कविताएं समाज का दर्पण होती हैं, जो समाज के अच्छे-बुरे को ठीक वैसे ही दिखती हैं जैसी वास्तविकता में वह होती हैं। कविताएं ही समाज को संगठित रहने के साथ-साथ अन्याय का विरोध करना सिखाती हैं। यूँ तो हिंदी साहित्य में समय-समय पर ऐसे कई साहित्यकार या कवि हुए जिनकी रचनाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया, लेकिन आज हम इस ब्लॉग में जिन कवि के बारे में जानेंगे उनकी रचनाओं ने भारतीय समाज, संस्कृति, समाज के विभिन्न पहलुओं, मानवीय संवेदनाओं और आध्यात्मिकता पर अपना एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। हम जिनके बारे में इस ब्लॉग में जानेंगे उन महान साहित्यकार, कवि, लेखक, और नाटककार का नाम धर्मवीर भारती है, जिनकी कविताएं हिंदी और खड़ी बोली में समाज की जटिलताओं पर प्रकाश डालने का काम किया है। उनकी लोकप्रिय कविताओं में “ठंडा लोहा, सात गीत वर्ष, कनुप्रिया, सपना अभी भी” इत्यादि शामिल हैं। इस ब्लॉग में आपको धर्मवीर भारती की कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
This Blog Includes:
धर्मवीर भारती की कविता
धर्मवीर भारती की कविता जिन्होंने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं, वे हैं –
- ठण्डा लोहा
- तुम्हारे चरण
- प्रार्थना की कड़ी
- उदास मैं
- अगर डोला कभी इस राह से गुजरे
- क्योंकि सपना है अभी भी
- कन-कन तुम्हें जी कर
- उसी ने रचा है
- रवीन्द्र से
- अँजुरी भर धूप
- आँगन
- उतरी शाम
- उत्तर नहीं हूँ
- उदास तुम
- उपलब्धि
- एक वाक्य
- क्या इनका कोई अर्थ नहीं
- कविता की मौत
- गुनाह का गीत
- चुम्बन के दो उदात्त वैष्णवी बिम्ब
- टूटा पहिया
- डोले का गीत
- ढीठ चांदनी
- थके हुए कलाकार से
- दिन ढले की बारिश
- नवम्बर की दोपहर
- निराला के प्रति
- फागुन की शाम
- फिरोज़ी होठ
- बरसों के बाद उसी सूने-आंगन में
- बोआई का गीत
- ये अनजान नदी की नावें
- विदा देती एक दुबली बाँह
- शाम-दो मनःस्थितियाँ
- साँझ के बादल
- साबुत आईने
- सुभाष की मृत्यु पर इत्यादि।
यह भी पढ़ें : हिंदी साहित्य के विख्यात साहित्यकार ‘धर्मवीर भारती’ का संपूर्ण जीवन परिचय
ठण्डा लोहा
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा! मेरी स्वप्न भरी पलकों पर मेरे गीत भरे होठों पर मेरी दर्द भरी आत्मा पर स्वप्न नहीं अब गीत नहीं अब दर्द नहीं अब एक पर्त ठंडे लोहे की मैं जम कर लोहा बन जाऊँ- हार मान लूँ- यही शर्त ठंडे लोहे की ओ मेरी आत्मा की संगिनी! तुम्हें समर्पित मेरी सांस सांस थी, लेकिन मेरी सासों में यम के तीखे नेजे सा कौन अड़ा है? ठंडा लोहा! मेरे और तुम्हारे भोले निश्चल विश्वासों को कुचलने कौन खड़ा है? ठंडा लोहा! ओ मेरी आत्मा की संगिनी! अगर जिंदगी की कारा में कभी छटपटाकर मुझको आवाज़ लगाओ और न कोई उत्तर पाओ यही समझना कोई इसको धीरे धीरे निगल चुका है इस बस्ती में दीप जलाने वाला नहीं बचा है सूरज और सितारे ठंढे राहे सूनी विवश हवाएं शीश झुकाए खड़ी मौन हैं बचा कौन है? ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
-धर्मवीर भारती
तुम्हारे चरण
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव, मेरी गोद में! ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव, मेरी गोद में! दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव, मेरी गोद में! रसमसाती धूप का ढलता पहर, ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं रोशनी के फूल हरसिंगार-से, प्यार घायल साँप-सा लेता लहर, अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से, सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान, मेरी गोद में! हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान, मेरी गोद में! ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में, झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो, अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं या फ़रिश्तों के परों की छाँह में दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो, देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं। चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब, मेरी गोद में! सात रंगों की महावर से रचे महताब, मेरी गोद में! ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या? ये महज आराधना के वास्ते, जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने, ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने! ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में! रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में!
