Poem on Wife in Hindi: पत्नी के त्याग, प्रेम और समर्पण को समर्पित बेहतरीन कविताएँ

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Poem on Wife in Hindi

Poem on Wife in Hindi: पत्नी केवल एक जीवनसंगिनी नहीं होती, बल्कि वह जीवन के हर सुख और दुःख में साथ निभाने वाली एक सच्ची साथी होती है। भारतीय संस्कृति में पत्नी का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि वह पति की अर्धांगिनी होती है। वह परिवार की धुरी है, जो अपने त्याग, प्रेम और समर्पण से पूरे घर को एक सूत्र में बांधती है। पत्नी पर लिखी गई कविताएँ केवल शब्द नहीं होतीं, बल्कि वे उन गहरी भावनाओं का प्रतीक होती हैं, जिन्हें हम अपने जीवन साथी के लिए महसूस करते हैं। इस लेख में पत्नी पर कविता (Patni Par Kavita) की सूची दी गई है, जो प्रेम, सम्मान और नारी शक्ति का संदेश देती हैं। जीवन संगिनी पर कविता पढ़ने के लिए इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ें, क्योंकि ये न केवल हमारे रिश्तों को मजबूत करती हैं, बल्कि हमें पत्नी के महत्व को भी समझने का अवसर देती हैं।

पत्नी पर कविता – Patni Par Kavita

पत्नी पर कविता (Patni Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
पत्नी की अट्ठाइसवीं पुण्यतिथि परकेदारनाथ सिंह
पत्नीकुँअर बेचैन
पत्नी पूछती है कुछ वैसा ही प्रश्न जो कभी पूछा था माँ ने पिता सेजितेंद्र श्रीवास्तव
पत्नी को परमेश्वर मानोगोपालप्रसाद व्यास
मोटी पत्नीकाका हाथरसी
जीवनसंगिनी सेसाहिल परमार
जीवन-संगिनीशैलेन्द्र चौहान
हे मेरी तुमकेदारनाथ अग्रवाल
जमुन-जल तुमकेदारनाथ अग्रवाल

पत्नी की अट्ठाइसवीं पुण्यतिथि पर

पहले वह गई
फिर बारी-बारी चले गए
बहुत से दिन
और ढेर सारे पक्षी
और जाने कितनी भाषाएँ
कितने जलस्रोत चले गए दुनिया से
जब वह गई

और जो बच गया शून्य
उसमें रहने आ गए
झुण्ड के झुण्ड शब्द
और किताबों के रेवड़
और बर्र की तरह
लिखी-अनलिखी कविताओं के छत्ते

और इस तरह शामें
होती रहीं सुबहें
सुबहें धीरे-धीरे
होती रहीं शाम

एक दिन यह सोचकर
कि जो ख़ाली है
शायद कुछ भर जाए
वाया कविता हो आया क्रेमलिन
देख आया
लंदन
पेरिस
और सात समुन्दर पार का
लिबर्टी स्टेच्यू -
यानी एक बूढ़ी चिड़िया की
चूँ… चूँ… चूँ… चूँ…

और जो ख़ाली था
होता रहा ख़ाली और ख़ाली

और एक दिन देखता हूँ
कि नाम पुकारते हुए
सामने से आ रहे हैं
मंच और माइक
पुष्प-गुच्छ और पुरस्कार

और जब अलंकृत हो कर
उतर रहा था नीचे
तो लगा
कोई कान में बुदबुदा रहा है -
कवि जी,
यह कैसा मंच है
शब्दों का यह कैसा उत्सव
जहाँ प्यार की एक ही तुक है
पुरस्कार!

