Yaad Par Kavita: बीते लम्हों की मिठास और जज़्बातों की गहराई बताती याद पर कविताएँ

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Yaad Par Kavita

Yaad Par Kavita: यादें सिर्फ़ बीते हुए समय का हिस्सा नहीं होतीं, बल्कि वे हमारे एहसास, रिश्ते और जज़्बातों का आईना होती हैं। कभी बचपन की मासूमियत को फिर से जी लेने की ख्वाहिश होती है, तो कभी किसी अपने की अधूरी बातों की कसक दिल को बेचैन कर देती है। कुछ यादें गुलाब की ख़ुशबू जैसी होती हैं, जो वक़्त बीतने के बाद भी मन में महकती रहती हैं, तो कुछ बरसात की उन बूंदों की तरह, जो अचानक से दिल के किसी कोने में दस्तक दे जाती हैं। इस ब्लॉग में हम यादों की इसी गहराई को छूने वाली कविताओं को समेट रहे हैं, जो आपको मुस्कुराने, सोचने और कभी-कभी आंसू बहाने पर मजबूर कर देंगी। अगर आपकी भी कोई याद दिल के किसी कोने में सहेजी हुई है, तो याद पर कविताएँ (Yaad Poem in Hindi) आपको उस एहसास से फिर रूबरू कराएंगी।

याद पर कविताएँ सूची (Yaad Poem in Hindi)

याद पर कविताएँ सूची (Yaad Par Kavita) इस प्रकार हैं:

याद पर कविता का शीर्षककवि का नाम
घर की यादभवानीप्रसाद मिश्र
यादेंअजीत रायजादा
यादऋतुराज
ट्राम में एक यादज्ञानेंद्रपति

घर की याद – भवानीप्रसाद मिश्र

आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,

रात-भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,

अब सवेरा हो गया है,
कब सवेरा हो गया है,

ठीक से मैंने न जाना,
बहुत सोकर सिर्फ़ माना—

क्योंकि बादल की अँधेरी,
है अभी तक भी घनेरी,

अभी तक चुपचाप है सब,
रातवाली छाप है सब,

गिर रहा पानी झरा-झर,
हिल रहे पत्ते हरा-हर,

बह रही है हवा सर-सर,
काँपते हैं प्राण थर-थर,

बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,

घर कि मुझसे दूर है जो,
घर ख़ुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर!

आज का दिन दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,

एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,

घर कि घर में सब जुड़े हैं,
सब कि इतने तब जुड़े हैं,

चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ बिन-पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी,

माँ कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुख नहीं फिर,

माँ कि जिसकी स्नेह-धारा
का यहाँ तक भी पसारा,

उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता।

और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक् घिर रहा है,

पिताजी भोले बहादुर,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,

जो अभी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिल-खिलाएँ,

मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,

बोल में बादल गरजता,
काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके,
दंड दो सौ साठ करके,

ख़ूब मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे
नैन जल से छाए होंगे,

हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,

खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनकी पड़े होंगे।

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,

रो पड़े होंगे बराबर,
पाँचवें का नाम लेकर,

पाँचवाँ मैं हूँ अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा,

पिताजी कहते रहे हैं,
प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,

क्योंकि मैं उन पर सुहागा
बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा

आँख में किस लिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,

वह तुम्हारा मन समझ कर,
और अपनापन समझ कर,

गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,

इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेगे और बच्चे,

पिताजी ने कहा होगा,
हाय कितना सहा होगा,

कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,

गिर रहा है आज पानी,
याद आता है भवानी,

उसे थी बरसात प्यारी,
रात-दिन की झड़ी झारी,

खुले सिर नंगे बदन वह,
घूमता फिरता मगन वह,

बड़े बाड़े में कि जाता,
बीज लौकी का लगाता,

तुझे बतलाता कि बेला
ने फलानी फूल झेला,

तू कि उसके साथ जाती,
आज इससे याद आती,

मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,
और फिर पानी बहा होगा,

दृश्य उसके बाद का रे,
पाँचवे की याद का रे,

भाई पागल, बहिन पागल,
और अम्मा ठीक बादल,

और भौजी और सरला,,
सहज पानी, सहज तरला,

शर्म से रो भी न पाएँ,
ख़ूब भीतर छटपटाएँ,

आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा।

अभी पानी थम गया है,
मन निहायत नम गया है,

एक-से बादल जमे हैं,
गगन-भर फैले रमे हैं,

ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरने झुकें-झाँकें,

लग रहे हैं वे मुझे यों,
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,

गगन-आँगन की लुनाई,
दिशा के मन से समाई,

दश-दिशा चुपचार है रे,
स्वस्थ की छाप है रे,

झाड़ आँखें बंद करके,
साँस सुस्थिर मंद करके,

हिले बिन चुपके खड़े हैं,
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,

एक पंछी बोलता है,
घाव उर के खोलता है,

आदमी के उर बिचारे,
किस लिए इतनी तृषा रे,

तू ज़रा-सा दुःख कितना,
सह सकेगा क्या कि इतना,

और इस पर बस नहीं है,
बस बिना कुछ रस नहीं है,

हवा आई उड़ चला तू,
लहर आई मुड़ चला तू,

लगा झटका टूट बैठा,
गिरा नीचे फूट बैठा,

तू कि प्रिय से दूर होकर,
बह चला रे पूर होकर

दुःख भर क्या पास तेरे,
अश्रु सिंचित हास तेरे!

