राष्ट्रकूट वंश एक शाही भारतीय राजवंश था जिसने 6वीं और 10वीं शताब्दी के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से पर शासन किया था। सबसे पहला ज्ञात राष्ट्रकूट शिलालेख 7वीं शताब्दी का एक ताम्रपत्र है जिसमें मध्य या पश्चिम भारत के एक शहर मनापुर पर उनके शासन का विवरण दिया गया है। शिलालेखों में उल्लिखित इसी अवधि के अन्य शासक राष्ट्रकूट वंश अचलपुर के राजा और कन्नौज के शासक थे। प्रारंभिक राष्ट्रकूट वंश की उत्पत्ति, उनकी मूल मातृभूमि और उनकी भाषा के संबंध में कई विवाद मौजूद हैं। यहाँ राष्ट्रकूट वंश के बारे में संक्षिप्त में जानकारी दी जा रही है।
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राष्ट्रकूट वंश के बारे में
- राष्ट्रकूट साम्राज्य ने 10वीं शताब्दी के अंत तक लगभग 200 वर्षों तक दक्कन पर प्रभुत्व जमाया और विभिन्न समयों पर उत्तर और दक्षिण भारत के क्षेत्रों पर भी नियंत्रण किया।
- यह न केवल उस समय की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक सत्ता थी बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक सेतु के रूप में भी कार्य करती थी।
- राष्ट्रकूट वंश ने दक्षिण भारत में उत्तर भारतीय परंपराओं और नीतियों को लागू किया और उनका विस्तार दिया।
- गौरतलब है कि इस वंश ने भारत में राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में स्थिरता और उपलब्धियों की नई ऊंचाइयों को छुआ।
राष्ट्रकूटों का शासनतंत्र
राष्ट्रकूटों ने एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली को जन्म दिया था। इस काल का प्रशासन राजतन्त्रात्मक था वहीं राजा को सभी अधिकार प्राप्त थे। वहीं राजपद आनुवंशिक होता था और शासन संचालन के लिए सम्पूर्ण राज्य को राष्ट्रों, विषयों, भूक्तियों तथा ग्रामों में विभाजित किया गया था। राष्ट्र, जिसे ‘मण्डल’ कहा जाता था, प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई थी।
वहीं प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘ग्राम’ थी। राष्ट्र के प्रधान को ‘राष्ट्रपति’ या ‘राष्ट्रकूट’ कहा जाता था। एक राष्ट्र चार या पाँच ज़िलों के बराबर होता था। पूर्व में राष्ट्र कई विषयों एवं ज़िलों में विभाजित था। एक विषय में 2000 गाँव होते थे। विषय का प्रधान ‘विषयपति’ कहलाता था। विषयपति की सहायता के लिए ‘विषय महत्तर’ होते थे। विषय को ग्रामों या भुक्तियों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति में लगभग 100 से 500 गाँव होते थे।
ये आधुनिक तहसील की तरह ही थे। भुक्ति के प्रधान को ‘भोगपति’ या ‘भोगिक’ कहा जाता था। इसका पद आनुवांशिक होता था। वेतन के बदले इन्हें ‘करमुक्त भूमि’ प्रदान की जाती थी। वहीं भुक्ति को भी छोटे-छोटे गाँव में बाँट दिया जाता था, जिनमें 10 से 30 गाँव होते थे। जिसमें नगर के अधिकारी को ‘नगरपति’ कहाँ जाता था।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘ग्राम’ होती थी। ग्राम के अधिकारी को ‘ग्रामकूट’, ‘ग्रामपति’, ‘गावुण्ड’ आदि नामों से पुकारा जाता था। इस काल में एक ग्राम सभा भी होती थी, जिसमें ग्राम के प्रत्येक परिवार का सदस्य होता था। बता दें कि गाँव की समस्याओं का निवारण करना इन्हीं का प्रमुख कार्य था।