- केदारनाथ सिंह

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पत्नी

तू मेरे घर में बहनेवाली एक नदी
मैं नाव
जिसे रहना हर दिन
बाहर के रेगिस्तानों में।

नन्हीं बेसुध लहरों को तू
अपने आँचल में पाल रही
उनको तट तक लाने को ही
तू अपना नीर उछाल रही
तू हर मौसम को सहनेवाली एक नदी
मैं एक देह
जो खड़ी रही आँधी, वर्षा, तूफ़ानों में।

इन गर्म दिनों के मौसम में
कितनी कृश कितनी क्षीण हुई।
उजली कपास-सा चेहरा भी
हो गया कि जैसे जली रुई
तू धूप-आग में रहनेवाली एक नदी
मैं काठ
सूखना है जिसको
इन धूल भरे दालानों में।

तेरी लहरों पर बहने को ही
मुझे बनाया कर्मिक ने
पर तेरे-मेरे बीच रेख-
खींची रोटी की, मालिक ने
तू चंद्र-बिंदु के गहनेवाली एक नदी
मैं सम्मोहन
जो टूट गया
बिखरा फिर नई थकानों में।

- कुँअर बेचैन

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पत्नी पूछती है कुछ वैसा ही प्रश्न जो कभी पूछा था माँ ने पिता से

ए जी, ये लोकतंत्र क्या होता है?
पूछा था माँ ने पिता जी से

कई वर्ष पहले जब मैं किशोर था
माँ के सवाल पर

थोड़ा अकबकाए फिर मुस्कुराए थे पिताजी
माँ समझ गई थी

वे टाल रहे हैं उसका सवाल
उसने फिर पूछा था—

बताइए न, ये लोकतंत्र क्या होता है?
अब पिता सतर्क थे

‘सतर्क’ के हर अर्थ में
उन्होंने कहा था—

तुम जानती हो लोकतंत्र की परिभाषा उसके निहितार्थ
पढ़ाती हो बच्चों को

फिर मुझसे क्यों पूछती हो, क्या दुविधा है?
माँ ने कहा था—

दुविधा ही दुविधा है
उत्तर की सुविधा भी एक दुविधा है

जो शब्दों में है
अभिव्यक्ति में पहुँच नहीं पाता

जो अभिव्यक्ति में पहुँचता है
जीवन में उतर नहीं पाता

ऐसा क्यों है
प्रेम की तरह लोकतंत्र दिखता खुला-खुला सा

पर रहस्य है!
जब जो चाहे

कभी भाषा से
कभी शक्ति से

कभी भक्ति से
कभी छल कभी प्रेम से

अपनी सुविधा की व्याख्या रच लेता है
और काठ के घोड़े-सा लोकतंत्र टुकुर-टुकुर ताकता रह जाता है

यह सब कहते हुए
स्वर शांत था माँ का

कोई उद्विग्नता, क्षणिक आवेश, आवेग, आक्रोश न था उसमें
जैसे कही गई बातें महज़ प्रतिक्रिया न हों

निष्पत्तियाँ हों सघन अनुभव की
लोकतंत्र की आकांक्षा से भरे एक जीवन की

और यह सब सुनते हुए
जादुई वाणी वाले सिद्ध वक्ता मेरे पिता

चुप थे बिल्कुल चुप
जैसे मैं हूँ इस समय

उस संवाद के ढाई दशक बाद
अपनी पत्नी के इस सवाल पर

ए जी, ये बराबरी क्या होती है?

- जितेंद्र श्रीवास्तव

पत्नी पर हास्य कविता – Patni Par Hasya Kavita

पत्नी पर हास्य कविता (Patni Par Hasya Kavita) पढ़कर आप हास्य रस का आनंद ले सकते हैं, साथ ही पति-पत्नी के रिश्ते की मजबूती को भी जान सकते हैं। यहाँ आपके लिए पत्नी पर हास्य कविता (Patni Par Hasya Kavita) दी गई हैं –

पत्नी को परमेश्वर मानो

यदि ईश्वर में विश्वास न हो,
उससे कुछ फल की आस न हो,
तो अरे नास्तिको! घर बैठे,
साकार ब्रह्‌म को पहचानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

