पढ़िए फिराक गोरखपुरी की कविता, जो आपका परिचय साहित्य के सौंदर्य से करवाएंगी

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Firaq Gorakhpuri ki kavita

फिराक गोरखपुरी की कविता साहित्य के आँगन को महकती एक ऐसी श्रृंखला है जिसे पढ़कर आपका परिचय साहित्य के सौंदर्य से होगा। आजाद भारत में कई ऐसे महान साहित्यकार और कवि हुए हैं, जिन्होंने नवीन पीढ़ी में साहित्य के प्रति सम्मान और समर्पण भाव के बीज बोने का काम किया है। ऐसे ही महान कवियों और साहित्यकारों की श्रेणी में “फिराक गोरखपुरी” का भी नाम आता है, उनके द्वारा लिखी गयीं कविताएं आज भी प्रासंगिक होकर युवाओं का मार्गदर्शन कर रही हैं। इस पोस्ट के माध्यम से आप फिराक गोरखपुरी की कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त कर सकते हैं। विद्यार्थियों के जीवन में यह कविताएं सकारात्मक भूमिका निभाने का कार्य तो करेंगी ही, साथ ही उन्हें साहित्य के प्रति सम्मान करना भी सिखाएंगी। साहित्य की अद्भुत अनुभूति करने के लिए विद्यार्थियों को यह ब्लॉग अंत तक पढ़ना चाहिए।

फिराक गोरखपुरी की कविता  

हिंदी साहित्य के आँगन में पोषित फिराक गोरखपुरी की कविता आपके जीवन पर गहरा प्रभाव डाल सकती हैं। इस ब्लॉग में फिराक गोरखपुरी की कविता पर प्रकाश डाला गया है, जो कुछ इस प्रकार है;

जुगनू

फिराक गोरखपुरी की कविता से आपका परिचय साहित्य से करवाएंगी। फिराक गोरखपुरी की कविता की श्रृंखला में पहली कविता “जुगनू” है, जो कुछ इस प्रकार है:

ये मस्त मस्त घटा, ये भरी भरी बरसात
तमाम हद्द-ए-नज़र तक घुलावटों का समाँ
फ़ज़ा-ए-शाम में डोरे से पड़ते जाते हैं
जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है 

दहक उठा है तरावत की आँच से आकाश 
ज़े-फ़र्श ता-फ़लक अंगड़ाइयों का आलम है 
ये मद-भरी हुई पुरवाइयाँ सनकती हुई 
झिंझोड़ती है हरी डालियों को सर्द हवा 

ये शाख़-सार के झूलों में पेंग पड़ते हुए 
ये लाखों पत्तियों का नाचना ये रक़्स-ए-नबात 
ये बे-ख़ुदी-ए-मुसर्रत ये वालिहाना रक़्स 
ये ताल-सम ये छमा-छम कि कान बजते हैं 

हवा के दोश पे कुछ ऊदी ऊदी शक्लों की 
नशे में चूर सी परछाइयाँ थिरकती हुई 
उफ़ुक़ पे डूबते दिन की झपकती हैं आँखें 
ख़मोश सोज़-ए-दरूँ से सुलग रही है ये शाम! 

मिरे मकान के आगे है एक चौड़ा सहन वसीअ 
कभी वो हँसता नज़र आता है कभी वो उदास 
इसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का 
सुना है मैं ने बुज़ुर्गों से ये कि उम्र उस की 

जो कुछ न होगी तो होगी क़रीब छियानवे साल 
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंग-ए-आज़ादी 
जिसे दबाने के ब'अद उस को ग़द्र कहने लगे 
ये अहल-ए-हिन्द भी होते हैं किस क़दर मासूम 

वो दार-ओ-गीर वो आज़ादी-ए-वतन की जंग 
वतन से थी कि ग़नीम-ए-वतन से ग़द्दारी 
बिफर गए थे हमारे वतन के पीर ओ जवाँ 
दयार-ए-हिन्द में रन पड़ गया था चार तरफ़ 

