बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएं : राष्ट्रीय चेतना और मानवीय मूल्यों का अलौकिक संगम

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बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएं

पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की गिनती द्विवेदी युग के लोकप्रिय कवि, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानियों में की जाती है, जिन्होंने अपनी रचनाओं के बल पर सोए समाज की चेतना को जगाए रखने का काम किया। हिंदी साहित्य की अनमोल मणियों में से एक पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से देशभक्ति, समाज सुधार, और मानवता जैसे महत्वपूर्ण विषयों को उजागर किया। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की सरल और सहज भाषा शैली के कारण ही उनकी रचनाओं ने भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों ‘कुंकुम’, ‘रश्मिरेखा’, ‘अपलक’ और ‘क्वासि’ ने उनकी लोकप्रियता को नए आयाम पर पहुँचाने का काम किया। इस ब्लॉग में आपको बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएं पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।

बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएं

बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएं जिन्होंने लोगों के दिलों में अपना विशेष स्थान बनाया है, वे कुछ इस प्रकार हैं –

  • अरे तुम हो काल के भी काल
  • विप्लव गायन
  • भिक्षा
  • हम अनिकेतन
  • फागुन
  • ओस बिंदु सम ढरके
  • असिधारा पथ
  • क्रांति?
  • विद्रोही
  • प्राप्तव्य
  • शिखर पर
  • मंद ज्योति
  • राखी की सुध
  • एक बार तो देख
  • अपना मृदु गोपाल
  • हम हैं मस्त फ़कीर
  • सुनो, सुनो ओ सोनेवालो!
  • प्रिय, जीवन-नद अपार
  • मधुमय स्वप्न रंगीले
  • ओ मज़दूर किसान, उठो
  • साजन लेंगे जोग री
  • मेह की झड़ी लगी
  • पराजय-गीत
  • सदा चाँदनी
  • घन गरजे
  • मन मीन
  • हिंडोला
  • दोहे इत्यादि।

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अरे तुम हो काल के भी काल

कौन कहता है की तुमको खा सकेगा काल ?
अरे? तुम हो काल के भी काल अति विकराल
काल का तब धनुष, दिक् की है धनुष की डोर;
धनु-विकंपन से सिहरती सृजन-नाश-हिलोर!
तुम प्रबल दिक्-काल-धनु-धारी सुधन्वा वीर;
तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर!

क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक?
क्या समझते हो की होगे नष्ट तुम अकलंक?
यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत!
और तुम? तुम हो चिरंतन अभयता के स्त्रोत!!
एक क्षण को भी न सोचो की तुम होगे नष्ट,
तुम अनश्वर हो! तुम्हारा भाग्य है सुस्पष्ट!

चिर विजय दासी तुम्हारी, तुम जयी उद्बुद्ध,
क्यों बनो हट आश तुम, लख मार्ग निज अवरुद्ध?
फूँक से तुमने उड़ाई भूधरों की पाँत;
और तुमने खींच फेंके काल के भी दाँत;
क्या करेगा यह बिचारा तनिक सा अवरोध?
जानता है जग तुम्हारा है भयंकर क्रोध!

जब करोगे क्रोध तुम, तब आएगा भूडोल,
काँप उठेंगे सभी भूगोल और खगोल,
नाश की लपटें उठेंगी गगन-मंडल बीच;
भस्म होंगी ये असामाजिक प्रथाएँ नीच!
औ पधारेगा सृजन कर अग्नि से सुस्नान;
मत बनो गत आश! तुम हो चिर अनंत महान!

