बेटियों के प्रति सम्मान के भाव को व्यक्त करती बालिका दिवस पर कविता

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बालिका दिवस पर कविता

बालिका दिवस पर कविता के माध्यम से हम समाज में बालिकाओं को शिक्षा और स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में समान अधिकार देने की पैरवी कर सकते हैं। कविताओं के माध्यम से बेटियों के प्रति सम्मान के भाव को व्यक्त किया जा सकता है, साथ ही ये कविताएं बेटियों के संघर्षों और उनके मनोदशा के बारे में भी बताती हैं। बता दें कि बालिकाओं के अधिकारों की पैरवी और संरक्षण करने के लिए ही अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस को हर साल 11 अक्टूबर को मनाया जाता है। इसके साथ ही राष्ट्रीय बालिका दिवस को हर साल 24 जनवरी को पूरे भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। इन दिवसों को मनाए जाने का उद्देश्य लड़कियों को समान अधिकार प्रदान करना होता है। इस ब्लॉग में आपको बालिका दिवस पर कविता दी गई हैं, जिनका उद्देश्य समाज के सामने बेटियों के संघर्षों के बारे में बताना है।

बालिका दिवस पर कविता

बालिका दिवस पर कविता पढ़कर आपको बेटियों के महत्व के बारे में पता चलेगा, साथ ही ये कविताएं आपको उनकी स्थिति और मनोदशा के बारे में बताएंगी। बालिका दिवस पर कविता कुछ इस प्रकार हैं –

एक लड़की

लड़की यूँ ही सारे संसार में
भटकती थी
मानो पैर में चक्‍के जुते हों

यूँ ही दौड़कर चढ़ जाती थी पहाड़
उछलकर आसमान तोड़ लाती
यूँ ही पेड़ की इस डाली से उस डाली
साइकिल उठा पूरे शहर का चक्‍कर लगाती
कुएँ में पैर लटकाकर
नमक के साथ करौंदा खाती

पहाड़ी झरने-सी बहती थी
यूँ ही कभी यहाँ, कभी वहाँ
उसके सीने में था अरब सागर
आँखों में हिमालय

अपनी चोटी की रस्‍सी बना
लड़की यूँ ही एक दिन
चाँद को छू आना चाहती थी
आसमान के सारे सितारे
उसने अपने दुपट्टे में टाँक रखे थे

उसने सोचा था
जाएगी एक दिन दूर पहाड़ी के उस पार
धरती के दूसरे छोर पर
जहाँ छह महीने दिन, छह महीने रात होती है

टॉय-टे्न पर चढ़ेगी
चीड़ के जंगलों में जाएगी
यूँ ही वहाँ गुज़ारेगी एक रात

कौन जानता है
होंठों को एक बार डूबकर चूम लेने वाला
धरती के उस छोर पर ही मिले
या सागौन के जंगलों में

लड़की आखिर लड़की थी
लड़की यूँ ही सबकुछ चाह लेती
सबकुछ कर गुज़रती

लड़की अब यूँ ही कुछ नहीं चाहती
न पहाड़, न नदी, न आसमान
न धरती का दूसरा छोर
न चीड़ के जंगल

लड़की अब यूँ ही चौराहे तक भी नहीं जाती
गर पति के लौटने से पहले
रात की सब्‍ज़ी के लिए
बैंगन न खरीदने हों।

-मनीषा पांडेय

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अखबार बेचती लड़की

अखबर बेचती लड़की
अखबार बेच रही है या खबर बेच रही है
यह मैं नहीं जानती
लेकिन मुझे पता है कि वह
रोटी के लिए अपनी आवाज बेच रही है

अखबार में फोटो छपा है
उस जैसी बदहाल कई लड़कियों का
जिससे कुछ-कुछ उसका चेहरा मिलता है
कभी-कभी वह तस्वीर देखती है
कभी अपने आप को देखती है
तो कभी अपने ग्राहकों को

वह नहीं जानती है कि आज के अखबार की
ताजा खबर क्या है
वह जानती है तो सिर्फ यह कि
कल एक पुलिस वाले ने
भद्दा मजाक करते हुए धमकाया था
वह इस बात से अंजान है कि वह अखबार नहीं
अपने आप को बेच रही है
क्योंकि अखबार में उस जैसी
कई लड़कियों की तस्वीर छपी है
जिससे उसका चेहरा मिलता है!

-निर्मला पुतुल

इन बच्चियों की वल्दियत क्या है?