उसी ज़माने में कहते हैं मेरे दादा ने 
जब अर्ज़-ए-हिन्द सिंची ख़ून से ''सपूतों'' के 
मियान-ए-सहन लगाया था ला के इक पौदा 
जो आब-ओ-आतिश-ओ-ख़ाक-ओ-हवा से पलता हुआ 

ख़ुद अपने क़द से ब-जोश-ए-नुमू निकलता हुआ 
फ़ुसून-ए-रूह बनाती रगों में चलता हुआ 
निगाह-ए-शौक़ के साँचों में रोज़ ढलता हुआ 
सुना है रावियों से दीदनी थी उस की उठान 

हर इक के देखते ही देखते चढ़ा परवान 
वही है आज ये छितनार पेड़ पीपल का 
वो टहनियों के कमंडल लिए जटाधारी 
ज़माना देखे हुए है ये पेड़ बचपन से 

रही है इस के लिए दाख़ली कशिश मुझ में 
रहा हूँ देखता चुप-चाप देर तक उस को 
मैं खो गया हूँ कई बार इस नज़ारे में 
वो उस की गहरी जड़ें थीं कि ज़िंदगी की जड़ें? 

पस-ए-सुकून-ए-शजर कोई दिल धड़कता था 
मैं देखता था उसे हसती-ए-बशर की तरह 
कभी उदास कभी शादमाँ कभी गम्भीर 
फ़ज़ा का सुरमई रंग और हो चला गहरा 

घुला घुला सा फ़लक है धुआँ धुआँ सी है शाम 
है झुटपुटा कि कोई अज़दहा है माइल-ए-ख़्वाब 
सुकूत-ए-शाम में दरमांदगी का आलम है 
रुकी रुकी सी किसी सोच में है मौज-ए-सबा 

रुकी रुकी सी सफ़ें मल्गजी घटाओं की 
उतार पर है सर-ए-सहन रक़्स पीपल का 
वो कुछ नहीं है अब इक जुम्बिश-ए-ख़फ़ी के सिवा 
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-ए-नील-गूँ में हर लहज़ा 

ये शाम डूबती जाती है छुपती जाती है 
हिजाब-ए-वक़्त सिरे से है बेहिस-ओ-हरकत 
रुकी रुकी दिल-ए-फ़ितरत की धड़कनें यक-लख़्त 
ये रंग-ए-शाम कि गर्दिश ही आसमाँ में नहीं 

बस एक वक़्फ़ा-ए-तारीक, लम्हा-ए-शहला 
समा में जुम्बिश-ए-मुबहम सी कुछ हुई फ़ौरन 
तुली घटा के तले भीगे भीगे पत्तों से 
हरी हरी कई चिंगारियाँ सी फूट पड़ीं 

कि जैसे खुलती झपकती हों बे-शुमार आँखें 
अजब ये आँख-मिचोली थी नूर-ओ-ज़ुल्मत की 
सुहानी नर्म लवें देते अन-गिनत जुगनू 
घनी सियाह ख़ुनुक पत्तियों के झुरमुट से 

मिसाल-ए-चादर-ए-शब-ताब जगमगाने लगे 
कि थरथराते हुए आँसुओं से साग़र-ए-शाम 
छलक-छलक पड़े जैसे बग़ैर सान गुमान 
बुतून-ए-शाम में इन ज़िंदा क़ुमक़ुमों की दमक 

किसी की सोई हुई याद को जगाती थी 
वो बे-पनाह घटा वो भरी भरी बरसात 
वो सीन देख के आँखें मिरी भर आती थीं 
मिरी हयात ने देखी हैं बीस बरसातें 

मिरे जनम ही के दिन मर गई थी माँ मेरी 
वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ की मैं न देख सका 
जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न वो माँ 
मैं वो पिसर हूँ जो समझा नहीं कि माँ क्या है 

मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था 
वो मुझ से कहती थीं जब घिर के आती थी बरसात 
जब आसमान में हर सू घटाएँ छाती थीं 
ब-वक़्त-ए-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू 

दिए दिखाते हैं ये भूली-भटकी रूहों को 
मज़ा भी आता था मुझ को कुछ उन की बातों में 
मैं उन की बातों में रह रह के खो भी जाता था 
पर इस के साथ ही दिल में कसक सी होती थी 

कभी कभी ये कसक हूक बन के उठती थी 
यतीम दिल को मिरे ये ख़याल होता था! 
ये शाम मुझ को बना देती काश इक जुगनू 
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह 

कहाँ कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी 
कहाँ कहाँ मिरी ख़ातिर भटक रही होगी 
ये सोच कर मिरी हालत अजीब हो जाती 
पलक की ओट में जुगनू चमकने लगते थे 

कभी कभी तो मिरी हिचकियाँ सी बंध जातीं 
कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ 
और उस को राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ 
दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी किताब 

कहूँ कि पढ़ के सुना तो मिरी किताब मुझे 
फिर इस के ब'अद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी 
कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिस में 
ये हर्फ़ थे जिन्हें मैं ने लिक्खा था पहले-पहल 

और उस को राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ 
दिखाऊँ फिर उसे आँगन में वो गुलाब की बेल 
सुना है जिस को उसी ने कभी लगाया था 
ये जब कि बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी 

नज़र से गुज़री थीं कल चार पाँच बरसातें 
गुज़र रहे थे मह-ओ-साल और मौसम पर 
हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात 
जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू 

हवा की मौज-ए-रवाँ पर दिए जलाए हुए 
फ़ज़ा में रात गए जब दरख़्त पीपल का! 
हज़ारों जुगनुओं से कोह-ए-तूर बनता था 
हज़ारों वादी-ए-ऐमन थीं जिस की शाख़ों में 

ये देख कर मिरे दिल में ये हूक उठती थी 
कि मैं भी होता इन्हीं जुगनुओं में इक जुगनू 
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह 
वो माँ मैं जिस की मोहब्बत के फूल चुन न सका 

वो माँ मैं जिस से मोहब्बत के बोल सुन न सका 
वो माँ कि भेंच के जिस को कभी मैं सो न सका 
मैं जिस के आँचलों में मुँह छुपा के रो न सका 
वो माँ कि घुटनों से जिस के कभी लिपट न सका 

वो माँ कि सीने से जिस के कभी चिमट न सका 
हुमक के गोद में जिस की कभी मैं चढ़ न सका 
मैं ज़ेर-ए-साया-ए-उम्मीद जिस के बढ़ न सका 
वो माँ मैं जिस से शरारत की दाद पा न सका 

मैं जिस के हाथों मोहब्बत की मार खा न सका 
सँवारा जिस ने न मेरे झंडूले बालों को 
बसा सकी न जो होंटों से सूने गालों को 
जो मेरी आँखों में आँखें कभी न डाल सकी 

न अपने हाथों से मुझ को कभी उछाल सकी 
वो माँ जो कोई कहानी मुझे सुना न सकी 
मुझे सुलाने को जो लोरियाँ भी गा न सकी 
वो माँ जो दूध भी अपना मुझे पिला न सकी 

वो माँ जो हाथ से अपने मुझे खिला न सकी 
वो माँ गले से मुझे जो कभी लगा न सकी 
वो माँ जो देखते ही मुझ को मुस्कुरा न सकी 
कभी जो मुझ से मिठाई छुपा के रख न सकी 

कभी जो मुझ से दही भी बचा के रख न सकी 
मैं जिस के हाथ में कुछ देख कर डहक न सका 
पटक पटक के कभी पाँव मैं ठुनक न सका 
कभी न खींचा शरारत से जिस का आँचल भी 