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

विप्लव गायन

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए,
एक हिलोर उधर से आए,

प्राणों के लाले पड़ जाएँ,
त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का –
धुँआधार जग में छा जाए,

बरसे आग, जलद जल जाएँ,
भस्मसात भूधर हो जाएँ,
पाप-पुण्य सद्सद भावों की,
धूल उड़ उठे दायें-बायें,

नभ का वक्षस्थल फट जाए-
तारे टूक-टूक हो जाएँ
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए।

माता की छाती का अमृत-
मय पय काल-कूट हो जाए,
आँखों का पानी सूखे,
वे शोणित की घूँटें हो जाएँ,

एक ओर कायरता काँपे,
गतानुगति विगलित हो जाए,
अंधे मूढ़ विचारों की वह
अचल शिला विचलित हो जाए,

और दूसरी ओर कंपा देने
वाला गर्जन उठ धाए,
अंतरिक्ष में एक उसी नाशक
तर्जन की ध्वनि मंडराए,

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए,

नियम और उपनियमों के ये
बंधक टूक-टूक हो जाएँ,
विश्वंभर की पोषक वीणा
के सब तार मूक हो जाएँ

शांति-दंड टूटे उस महा-
रुद्र का सिंहासन थर्राए
उसकी श्वासोच्छ्वास-दाहिका,
विश्व के प्रांगण में घहराए,

नाश! नाश!! हा महानाश!!! की
प्रलयंकारी आँख खुल जाए,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल-पुथल मच जाए।

सावधान! मेरी वीणा में,
चिनगारियाँ आन बैठी हैं,
टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ
दोनों मेरी ऐंठी हैं।

कंठ रुका है महानाश का
मारक गीत रुद्ध होता है,
आग लगेगी क्षण में, हृत्तल
में अब क्षुब्ध युद्ध होता है,

झाड़ और झंखाड़ दग्ध हैं –
इस ज्वलंत गायन के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है
निकली मेरे अंतरतर से!

कण-कण में है व्याप्त वही स्वर
रोम-रोम गाता है वह ध्वनि,
वही तान गाती रहती है,
कालकूट फणि की चिंतामणि,

जीवन-ज्योति लुप्त है – अहा!
सुप्त है संरक्षण की घड़ियाँ,
लटक रही हैं प्रतिपल में इस
नाशक संभक्षण की लड़ियाँ।

चकनाचूर करो जग को, गूँजे
ब्रह्मांड नाश के स्वर से,
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है
निकली मेरे अंतरतर से!

दिल को मसल-मसल मैं मेंहदी
रचता आया हूँ यह देखो,
एक-एक अंगुल परिचालन
में नाशक तांडव को देखो!

विश्वमूर्ति! हट जाओ!! मेरा
भीम प्रहार सहे न सहेगा,
टुकड़े-टुकड़े हो जाओगी,
नाशमात्र अवशेष रहेगा,

आज देख आया हूँ – जीवन
के सब राज़ समझ आया हूँ,
भ्रू-विलास में महानाश के
पोषक सूत्र परख आया हूँ,

जीवन गीत भूला दो – कंठ,
मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है,
निकली मेरे अंतरतर से!

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

भिक्षा

भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर,
विश्व-वेदना के कल जल से
आप्लावित कर दो अभ्यंतर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।

छलका दो मेरी वाणी में
अचर-सचर की विगलित करुणा
समवेदना-भावना से तुम कंपित
कर दो यह हिय थर-थर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।

नभ-जल-थल से अनिल-अनल में
करुण मोहिनी छवि दिखला दो,
पुलक-पुलक बह आने दो, प्रिय,
मेरे नयनों का लघु निर्झर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।

इठलाते कुसुमों का मादक
परिमल मन-नभ में फैला है,
अपनी निर्गुण गंध-किरण से
चिर निर्धूम करो मम अंबर,
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।

मेरी मुग्धा व्यथा परिधिगत
हुई – उसे नि:सीम बना दो,
मुक्त करो, प्रिय, मुक्त करो मम
करुणा-वीणा के ये सुस्वर
भर दो, प्रिय, भर दो अंतरतर।

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

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हम अनिकेतन

हम निकेतन, हम अनिकेतन
हम तो रमते राम हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन?

अब तक इतनी योंही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी
कौन बनाए आज घरौंदा हाथों चुन-चुन कंकड़ माटी
ठाट फकीराना है अपना वाघांबर सोहे अपने तन?

देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मज़े के
संग्रह के सब विग्रह देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे
लालच लगा कभी पर हिय में मच न सका शोणित-उद्वेलन!

हम जो भटके अब तक दर-दर, अब क्या खाक बनाएँगे घर
हमने देखा सदन बने हैं लोगों का अपनापन लेकर
हम क्यों सने ईंट-गारे में हम क्यों बने व्यर्थ में बेमन?

ठहरे अगर किसीके दर पर कुछ शरमाकर कुछ सकुचाकर
तो दरबान कह उठा, बाबा, आगे जो देखा कोई घर
हम रमता बनकर बिचरे पर हमें भिक्षु समझे जग के जन!
हम अनिकेतन!

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

फागुन

अरे ओ निरगुन फागुन मास!
मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास,
अरे ओ निरगुन फागुन मास!

यहाँ राग रस-रंग कहाँ है?
झांझ न मदिर मृदंग यहाँ है,
अरे चतुर्दिक फैल रही यह
मौन भावना जहाँ-तहाँ है।
इस कुदेश में मत आ तू रस-वश हँसता सोल्लास,
अरे ओ भोले फागुन मास!

कोल्हू में जीवन के कण-कण,
तैल-तैल हो जाते क्षण-क्षण।
प्रतिदिन चक्की के धर्मट में-
पिस जाता गायन का निक्वण,
फाग सुहाग भरी होली का यहाँ कहाँ रस-रास?
अरे ओ, मुखरित फागुन मास!

रामबांस की कठिन गांस में,
मूँज-वान की प्रखर फांस में,
अटकी हैं जीवन की घड़ियाँ,
यहाँ परिश्रम-रुद्ध सांस में।
यहाँ न फैला तू वह अपना लाल गुलाल-विलास,
अरे, अरुणारे फागुन मास!

छाई जंज़ीरों की झन-झन,
डंडा-बेड़ी की यह धन-धन,
गर्रे का अर्राटा फैला,
यहाँ कहाँ पनघट की खन-खन?
कैसे तुझको यहाँ मिलेगा होली का आभास,
अरे, हरियारे फागुन मास!

यह निर्बंध भावना ही की,
चपल तरंगें अपने जी की,
इन तालों-जंगलों के भीतर-
घुँट-घुँट सतत हो गईं फीकी,
अब तू क्यों मदमाता तांडव करता, रे, सायास?
अरे, मतवाले फागुन मास?

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

ओस बिंदु सम ढरके

हम तो ओस-बिंदु सम ढरके
आए इस जड़ता में चेतन तरल रूप कुछ धर के!

क्या जाने किसने मनमानी कर हमको बरसाया
क्या जाने क्यों हमको इस भव-मरुथल में सरसाया
बाँध हमें जड़ता बंधन में किसने यों तरसाया
कौन खिलाड़ी हमको सीमा-बंधन दे हरषाया
किसका था आदेश कि उतरे हम नभ से झर-झरके?

आज वाष्प वन उड़ जाने की साध हिये उठ आई
मन पंछी ने पंख तौलने की रट आज लगाई
क्या इस अनाहूत ने आमंत्रण की ध्वनि सुन पाई
अथवा आज प्रयाण-काल की नव शंख-ध्वनि छाई

मन पंछी ने पंख तौलने की रट आज लगाई
क्या इस अनाहूत ने आमंत्रण की ध्वनि सुन पाई
अथवा आज प्रयाण-काल की नव शंख-ध्वनि छाई
लगता है मानो जागे हैं स्मरण आज नंबर के।

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

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असिधारा पथ

ओ असिधारा-पथ के गामी!
विकट सुभट तुम, अथक पथिक तुम कंटक-कीर्णित मग-अनुगामी
ओ असिधारा-पथ के गामी!

तुम विकराल मृत्यु आसन के साधक, तुम नवजीवन-दानी
तुम विप्लव के परम प्रवर्तक, चरम शांति के निष्ठुर स्वामी!
ओ असिधारा-पथ के गामी!

