धर्मवीर भारती की कविता, जो बनी हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर

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धर्मवीर भारती की कविता

धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य के उन महान साहित्यकारों में से एक थे, जिनकी रचनाओं ने समाज, संवेदना और आध्यात्मिकता को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। धर्मवीर भारती की कविताएँ हिंदी और खड़ी बोली में समाज की जटिलताओं पर प्रकाश डालने का काम करती हैं। धर्मवीर भारती उन कवियों में से एक हैं, जिन्हें आधुनिक काल का कवि कहा जाता है। उनकी लोकप्रिय कविताओं में “ठंडा लोहा, सात गीत वर्ष, कनुप्रिया, सपना अभी भी” इत्यादि शामिल हैं। इस ब्लॉग में आपको धर्मवीर भारती की कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।

धर्मवीर भारती की कविता

धर्मवीर भारती की कविता जिन्होंने आज भी लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं, वे हैं –

  • अँजुरी भर धूप
  • आँगन
  • उतरी शाम
  • उत्तर नहीं हूँ
  • उदास तुम
  • उपलब्धि
  • एक वाक्य
  • क्या इनका कोई अर्थ नहीं
  • कविता की मौत
  • गुनाह का गीत
  • चुम्बन के दो उदात्त वैष्णवी बिम्ब
  • टूटा पहिया
  • डोले का गीत
  • ढीठ चांदनी
  • तुम्हारे चरण
  • थके हुए कलाकार से
  • दिन ढले की बारिश
  • नवम्बर की दोपहर
  • निराला के प्रति
  • प्रार्थना की कड़ी
  • फागुन की शाम
  • फिरोज़ी होठ
  • बरसों के बाद उसी सूने-आंगन में
  • बोआई का गीत
  • ये अनजान नदी की नावें
  • विदा देती एक दुबली बाँह
  • शाम-दो मनःस्थितियाँ
  • साँझ के बादल
  • साबुत आईने
  • सुभाष की मृत्यु पर इत्यादि।

यह भी पढ़ें : हिंदी साहित्य के विख्यात साहित्यकार ‘धर्मवीर भारती’ का संपूर्ण जीवन परिचय

उतरी शाम

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई
खोतों पर अँधियारी छाई
पश्चिम की सुनहरी धुंधराई
टीलों पर, तालों पर
इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर
धीरे-धीरे उतरी शाम!

आँचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जमुहाई ले लेकर उजियाली
जा बैठी ताखों में
धीरे-धीरे उतरी शाम!

इस अधकच्चे से
घर के आंगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब छुककर मेरे सिराहने
कहती है
” भटको बेबात कहीं
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं!”
धीरे धीरे उतरी शाम!

-धर्मवीर भारती

उत्तर नहीं हूँ

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया
प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है
प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति
दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला!
उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

धर्मवीर भारती

उदास तुम

तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास!
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चांदनी जगती हो!

मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन!
दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास!
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास!

खारे आँसू से धुले गाल
रूखे हलके अधखुले बाल,
बालों में अजब सुनहरापन,
झरती ज्यों रेशम की किरनें, संझा की बदरी से छन-छन!
मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास!
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास!

भँवरों की पाँतें उतर-उतर
कानों में झुककर गुनगुनकर
हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी?
उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी?
चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस?
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो!

-धर्मवीर भारती

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उपलब्धि

मैं क्या जिया?

मुझको जीवन ने जिया-
बूँद-बूँद कर पिया, मुझको
पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया

मैं क्या जला?
मुझको अग्नि ने छला –
मैं कब पूरा गला, मुझको
थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया

देखो मुझे
हाय मैं हूँ वह सूर्य
जिसे भरी दोपहर में
अँधियारे ने तोड़ दिया!

-धर्मवीर भारती

गुनाह का गीत

अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

तुम्हारा मन अगर सींचूँ
गुलाबी तन अगर सींचूँ तरल मलयज झकोरों से!
तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से
कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल
उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल
किसी के होठ पर झुक जाएँ कच्चे नैन के बादल
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

किसी की गोद में सिर धर
घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए
धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए?
न हो यह वासना तो ज़िन्दगी की माप कैसे हो?
किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो?
नसों का रेशमी तूफ़ान मुझ पर शाप कैसे हो?

किसी की साँस मैं चुन दूँ
किसी के होठ पर बुन दूँ अगर अँगूर की पर्तें
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
यहाँ तो हर क़दम पर स्वर्ग की पगडण्डियाँ घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं
अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

-धर्मवीर भारती

आँगन

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना

कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाँहों में खो जाना
अकस्मात् मण्डप के गीतों की लहरी
फिर गहरा सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,
कँपना, बेबस हो गिर जाना

रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन को कोना-कोना
बरसों के बाद उसी सूने-से आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना!

-धर्मवीर भारती

अँजुरी भर धूप

आँजुरी भर धूप-सा
मुझे पी लो!
कण-कण
मुझे जी लो!
जितना हुआ हूँ मैं आज तक किसी का भी-
बादल नहाई घाटियों का,
पगडंडी का,
अलसाई शामों का,
जिन्हें नहीं लेता कभी उन भूले नामों का,

जिनको बहुत बेबसी में पुकारा है
जिनके आगे मेरा सारा अहम्‌‌ हारा है,
गजरे-सी बाँहों का
रंग-रचे फूलों का
बौराए सागर के ज्वार-धुले कूलों का,
हरियाली छाहों का
अपने घर जानेवाली प्यारी राहों का-

जितना इन सबका हूँ
उतना कुल मिलाकर भी थोड़ा पड़ेगा
मैं जितना तुम्हारा हूँ
जी लो
मुझे कण-कण
अँजुरी भर
पी लो!

-धर्मवीर भारती

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