रचा सकी मिरी आँखों में जो न काजल भी 
वो माँ जो मेरे लिए तितलियाँ पकड़ न सकी 
जो भागते हुए बाज़ू मिरे जकड़ न सकी 
बढ़ाया प्यार कभी कर के प्यार में न कमी 

जो मुँह बना के किसी दिन न मुझ से रूठ सकी 
जो ये भी कह न सकी जा न बोलूँगी तुझ से 
जो एक बार ख़फ़ा भी न हो सकी मुझ से 
वो जिस को जूठा लगा मुँह कभी दिखा न सका 

कसाफ़तों पे मिरी जिस को प्यार आ न सका 
जो मिट्टी खाने पे मुझ को कभी न पीट सकी 
न हाथ थाम के मुझ को कभी घसीट सकी 
वो माँ जो गुफ़्तुगू की रौ में सुन के मेरी बड़ 

कभी जो प्यार से मुझ को न कह सकी घामड़ 
शरारतों से मिरी जो कभी उलझ न सकी 
हिमाक़तों का मिरी फ़ल्सफ़ा समझ न सकी 
वो माँ कभी जिसे चौंकाने को मैं लुक न सका 

मैं राह छेंकने को जिस के आगे रुक न सका 
जो अपने हाथ से बहरूप मेरे भर न सकी 
जो अपनी आँखों को आईना मेरा कर न सकी 
गले में डाली न बाहोँ की फूल-माला भी 

न दिल में लौह-ए-जबीं से किया उजाला भी 
वो माँ कभी जो मुझे बद्धियाँ पहना न सकी 
कभी मुझे नए कपड़ों से जो सजा न सकी 
वो माँ न जिस से लड़कपन के झूट बोल सका 

न जिस के दिल के दराँ कुंजियों से खोल सका 
वो माँ मैं पैसे भी जिस के कभी चुरा न सका 
सज़ा से बचने को झूटी क़सम भी खा न सका 
वो माँ कि आयत-ए-रहमत है जिस की चीन-ए-जबीं 

वो माँ कि हाँ से भी होती है बढ़ के जिस की नहीं 
दम-ए-इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का 
जो राग छेड़ती झुँझला के भी मोहब्बत का 
वो माँ कि घुड़कियाँ भी जिस के गीत बन जाएँ 

वो माँ कि झिड़कियां भी जिस की फूल बरसाएँ 
वो माँ हम उस से जो दम भर को दुश्मनी कर लें 
तो ये न कह सके अब आओ दोस्ती कर लें 
कभी जो सुन न सकी मेरी तोतली बातें 

जो दे सकी न कभी थप्पड़ों की सौग़ातें 
वो माँ बहुत से खिलौने जो मुझ को दे न सकी 
ख़िराज-ए-सर-ख़ुशी-ए-सरमदी जो ले न सकी 
वो माँ मैं जिस से लड़ाई कभी न ठान सका 

वो माँ मैं जिस पे कभी मुट्ठियाँ न तान सका 
वो मेरी माँ मैं कभी जिस की पीठ पर न चढ़ा 
वो मेरी माँ कभी कुछ जिस के कान में न रखा 
वो माँ कभी जो मुझे करधनी पिन्हा न सकी 

जो ताल हाथ से दे कर मुझे नचा न सकी 
जो मेरे हाथ से इक दिन दवा भी पी न सकी 
कि मुझ को ज़िंदगी देने में जान ही दे दी 
वो माँ न देख सका ज़िंदगी में जिस की चाह 

उसी की भटकती हुई रूह को दिखाता राह 
ये सोच सोच के आँखें मिरी भर आती थीं 
तो जा के सूने बिछौने पे लेट रहता था 
किसी से घर में न राज़ अपने दिल के कहता था 

यतीम थी मिरी दुनिया, यतीम मेरी हयात 
यतीम शाम-ओ-सहर थी, यतीम थे शब-ओ-रोज़ 
यतीम मेरी पढ़ाई थी मेरे खेल यतीम 
यतीम मेरी मसर्रत थी मेरा ग़म भी यतीम 

