्ट्रकवियों में से एक रामधारी सिंह दिनकर जी पंचतत्व में विलीन हुए थे।
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रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं
Ramdhari singh dinkar ki kavitayen के बारे में जानने से पहले आपको रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं क्या हैं, के बारे में पता होना चाहिए। रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं आज के समय में भी समाज को प्रेरित करती हैं और प्रासंगिक भी लगती हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचनाएं निम्नवत हैं, जिन्हें आपको एक न एक बार अपने जीवन में जरूर पढ़ना चाहिए।
रश्मिरथी
इस काव्य कृति को भगवद्गीता के रूप में माना जाता है और इसमें भारतीय इतिहास में हुए सबसे बड़े युद्ध महाभारत और इस युग के कर्ण के जीवन के बारे में उल्लेखित है।
समर शेष है नहीं नारी, उसके द्वेष है अस्ति क्वचित्
इस कविता में दिनकर जी ने महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को बड़े ही गर्मजोशी से प्रस्तुत किया है। जिसका उद्देश्य नारी समाज के संघर्षों को सम्मानित करना है।
स्वर्ग यात्रा
इस कविता में कवि दिनकर जी ने जीवन की अनिश्चितता और मृत्यु के प्रति अपने दृढ निश्चय को व्यक्त किया है। जीवन के बाद की घटनाएं और जीवन है कितना अनमोल, इस सबकी परिभाषा इस काव्य पाठ में है।
वीरगति
दिनकर जी द्वारा रचित इस कविता में महाभारत के युद्ध के योद्धाओं की वीरता की स्तुति की गयी है और उनके उत्कृष्ट योगदान को मान्यता दी गयी है। यह कविता ज़िंदगी की लड़ाई को लड़ने के लिए भी आपको प्रेरित करेगी।
रामधारी सिंह दिनकर की लोकप्रिय कविताएं – Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavitayen
रामधारी सिंह दिनकर की लोकप्रिय कविताएं (Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavitayen) समाज को संगठित करने और युवाओं में वीरता के भाव को जगाने का काम करती हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं समाज को जागरूक करने के साथ-साथ, समाज को आशावादी बनाती हैं। ये कविताएं कुछ इस प्रकार हैं;
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
-रामधारी सिंह ‘दिनकर’
वीर
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शुलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भितर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
-रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हिमालय
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दिल्ली
चांद का कुर्ता
हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
– रामधारी सिंह “दिनकर”
नमन करूँ मैं
तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ मैं।
मेरे प्यारे देश! देह या मन को नमन करूत्र मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत, किसको नमन करूँ मैं?
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्वर है!
निखिल विश्व की जन्म-भूमि-वंदन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत! किसको नमन करूँ मैं?
उठे जहाँ भी घोष शान्ति का, भारत स्वर तेरा है,
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में, वह नर तेरा है।
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने जाता है,
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।।
मानवता के इस ललाट-चंदन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत! किसको नमन करूँ मैं?
– रामधारी सिंह “दिनकर”
वर्षा
अम्मा, ज़रा देख तो ऊपर
चले आ रहे हैं बादल।
गरज़ रहे हैं, बरस रहे हैं,
दीख रहा है जल ही जल।
हवा चल रही क्या पुरवाई,
झूम रही डाली – डाली।
ऊपर काली घटा घिरी है,
नीचे फैली हरियाली।
भीग रहे हैं खेत, बाग़, वन,
भीग रहे हैं घर-आँगन।
बाहर निकलूँ, मैं भी भीगूँ,
चाह रहा है मेरा मन।
– रामधारी सिंह “दिनकर”
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
– रामधारी सिंह “दिनकर”
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