-धर्मवीर भारती
प्रार्थना की कड़ी
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन, फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूबकर मिलती मुझे राहत बड़ी! प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में, यदि मुझे मिलती रहे काले तमस की छाँह में ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी! प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी- घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी- जन्म-जन्मों की अधूरी साधना, पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में! ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी- प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!
-धर्मवीर भारती
उदास मैं
शाम है, मैं उदास हूँ शायद...! अजनबी लोग अभी कुछ आयें देखिए अनछुए हुए सम्पुट कौन मोती सहेजकर लायें कौन जाने कि लौटती बेला कौन-से तार कहाँ छू जायें! बात कुछ और छेड़िए तब तक हो दवा ताकि बेकली की भी, द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए ताकि आहट मिले गली की भी - देखिए आज कौन आता है - कौन-सी बात नयी कह जाये, या कि बाहर से लौट जाता है देहरी पर निशान रह जाये, देखिए ये लहर डुबोये, या सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये, कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें या लहर सिर्फ़ फेनावली हो अधखिले फूल-सी विनत अंजुली कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो? वक़्त अब बीत गया बादल भी क्या उदास रंग ले आये, देखिए कुछ हुई है आहट-सी कौन है? तुम? चलो भले आये! अजनबी लौट चुके द्वारे से दर्द फिर लौटकर चले आये क्या अजब है पुकारिए जितना अजनबी कौन भला आता है एक है दर्द वही अपना है लौट हर बार चला आता है अनखिले गीत सब उसी के हैं अनकही बात भी उसी की है अनउगे दिन सब उसी के हैं अनहुई रात भी उसी की है जीत पहले-पहल मिली थी जो आखिरी मात भी उसी की है एक-सा स्वाद छोड़ जाती है ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी लोग आये गये बराबर हैं शाम गहरा गयी, उदासी भी!
-धर्मवीर भारती
अगर डोला कभी इस राह से गुजरे
अगर डोला कभी इस राह से गुजरे कुवेला, यहाँ अम्बवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना, मिलो जब गाँव भर से बात कहना, बात सुनना भूल कर मेरा न हरगिज नाम लेना अगर कोई सखी कुछ जिक्र मेरा छेड़ बैठे, हँसी में टाल देना बात, आँसू थाम लेना शाम बीते, दूर जब भटकी हुई गायें रंभाएं नींद में खो जाये जब खामोश डाली आम की, तड़पती पगडंडियों से पूछना मेरा पता, तुमको बताएंगी कथा मेरी व्यथा हर शाम की पर न अपना मन दुखाना, मोह क्या उसका की जिसका नेह छूटा, गेह छूटा हर नगर परदेश है जिसके लिए, हर डगरिया राम की भोर फूटे भाभियां जब गोद भर आशीष दे दे, ले विदा अमराइयों से चल पड़े डोला हुमच कर, है कसम तुमको, तुम्हारे कोंपलों से नैन में आँसू न आये राह में पाकड़ तले सुनसान पा कर प्रीत ही सब कुछ नहीं है, लोक की मरजाद है सबसे बड़ी बोलना रुन्धते गले से ले चलो जल्दी चलो पी के नगर पी मिलें जब, फूल सी अंगुली दबा कर चुटकियाँ लें और पूछे क्यों कहो कैसी रही जी यह सफ़र की रात? हँस कर टाल जाना बात, हँस कर टाल जाना बात, आँसू थाम लेना यहाँ अम्बवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना, अगर डोला कभी इस राह से गुजरे
-धर्मवीर भारती
यह भी पढ़ें : भारतीय संस्कृति की सजीव झलक प्रस्तुत करती रामनरेश त्रिपाठी की कविताएं
धर्मवीर भारती की कविताएं
धर्मवीर भारती की कविताएं समाज को आइना दिखाने का काम करती हैं, साथ ही इनकी कविताएं आपको प्रेरित करेंगी। धर्मवीर भारती की कविताएं कुछ इस प्रकार हैं –
उतरी शाम
झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई खोतों पर अँधियारी छाई पश्चिम की सुनहरी धुंधराई टीलों पर, तालों पर इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर धीरे-धीरे उतरी शाम! आँचल से छू तुलसी की थाली दीदी ने घर की ढिबरी बाली जमुहाई ले लेकर उजियाली जा बैठी ताखों में धीरे-धीरे उतरी शाम! इस अधकच्चे से घर के आंगन में जाने क्यों इतना आश्वासन पाता है यह मेरा टूटा मन लगता है इन पिछले वर्षों में सच्चे झूठे संघर्षों में इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने जो अब छुककर मेरे सिराहने कहती है "भटको बेबात कहीं लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं!" धीरे धीरे उतरी शाम!
