Bhojan Par Kavita: भोजन हमारी जीवनशैली का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह न केवल हमें ऊर्जा देता है बल्कि हमारे जीवन में स्वाद और खुशी भी लाता है। भोजन ही सही मायनों में हमारे शरीर के लिए ईंधन की तरह कार्य करता है, जिससे हमें ऊर्जा मिलती है। भोजन ही हमारे विचारों को बल देकर हमें स्वस्थ, तंदुरुस्त और ऊर्जावान बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों जैसे- वेद, पुराण आदि में इस बात का उल्लेख मिलता है कि हम जैसा अन्न खाते हैं, हमारा व्यवहार वैसा ही हो जाता है। भोजन के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सही पोषण और संतुलित आहार हमारे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक है। भोजन पर कविता के माध्यम से समाज को भोजन का महत्व समझाया जा सकता है। इस लेख में कुछ लोकप्रिय भोजन पर कविता (Bhojan Par Kavita) दी गई हैं, जो आपको भोजन की महिमा के बारे में बताएंगी।
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भोजन पर कविता – Bhojan Par Kavita
भोजन पर कविता (Bhojan Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
---|---|
माल खाओ | प्रभुदयाल श्रीवास्तव |
भोजन | स्वप्निल श्रीवास्तव |
भोजन प्रशंसा | अशोक चक्रधर |
भोजन की जंग में | निलय उपाध्याय |
खाना बनाती स्त्रियाँ | कुमार अंबुज |
खाना | अमिताभ बच्चन |
माँ जब खाना परोसती थी | चन्द्रकान्त देवताले |
माल खाओ
चुहिया रानी रोज बनाती,
लौकी की तरकारी।
कहती है इसके खाने से,
दूर हटे बीमारी।।
पर चूहे को बीमारों का,
भोजन नहीं सुहाता।
कुतर कुतर कर आलू गोभी,
बड़े प्रेम से खाता।।
उल्टी सीधी सीख जमाने,
की ना उसको भाती।
झूठ कभी ना बोला करता,
सच्ची बात सुहाती।।
बजा बजा डुगडुगी रोज वह,
लोगों को बुलवाता।
बड़े प्रेम से यही बात फिर,
सबको ही समझाता।।
बढिया भोजन करने से ही,
हटती हर लाचारी।
माल खाओ और मस्त रहो,
कहती दुनिया दारी।।
– प्रभुदयाल श्रीवास्तव
भोजन
चौके में कुछ भी न बचे
स्त्रियाँ बचा कर रखती हैं
नमक
वे हमारे जीवन के सबसे ज़रूरी
स्वाद के बारे में बेहतर
जानती हैं
उनकी आँखों में लहराता है,
खारा समन्दर
जहाँ से वे इकट्ठा करती हैं
नमक
यही नमक हमारी धमनियों में
रक्त बन कर दौड़ता है
भोजन का स्वाद फीका होने लगे
तो यह जान लेना चाहिए कि
समुन्दर में गिरने वाली
नदियों की निष्ठा सन्दिग्ध
हो रही है,
चालाक मछुआरे मछलियों
की जगह नमक की
चोरबाज़ारी कर रहे हैं
चौके में आने वाला है कोई
संकट
कुछ लोग भूखे उठ जाने
वाले हैं
बच्चों की आँख में बढ़
गई है भूख
जैसे स्त्रियाँ बचाकर रखती
हैं नमक
वैसे हमे बचाकर रखना
चाहिए साहस
और बच्चों को समुन्दर
के साथ ज़िन्दगी के बारे में
तफसील से बताना चाहिए
– स्वप्निल श्रीवास्तव
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भोजन प्रशंसा
बागेश्वरी, हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी।
मेरी प्रिये!
तारीफ़ के वे शब्द
लाऊं कहां से तेरे लिये ?
जिनमें हृदय की बात हो,
बिन कलम, बिना दवात हो।
मन-प्राण-जीवन संगिनी,
अर्द्धांगिनी,
….न न न न न….पूर्णांगिनी।
खाकर ये पूरी और हलुआ,
मस्त ललुआ!
(थाली के व्यंजन गिनते हुए)
एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात
बज उठी सतरंगिनी,
सतव्यंजनी-सी रागिनी।
तेरी अंगुलियां…
भव्य हैं तेरी अंगुलियां
दिव्य हैं तेरी अंगुलियां।
कोमल कमल के नाल सी,
हर पल सक्रिय
मैं आलसी।
तो…
तेरी अंगुलियां,
स्वाद का जादू बरसता,
नाचतीं मेरी अंतड़ियां।
खन खनन बरतन
किचिन में जब करें,
तो सुरों के झरने झरें।
हृदय बहता,
लगे जैसे जुबिन मेहता,
बजाए साज़ अनगिन,
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
एक आर्केस्ट्रा…
वहाँ भाजी नहीं ऐक्स्ट्रा!
