Papa Par Kavita: पिता के सम्मान में लिखी गई सबसे सुंदर कविताएँ

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Papa Par Kavita

Poem on Father in Hindi: पिता वो सूरज हैं, जो खुद जलकर हमें रोशन करते हैं। पिता ही हमारे जीवन का आधार होते हैं। उनके स्नेह, सुरक्षा और मार्गदर्शन से हम अपने सपनों को नई उड़ान दे पाते हैं। पिता का प्यार और उनकी मेहनत को हम कभी पूरी तरह से चुका नहीं सकते, लेकिन हम उन्हें आदर और सम्मान देकर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकते हैं। पिता की मेहनत और त्याग को शब्दों में बांधना कठिन होता है, लेकिन फिर भी कई कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से इस कठिन कार्य को बड़ी सरलता से करने का प्रयास किया है। इस लेख में आपके लिए पिता पर कविता (Papa Par Kavita) दी गई हैं, जो उनके प्रति अपनी सच्ची भावनाओं को व्यक्त करेंगी। पापा पर कविता पढ़ने के लिए इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ें।

पिता पर कविता – Papa Par Kavita

पिता पर कविता (Papa Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
पिता की तस्वीरमंगलेश डबराल
दिवंगत पिता के प्रतिसर्वेश्वरदयाल सक्सेना
पिता से गले मिलतेकुंवर नारायण
पापा! गर मैं चिड़िया होतादीनदयाल शर्मा
पिताकुँअर बेचैन
टेलिफ़ोन पर पिता की आवाज़नीलेश रघुवंशी
पिता की चिट्ठीसुदर्शन वशिष्ठ
पिता का घरसुदर्शन वशिष्ठ
किससे पूछूँ, पापा!दीनदयाल शर्मा
स्‍मृति-पितावीरेन डंगवाल

पिता की तस्वीर

पिता की छोटी छोटी बहुत सी तस्वीरें
पूरे घर में बिखरी हैं
उनकी आँखों में कोई पारदर्शी चीज़
साफ़ चमकती है
वह अच्छाई है या साहस
तस्वीर में पिता खाँसते नहीं
व्याकुल नहीं होते
उनके हाथ पैर में दर्द नहीं होता
वे झुकते नहीं समझौते नहीं करते

एक दिन पिता अपनी तस्वीर की बग़ल में
खड़े हो जाते हैं और समझाने लगते हैं
जैसे अध्यापक बच्चों को
एक नक्शे के बारे में बताता है
पिता कहते हैं मैं अपनी तस्वीर जैसा नहीं रहा
लेकिन मैंने जो नए कमरे जोड़े हैं
इस पुराने मकान में उन्हें तुम ले लो
मेरी अच्छाई ले लो उन बुराइयों से जूझने के लिए
जो तुम्हें रास्ते में मिलेंगी
मेरी नींद मत लो मेरे सपने लो

मैं हूँ कि चिन्ता करता हूँ व्याकुल होता हूँ
झुकता हूँ समझौते करता हूँ
हाथ पैर में दर्द से कराहता हूँ
पिता की तरह खाँसता हूँ
देर तक पिता की तस्वीर देखता हूँ।

– मंगलेश डबराल

दिवंगत पिता के प्रति

सूरज के साथ-साथ
सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे,
घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में
भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की,
दूर-दूर तक फैले खेतों पर,
धुएँ में लिपटे गाँव पर,
वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर,
जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था,
और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता
तुम्हारे पुकारने की,
मेरा नाम उस अंधियारे में
बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में।
मैं अब भी हूँ
अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर
लेकिन कहाँ है तुम्हारी आवाज़
जो मेरा नाम भरकर
इसे अविकल स्वरों में बजा दे।

‘धक्का देकर किसी को
आगे जाना पाप है’
अत: तुम भीड़ से अलग हो गए।

‘महत्वाकांक्षा ही सब दुखों का मूल है’
इसलिए तुम जहाँ थे वहीं बैठ गए।
‘संतोष परम धन है’
मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया।

पिता! इन मूल्यों ने तो तुम्हें
अनाथ, निराश्रित और विपन्न ही बनाया,
तुमसे नहीं, मुझसे कहती है,
मृत्यु के समय तुम्हारे
निस्तेज मुख पर पड़ती यह क्रूर दारूण छाया।

‘सादगी से रहूँगा’
तुमने सोचा था
अत: हर उत्सव में तुम द्वार पर खड़े रहे।
‘झूठ नहीं बोलूँगा’
तुमने व्रत लिया था
अत:हर गोष्ठी में तुम चित्र से जड़े रहे।

तुमने जितना ही अपने को अर्थ दिया
दूसरों ने उतना ही तुम्हें अर्थहीन समझा।
कैसी विडम्बना है कि
झूठ के इस मेले में
सच्चे थे तुम
अत:वैरागी से पड़े रहे।

तुम्हारी अन्तिम यात्रा में
वे नहीं आए
जो तुम्हारी सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर
शहर की ऊँची इमारतों में बैठ गए थे,
जिन्होंने तुम्हारी सादगी के सिक्कों से
भरे बाजार भड़कीली दुकानें खोल रक्खी थीं;
जो तुम्हारे सदाचार को
अपने फर्म का इश्तहार बनाकर
डुगडुगी के साथ शहर में बाँट रहे थे।

पिता! तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए
वे नहीं आए

– सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

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पिता से गले मिलते

पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है।

उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,

अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,

उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर

– कुंवर नारायण

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पापा! गर मैं चिड़िया होता

पापा! गर मैं चिड़िया होता
बिन पेड़ी छत पर चढ़ जाता।

भारी बस्ते के बोझे से
मेरा पीछा भी छुट जाता।

होमवर्क ना करना पड़ता
जिससे मैं कितना थक जाता।

धुआँ-धूल और बस के धक्के
पापा! फिर मैं कभी न खाता।

कोई मुझको पकड़ न पाता
दूर कहीं पर मैं उड़ जाता

– दीनदयाल शर्मा

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पिता

ओ पिता,
तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ़्तर के।

छाँव में हम रह सकें यूँ ही
धूप में तुम रोज़ जलते हो
तुम हमें विश्वास देने को
दूर, कितनी दूर चलते हो

ओ पिता,
तुम दीप हो घर के
और सूरज-चाँद अंबर के।

तुम हमारे सब अभावों की
पूर्तियाँ करते रहे हँसकर
मुक्ति देते ही रहे हमको
स्वयं दुख के जाल में फँसकर

ओ पिता,
तुम स्वर, नए स्वर के
नित नये संकल्प निर्झर के।

– कुँअर बेचैन

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पापा पर कविता – Poem on Father in Hindi

पापा पर कविता (Poem on Father in Hindi) आपको इसका महत्व बताएंगी, जो कुछ इस प्रकार हैं –

टेलिफ़ोन पर पिता की आवाज़

टेलीफ़ोन पर
थरथराती है पिता की आवाज़
दिये की लौ की तरह काँपती-सी।

दूर से आती हुई
छिपाए बेचैनी और दुख।

टेलीफ़ोन के तार से गुज़रती हुई
कोसती खीझती
इस आधुनिक उपकरण पर।

तारों की तरह टिमटिमाती
टूटती-जुड़ती-सी आवाज़।

कितना सुखद
पिता को सुनना टेलीफ़ोन पर
पहले-पहल कैसे पकड़ा होगा पिता ने टेलीफ़ोन।

कड़कती बिजली-सी पिता की आवाज़
कैसी सहमी-सहमी-सी टेलीफ़ोन पर।

बनते-बिगड़ते बुलबुलों की तरह
आवाज़ पिता की भर्राई हुई
पकड़े रहे होंगे
टेलीफ़ोन देर तक
अपने ही बच्चों से
दूर से बातें करते पिता।

– नीलेश रघुवंशी

पिता की चिट्ठी

कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

नज़दीक आ रहा
दादा का श्राद्ध
बहन की नहीं निभ रही ससुराल में
निपटाना है झगड़ा जमीन का
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