यतीम आँसुओं से तकिया भीग जाता था 
किसी से घर में न कहता था अपने दिल का भेद 
हर इक से दूर अकेला उदास रहता था 
किसी शमाइल-ए-नादीदा को मैं तकता था 

मैं एक वहशत-ए-बे-नाम से हड़कता था 
गुज़र रहे थे मह-ओ-साल और मौसम पर 
इसी तरह कई बरसातें आईं और गईं 
मैं रफ़्ता रफ़्ता पहुँचने लगा ब-सिन्न-ए-शुऊर 

तो जुगनुओं की हक़ीक़त समझ में आने लगी 
अब उन खिलाइयों और दाइयों की बातों पर 
मिरा यक़ीं न रहा मुझ पे हो गया ज़ाहिर 
कि भटकी रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़ 

वो मन-घड़त सी कहानी थी इक फ़साना था 
वो बे-पढ़ी लिखी कुछ औरतों की थी बकवास 
भटकती रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़ 
ये खुल गया मिरे बहलाने को थीं ये बातें 

मिरा यक़ीं न रहा इन फ़ुज़ूल क़िस्सों पर 
हमारे शहर में आती हैं अब भी बरसातें 
हमारे शहर पर अब भी घटाएँ छाती हैं 
हनूज़ भीगी हुई सुरमई फ़ज़ाओं में 

ख़ुतूत-ए-नूर बनाती हैं जुगनुओं की सफ़ें 
फ़ज़ा-ए-तीरा में उड़ती हुई ये क़िंदीलें 
मगर मैं जान चुका हूँ इसे बड़ा हो कर 
किसी की रूह को जुगनू नहीं दिखाते राह 

कहा गया था जो बचपन में मुझ से झूट था सब 
मगर कभी कभी हसरत से दिल में कहता हूँ 
ये जानते हुए जुगनू नहीं दिखाते चराग़ 
किसी की भटकती हुई रूह को मगर फिर भी 

वो झूट ही सही कितना हसीन झूट था वो 
जो मुझ से छीन लिया उम्र के तक़ाज़े ने 
मैं क्या बताऊँ वो कितनी हसीन दुनिया थी 
जो बढ़ती उम्र के हाथों ने छीन ली मुझ से 

समझ सके कोई ऐ काश अहद-ए-तिफ़्ली को 
जहान देखना मिट्टी के एक रेज़े को 
नुमूद-ए-लाला-ए-ख़ुद-रौ में देखना जन्नत 
करे नज़ारा-ए-कौनैन इक घरौंदे में 

उठा के रख ले ख़ुदाई को जो हथेली पर 
करे दवाम को जो क़ैद एक लम्हे में 
सुना? वो क़ादिर-ए-मुतलक़ है एक नन्ही सी जान 
ख़ुदा भी सज्दे में झुक जाए सामने उस के 

ये अक़्ल-ओ-फ़हम बड़ी चीज़ हैं मुझे तस्लीम 
मगर लगा नहीं सकते हम इस का अंदाज़ा 
कि आदमी को ये पड़ती हैं किस क़दर महँगी 
इक एक कर के वो तिफ़्ली के हर ख़याल की मौत 

बुलूग़-ए-सिन में वो सदमे नए ख़यालों के 
नए ख़याल का धचका नए ख़याल की टीस 
नए तसव्वुरों का कर्ब, अल-अमाँ कि हयात 
तमाम ज़ख़्म निहाँ है तमाम नश्तर है 

ये चोट खा के सँभलना मुहाल होता है 
सुकूत रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितार 
कभी कभी तिरी पायल की आती है झंकार 
तो मेरी आँखों से मोती बरसने लगते हैं 

अँधेरी रात के परछावें डसने लगते हैं 
मैं जुगनू बन के तो तुझ तक पहुँच नहीं सकता 
जो तुझ से हो सके ऐ माँ तू वो तरीक़ा बता 
तू जिस को पा ले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे 