आखिर इन बच्चियों की बल्दियत क्या है?
जो रेलवे प्लेटफार्म के किन्हीं अँधेरे कोनों में
पैदा होती हैं
और किशोर होने से पहले ही
औरत बना दी जाती हैं।
जो दिन-भर कचरा बीनती हैं
और शाम को नुक्कड़ों…चौराहों के
अँधेरे कोनों में ग्राहकों का
इन्तजार करती हैं।
जो पूरी तरह युवा होने से पहले ही
अपनी माँ की तरह
यतीम औलादें पैदा करती हैं।
जो समय से पहले ही असाध्य रोगों से
ग्रस्त हो एड़ियाँ रगड़ कर मर जाती हैं।
कोई तो बता दे मुझे
इन बच्चियों की बल्दियत क्या है?

-रंजना जायसवाल

बच्ची की फरियाद

‘मुझे इतनी जोर से प्यार मत करो अंकल
देखो तो, मेरे होठों से निकल आया है खून
मेरे पापा धीरे से चूमते हैं सिर्फ माथा’

‘मुझे मत मारो अंकल, दुखता है
मैं आपकी बेटी से भी छोटी हूं
क्या उसे भी मारते हैं इसी तरह
मेरे कपड़े मत उतारो अंकल
अभी नवरात्रि में
मुझे लाल चुनर ओढ़ाकर पूजा था न तुमने’

‘तुम्हें क्या चाहिए अंकल ले लो मेरी चेन
घड़ी टॉप्स पायल और चाहिए तो ला दूंगी
अपनी गुल्लक जिसमें ढेर सारे रुपये हैं
बचाया था अपनी गुड़िया की शादी के लिए
सब दे दूंगी तुम्हें’

‘अंकल अंकल ये सब मत करो
मां कहती है ये बुरा काम होता है
भगवान जी तुम्हें पाप दे देंगे
छोड़ो मुझे वरना भगवान जी को बुलाऊंगी
टीचर कहती है भगवान बच्चों की बात सुनते हैं’
अब बच्ची लगातार च़ीख रही थी
पर भगवान तो क्या
वहां कोई इन्सान भी न था!

-रंजना जायसवाल

तुम अपनी बेटियों को…

तुम अपनी बेटियों को
इन्सान भी नहीं समझते
क्यों बेच देते हो अमरीका के नाम पर?

खरीददार अपने मुल्क में क्या कम हैं कि…
बीच में सात समुंदर पार डाल देते हो?
जहाँ से सिसकियाँ भी सुनाई न दे सकें
डबडबाई आँखें दिखाई न दे सकें
न जहाँ तुम मिलने जा सको
न कोई तुम्हें कुछ बता सके

कभी वापस आएँ भी तो
लाशें बने शरीर… जिन पर गहने और
मंहगे कपड़े पड़े हों…!
तुम्हारी शान बढ़ाएँ और तुम्हारे पास भी
बिना रोये लौट जाएँ

उसी सोने के पिंजरे में
जहाँ अमरीका की कीमत
मज़दूरी से भी चुकता नहीं होती!

-अंजना संधीर

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उम्र के पच्चीसवें में लड़की

पच्चीस साल की उम्र
कम नहीं होती
एक लड़की के लिए
दुनिया को देखते देखते
यूं ही आ जाता है
पच्चीसवां साल
वह जी लेती है
अपनी उम्र का
अपने हिस्से का प्रेम
संभालकर रख लेती है
प्रेम के बरसों को…

सोलहवें साल की कच्ची लड़की की तरह
नहीं जी सकती वह प्रेम
प्रेम में रहकर

इस दौरान और भी तो घटनाएं
जुड़ती हैं उसके पच्चीसवें साल में

प्रेमी के साथ रहते हुए
वह रखना चाहती है
पुनर्जीवन की तलहटी में
अपनी उम्र का पच्चीसवां साल

-हरप्रीत कौर

उम्र पार करती लड़कियाँ

उदास कर जाता है उन्हें
उम्र पूछा जाना
उम्र जो उनका निजी
दुःख है
छिपाती हैं वे जिसे
बड़े जतन से
ख़तरे की सीमा पार
कर रहा है
उनका दुःख
उम्र की सीमा ख़तरे की
सीमा भी है
सीमा
जिसके बाहर जाना
पड़ेगा बाकी उम्र
दया और उपेक्षा के सहारे
उम्र उनकी दुखती रग
रग में दौड़ता दुःख
फूट पड़ता है अकेले में
बार-बार देखती है दर्पण
हताश देखती है
छोटी बहनों की
चढ़ती उम्र को
और कुढ़ती हैं
अपनी बढ़ती उम्र से।

