Poem on Navratri 2024 : नवरात्रि पर काव्य की महक…भक्ति और उत्सव की अद्भुत कविताएं

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Poem on Navratri in Hindi

शारदीय नवरात्रि, सनातन हिन्दू धर्म के उन महत्वपूर्ण पर्वों में से एक हैं जिसमें शक्ति स्वरूपा जगत जननी माँ जगदंबा की उपासना की जाती है। शारद ऋतु में आने के कारण इस पर्व को शारदीय नवरात्रि कहा जाता है। इस पर्व में नौ दिन तक भगवान दुर्गा की पूजा की जाती है इसलिए ही इसे “नवरात्रि” कहा जाता है। नवरात्रि के नौ दिनों तक माँ दुर्गा के नौ रूपों की उपासना की जाती है जो मानव को आत्मिक और आध्यात्मिक तौर पर खुश करने का काम करते हैं। इस पर्व पर आप कविताओं के माध्यम से माँ जगदंबा की महिमा और नवरात्रि के महत्व के बारे में जान सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको नवरात्रि पर कविताएं (Poem on Navratri in Hindi) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जिन्हें आप अपने परिजनों और दोस्तों के साथ साझा कर पाएंगे।

नवरात्रि पर कविताएं – Poem on Navratri in Hindi

नवरात्रि पर कविताएं (Poem on Navratri in Hindi) पढ़कर आप नवरात्रि पर्व के बारे में गंभीरता से जान पाएंगे। साथ ही इन कविताओं के माध्यम से आप इस पर्व के महत्व और इसकी महानता के बारे में जानेंगे, जो कुछ इस प्रकार हैं –

आ गया नवरात्र लेकर भक्ति का त्योहार

आ गया नवरात्र माँ की भक्ति का त्योहार।
सज रहा है माँ भवानी का सुघर दरबार।।

रक्त वसना आभरण युत खुले कुंचित केश
सिंह पर शोभित सुकोमल शक्ति का आगार।।

उड़ रही है धूप फूलों की सुगंध सुवास
ला रहा उपहार कोई फूल कोई हार।।

ठनकता तबला सरंगी और बजता ढोल
कर रहे हैं भजन के स्वर भक्ति का संचार।।

दुर्व्यवस्था देश की है दुखी सारे लोग
नाव जर्जर भँवर में है माँ करो उद्धार।।

दुर्विचारों दुष्प्रचारों ने किया आघात
जगद्धात्री जगत जननी अब करो संहार।।

कर रहा सिंदूर अर्पण मात्र कोई धूप
पास मेरे सिर्फ श्रद्धा करो अंगीकार।।

-रंजना वर्मा

नवरात्र में देवियाँ

नवरात्र की नवमी पर
भीतर देवथान में गुंजारित हैं
मुख्य पुजारी के दैविक मंत्रोच्चार के साथ
बड़े बूढ़ों के विह्वल स्वर भी।
‘ॐ जयंती मंगला काली
भद्रकाली कपालिनी’ !

रसोई घर से आ रही है
हलवे की भीनी-भीनी महक
छानी जा रही हैं गर्मागर्म पूड़ियाँ
नौ बच्चियाँ बैठ चुकीं आसनो पर
और बड़े ससुरजी का नाती
भैरव वाली गद्दी पर इठला रहा है।

इधर द्वार पर आ गयी है
पाँच नन्ही लड़कियों की टोली भी
मैं उन्हें पहचानती हूँ
सरूली, चैनी और सुरेखा।
वे जब तब अपनी माँ के साथ आती रही हैं
किसी पुरानी चादर, साड़ी या अनाज की चाह लिए
मैंने उनके मुंह में गुड़ भर कर मुस्कुराते हुए
पूछ लिया था एक दिन उनका नाम।

खाने के बाद पंडित जी हाथ धोने
आँगन में चले आये हैं
कड़क कर बोले हैं’ क्यों री छोकरियो!
यहाँ क्यों खड़ी हो, जाओ यहाँ से
मैं देखती हूँ नन्ही अम्बिकाओं दुर्गाओं और कालियों
के मुरझाए उदास मुखों को
आँगन के भीमल पेड़ से चिपकी तामी की आंखों में नमी तैर गयी है

इससे पहले कि तुम्हे अछूत कहकर
खदेड़ दिया जाए
आओ नन्ही देवियों
मैं पूज दूँ तुम्हारे नन्हे पैर
अपना मस्तक धर दूँ, कांटे बिंधे तुम्हारे पैरों पर

आओ हे देवियो!
हमारे ब्राह्मणत्व और अहंकार को
एक ही पदाघात से छिन्न भिन्न करके भीतर चली आओ।
आसन ग्रहण करो, प्रसाद पाओ
और बताओ कि भीतर
हठीले गौरव से भरी बैठी राजेश्वरी
और बाहर द्वार पर खड़ी मंगसीरी में
कोई अंतर नहीं!

-सपना भट्ट

जय दुर्गे

जाग-जाग जगदंब मात यह नींद कहाँ की।
कस दीन्हीं बिसराय बान सुत वत्सल माँ की।
एक पूत की मात नींद भर कबहुँ न सोवत।
तीस कोटि तब दीन हीन सुत तव मुख जोवत।
अपने निरबल निरधन सुतहि,
मात रही बिसराय कस!
यो मोह छोह सब छाड़ि के,
होय रही क्यों नींद बस?