शत-शत शताब्दियों के पातक पुंज हो रहे पानी-पानी,
अंजलि भर-भर जीवन शोणित देने वाले ओ निष्कामी!
तुम असिधारा-पथ के गामी!

हे प्रचंड उद्दंड, अखंड महाव्रत के पालक विज्ञानी,
तड़प उठा है सब जग ज़रा ठहर जाओ, हे मौन अनामी!
तुम असिधारा-पथ के गामी!

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

क्रांति?

क्रांति? क्रांति? मेरे आँगन में
यह कैसा हुंकार मचा?
बोलो तो यह किसने अपने
श्वासों का फुंकार रचा?

झंकारों, धनु टंकारों का
यह चिर परिचित स्वर छाया;
रण-भेरी का यह भैरव-रव,
कहो कहाँ से घिर आया?

क्या सचमुच ही महा प्रलय की आँधी उठ आयी क्षण में?
ऐं? क्या महा क्रांति मतवाली आयी मेरे प्रांगण में?

क्रांति जगी, आँधी आयी, यह
उठी ज्वाल, चीत्कार हुआ;
नभ काँपा धरती भर्रायी,
जग में हाहाकार हुआ;

वार हुए छाती पर; मन के
मंसूबे मिस्मार हुए;
प्रलयंकर प्रवाह में पड़कर
कितने बे-घर-बार हुए?

शोक कहाँ? वेदना कहाँ है? मिटने का उल्लास यहाँ;
मोह उठा, सब पाप कटा, अब रहा न जीवन-त्रास यहाँ!

आओ क्रांति, बलाएँ ले लूँ,
अनाहूत आ गयी भली;
वास करो मेरे घर-आँगन,
बिचरो मेरी गली-गली;

सड़ी-गली परिपाटी मेरी,
इसे भस्म तुम कर जाओ;
विकट राज-पथ में मँडराओ
जन-पद में डोलो आओ;

नयी अग्नि ज्वाला भड़का दो तुम मेरे अंतरतर में
अरी, नये नक्षत्र जगा दो मेरे धूमिल अंबर में।

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

विद्रोही

हम ज्योति पुंज दुर्दम, प्रचंड,
हम क्रांति-वज्र के घन प्रहार,
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम गरज उठे कर घोर नाद,
हम कड़क उठे, हम कड़क उठे,
अंबर में छायी ध्वनि-ज्वाला,
हम भड़क उठे, हम भड़क उठे!

हम वज्रपाणि हम कुलिश हृदय,
हम दृढ़ निश्चय, हम अचल, अटल
हम महाकाल के व्याल रूप,
हम शेषनाग के अतुल गरल!

हम दुर्गा के भीषण नाहर,
हम सिंह-गर्जना के प्रसार
हम जनक प्रलय-रण-चंडी के,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हमने गति देकर चलित किया
इन गतिविहीन ब्रह्मांडों को,
हमने ही तो है सृजित किया
रज के इन वर्तुल भांडों को;

हमने नव-सृजन-प्रेरणा से
छिटकाये तारे अंबर में,
हम ही विनाश भर आए हैं
इस निखिल विश्व-आडंबर में;

हम स्रष्टा हैं, प्रलयंकर हम,
हम सतत क्रांति की प्रखर धार
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हमने अपने मन में की ‘हाँ!’
औ’ प्रकृति नर्तकी नाच उठी!
हमने अपने मन में की ‘ना!’
औ’ महाप्रलय की आँच उठी!

जग डग-मग-डग-मग होता है
अपने इन भृकुटि-विलासों से,
सिरजन, विनाश, होने लगते
इन दायीं-बायीं श्वासों से;

हम चिर विजयी; कर सका कौन
हठ ठान हमारा प्रतीकार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

अपने शोणित से ऊषा को
हम दे आये कुंकुम-सुहाग,
आदर्शों के उद्दीपन से
हमने रवि को दी अमित आग;

माटी भी उन्नत-ग्रीव हुई
जब नव चेतनता उठी जाग,
जीवन-रँग फैला, जब हमने
खेली प्राणों की रक्त फाग;

हो चला हमारे इंगित पर
जग में नव जीवन का प्रसार,
हम जनक प्रलय-रण-चंडी के,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हो गयी सृजित संगीत कला,
हमने जो छेड़ी नवल तान
उन्मुक्त हो गये भाव-विहग
जो भरी एक हमने उड़ान;

हमने समुद्र-मंथन करके
भर दिये जगत् में अतुल रत्न,
संसृति को चेरी कर लाये
अनवरत हमारे ये प्रयत्न!

संस्कृति उभरी, लालित्य जगा,
सुन पड़ी सभ्यता की पुकार,
जब विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
बढ़ चले मार्ग पर दुर्निवार!

हम ‘अग्ने! नय सुपथा राये…’ का
अनल-मंत्र कह जाग उठे,
हम मोह, लोभ, भय, त्रास, छोह
सब त्याग उठे, सब त्याग उठे,

हम आज देखते हैं जगती,
यह जगती, यह अपनी जगती,
यह भूमि हमारी विनिर्मिता,
शोषिता, परायी-सी लगती!

रवि-निर्माताओं के भू पर,
बोलो, यह कैसा अंधकार?
क्या निद्रित थे हम अति कोही,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

क्या अंधकार? हाँ अंधकार!
याँ अंधकार!! वाँ अंधकार!!
है आज सभी दिशि अंधकार;
हैं सभी दिशा के बंद द्वार;

ज्योतिष्पुंजों के हम स्रष्टा,
हम अनल-मंत्र के छंद-कार,
इस दुर्दम तम को क्यों न दलें?
हम सूर्य-कार, हम चंद्र-कार!

आओ, हम सब मिलकर नभ से
ले आएँ रवि-शशि को उतार!!!
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

चेतन ने जब विद्रोह किया,
तब जड़ता में जीवन आया;
जीवन ने जब विद्रोह किया
तब चमक उठी कंचन-काया;

यह जो विकास, उत्क्रमण, प्रगति,
प्रकटी जीवन के हिय-तल में,
वह है केवल विद्रोह छटा
जो खिल उठती है पल-पल में!

तब, बोलो, हम क्यों सहन करें
दुर्दांत तिमिर का अनाचार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम खंड-खंड कर चुके गर्व
अतुलित मदमत्त करोड़ों का;
है इतिहासों को याद हमारा
भीम प्रहार हथौड़ों का!

आ चुके अभी तक कई-कई
घनघोर सूरमा बड़े-बड़े,
जा लखो, हमारे प्रांगण में
उनके हैं बस कुछ ढूह खड़े!

है इतिहासों को भी दूभर
उनके साम्राज्यों का विचार,
उनके आगे टिक सका कौन,
जो हैं विद्रोही दुर्निवार!

हमने संस्कृति का सृजन किया,
दुष्कृतियों को विध्वस्त किया,
कुविचारों के चढ़ते रवि को
इक ठोकर देकर अस्त किया!

हम काल-मेघ बन मँडराये,
हम अशनि-कुलिश बन-बन गरजे,
सुन-सुन घनघोर निनाद भीम
अत्याचारी जन-गण लरजे;

अब आज, निराशा-तिमिर देख,
लरजेंगे क्या हम क्रांतिकार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

सोचो तो कितना अहोभाग्य,
आ पड़ा हमीं पर क्रांति-भार!
इस अटल ऐतिहासिकता पर,
हम क्यों न आज होएँ निसार?

यह क्रांति-काल, संक्रांति-काल,
यह संधि-काल युग-घड़ियों का,
हाँ! हमीं करेंगे गठ-बंधन,
युग-जंज़ीरों की कड़ियों का!

हम क्यों उदास? हों क्यों निराश?
जब सम्मुख हैं पुरुषार्थ-सार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम घर से निकले हैं गढ़ने
नव चंद्र, सूर्य, नव-नव अंबर,
नव वसुंधरा, नव जन-समाज
नव राज-काज, नव काल, प्रहर!

दिक्-काल नए, दिक्-पाल नए,
सब ग्वाल नए, सब बाल नए,
हम सिरजेंगे ब्रज भूमि नई,
गोपियाँ नई, गोपाल नए!!

क्यों आज अलस-भावना जगे,
जब आये हम हिय धैर्य धार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

मानव को नयी सुगति देने,
मानवता को उन्नत करने
हम आये हैं नर के हिय में,
नारायणता की द्युति भरने;

यह अति पुनीत, यह गुणातीत,
शुभ कर्म हमारे सम्मुख है;
तब नीच निराशा यह कैसी?
कैसा संभ्रम? अब क्या दुख है?

तिल-तिल करके यदि प्राण जायँ
तब भी क्यों हो हिय में विकार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

यह काल, लौह लेखनी लिये,
लिखता जाता है युग पुराण;
हम सबकी कृति-निष्कृतियों का
उसको रहता है ख़ूब ध्यान;

इस ध्रुव इतिहास-सुलेखक को
कैसे धोका दें हम, भाई?
इससे बचने का, अपने को
कैसे मौक़ा दें, हम भाई?

मौक़ेबाज़ी न चलेगी याँ,
यह ख़ाला का घर नहीं; यार,
है महाकाल निर्दय लेखक,
यह है विद्रोही दुर्निवार।

यह काल, लेखनी डुबो रहा
अमरों की शुभ शोणित-मसि में,
औ’ उधर चढ़ रहा है पानी
उन निर्मम बधिकों की असि में!

क्यों सोचें, कब कुंठित होगी,
निर्दय, असि की यह प्रखर धार?
बचने की क्यों हो आतुरता?
क्यों टूटे यह बलि की क़तार?

यदि हम डूबें इस मृत्यु-घाट,
तो पहुँचेंगे उस अमर पार!
क्या भय? क्या शोक-विषाद हमें?
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम रहे न भय के दास कभी
हम नहीं मरण के चरण-दास;
हमको क्यों विचलित करे आज
यह हेय प्राण-अपहरण-त्रास?

माना कि लग रहा है ऐसा,
मानो प्रकाश है बहुत दूर,
तो क्या इस दुश्चिंता ही से
होगा तम का गढ़ चूर-चूर?

हम क्यों न करें विश्वास कि यह
टिक नहीं सकेगा तम अपार?
हम महा प्राण, हम इक उठान,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

अपने ये सब बीहड़ जंगल,
अपने ये सब ऊँचे पहाड़,
इक दिन निश्चय हिल डोलेंगे,
सिंहों की-सी करके दहाड़!

उस दिन हम विस्मित देखेंगे
यह निविड़ तिमिर होते विलीन,
उस दिन हम सस्मित देखेंगे :
हम हैं अदीन, हम शक्ति-पीन!!

उस दिन दुःस्वप्नों की स्मृति-सा
होगा बधिकों का भीम भार
उस दिवस कहेगा जग हमसे :
तुम विद्रोही, तुम दुर्निवार!

हम क्यों न करें विश्वास कि ये
नंगे-भूखे भी तड़पेंगे?
धूएँ के छितरे बादल भी,
कड़केंगे, हाँ ये कड़केंगे!

जमकर होंगे ये भी संयुत,
ये भी बिजलियाँ गिराएँगे :
अपने नीचे की धरती का
ये भी संताप सिराएँगे;

ये भी तो इक दिन समझेंगे
अपने भूले सब स्वाधिकार;
उस दिन ये सब कह उठेंगे :
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!

हम कहते हैं भीषण स्वर से
मत सोच करो, मत सोच करो;
लख वर्तमान नैराश्य अगम,
अपने हिय को मत पोच करो;

तुम बहुदर्शी, तुम क्रांति-पथी,
तुम जागरूक, तुम गुडाकेश,
तुमको कर सका कभी विचलित
क्या गेह-मोह? क्या शोक-क्लेश?

देखी है तुमने क्षणिक जीत,
अविचल सह जाओ क्षणिक हार!
तुम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
तुम विद्रोही, तुम दुर्निवार!!

-बालकृष्ण शर्मा नवीन

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