ये नज़्म मैं तिरे क़दमों में डाल दूँ कैसे 
नवा-ए-दर्द से कुछ जी तो हो गया हल्का 
मगर जब आती है बरसात क्या करूँ इस को 
जब आसमान में उड़ते हैं हर तरफ़ जुगनू 

शराब-ए-नूर लिए सब्ज़ आबगीनों में 
कँवल जलाते हुए ज़ुल्मतों के सीनों में 
जब उन की ताबिश-ए-बे-साख़्ता से पीपल का 
दरख़्त सर्व-ए-चराग़ाँ को मात करता है 
न जाने किस लिए आँखें मिरी भर आती हैं

-फिराक गोरखपुरी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि ने अपनी रचना में बीस बरस के उस नौजवान के जज़्बात को जगह दी है, जिसकी माँ उसे जन्म देने के बाद मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। इस कविता की भाषा जितनी सरल व स्पष्ट है, इसके भाव उतने ही गहरे हैं। इस कविता में कवि की रचना उस बच्चे की पीड़ा की पैरवी करती है जिसने कभी अपनी माँ नहीं देखी। कविता में कवि उस बच्चे के मन की भावनाओं को समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं जहाँ वह अपनी माँ की याद में एक दम तन्हा हो चुका है।

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बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं

फिराक गोरखपुरी की कविता ही आपसे भावनाओं के संगम में डुबकी लगवाएंगी। फिराक गोरखपुरी की कविता की श्रृंखला में एक कविता “बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं” है, जो कुछ इस प्रकार है:

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं 
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं 
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं 

जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी 
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं 
निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना 
तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं 

तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में 
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं 
ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता 
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं 

हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है 
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं 
हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की 
मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं 

तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत 
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं 
अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें 
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं 

जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का 
इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं 
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में 
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं 

हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है 
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं 
रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है 
तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं 

ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है 
इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं 
'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर 
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं

-फिराक गोरखपुरी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि ने इस रचना को जीवन के अनुभवों और ज्ञान पर आधारित होकर लिखा है। इस रचना के माध्यम से कवि जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी समझ और विचारों को व्यक्त करते हैं। यह रचना हमें जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित करती है, साथ ही इस रचना के माध्यम से कवि ज़माने की रीत के बारे में भी अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं।

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सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं

फिराक गोरखपुरी की कविता आपका परिचय साहित्य के माध्यम से उत्पन्न साहस से करवाएंगी। फिराक गोरखपुरी की कविता की श्रृंखला में एक कविता “सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं” है, जो कुछ इस प्रकार है:

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं 
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं 
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में 
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त 
आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं 
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें 
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं 

आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा 
आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं 
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम 
कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं 

अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं 
तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं 
आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश 
आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं 

ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर 
ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं 
यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़ 
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं 

फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम 
चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं 
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़' 
है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

-फिराक गोरखपुरी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि ने प्रेम की वेदना और इसमें मिलने वाली निराशा पर अपने विचारों को लिखा है। इस रचना के माध्यम से कवि प्रेम में मिली हार और उसकी वजह से हुए दुख को व्यक्त करते हैं। इस रचना में कवि कहते हैं कि उनके पास न तो कोई सपना है और न ही कोई इच्छा है, कवि कहते हैं कि वे प्रेम में हार चुके हैं और अब उन्हें प्रेम में कोई दिलचस्पी नहीं है। यह रचना हमें सिखाती है कि प्रेम हमेशा सुखद नहीं होता, प्रेम में हार और निराशा भी होती है। कवि कहते हैं कि प्रेम में हारने के बाद हमें निराश नहीं होना चाहिए।