राष्ट्रकूट वंश का विस्तार धर्म
राष्ट्रकूट शासकों के संरक्षण में हिंदू एवं जैन धर्म का अधिक विकास हुआ। उस समय हिंदू धर्म सर्वाधिक प्रचलित था और प्रारंभिक राष्ट्रकूट शासक हिंदू धर्म के अनुयायी थे तथा विष्णु एवं शिव की आराधना करते थ। राष्ट्रकूट शासक अपनी शासकीय मुद्राओं पर गरुढ़, शिव अथवा विष्णु के आयुधों का प्रयोग करते थे।
राष्ट्रकूट वंश में हिंदू धर्म के साथ ही जैन धर्म का भी अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। बता दें कि उस समय जैन घर्म को ‘राजकीय संरक्षण’ प्रदान था। राष्ट्रकूट शासक ‘अमोघवर्ष’ के समय में जैन धर्म का सर्वाधिक विकास हुआ। अमोघवर्ष के गुरु ‘जिनसेन’ जैन थे, जिन्होंने ‘आदि पुराण’ की रचना की थी। राष्ट्रकूट वंश के युवराज कृष्ण के अध्यापक ‘गुणभद्र’ प्रसिद्ध जैनाचार्य थे।
कला और साहित्य के क्षेत्र में योगदान
राष्ट्रकूट वंश में कई राजा अध्ययन और कला के प्रति समर्पित थे। द्वितीय राजा, ‘कृष्ण प्रथम’ (लगभग 756 से 773) ने एलोरा में चट्टान को काटकर ‘कैलाश मंदिर’ का निर्माण करवाया था। इस राजवंश के प्रसिद्ध शासक ‘अमोघवर्ष प्रथम’ ने, लगभग 814 से 878 तक शासन किया, और सबसे पुरानी ज्ञात कन्नड कविता ‘कविराजमार्ग’ के कुछ खंडों की रचना की थी।
उनके शासन काल में जैन गणितज्ञों और विद्वानों ने ‘कन्नड’ व ‘संस्कृत’ भाषाओं के साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उनकी ‘द्रविणन शैली’ की वास्तुकला आज भी मील का पत्थर मानी जाती है, जिसका एक प्रसिद्ध उदाहरण ‘एल्लोरा’ का ‘कैलाशनाथ मन्दिर’ है। अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में ‘महाराष्ट्र’ में स्थित ‘एलीफेंटा गुफाओं’ की मूर्तिकला तथा कर्नाटक के ‘पताद्क्कल’ में स्थित ‘काशी विश्वनाथ’ और ‘जैन मंदिर’ आदि आते हैं, इतना ही नहीं यह सभी ‘यूनेस्को’ की वर्ल्ड हेरिटेज साईट में भी शामिल हैं।
राष्ट्रकूट राजवंश का पतन
राष्ट्रकूट वंश के सम्राट खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ (968-972) अपनी राजधानी की रक्षा में विफल रहे और उनके शासन ने इस वंश पर से लोगों का विश्वास उठा दिया। युद्ध में पतन के बाद सम्राट भागकर पश्चिमी घाटों में चले गए, जहां उनका वंश साहसी गंग और कदंब वंशों के सहयोग से तब तक गुमनाम जीवन व्यतीत करता रहा, जब तक तैलप प्रथम चालुक्य ने लगभग 975 में सत्ता संघर्ष में विजय नहीं प्राप्त कर ली।
FAQs
सम्राट दन्तिदुर्ग राष्ट्रकूट साम्राज्य के संस्थापक माने जाते हैं।
राष्ट्रकूट वंश की राजधानी मनकिर या मान्यखेत (वर्तमान मालखेड़, शोलापुर के निकट) थी।
राष्ट्रकूट वंश के लोग कन्नड़ भाषा बोलते थे।
संस्कृत में ‘राष्ट्रकूट’ नाम का अर्थ है ‘देश’ (राष्ट्र) और ‘सरदार’ (कुटा)।
राष्ट्रकूट राजवंश ने 8वीं से 10वीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया। राष्ट्रकूट वंश के सम्राट कृष्ण ने एलोरा में प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण किया था। सुनहरा बाज़ राष्ट्रकूट का शाही प्रतीक था।
आशा है इस ब्लॉग से आपको राष्ट्रकूट राजवंश के बारे में बहुत सी जानकारी प्राप्त हुई होगी। भारत के इतिहास से जुड़े हुए ऐसे ही अन्य ब्लॉग पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहें।