Shiksha Par Kavita: शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जो मानव को सबल और समाज को सशक्त करता है। शिक्षा ही एक ऐसी खुशियों की चाबी है, जिसने समाज को संगठित करने के साथ-साथ सदैव मानव का मार्गदर्शन करने का काम किया है। समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए जरुरी है कि हम शिक्षा के महत्व को जानें और शिक्षित समाज के संकल्प में अपना योगदान दें। शिक्षा एक ऐसा विषय है, जिस पर कई ऐसी लोकप्रिय रचनाएं हैं, जो हमें इसके महत्व, महिमा और संकल्प से परिचित कराती हैं। समय-समय पर ऐसे कई कवि/कवियित्री हुई हैं, जिन्होंने शिक्षा पर अनुपम काव्य कृतियों का सृजन किया है। इस ब्लॉग में आप शिक्षा पर कविताएं (Shiksha Par Kavita) पढ़ पाएंगे।
शिक्षा पर कविताएं – Shiksha Par Kavita
शिक्षा पर कविताएं (Shiksha Par Kavita) और उनकी सूची इस प्रकार हैं:-
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
शिक्षा का उपयोग | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |
कलम या कि तलवार | रामधारी सिंह “दिनकर” |
पढ़क्कू की सूझ | रामधारी सिंह “दिनकर” |
शिक्षा की ताकत | दीनदयाल शर्मा |
शिक्षा का परचम | रजनी तिलक |
शिक्षा और परीक्षा | अमरेन्द्र |
शिक्षा है ऐसा प्रकाश | मयंक विश्नोई |
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शिक्षा का उपयोग
शिक्षा है सब काल कल्प-लतिका-सम न्यारी
कामद, सरस महान, सुधा-सिंचित, अति प्यारी।
शिक्षा है वह धारा, बहा जिस पर रस-सोता
शिक्षा है वह कला, कलित जिससे जग होता।
है शिक्षा सुरसरि-धार वह, जो करती है पूततम
है शिक्षा वह रवि की किरण, जो हरती है हृदय-तम।
क्या ऐसी ही सुफलदायिनी है अब शिक्षा?
क्या अब वह है बनी नहीं भिक्षुक की भिक्षा?
क्या अब है वह नहीं दासता-बेड़ी कसती?
क्या न पतन के पाप-पंक में है वह फँसती?
क्या वह सोने के सदन को नहीं मिलाती धूल में?
क्या बनकर कीट नहीं बसी वह भारत-हित-फूल में?
प्रतिदिन शिक्षित युवक-वृंद हैं बढ़ते जाते
पर उनमें हम कहाँ जाति-ममता हैं पाते?
उनमें सच्चा त्याग कहाँ पर हमें दिखाया?
देश-दशा अवलोक वदन किसका कुम्हलाया?
दिखलाकर सच्ची वेदना कौन कर सका चित द्रवित
किसके गौरव से हो सकी भारतमाता गौरवित।
अपनी आँखें बंद नहीं मैंने कर ली हैं
वे कंदीलें लखीं जो कि तम-मधय बली हैं।
वे माई के लाल नहीं मुझको भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज-जैसे फूले हैं।
कितनी आँखें हैं लगीं जिन पर आकुलता-सहित
है जिनकी सुंदर सुरभि से सारा भारत सौरभित।
किंतु कहूँगा काम हुआ है अब तक जितना
वह है किसी सरोवर की कुछ बूँदों-इतना।
जो शाला कल्पना-नयन-सामने खड़ी है;
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कल का कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला;
हम हैं विलोकना चाहते जिस तरु को फूला-फला।
प्यारे छात्र समूह, देश के सच्चे संबल,
साहस के आधार, सफलता-लता-दिव्य-फल,
आप सबों ने की हैं सब शिक्षाएँ पूरी;
पाया वांछित ओक दूर कर सारी दूरी।
अब कर्म-क्षेत्र है सामने, कर्म करें, आगे बढ़ें;
कमनीय कीर्ति से कलित बन गौरव-गिरिवर पर चढ़ें।
है शिक्षा-उपयोग यही जीवन-व्रत पालें;
जहाँ तिमिर है, वहाँ ज्ञान का दीपक बालें।
तपी भूमि पर जलद-तुल्य शीतल जल बरसे;
पारस बन-बन लौहभूत मानस को परसें;
सब देश-प्रेमिकों की सुनें, जो सहना हो वह सहें;
उनके पथ में काँटे पड़े हृदय बिछा देते रहें।
प्रभो, हमारे युवक-वृंद निजता पहचानें;
शिक्षा के महनीय मंत्र की महिमा जानें।
साधन कर-कर सकल सिध्दि के साधन होवें;
जो धब्बे हैं लगे, धौर्य से उनको धोवें।
सब काल सफलताएँ मिलें, सारी बाधाएँ टलें;
वे अभिमत फल पाते रहें, चिर दिन तक फूलें-फलें।
– अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कलम या कि तलवार
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे
एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार
– रामधारी सिंह “दिनकर”
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पढ़क्कू की सूझ
एक पढ़क्कू बड़े तेज थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे,
जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे।
एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए,
“बैल घुमता है कोल्हू में कैसे बिना चलाए?”
कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है?
सिखा बैल को रक्खा इसने, निश्चय कोई ढब है।
आखिर, एक रोज़ मालिक से पूछा उसने ऐसे,
“अजी, बिना देखे, लेते तुम जान भेद यह कैसे?
कोल्हू का यह बैल तुम्हारा चलता या अड़ता है?
रहता है घूमता, खड़ा हो या पागुर करता है?”
मालिक ने यह कहा, “अजी, इसमें क्या बात बड़ी है?
नहीं देखते क्या, गर्दन में घंटी एक पड़ी है?
जब तक यह बजती रहती है, मैं न फिक्र करता हूँ,
हाँ, जब बजती नहीं, दौड़कर तनिक पूँछ धरता हूँ”
कहाँ पढ़क्कू ने सुनकर, “तुम रहे सदा के कोरे!
बेवकूफ! मंतिख की बातें समझ सकोगे थाड़ी!
अगर किसी दिन बैल तुम्हारा सोच-समझ अड़ जाए,
चले नहीं, बस, खड़ा-खड़ा गर्दन को खूब हिलाए।
घंटी टून-टून खूब बजेगी, तुम न पास आओगे,
मगर बूँद भर तेल साँझ तक भी क्या तुम पाओगे?
मालिक थोड़ा हँसा और बोला पढ़क्कू जाओ,
सीखा है यह ज्ञान जहाँ पर, वहीं इसे फैलाओ।
यहाँ सभी कुछ ठीक-ठीक है, यह केवल माया है,
बैल हमारा नहीं अभी तक मंतिख पढ़ पाया है।
– रामधारी सिंह “दिनकर”
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शिक्षा की ताकत
टन टन टन जब बजे तो घंटी
भागे दौड़े जाएं स्कूल
दड़बड़ दड़बड़ सब भागें तो
उड़ती जाए गली की धूल
कंप्यूटर से करें पढ़ाई
नई – नई बातें बतलाई
बस्ता अब कुछ हुआ है हल्का
मन भारी था हो गया फुलका
अब न कोई करे बहाना
रोजाना स्कूल को जाना
पढ़ लिख कुछ बनने की ठानी
शिक्षा की ताकत पहचानी
– दीनदयाल शर्मा
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शिक्षा का परचम
तू पढ़ महाभारत
न बन कुन्ती, न द्रोपदी।
पढ़ रामायण
न बन सीता, न कैकेयी।
पढ़ मनुस्मृति
उलट महाभारत, पलट रामायण।
पढ़ कानून
मिटा तिमिर, लगा हलकार।
पढ़ समाजशास्त्र, बन जावित्री
फहरा शिक्षा का परचम।
– रजनी तिलक
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शिक्षा और परीक्षा
वेतन भी है, शिक्षक भी हैं, केवल छात्रा नहीं,
लड़कों का कहना है इतना, शिक्षक नहीं पढ़ाते
विद्यालय तो आते हैं, पर गप्प खाली लड़ाते
शिक्षक कहते, ये बच्चे शिक्षा के पात्रा नहीं ।
हड़तालों-बंदी में शिक्षक गये नहीं लौटेंगे
बिना पढ़े ही छात्रा परीक्षा देंगे, पास करेंगे
वैतरणी में बिना गाय के अब से पार तरेंगे
शिक्षक काॅपी पर अंकों को घोटनी से घोटेंगे ।
वाद-विवादों-संवादों का अब से खेल रुकेगा
खेल खिलाड़ी राजनीति के रण लेंगे, तो छक्का
देशी पाठ पढ़ाने वालों की किस्मत में फुक्का
पता नहीं था श्वेत ध्वजा का ऐसा भाल झुकेगा।
शिक्षा और परीक्षा स्वाहा, शिक्षा-विधि है स्वाहा
सरकारी ‘नजरों’ के कारण सारी निधि है स्वाहा ।
– अमरेन्द्र
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शिक्षा है ऐसा प्रकाश
“सुखों की घड़ी का आभास
करता है दुःखों का विनाश
जीवन में परिवर्तन की
गाथाएं गाता बारंबार
कुछ बेहतर होने की आस
जगती नहीं है अनायास
शिक्षा है ऐसा प्रकाश
जो मिटाए जीवन से अंधकार
साहस का करके सम्मान
सपनों का होता है निर्माण
इस प्रकाश की आंच से ही,
मानव की होती जय-जयकार
सफलता के संभव प्रयास
लिखते हैं नित नवीन इतिहास
शिक्षा है ऐसा प्रकाश
जो करता भय का तिरस्कार
– मयंक विश्नोई
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