वे अन्नपूर्णा जग-जननी,
माया हैं, उनको अपनाओ।
वे शिवा, भवानी, चंडी हैं,
तुम भक्ति करो, कुछ भय खाओ।
सीखो पत्नी-पूजन पद्धति,
पत्नी-अर्चन, पत्नीचर्या
पत्नी-व्रत पालन करो और
पत्नीवत्‌ शास्त्र पढ़े जाओ।
अब कृष्णचंद्र के दिन बीते,
राधा के दिन बढ़ती के हैं।
यह सदी बीसवीं है, भाई !
नारी के ग्रह चढ़ती के हैं।
तुम उनका छाता, कोट, बैग,
ले पीछे-पीछे चला करो,
संध्या को उनकी शय्‌या पर
नियमित मच्छरदानी तानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।

तुम उनसे पहले उठा करो,
उठते ही चाय तयार करो।
उनके कमरे के कभी अचानक,
खोला नहीं किवाड़ करो।
उनकी पसंद के कार्य करो,
उनकी रुचियों को पहचानो,
तुम उनके प्यारे कुत्ते को,
बस चूमो-चाटो, प्यार करो।
तुम उनको नाविल पढ़ने दो
आओ कुछ घर का काम करो।
वे अगर इधर आ जाएं कहीं ,
तो कहो-प्रिये, आराम करो!
उनकी भौंहें सिगनल समझो,
वे चढ़ीं कहीं तो खैर नहीं,
तुम उन्हें नहीं डिस्टर्ब करो,
ए हटो, बजाने दो प्यानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम दफ्तर से आ गए, बैठिए!
उनको क्लब में जाने दो।
वे अगर देर से आती हैं,
तो मत शंका को आने दो।
तुम समझो वह हैं फूल,
कहीं मुरझा न जाएं घर में रहकर!
तुम उन्हें हवा खा आने दो,
तुम उन्हें रोशनी पाने दो,
तुम समझो 'ऐटीकेट' सदा,
उनके मित्रों से प्रेम करो।
वे कहाँ, किसलिए जाती हैं-
कुछ मत पूछो, ऐ 'शेम' करो !
यदि जग में सुख से जीना है,
कुछ रस की बूँदें पीना है,
तो ऐ विवाहितो, आँख मूँद,
मेरे कहने को सच मानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।

मित्रों से जब वह बात करें,
बेहतर है तब मत सुना करो।
तुम दूर अकेले खड़े-खड़े,
बिजली के खंबे गिना करो।

तुम उनकी किसी सहेली को
मत देखो, कभी न बात करो।
उनके पीछे उनके दराज से
कभी नहीं उत्पात करो।
तुम समझ उन्हें स्टीम गैस,
अपने डिब्बे को जोड़ चलो।
जो छोटे स्टेशन आएं तुम,
उन सबको पीछे छोड़ चलो।
जो सँभल कदम तुम चले-चले,
तो हिन्दू-सदगति पाओगे,
मरते ही हूरें घेरेंगी,
तुम चूको नहीं, मुसलमानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम उनके फौजी शासन में,
चुपके राशन ले लिया करो।
उनके चेकों पर सही-सही
अपने हस्ताक्षर किया करो।
तुम समझो उन्हें 'डिफेंस एक्ट',
कब पता नहीं क्या कर बैठें ?
वे भारत की सरकार, नहीं
उनसे सत्याग्रह किया करो।
छह बजने के पहले से ही,
उनका करफ्यू लग जाता है।
बस हुई जरा-सी चूक कि
झट ही 'आर्डिनेंस' बन जाता है।
वे 'अल्टीमेटम' दिए बिना ही
युद्ध शुरू कर देती हैं,
उनको अपनी हिटलर समझो,
चर्चिल-सा डिक्टेटर जानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।