यहां थाली
मसालों की महक-सी
ज्यों ही उठाती है,
लकप कर भूख
प्यारे पेट में बाजे बजाती है,
ये जिव्हा लार की गंगो-जमुन
मुख में बहाती है,
मधुर स्वादिष्ट मोहक
इंद्रधनुषों को सजाती है,
चटोरी चेतना थाली कटोरी देखकर
कविता बनाती है।
कि पूरी चंद्रमा सी
और इडली पूर्णमासी।
मन-प्रिया सी दाल वासंती,
लगे, चटनी अमृतवंती।
यही ऋषिगण कहा करते,
यही है सार वेदों का,
हमारे कॉन्स्टीट्यूशन के
सारे अनुच्छेदों का,
कि यदि स्वादिष्ट भोजन
मिले घर में,
इस उदर में
ही बना है
मोक्ष का वह द्वार,
जिसमें है महा उद्धार।
हे बागेश्वरी!
हृदयेश्वरी!!
प्राणेशवरी!!!
तेरे लिए मेरे हृदय में प्यार,
अपरंपार!
– अशोक चक्रधर
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भोजन की जंग में
कुत्तों और गिद्धों के बीच छिड़ी
भोजन की जंग में
आदमी
गिद्धों के साथ था।
सुबह की सुनहरी धूप में
डांगर का माँस
इतना रक्तिम, इतना ताज़ा लग रहा था
जैसे शिकार किया हो अभी-अभी
सेना कुत्तों की थी तो कम न थी पलटन गिद्धों की
थोड़ी देर तक चला सब कुछ ठीक-ठाक
फिर शुरू हो गई
गिद्धों की क्रे…क्रे… कुत्तों की भौं…भौं…
कभी गिद्ध कुत्तों का पीछा करते
कभी कुत्ते गिद्धों का
आदम ने डंडा उठाया तो
दूनी ताकत से भौंके कुत्ते,
उत्साह से भरे … मगर यह क्या
आदमी ने कुत्तों को ही खदेड़ा और
खदेड़ता रहा घूम-घूमकर दस फीट की परिधि में
डांगर की खाल उतर चुकी थी और उसे जल्दी थी
बहुत मायूस होकर देखा कुत्तों ने
आदमी का न्याय
अब हड्डियों के लिए था
और वह गिद्धों के साथ था।
– निलय उपाध्याय
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खाने पर कविता – Bhojan Par Kavita
यहाँ आपके लिए खाने पर कविता (Bhojan Par Kavita) दी गई हैं। बता दें कि “खाना” और “भोजन” दोनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है, भोजन को ही अक्सर दैनिक बातचीत में खाना बोला जाता है। इसलिए, खाने पर कविता कुछ इस प्रकार हैं –
खाना बनाती स्त्रियाँ
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे – उफ इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो जमीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की
वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से पीठ से
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गँठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।
– कुमार अंबुज
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खाना
मुझे अच्छा खाने का शौक़ था
पर मैं जानता हूँ मुझे जीवन भर क्या खाना नसीब हुआ
जो था उसे कितना श्रेष्ठ और परिपूर्ण बताया
मगर मलाल किस बात का
आख़िर उसी पर इतने दिन जीवित रहा
कोसी क्षेत्र के सुदूर गाँवों की यात्रा की
कुपोषितों, अल्पपोषितों की डूबती हुई आवाज़ सुनी
भूख से मरते हुए लोगों को देखा
भेड़ियों के मुँह में देश को जाते हुए देखा
– अमिताभ बच्चन
माँ जब खाना परोसती थी
वे दिन बहुत दूर हो गए हैं
जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था
वे दिन अथाह कुँए में छूट कर गिरी
पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह
अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे
फिर वो दिन आए जब माँ की मौजूदगी में
कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था
जबकि वह अपने सबसे छोटे और बेकार बेटे के लिए
घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी
उसने कभी नहीं पूछा कि मैं दिनभर कहाँ भटकता रहता था
और अपने पान-तम्बाकू के पैसे कहाँ से जुटाता था
अकसर परोसते वक्त वह अधिक सदय होकर
मुझसे बार-बार पूछती होती
और थाली में झुकी गरदन के साथ
मैं रोटी के टुकड़े चबाने की अपनी ही आवाज़ सुनता रहता
वह मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती पहचानती थी
और मेरे अकसर अधपेट खाए उठने पर
बाद में जूठे बरतन अबेरते
चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी
बरामदे में छिपकर मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे
और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना
सबसे खौफनाक सिद्ध होता और तब मैं दरवाज़ा खोल
देर रात के लिए सड़क के एकान्त और
अंधेरे को समर्पित हो जाता
अब ये दिन भी उसी कुँए में लोहे की वज़नी
बाल्टी की तरह पड़े होंगे
अपने बीवी-बच्चों के साथ खाते हुए
अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी
दोनों ही ग़ायब हो गई है
अब सब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी से खाते हैं
और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिन्त रहते हैं
फिर भी कभी-कभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर
मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती टोहती उसकी दृष्टि
और आवाज़ तैरने लगती है
और फिर मैं पानी की मदद से खाना गटक कर
कुछ देर के लिए उसी कुँए में डूबी उन्हीं बाल्टियों को
ढूँढता रहता हूँ।
– चन्द्रकान्त देवताले
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