Gopal Singh Nepali Poems: देशप्रेम और संवेदनाओं की झलक प्रस्तुत करतीं गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं

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गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं

Gopal Singh Nepali Poems: कविताएं समाज का दर्पण बनकर क्रांति को नई दिशा देती हैं, और गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं इसका जीवंत उदाहरण हैं। गोपाल सिंह नेपाली हिंदी साहित्य के उन महान क्रांतिकारी कवियों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति, प्रेम, देशभक्ति और समाज के विभिन्न पहलुओं को जीवंत किया है। उनकी कविताओं को सरल भाषा, सहज प्रवाह और गहन भावनाओं का अद्भुत संगम माना जाता है। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘उमंग’, ‘पंछी’, ‘रागिनी’, ‘नवीन’ और ‘हिमालय ने पुकारा’ बेहद लोकप्रिय है। इस ब्लॉग में आप देशप्रेम और संवेदनाओं की झलक प्रस्तुत करतीं गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं (Gopal Singh Nepali Poems) पढ़ पाएंगे, जो उनके साहित्यिक योगदान और उत्तम काव्य शैली को दर्शाती हैं।

गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं – Gopal Singh Nepali Poems in Hindi

गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं (Gopal Singh Nepali Poems in Hindi) समाज का दर्पण कहलाती हैं, जिसने सदैव समाज का सच से सामना करवाया है, वे कुछ इस प्रकार हैं:-

  • युगांतर
  • मेरा देश बड़ा गर्वीला
  • हिंदी है भारत की बोली
  • दीपक जलता रहा रात भर
  • तू चिंगारी बनकर उड़ री
  • स्‍वतंत्रता का दीपक
  • नवीन कल्पना करो
  • शासन चलता तलवार से
  • मेरा धन है स्वाधीन क़लम
  • हिमालय और हम
  • हिमालय ने पुकारा
  • मन का पंछी
  • दिल चुरा कर न हमको
  • आज जवानी के क्षण में
  • मैं विद्युत् में तुम्हें निहारूँ
  • तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे
  • बहारें आएँगी, होंठों पे फूल खिलेंगे
  • कितना कोमल, कितना वत्सल
  • प्रिये तुम्हारी इन आँखों में
  • बदनाम रहे बटमार मगर
  • दो मेघ मिले बोले-डोले
  • कर्णधार तू बना तो
  • भाई-बहन
  • वसंत गीत
  • नई उमरिया प्यासी है
  • आ रहे तुम बनकर मधुमास
  • बाबुल तुम बगिया के तरुवर
  • दीपक जलता रहा रातभर
  • नवीन कल्पना करो
  • यह दिया बुझे नहीं
  • उस पार
  • सरिता
  • प्रार्थना बनी रही
  • गरीब का सलाम ले
  • मुसकुराती रही कामना
  • यह लघु सरिता का बहता जल
  • दूर जाकर न कोई बिसारा करे
  • मेरी दुल्‍हन सी रातों को…
  • अपनेपन का मतवाला
  • जय हे भारतमाता
  • दो प्राण मिले
  • कुछ मुक्तक
  • कवि की बरसगाँठ
  • मेरा देश बड़ा गर्वीला
  • कुछ ऐसा खेल रचो साथी
  • तारे चमके, तुम भी चमको
  • मैं प्यासा भृंग जनम भर का
  • शासन चलता तलवार से
  • तू पढ़ती है मेरी पुस्तक
  • चौपाटी का सूर्यास्त
  • तुम आग पर चलो
  • आगमन
  • निश्चय
  • मौलसिरी
  • हरी घास
  • पीपल
  • करुणा
  • देहात
  • तुलसीदास
  • दुनिया एक तुम्हारी आँखें
  • इस रिमझिम में चाँद हँसा है
  • यह दिल खोल तुम्हारा हँसना
  • बादल और पृथ्वी
  • आज तुम चलीं
  • उषा से
  • एक बार
  • अभागिनी
  • जल रहा है गाँव
  • मेघ और झरना
  • पहाड़ी कोयल
  • एक रुबाई
  • जवानियाँ
  • जिंदगी
  • दुखिया इत्यादि।