रोगी दु:ख भोगी भूख तव सुत बिडरावहिं।
पेट हेत नित मरैं पचैं भरपेट न पावहिं।
करहिं अधर्म कुकर्म करहिं बहुविधि सुख कारो।
जागहु-जागहु मात दु:ख इन सबको टारो।
उठहु अंब! संकट हरो,
निद्रा दूर बहाय कै।
कर साठ कोटि जोरें खरे,
द्वारे तव सुत आयकै॥

एक बार सुरराज मात तू आन जगाई।
नयन खोलि तम पीर भक्त की तुरत मिटाई।
स्वर्ग भ्रष्ट सुरपति कहँ पुनि इंद्रासन दीन्हो।
असुरन कहँ करि जेर सुरन चित प्रमुदित कीन्हो।
लाखाघर जरिते पंडु सुत,
लीन्हे मात उबारि तुम।
कस सोई लंबी तानिकै,
मातु हमारी बारि तुम॥

-बालमुकुंद गुप्त

प्रथम नवरात्र भोर की बेला

मन भर फूल गिराता कोई जंगल
उन स्कंधों पर जहाँ मुक्त नयन टीके थे
पाट विस्तृत और मंजिष्ठ गृह दिखते डोलते से
जब गंध की कामना लिए गिरते निर्मम अश्रु
तुम्हारे अजेय अँगूठे पर रुकी मैं
जवा खोल डाले केशों से
एक एक गाँठ ज्यों अरुणिम स्पर्श भरे सघन तिमिर वक्ष में

पूर्ण ही करती थी अर्पण
बस तभी चंद्र ने पवित्र कर दिया मेरा मुख
बस सभी मनोरथ सिद्ध हुए उस क्षण
प्रथम नवरात्र भोर की बेला
मंगल-कामना का सिंदूर बह कर आ गया नखों में
रक्ताभ होती गई देह
ज्यों फिरा ले आए हो देवी को ब्रह्मपुत्र से विजया के दिवस
मुझे भी फिरा ले जाते तुम तो क्या मैं मान न जाती
ज्यों वशहीन हुए नगाड़े नृत्य करते थे हाथों पर।

-ज्याेति शोभा

नवरात्रि का पर्व

ऋतु में परिवर्तन का प्रदर्शन
प्रकृति का है ये विहंगम दर्शन
समाज में प्रेम और उमंग छाया है
देखों नवरात्रि का पर्व आया है

माँ जगदंबा के नव रूपों ने
मानव को सद्मार्ग दिखाया है
भक्ति भाव को प्रेरित करने,
देखों नवरात्रि का पर्व आया है

शून्य से अनंत की यात्रा की ओर
जग ने ज्यों ही अगला कदम बढ़ाया है
प्रकृति को प्रफुल्लित करने,
देखों नवरात्रि का पर्व आया है

शक्ति की उपासना करके
समाज ने संपन्नता को पाया है
सृष्टि को खुशियों से भरने,
देखों नवरात्रि का पर्व आया है…”

-मयंक विश्नोई

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नवरात्रि

दुर्गा माँ ने पार लगाया।
माँ के चरणों में सुख,
समृद्धि, प्रेम का वरदान पाया।

कर लो माँ की नवरुपों में पूजा,
अर्चन भक्ति का उत्सव आया।
संसार मे माँ से बढ़कर,
कोई नहीं और पाया।

-पूनम गुप्ता

द्वितीय दिवस निद्रा से उठना

विस्मय से तकती थी मैं अपराह्न पहर
धान से कैसे फुट गई सुगंध
वक्ष में जब नीर न था और
लोटे का जल घेर लिया था रुग्ण मुख ने
छवि पर तेज़ धार और खड्ग उष्ण थी कैसे
जब मैंने एक पहर भी नहीं किया ध्यान तेरा
न युगों ने अपनी वृत्ति लाँघी
नौ दिवस सम्मुख हैं
काँपते मेघों में
द्वितीय दिवस प्रण ही करूँगी ब्रह्मचर्य का
निश्चय ही स्वास्तिक गोदवाऊँगी कोरों के निकट
निश्चय ही अष्टभुजा में लिए
खिलाऊँगी शिशु सदृश्य तुम्हारी सृष्टि
इस दिव्य स्वप्न में नित्य कोमल होंगे कमल
निद्रा से उठ कहूँगी रखो अपनी मंगल-कामना
प्रत्येक वर्ष की तरह प्रथम चंद्र के पूर्व
कहा भी तो नहीं रिक्त कोष्ठों में बाँध कर पल्लव
श्वास में भर कर धूम्र
फिर आओ मंडप में प्रिय
तुम एक वर्ष रहती हो मृत्यु में
मात्र नौ दिन जीवन में।

-ज्याेति शोभा

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आशा है कि इस ब्लॉग के माध्यम से आप नवरात्रि पर कविताएं (Poem on Navratri in Hindi) पढ़ पाए होंगे। इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।

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