- गोपालप्रसाद व्यास

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मोटी पत्नी

ढाई मन से कम नहीं, तौल सके तो तौल
किसी-किसी के भाग्य में, लिखी ठौस फ़ुटबौल
लिखी ठौस फ़ुटबौल, न करती घर का धंधा
आठ बज गये किंतु पलंग पर पड़ा पुलंदा
कहँ ‘ काका ' कविराय , खाय वह ठूँसमठूँसा
यदि ऊपर गिर पड़े, बना दे पति का भूसा

- काका हाथरसी

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जीवन संगिनी पर कविता – Poem on Wife in Hindi

जीवन संगिनी पर कविता (Poem on Wife in Hindi) पढ़कर आप अपने जीवन में इनके योगदान और महत्व को जान पाएंगे। यहाँ आपके लिए जीवन संगिनी पर कविता (Poem on Wife in Hindi) दी गई हैं –

जीवनसंगिनी से

भूरे-से बालों-सा झूमता हुआ
तुम्हें उस पहली रात का उजियारा याद है?

आँखों के पीछे उगे आईने में
नाचते थे रुनझुन-रुनझुन सपनों के चेहरे
देखे ना देखे कि झीनी-झीनी
रेत बन के ऊपर से छप्पर गिरे थे
चन्दा ने घुसकर,
झाँक कर दरारों से ताली पे ताली लगाई थी वो याद है?

भूरे-से बालों-सा झूमता हुआ
तुम्हें उस पहली रात का उजियारा याद है?

बोतल में लगे हुए ढक्कन-सा मैं और
उस में बाती जैसी तू
हलके उजियारे में खटिया भी गाती थी
किचूड किचूड चैड चूँ
फटी हुई गुदड़ी पर नई-नई चादर में
सिलवटें ही सिलवटें पड़ी थीं वो याद है?
फटी हुई गुदड़ी पर नई-नई चादर में
झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ पड़ी थीं वो याद है?

भूरे-से बालों-सा झूमता हुआ
तुम्हें उस पहली रात का उजियारा याद है?

- साहिल परमार

जीवन-संगिनी

हाँ, मैं
तुम पर कविता लिखूँगा

लिखूँगा बीस बरस का
अबूझ इतिहास
अनूठा महाकाव्य
असीम भूगोल और
निर्बाध बहती अजस्र
एक सदानीरा नदी की कथा

आवश्यक है
जल की
कल-कल ध्वनि को
तरंगबद्ध किया जाए

तृप्ति का बखान हो
आस्था, श्रद्धा और
समर्पण की बात हो

और यह कि
नदी को नदी कहा जाए

जन्म, मृत्यु, दर्शन, धर्म
सब यहाँ जुड़ते हैं

सरिता-कूल आकर
डूबा-उतराया जाए इनमें
पूरा जीवन
इस नदी के तीर
कैसे घाट-घाट बहता रहा

भूख प्यास, दिन उजास
शीत-कपास
अन्न की मधुर सुवास

सब कुछ तुम्हारे हाथों का
स्पर्श पाकर
मेरे जीवन-जल में
विलीन हो गया है।

- शैलेन्द्र चौहान

हे मेरी तुम

हे मेरी तुम!
आज धूप जैसे ही आई

और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा

मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को

लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा

वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।

मैं हताश हूँ,
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना :

बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझसे मिलने
आज सबेरे,

और दुपट्टा; रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?

क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण?

- केदारनाथ अग्रवाल

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जमुन-जल तुम

रेत मैं हूँ-जमुन-जल तुम!
मुझे तुमने

हृदय तल से ढँक लिया है
और अपना कर लिया है

अब मुझे क्या रात-क्या दिन
क्या प्रलय-क्या पुनर्जीवन!

रेत मैं हूँ-जमुन-जल तुम!
मुझे तुमने

सरस रस से कर दिया है
छाप दुख-दव हर लिया है

अब मुझे क्या शोक-क्या दुख
मिल रहा है सुख-महा सुख!

- केदारनाथ अग्रवाल

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