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गोपाल सिंह नेपाली की चुनिंदा कविताएं

यहाँ गोपाल सिंह नेपाली की चुनिंदा लोकप्रिय कविताएं (Gopal Singh Nepali Poems) दी गई हैं:-

युगांतर

अरे युगांतर, आ जल्दी अब खोल, खोल मेरा बंधन
बंधा हुआ इन जंजीरों से तड़प रहा कब से जीवन
देख, कटी पाँखें कैंची से उड़ सकता न जरा भी मन
भरा कान, पाँव है लंगड़ा, अँधा बना हुआ लोचन
ले जा यह तन ऐसा जीवन, बदले में दे जा यौवन
दे जा उस युग का मेरा मन, बदले में ले जा सब धन
आजा ला दे कण-कण में अब फ़िर से ऐसा परिवर्तन
मरता जहाँ आज यह जीवन वहाँ करे यौवन नर्तन
गोपाल सिंह नेपाली

मेरा देश बड़ा गर्वीला

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली

यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की

शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

खडी-खड़ी फुलवारी फूले, हार पिरोए बैठ गुजरिया
बरसाए जलधार बदरिया, भीगे जग की हरी चदरिया

तृण पर शबनम, तरु पर जुगनू, नीड़ रचाए तीली-तीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

घास-फूस की खड़ी झोपड़ी, लाज संभाले जीवन-भर की
कुटिया में मिट्टी के दीपक, मंदिर में प्रतिमा पत्थर की

जहाँ वास कँकड़ में हरि का, वहाँ नहीं चाँदी चमकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

जो कमला के चरण पखारे, होता है वह कमल-कीच में
तृण, तंदुल, ताम्बूल, ताम्र, तिल के दीपक बीच-बीच में

सीधी-सदी पूजा अपनी, भक्ति लजीली मूर्ति सजीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनोखा
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा

लाल-लाल बन जाए काले, गोरी सूरत पीली-नीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

दिवाली- दीपों का मेला, झिलमिल महल-कुटी-गलियारे
भारत-भर में उतने दीपक, जितने जलते नभ में तारे

सारी रात पटाखे छोडे, नटखट बालक उम्र हठीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

खंडहर में इतिहास सुरक्षित, नगर-नगर में नई रौशनी
आए-गए हुए परदेशी, यहाँ अभी भी वही चाँदनी

अपना बना हजम कर लेती, चाल यहाँ की ढीली-ढीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

मन में राम, बगल में गीता, घर-घर आदर रामायण का
किसी वंश का कोई मानव, अंश साझते नारायण का

ऐसे हैं भारत के वासी, गात गठीला, बाट चुटीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

आन कठिन भारत की लेकिन, नर-नारी का सरल देश है
देश और भी हैं दुनिया में, पर गाँधी का यही देश है

जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा

सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
गोपाल सिंह नेपाली

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हिंदी है भारत की बोली

दो वर्तमान का सत्‍य सरल,
सुंदर भविष्‍य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झुकने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

क्‍यों काट रहे पर पंछी के,
पहुंची न अभी यह गांवों तक
क्‍यों रखते हो सीमित इसको
तुम सदियों से प्रस्‍तावों तक
औरों की भिक्षा से पहले,
तुम इसे सहारे अपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

श्रृंगार न होगा भाषण से
सत्‍कार न होगा शासन से
यह सरस्‍वती है जनता की
पूजो, उतरो सिंहासन से
इसे शांति में खिलने दो
संघर्ष-काल में तपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

जो युग-युग में रह गए अड़े
मत उन्‍हीं अक्षरों को काटो
यह जंगली झाड़ न, भाषा है,
मत हाथ पांव इसके छांटो
अपनी झोली से कुछ न लुटे
औरों का इसमें खपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