-रंजना जायसवाल

एक युवा संन्यासिनी को देखकर

मुण्डित सिर
गेरुआ वस्त्र
सूखी काया
निचुड़ा चेहरा
क्या तुम वही स्त्री हो संन्यासिनी
जो कहलाती थी कभी कामिनी
घने श्याम केश
रंगीन वस्त्र
मांसल देह
व फूल सी चेहरे वाली।
तुम्हारी युवा देह में
क्या अब धड़कती नहीं इच्छाएँ
कि सुखा डाला उन्हें भी
अँतड़ियों की तरह
संयम, नियम और तपस्या की अग्नि से।
संन्यासिनी, रात की प्रार्थना के बाद
जब लौटती हो तुम अपनी कुटिया में
क्या उदास नहीं होती कभी
लम्बीरातों में खलता नहीं अकेलापन
किलकारी मारकर हँस नहीं पड़ता तुम्हारा अजन्मा शिशु!

वह क्या था जिसने कर दिया उदासीन
प्रकृति और पुरुष के रिश्ते से
किस सुरक्षा की चाहत में जा पड़ी तुम
धर्म की शरण में
सच कहना संन्यासिनी
धर्म तुम्हारे गले की फांस है
कि कवच।

-रंजना जायसवाल

एक कुंवारी लड़की का आत्म-संवाद

गहरी थकान और हताशा लिये
लौट आये हैं पिता
झुके कंधे गर्द भरे चेहरे पर
आहत उम्मीदों की लहूलुहान खरोंचे
आँखों के कोये में
समुद्री नमक का भहराता टीला
होठों पर मुर्दा चुप्पी लिये
सपनों की शव यात्रा से

राख की गंध में लिथड़े
पिता के चेहरे की ओर कैसी कातर
कितनी असहाय आँखों से देखती है माँ
किस अतल से निकला है
यह निःश्वास…
जिसमें मौत सी ठंडक है

ओ माँ! मैं कहाँ जाऊँ
किस पाताल कुँए में डूब मरूँ-बोलो?
क्यों नहीं आती मुझे मौत
जब बेमौत मरते हैं इतने लोग
आता है भूचाल
दरक जाती है धरती
औंधा गिर जाता है आसमान
नमक पानी के पारावार में
तिनके सी बह जाती है जिन्दगी
तब ऐसा कोई सूनामी
मुझे क्यों नहीं बहा ले जाता माँ
क्यों? क्यों?

मैं हरगिज नहीं चाहती पिता की साँस में
फाँस बनकर जीना
तुम्हारी छाती पर अडिग पहाड़ बनकर रहना
भाभी की आँखों में शूल की तरह चुभना
भाई की अनकही पीड़ा में
पतझड़ के उदास रंग की तरह दिखना
लेकिन मैं क्या करूँ माँ
मेरे बस में नहीं है
यह सब न होना

कभी कभी
इस घर की ढहती दीवारों से लगकर
खड़ी मैं सोचती हूँ
क्या मुझे अपनी लड़ाई लड़े बिना
हार मान लेनी चाहिए?
अपनी इच्छाओं
अपने सपनों की पहरेदारी पर
कोई सवाल नहीं करना चाहिए?

माँ! मैं जानना चाहती हूँ तुमसे
इस आँगन के उस पार
वह जो एक बहुत बड़ी दुनिया है
जीवन के समानान्तर
क्या उसे देखने का मुझे कोई हक नहीं?

मुझे बताओ माँ क्यों चढ़ी है आज भी
इस घर की ड्योढ़ी पर
इतनी मजबूत सॉकल
जिसे हिलाते हुए
कटी डाल की तरह झूल जाती हैं मेरी बाँहें
थक जाता है मेरा हौसला

माँ मैं तुम्हारी तरह
किसी जर्जर हवेली की बदरंग दीवारों पर
लतरबेल बनकर नहीं पसरना चाहती
मैं पीपल बरगद आम कटहल की तरह
पूरा का पूरा एक पेड़ बनना चाहती हूँ
इच्छाधारी अस्तित्वधारी एक पेड़

तुम देख रही हो किस तरह
ठूँठ हो गये हैं आज
पुरखों के लगाये सब पेड़
कब तक इनकी सूखी जड़ों में पानी देती तुम
अपने लगाये पेड़ों को
निपात होते देखती रहोगी
बोलो माँ बोलो ?

-पूनम सिंह

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आशा है कि इस ब्लॉग के माध्यम से आप बालिका दिवस पर कविता पढ़ पाए होंगे। इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।

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