Hindi Diwas Poems: हिंदी दिवस पर कविताएं, जो करेंगी भाषा के साहित्य का महिमामंडन

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Hindi Diwas Poems

Hindi Diwas Poems: हिंदी दिवस हमें एक ऐसा अवसर प्रदान करता है, जहाँ हम अपनी भाषा को नजदीक से जान पाते हैं। ‘हिन्दी भाषा’ के सम्मान और गौरवशाली इतिहास के संरक्षण के उद्देश्य से ही प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को ‘हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है। इस अवसर पर हम अपने भीतर हिंदी भाषा के प्रति सम्मान के भाव को मजबूती देने में सक्षम हो पाते हैं। इस अवसर पर दुनियाभर में रहने वाले हर हिंदी भाषी प्रेमियों को हिंदी भाषा के साहित्य के सौंदर्य की अनुभति करनी चाहिए। इस ब्लॉग में आप हिंदी दिवस पर कविताएं (Hindi Diwas Poems) पढ़ पाएंगे, जिनका उद्देश्य आपको हिंदी भाषा के महत्व को समझाना है। इस हिन्दी दिवस पर आप कुछ विशेष कविताएं पढ़कर हिंदी भाषा के महान साहित्य को निकट से समझ पाएंगे, जो हिन्दी भाषा के लिए आपकी रूचि बढ़ाने का काम करेंगी।

हिंदी दिवस पर कविताएं – Hindi Diwas Poems

हिंदी दिवस पर कविताएं (Hindi Diwas Poems) पढ़कर आप हिंदी भाषा के साहित्य के सौंदर्य से परिचित हो पाएंगे। ये कविताएं कुछ इस प्रकार हैं;

हिंदी दिवस पर कविताएँकवि/कवियत्री का नाम
मातृभाषामयंक विश्नोई
सपनेपाश
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूलभारतेंदु हरिश्चंद्र
नूतन वर्षाभिनंदनफणीश्वरनाथ रेणु
कलम, आज उनकी जय बोलरामधारी सिंह ‘दिनकर’

मातृभाषा

हिन्दी दिवस पर मातृभाषा का सही अर्थ समझना आवश्यक है, जो आप नीचे दी गई कविता के माध्यम से समझ सकते हैं-

“मानव का कल्याण करती है
प्रकाशित सारा संसार करती है
मातृभाषा करती है सभ्यताओं को सुशोभित
मातृभाषा ही विश्व का उद्धार करती है

जीवन में ज्ञान के प्रकाश को प्रज्वलित कर
अज्ञानता के अन्धकार का समूल नाश करती है
अंतर्मन की ध्वनि को भौतिक स्वरुप देकर
मातृभाषा भावनाओं का श्रृंगार करती है

मातृभाषा के सम्मान से ही होती नर की जयकार है
मातृभाषा पर हर नर का होता समान अधिकार है…”
-मयंक विश्नोई

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सपने

सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग को सपने नहीं आते

बदी के लिए उठी हुई
हथेली के पसीने को सपने नहीं आते
शेल्फ़ों में पड़े
इतिहास-ग्रंथों को सपने नहीं आते

सपनों के लिए लाज़िमी है
झेलने वाले दिलों का होना
सपनों के लिए
नींद की नज़र होना लाज़िमी है
सपने इसलिए
हर किसी को नहीं आते

-पाश

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।

-भारतेंदु हरिश्चंद्र

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नूतन वर्षाभिनंदन

नूतन का अभिनंदन हो
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो!
नव-स्फूर्ति भर दे नव-चेतन
टूट पड़ें जड़ता के बंधन;
शुद्ध, स्वतंत्र वायुमंडल में
निर्मल तन, निर्भय मन हो!

प्रेम-पुलकमय जन-जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!

प्रति अंतर हो पुलकित-हुलसित
प्रेम-दिए जल उठें सुवासित
जीवन का क्षण-क्षण हो ज्योतित,
शिवता का आराधन हो!
प्रेम-पुलकमय प्रति जन हो,
नूतन का अभिनंदन हो!

-फणीश्वरनाथ रेणु

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

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हिन्दी दिवस पर अटल बिहारी वाजपेयी की कविता

हिन्दी दिवस पर कविताएं (Hindi Diwas Poems) आपको हिंदी भाषा पर गर्व की अनुभूति कराएंगी। इस क्रम में हिन्दी दिवस पर अटल बिहारी वाजपेयी की कविता कुछ इस प्रकार है;

बनने चली विश्व भाषा जो,
अपने घर में दासी,
सिंहासन पर अंग्रेजी है,
लखकर दुनिया हांसी,

लखकर दुनिया हांसी,
हिन्दी दां बनते चपरासी,
अफसर सारे अंग्रेजी मय,
अवधी या मद्रासी,

गूंजी हिन्दी विश्व में
गूंजी हिन्दी विश्व में,
स्वप्न हुआ साकार;
राष्ट्र संघ के मंच से,
हिन्दी का जयकार;

हिन्दी का जयकार,
हिन्दी हिन्दी में बोला;
देख स्वभाषा-प्रेम,
विश्व अचरज से डोला;

कह कैदी कविराय,
मेम की माया टूटी;
भारत माता धन्य,
स्नेह की सरिता फूटी!
-अटल बिहारी वाजपेयी

हिन्दी दिवस पर गिरिजा कुमार माथुर की कविता

हिन्दी दिवस पर कविताएं (Hindi Diwas Poems) आपको हिंदी भाषा के समीप ले जाएंगी। इस क्रम में हिन्दी दिवस पर गिरिजा कुमार माथुर की कविता कुछ इस प्रकार है;

एक डोर में सबको जो है बाँधती
वह हिंदी है,
हर भाषा को सगी बहन जो मानती
वह हिंदी है।

भरी-पूरी हों सभी बोलियां
यही कामना हिंदी है,
गहरी हो पहचान आपसी
यही साधना हिंदी है,
सौत विदेशी रहे न रानी
यही भावना हिंदी है।

तत्सम, तद्भव, देश विदेशी
सब रंगों को अपनाती,
जैसे आप बोलना चाहें
वही मधुर, वह मन भाती,
नए अर्थ के रूप धारती
हर प्रदेश की माटी पर,
‘खाली-पीली-बोम-मारती’
बंबई की चौपाटी पर,
चौरंगी से चली नवेली
प्रीति-पियासी हिंदी है,
बहुत-बहुत तुम हमको लगती
‘भालो-बाशी’, हिंदी है।

उच्च वर्ग की प्रिय अंग्रेज़ी
हिंदी जन की बोली है,
वर्ग-भेद को ख़त्म करेगी
हिंदी वह हमजोली है,
सागर में मिलती धाराएँ
हिंदी सबकी संगम है,
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे
एक भरोसा अनुपम है,
गंगा कावेरी की धारा
साथ मिलाती हिंदी है,
पूरब-पश्चिम/ कमल-पंखुरी
सेतु बनाती हिंदी है।

– गिरिजा कुमार माथुर

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हिन्दी दिवस पर मैथिली शरण गुप्त की कविता

हिंदी दिवस पर कविताएं (Hindi Diwas Poems) आपको हिंदी भाषा का सम्मान करना सिखाएंगी। इस क्रम में हिन्दी दिवस पर मैथिली शरण गुप्त की कविता कुछ इस प्रकार है;

करो अपनी भाषा पर प्यार ।
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब व्यवहार ।।

जिसमें पुत्र पिता कहता है, पतनी प्राणाधार,
और प्रकट करते हो जिसमें तुम निज निखिल विचार ।
बढ़ायो बस उसका विस्तार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।

भाषा विना व्यर्थ ही जाता ईश्वरीय भी ज्ञान,
सब दानों से बहुत बड़ा है ईश्वर का यह दान ।
असंख्यक हैं इसके उपकार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।

यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान-प्रसाद,
और तुमहारा भी भविष्य को देगी शुभ संवाद ।
बनाओ इसे गले का हार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
-मैथिली शरण गुप्त

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हिन्दी दिवस पर देवमणि पांडेय की कविता