-धर्मवीर भारती
उत्तर नहीं हूँ
उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही! नये-नये शब्दों में तुमने जो पूछा है बार-बार पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही! तुमने गढ़ा है मुझे किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया या फूल की तरह मुझको बहा नहीं दिया प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है सहज बनाया है गहरा बनाया है प्रश्न की तरह मुझको अर्पित कर डाला है सबके प्रति दान हूँ तुम्हारा मैं जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं दे डाला! उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
–धर्मवीर भारती
उदास तुम
तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास! ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास मदभरी चांदनी जगती हो! मुँह पर ढँक लेती हो आँचल ज्यों डूब रहे रवि पर बादल, या दिन-भर उड़कर थकी किरन, सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन! दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास! तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास! खारे आँसू से धुले गाल रूखे हलके अधखुले बाल, बालों में अजब सुनहरापन, झरती ज्यों रेशम की किरनें, संझा की बदरी से छन-छन! मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास! तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास! भँवरों की पाँतें उतर-उतर कानों में झुककर गुनगुनकर हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी? उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी? चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस? तुम कितनी सुन्दर लगती हो ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास मदभरी चाँदनी जगती हो!
-धर्मवीर भारती
यह भी पढ़ें : दुष्यंत कुमार की कविताएं, जो आपको प्रेरित करेंगी
उपलब्धि
मैं क्या जिया? मुझको जीवन ने जिया- बूँद-बूँद कर पिया, मुझको पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया मैं क्या जला? मुझको अग्नि ने छला - मैं कब पूरा गला, मुझको थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया देखो मुझे हाय मैं हूँ वह सूर्य जिसे भरी दोपहर में अँधियारे ने तोड़ दिया!
-धर्मवीर भारती
गुनाह का गीत
अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो? महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो? तुम्हारा मन अगर सींचूँ गुलाबी तन अगर सींचूँ तरल मलयज झकोरों से! तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल किसी के होठ पर झुक जाएँ कच्चे नैन के बादल महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो? महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो? किसी की गोद में सिर धर घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए? न हो यह वासना तो ज़िन्दगी की माप कैसे हो? किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो? नसों का रेशमी तूफ़ान मुझ पर शाप कैसे हो? किसी की साँस मैं चुन दूँ किसी के होठ पर बुन दूँ अगर अँगूर की पर्तें प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें यहाँ तो हर क़दम पर स्वर्ग की पगडण्डियाँ घूमीं अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो? महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
-धर्मवीर भारती
आँगन
बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में जाकर चुपचाप खड़े होना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन का कोना-कोना कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना फिर आकर बाँहों में खो जाना अकस्मात् मण्डप के गीतों की लहरी फिर गहरा सन्नाटा हो जाना दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना, कँपना, बेबस हो गिर जाना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन को कोना-कोना बरसों के बाद उसी सूने-से आँगन में जाकर चुपचाप खड़े होना!
-धर्मवीर भारती
अँजुरी भर धूप
आँजुरी भर धूप-सा मुझे पी लो! कण-कण मुझे जी लो! जितना हुआ हूँ मैं आज तक किसी का भी- बादल नहाई घाटियों का, पगडंडी का, अलसाई शामों का, जिन्हें नहीं लेता कभी उन भूले नामों का, जिनको बहुत बेबसी में पुकारा है जिनके आगे मेरा सारा अहम् हारा है, गजरे-सी बाँहों का रंग-रचे फूलों का बौराए सागर के ज्वार-धुले कूलों का, हरियाली छाहों का अपने घर जानेवाली प्यारी राहों का- जितना इन सबका हूँ उतना कुल मिलाकर भी थोड़ा पड़ेगा मैं जितना तुम्हारा हूँ जी लो मुझे कण-कण अँजुरी भर पी लो!
-धर्मवीर भारती
यह भी पढ़ें : सुमित्रानंदन पंत की वो महान कविताएं, जो आपको जीने का एक मकसद देंगी
संबंधित आर्टिकल
आशा है कि इस ब्लॉग के माध्यम से आप धर्मवीर भारती की कविता पढ़ पाए होंगे। इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।