पिताजी का वेश मुझको,
दे रहा है क्लेश मुझको,

देह एक पहाड़ जैसे,
मन कि बड़ का झाड़ जैसे

एक पत्ता टूट जाए,
बस कि धारा फूट जाए,

एक हल्की चोट लग ले,
दूध की नद्दी उमग ले,

एक टहनी कम न होले,
कम कहाँ कि ख़म न होले,

ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,
डाल जितनी जड़ें उतनी!

इस तरह का हाल उनका,
इस तरह का ख़याल उनका,

हवा, उनको धीर देना,
यह नहीं जी चीर देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें,

मैं मज़े में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,

किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,

किंतु उससे यह न कहना,
उन्हें देते धीर रहना,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,

वज़न सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुःख डट कर ठेलता हूँ,

और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,

कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं,
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,

देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें।

- भवानीप्रसाद मिश्र

यादें – अजीत रायज़ादा

पतझर का मौसम
डूबते हुए सूरज की आख़िरी किरन

शाम के बढ़ते हुए साए
और

भटकता हुआ मेरा मन।
विगत स्मृति की

मैली-सी चादर पर
उभरते हैं किसी के अधर

किसी के नयन
कुछ मुस्कुराहटें

कुछ आवाज़ें
अस्पष्ट-सी।

यादों के झरोखे से
झाँकती है आकृति कोई अनजान

फिर खो जाती है
अँधेरे में जाने कहाँ

—एक कसक-सी उठती है
मन के किसी कोने में।

बीते हुए का लगाव
वर्तमान की उदासी

और भविष्य का अनजानापन
घूमते उठते हैं

सब एक साथ ही
नियति के चक्र से।

अब मैं हूँ
और मेरा सूनापन

उदास-उदास-से चेहरे
देख रहे हैं मुझे सब अपलक

न जाने क्यों
बड़ी अजीब-अजीब-सी लगती हैं

ये परिचित-अपरिचित नज़रें।
विदा

लेनी ही होगी
क्योंकि जाना है मुझे दूर

और
ढल रहा है दिन

बीते समय की याद में
समय :

जिसको किसी की प्रतीक्षा नहीं
न किसी से प्यार—

पर
मानव तो समय नहीं हो सकता

इसीलिए
मैं मुड़-मुड़कर

बार-बार देखता हूँ पीछे
शायद तुम भी

चले आ रहे हो
मुझे ढूँढ़ते हुए।

- अजीत रायज़ादा

याद – ऋतुराज

याद एक चिड़िया है
कभी उड़कर पास चली आती है

कभी दूर जाकर
ओझल हो जाती है

बुलबुलों की तुतलाहट
मैनाओं का शोर

कौडिल्ले की चीख़
और फुलचुही की

रसपान करने की छटपटाहट
याद के पंख कभी भीगे होते हैं

कभी मिट्टी में नहाए
कभी उल्लू जैसी सुर्ख़ आँखें लिए

कभी उँघती फ़ाख़्ता जैसे
पास और दूर के इस खेल में

मुझसे वह बिछुड़ नहीं पाती है
और न ही उड़ा कर ले जाती है

अपने संग
क्या कोई अपना पूरा शरीर

देख सकता है याद की तरह?
क्या याद की पीठ पर छपे रंग पूरे

दिखाई देते हैं?
याद कभी दुविधा में होती है

कि वह अनदेखे को देखती रहे
या भूल जाए देखना

मुझे बेचैन कर दे
या निर्ममता से थपकी देकर सुला दे

हर बार उजाड़ छोड़कर
वह एक चिड़िया की तरह

चल देती है
दूसरी चिड़िया आती है

और फिर से बटोरती है
उसके तिनके

- ऋतुराज

ट्राम में एक याद – ज्ञानेंद्रपति

चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?

कुछ-कुछ ख़ुश
कुछ-कुछ उदास

कभी देखती तारे
कभी देखती घास

चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?

तुम्हें मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो

चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी क़द-काठी की एक

नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है

तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो?

पहले जैसी हो?
आँखों में उतरती है किताब की आग?

नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?

मुझ-से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?

अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?

अब भी जिससे करती हो प्रेम, उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्ही गेंद-सी उल्लास से भरी हो?

उतनी ही हरी हो?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है

भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है

विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है
इस महावन में फिर भी एक गौरैए की जगह ख़ाली है

एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है

विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है
कोरस में एक कंठ कम है

तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ

रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-ख़ुशी योग और वियोग

देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो!

- ज्ञानेंद्रपति

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