हिंदी दिवस पर कविताएं (Hindi Diwas Poems) आपको हिंदी भाषा से प्रेम करना सिखाएंगी। इस क्रम में हिन्दी दिवस पर देवमणि पांडेय की कविता कुछ इस प्रकार है;

हिंदी इस देश का गौरव है,
हिंदी भविष्य की आशा है।

हिंदी हर दिल की धड़कन है, हिंदी जनता की भाषा है।

इसको कबीर ने अपनाया
मीराबाई ने मान दिया।
आज़ादी के दीवानों ने
इस हिंदी को सम्मान दिया।

जन जन ने अपनी वाणी से हिंदी का रूप तराशा है।

हिंदी हर क्षेत्र में आगे है
इसको अपनाकर नाम करें।
हम देशभक्त कहलाएंगे
जब हिंदी में सब काम करें।

हिंदी चरित्र है भारत का, नैतिकता की परिभाषा है।

हिंदी हम सब की ख़ुशहाली
हिंदी विकास की रेखा है।
हिंदी में ही इस धरती ने
हर ख़्वाब सुनहरा देखा है।

हिंदी हम सबका स्वाभिमान, यह जनता की अभिलाषा है।
-देवमणि पांडेय

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हिंदी दिवस पर छोटी सी कविताएं

हिंदी दिवस पर छोटी सी कविताएं कुछ इस प्रकार हैं, जिन्हें पढ़कर आप इस भाषा का महत्व समझ सकते हैं –

जय हिंदी

संस्कृत से जन्मी है हिन्दी,
शुद्धता का प्रतीक है हिन्दी।
लेखन और वाणी दोनो को,
गौरान्वित करवाती हिन्दी।

उच्च संस्कार, वियिता है हिन्दी,
सतमार्ग पर ले जाती हिन्दी।
ज्ञान और व्याकरण की नदियाँ,
मिलकर सागर सोत्र बनाती हिन्दी।

हमारी संस्कृति की पहचान है हिन्दी,
आदर और मान है हिन्दी।
हमारे देश की गौरव भाषा,
एक उत्कृष्ट अहसास है हिन्दी।।

-प्रतिभा गर्ग

भाल का शृंगार

माँ भारती के भाल का शृंगार है हिंदी
हिंदोस्ताँ के बाग़ की बहार है हिंदी
घुट्टी के साथ घोल के माँ ने पिलाई थी
स्वर फूट पड़ रहा, वही मल्हार है हिंदी

तुलसी, कबीर, सूर औ' रसखान के लिए
ब्रह्मा के कमंडल से बही धार है हिंदी
सिद्धांतों की बात से न होयगा भला
अपनाएँगे न रोज़ के व्यवहार में हिंदी

कश्ती फँसेगी जब कभी तूफ़ानी भँवर में
उस दिन करेगी पार, वो पतवार है हिंदी
माना कि रख दिया है संविधान में मगर
पन्नों के बीच आज तार-तार है हिंदी

सुन कर के तेरी आह 'व्योम' थरथरा रहा
वक्त आने पर बन जाएगी तलवार ये हिंदी

-डॉ जगदीश व्योम

अभिनंदन अपनी भाषा का

करते हैं तन-मन से वंदन, जन-गण-मन की अभिलाषा का
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।

यह अपनी शक्ति सर्जना के माथे की है चंदन रोली
माँ के आँचल की छाया में हमने जो सीखी है बोली
यह अपनी बँधी हुई अंजुरी ये अपने गंधित शब्द सुमन
यह पूजन अपनी संस्कृति का यह अर्चन अपनी भाषा का।

अपने रत्नाकर के रहते किसकी धारा के बीच बहें
हम इतने निर्धन नहीं कि वाणी से औरों के ऋणी रहें
इसमें प्रतिबिंबित है अतीत आकार ले रहा वर्तमान
यह दर्शन अपनी संस्कृति का यह दर्पण अपनी भाषा का।

यह ऊँचाई है तुलसी की यह सूर-सिंधु की गहराई
टंकार चंद वरदाई की यह विद्यापति की पुरवाई
जयशंकर की जयकार निराला का यह अपराजेय ओज
यह गर्जन अपनी संस्कृति का यह गुंजन अपनी भाषा का।

-सोम ठाकुर

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