इसमें मस्‍ती पंजाबी की,
गुजराती की है कथा मधुर
रसधार देववाणी की है,
मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर
साहित्‍य फलेगा फूलेगा
पहले पीड़ा से कंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

नादान नहीं थे हरिश्‍चंद्र,
मतिराम नहीं थे बुद्ध‍िहीन
जो कलम चला कर हिंदी में
रचना करते थे नित नवीन
इस भाषा में हर ‘मीरा’ को
मोहन की माल जपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

प्रतिभा हो तो कुछ सृष्‍ट‍ि करो
सदियों की बनी बिगाड़ो मत
कवि सूर बिहारी तुलसी का
यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत
भंडार भरो, जनमन की
हर हलचल पुस्‍तक में छपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

मृदु भावों से हो हृदय भरा
तो गीत कलम से फूटेगा
जिसका घर सूना-सूना हो
वह अक्षर पर ही टूटेगा
अधिकार न छीनो मानस का
वाणी के लिए कलपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

बढ़ने दो इसे सदा आगे
हिंदी जनमत की गंगा है
यह माध्‍यम उस स्‍वाधीन देश का
जिसकी ध्‍वजा तिरंगा है
हों कान पवित्र इसी सुर में
इसमें ही हृदय तड़पने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो
गोपाल सिंह नेपाली

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दीपक जलता रहा रात भर

दुख की घनी बनी अँधियारी
सुख के टिमटिम दूर सितारे
उठती रही पीर की बदली
मन के पंछी उड़-उड़ हारे
बची रही प्रिय आँखों से
मेरी कुटिया एक किनारे
मिलता रहा स्नेह-रस थोड़ा
दीपक जलता रहा रात भर

दुनिया देखी भी अनदेखी
नगर न जाना, डगर न जानी
रंग न देखा, रूप न देखा
केवल बोली ही पहचानी
कोई भी तो साथ नहीं था
साथी था आँखों का पानी
सूनी डगर, सितारे टिमटिम
पंथी चलता रहा रात भर

अगणित तारों के प्रकाश में
मैं अपने पथ पर चलता था
मैंने देखा, गगन-गली में
चाँद सितारों को छलता था
आँधी में, तूफ़ानों में भी
प्राण-दीप मेरा जलता था
कोई छली खेल में मेरी
दिशा बदलता रहा रात भर

मेरे प्राण मिलन के भूखे
ये आँखें दर्शन की प्यासी
चलती रहीं घटाएँ काली
अम्बर में प्रिय की छाया-सी
श्याम गगन से नयन जुड़ाए
जाग रहा अन्तर का वासी
काले मेघों के टुकड़ों से
चाँद निकलता रहा रात भर

छिपने नहीं दिया फूलों को
फूलों के उड़ते सुवास ने
रहने नहीं दिया अनजाना
शशि को शशि के मंद हास ने
भरमाया जीवन को दर-दर
जीवन की ही मधुर आस ने
मुझको मेरी आँखों का ही
सपना छलता रहा रात भर

होती रही रात भर चुपके
आँख-मिचौनी शशि-बादल में
लुटके-छिपते रहे सितारे
अम्बर के उड़ते आँचल में
बनती-मिटती रहीं लहरियाँ
जीवन की यमुना के जल में
मेरे मधुर मिलन का क्षण भी
पल-पल ढलता रहा रात भर

सूरज को प्राची में उठकर
पश्चिम ओर चला जाना है
रजनी को हर रोज़ रात भर
तारक-दीप जला जाना है
फूलों को धूलों में मिलकर
जग को दिल बहला जाना है
एक फूँक के लिए, प्राण का
दीप मचलता रहा रात भर
– गोपाल सिंह नेपाली

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तू चिंगारी बनकर उड़ री

तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला।

बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना।
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना।

भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है।
– गोपाल सिंह नेपाली

स्‍वतंत्रता का दीपक

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!

यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!

तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!

झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!
– गोपाल सिंह नेपाली

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नवीन कल्पना करो

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।

अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है
मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है
हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है
अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है

लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की
तुम कामना करो, किशोर कामना करो,
तुम कल्पना करो।

तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है
मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है
घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है
पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है

टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का
तुम साधना करो, अनंत साधना करो,
तुम कल्पना करो।

हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
तुम कल्पना करो।
– गोपाल सिंह नेपाली

शासन चलता तलवार से

शासन चलता तलवार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से।
चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तरवार से।।

यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की
फिर कमी रही कब भारत में सभ्यता, शांति, सदभावों की
पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, गोली चलती उस पार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तुम उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़ की पतवार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर
वह प्राप्ति सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर
चुप रहने को तो हम इतना चुप रहें कि मरघट शर्माए
बंदूकों से छूटी गोली कैसे चूमोगे प्यार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

मालूम हमें है तेज़ी से निर्माण हो रहा भारत का
चहुँ ओर अहिंसा के कारण गुणगान हो रहा भारत का
पर यह भी सच है, आज़ादी है, तो ही चल रही अहिंसा है
वरना अपना घर दीखेगा फिर कहाँ क़ुतुब मीनार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

स्वातंत्र्य न निर्धन की पत्नी कि पड़ोसी जब चाहें छेड़ें
यह वह पागलपन है जिसमें शेरों से लड़ जाती हैं भेड़ें
पर यहाँ ठीक इसके उल्टे, हैं भेड़ छेड़ने वाले ही
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई
जीवित है तो फिर कर लेंगे कल्पना नई, कामना नई
घर की है बात, यहाँ ‘बोतल’ पीछे भी पकड़ी जाएगी
पहले चलकर के सीमा पर सर झुकवा लो संसार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

फिर कहीं ग़ुलामी आई तो, क्या कर लेंगे हम निर्भय भी
स्वातंत्र्य सूर्य के साथ अस्त हो जाएगा सर्वोदय भी
इसलिए मोल आज़ादी का नित सावधान रहने में है
लड़ने का साहस कौन करे, फिर मरने को तैयार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तैयारी को भी तो थोड़ा चाहिए समय, साधन, सुविधा
इसलिए जुटाओ अस्त्र-शस्त्र, छोड़ो ढुलमुल मन की दुविधा
जब इतना बड़ा विमान तीस नखरे करता तब उड़ता है
फिर कैसे तीस करोड़ समर को चल देंगे बाज़ार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

हम लड़ें नहीं प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें
होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें
वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे, मिले, मृदु बात करे
बंदूक चलाने वाला माने बमबारी की मार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़
इसलिए वेद, गीता, कुर‍आन, दुनिया ने लिखे स्याही से
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।
– गोपाल सिंह नेपाली

मेरा धन है स्वाधीन क़लम

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
– गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली की कविता हिमालय और हम

गोपाल सिंह नेपाली की कविता हिमालय और हम एक अत्यंत प्रेरणादायक और भावनात्मक काव्य रचना है। इस कविता में कवि ने भारतीय संस्कृति, परंपरा, और हिमालय की अद्वितीयता का महिमामंडन किया है। बता दें कि कविता में हिमालय को केवल एक पर्वत नहीं, बल्कि भारतीय अस्मिता और आत्मा का प्रतीक बताया गया है। गोपाल सिंह नेपाली की कविता ‘हिमालय और हम’ कुछ इस प्रकार है:-

गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।

इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्‍तक नहीं झुकाता है।
ग‍िरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती।
फिर संध्‍या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्‍या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी?

इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्‍त अपनाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

हर संध्‍या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी।।
कोई क्‍या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्‍या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।

टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।

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आशा है कि आपको इस लेख में गोपाल सिंह नेपाली की चुनिंदा कविताएं (Gopal Singh Nepali Poems) पसंद आई होंगी। ऐसी ही अन्य लोकप्रिय हिंदी कविताओं को पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें। 

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