गाय ने दिया है बछड़ा
आम में आया है बूर
पहली बार फूला है
तुम्हारा रोपा अमलतास।

पीपल हो गया खोखला
पत्तियाँ हरी हैं

दादी की कम हुई यादाश्त
तुम्हारी याद बाकी है।

माँ देखती है रास्ते की ओर
काग उड़ाती है रोज़
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

दीवार में बढ़ गई है दरार
माँ का नहीं टूट रहा बुखार
दादा ने पकड़ ली है खाट
सभी जोह रहे तुम्हारी बाट
खत को समझना तार।

शेष सब सकुशल है
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

– सुदर्शन वशिष्ठ

पिता का घर

कभी सोचा न था
पिता का घर,नहीं होगा मेरा घर।

दादा का घर पिता का घर था
उस घर की छत पर पड़े थे पूरे के पूरे बाँस
अनघड़ बासों पर थे बिछे भोज पत्र
लाए हुए न जाने किन पहाड़ों से।

दीवरों पर टंगे थे सीताराम हनुमान
औष्ण बलिभद्र
जिनके पीछे हर साल बनाती थीं
चिड़ियां घोंसले अपने
दादा,पिता,चाचा,दादी,माँ,चाचियाँ
बुआ और भी न जाने कौन-कौन
गोबर लिए कमरे के
हर कोने में बनाते थे घोंसले अपने
हर घोंसले के तिनके
एक दूसरे से रहते थे सदा गुंथे हुए।

दिन भर दूर-दूर चोग चुग कर लौटते थे सभी घर
तब अणगिणत बच्चे भर उठते थे किलकारियाँ
खुल जाती थी चोंच चोंच
चूल्हे के आसपास पटड़ों पर बैठ खाना खाते हुए
सुनाते थे कई किस्से कहानियाँ

कच्चा होते हुए भी कितना पक्का था घर!
छोटा होते हुए कितना बड़ा था घर!

पिता ने बसाया एक घर अपना
जिसमें हम बच्चे रहे कुछ दिन
जिसकी छत्त थी सीमेंटी
नहीं थी कोई दहलीज़
नहीं टँग सकता था कोई चित्र।
नहीं लगती थी कील
नहीं बना सकती थी घोंसला कोई बाहरी चिड़िया।
दादा ने नहीं रखा रखा कभी पाँव
ठण्दे पर्श पर
नहीं आई दादी,कोई रिश्तेदार मेहमान।

मजबूत होते हुए भी कितना कमज़ोर था घर!
बड़ा होते हुए भी कितना छोटा था घर!

दादा के पिछवाड़े
जो उगते थे आम कचनार के पेड़
आँगन में खड़े थे नींबू लुकाठ
पिता के घर बोने हो गमलों मे समाए
एक बेल जो झाँकना चाहती थी
गमले से उचककर खोड़की में
सूख जाती ऊपर पहुँचने से पहले
माँ उगाना चाहती थी
कंकरीट की क्यारी में एक फूल
पिता बसाना चाहते थे
ठाकुरों को शोकेस में

दादा का घर सबका घर था
पिता का घर पिता का घर है
मेरा नहीं।

मुझे आज अलग घर
बनाना और बसाना होगा
जो पता नहीं होगा कैसा
और होगा किसका।

– सुदर्शन वशिष्ठ

किससे पूछूँ, पापा!

पापा! मुझे बताओ बात
कैसे बनते हैं दिन-रात,
चंदा तारे दिखें रात को
सुबह चले जाते चुपचाप।

पापा! पेड़ नहीं चलते हैं
ना ही करते कोई बात
कैसे कट जाते हैं, पापा!
इनके दिन और इनकी रात।

और ढेर-सी बातें मुझको
समझ क्यूँ नहीं आती हैं,
ना घर में बतलाता कोई
ना मैडम बतलाती हैं।

फिर मैं किससे पूछूँ, पापा!
मुझको बतलाएगा कौन
डाँट-डपट के कर देते हैं
मुझको, पापा! सारे मौन।

– दीनदयाल शर्मा

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स्‍मृति-पिता

एक शून्‍य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्‍य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ

फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की

– वीरेन डंगवाल

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