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सितारों से उलझता जा रहा हूँ

फिराक गोरखपुरी की कविता के माध्यम से आपको जीवन में एक नया दृष्टिकोण प्राप्त होगा। फिराक गोरखपुरी की कविता की श्रृंखला में एक सुप्रसिद्ध कविता अथवा नज़्म “सितारों से उलझता जा रहा हूँ” है, जो कुछ इस प्रकार है:

सितारों से उलझता जा रहा हूँ 
शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत घबरा रहा हूँ 
तिरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ 
जहाँ को भी समझता जा रहा हूँ 

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है 
गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ 
अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट 
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ 

हदें हुस्न-ओ-मोहब्बत की मिला कर 
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ 
ख़बर है तुझ को ऐ ज़ब्त-ए-मोहब्बत 
तिरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ 

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का 
तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ 
भरम तेरे सितम का खुल चुका है 
मैं तुझ से आज क्यूँ शरमा रहा हूँ 

उन्हीं में राज़ हैं गुल-बारियों के 
मैं जो चिंगारियाँ बरसा रहा हूँ 
जो उन मा'सूम आँखों ने दिए थे 
वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ 

तिरे पहलू में क्यूँ होता है महसूस 
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ 
हद-ए-जोर-ओ-करम से बढ़ चला हुस्न 
निगाह-ए-यार को याद आ रहा हूँ 

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों 
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ 
मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है 
तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूँ 

अजल भी जिन को सुन कर झूमती है 
वो नग़्मे ज़िंदगी के गा रहा हूँ 
ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप 
'फ़िराक़' अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

-फिराक गोरखपुरी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि प्रेम की बेचैनी और इससे होने वाली तड़प के बारे बताने का प्रयास किया है। इस रचना के माध्यम से कवि प्रेम में होने की भावना के साथ-साथ, उसके साथ जुड़ी बेचैनी और तड़प को भी व्यक्त करते हैं। यह रचना प्रेम को एक अद्भुत भावना मानती है, जिसकी मदद से हमारी दुनिया बदल सकती है। कवि कहते हैं कि हमें प्रेम में पड़ने के बाद बहुत सुकून और खुशी मिलती है, जिसकी आहट कवि को अक्सर होती है।

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

फिराक गोरखपुरी की कविता को पढ़कर आप भी साहित्य के प्रेम को पाकर प्रफुल्लित हो सकते हैं। फिराक गोरखपुरी की कविता की श्रृंखला में एक सुप्रसिद्ध कविता “किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी” है, जो कुछ इस प्रकार है:

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी 
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी 
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है 
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी 

कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर 
कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी 
ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र 
दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी 

झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें 
मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी 
शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र 
कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी 

कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात 
ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी 
पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था 
वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी 

लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को 
दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी 
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर 
यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी 

हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी 
वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी 
लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से 
उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी 

तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है 
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी 
ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा 
ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी 

फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ 
उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी 
सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में 
करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी 

ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा 
तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी 
अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ 
'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी

-फिराक गोरखपुरी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि प्रेम की क्षणभंगुरता और अनिश्चितता के बारे में लिखते हैं। इस कविता के माध्यम से कवि प्रेम में मिली हार और उसके साथ जुड़ी वेदना और निराशा को व्यक्त करते हैं। कवि इस रचना में कहते हैं कि प्रेम में मिली हार बहुत दर्दनाक होती है, जो हमें बहुत दुःख देती हैं लेकिन प्रेम में मिली हार को हमें हमेशा स्वीकार करना आना चाहिए।

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आशा है कि फिराक गोरखपुरी की कविता के माध्यम से आप फिराक गोरखपुरी की प्रेरणादायक रचनाओं को पढ़ पाएं होंगे, जो कि आपको सदा प्रेरित करेंगी। साथ ही यह ब्लॉग आपको इंट्रस्टिंग और इंफॉर्मेटिव भी लगा होगा, इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहें।

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