Poem on Politics in Hindi: जनता की आवाज बनती राजनीति पर सर्वश्रेष्ठ हिंदी कविताएँ, यहाँ पढ़ें 

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Poem on Politics in Hindi

Rajniti Par Kavita: राजनीति हमारे समाज का वह हिस्सा है जो हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है।। बताना चाहेंगे कि चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, स्वास्थ्य हो, रोज़गार या सुरक्षा ही क्यों न हो – जीवन का हर पहलू कहीं न कहीं राजनीतिक नीतियों से जुड़ा होता है। ऐसे में राजनीति केवल बहस या चुनाव का विषय नहीं है, बल्कि यह साहित्य और कविता में भी अपनी एक खास जगह बनाए रखता है। राजनीति पर लिखी गई कविताएं न केवल सत्ता के स्वरूप को उजागर करती हैं, बल्कि आम जनता की भावनाओं, संघर्षों और अपेक्षाओं को भी स्वर देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसलिए इस लेख में राजनीति पर कविता (Poem on Politics in Hindi) दी गई हैं, जो जनता की आवाज बनकर समाज की चेतना का स्वर बनेंगी।

राजनीति पर कविता (Poem on Politics in Hindi)

राजनीति पर कविता (Rajniti Par Kavita) की सूची इस प्रकार है;-

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
राजनीतिरामधारी सिंह “दिनकर”
कन्धे पर हाथ रखने की राजनीतिदेवी प्रसाद मिश्र
राजनीतिकेदारनाथ अग्रवाल
रोटी और संसदधूमिल
राज बदल गया हमको क्यागणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’
राजनीतिनरेन्द्र कुमार

राजनीति

सावधान रखते स्वदेश को और बढ़ाते मान भी,
राजदूत हैं आँख देश की और राज्य के कान भी।

तुम्हें बताऊँ यह कि कूटनीतिज्ञ कौन है?
वह जो रखता याद जन्मदिन तो रानी का,
लेकिन, उसकी वयस भूल जाता है।

लगा राजनीतिज्ञ रहा अगले चुनाव पर घात,
राजपुरुष सोचते किन्तु, अगली पीढ़ी की बात।

हो जाता नरता का तब इतिहास बड़ा,
बड़े लोग जब पर्वत से टकराते हैं।
नर को देंगे मान भला वे क्या, जो जन
एक दूसरे को नाहक धकियाते हैं?

’हाँ’ बोले तो ’शायद’ समझो, स्यात कहे तो ’ना’ जानो।
और कहे यदि ’ना’ तो उसको कूटनीतिविद मत मानो।

मंत्रियों के गुड़ अनोखे जानते हो?
वे न तो गाते, बजाते, नाचते हैं,
और खबरों के सिवा कुछ भी नहीं पढ़ते।
हर घड़ी चिन्ता उन्हें इस बात की रहती
कि कैसे और लोगों से जरा ऊँचे दिखें हम।
इसलिये ही, बात मुर्दों की तरह करते सदा वे
और ये धनवान रिक्शों पर नहीं चढ़ते।

शक्ति और सिद्धान्त राजनीतिज्ञ जनों में
खूब चमकते हैं जब तक अधिकार न मिलता।
मंत्री बनने पर दोनों ही दब जाते हैं।

शासन के यंत्रों पर रक्खो आँख कड़ी,
छिपे अगर हों दोष, उन्हें खोलते चलो।
प्रजातंत्र का क्षीर प्रजा की वाणी है
जो कुछ हो बोलना, अभय बोलते चलो।

मंत्री के शासन की यह महिमा विचित्र है,
जब तक इस पर रहो, नहीं दिखलाई देगी
शासन की हीनता, न भ्रष्टाचार किसी का।
किन्तु, उतरते ही उससे सहसा हो जाता
सारा शासन-चक्र भयानक पुँज पाप का,
और शासकों का दल चोर नजर आता है।

जब तक मंत्री रहे, मौन थे, किन्तु, पदच्युत होते ही
जोरों से टूटने लगे हैं भाई भ्रष्टाचारों पर।

मंत्री के पावन पद की यह शान,
नहीं दीखता दोष कहीं शासन में।
भूतपूर्व मंत्री की यह पहचान,
कहता है, सरकार बहुत पापी है।

किसे सुनाते हो, शासन में पग-पग पर है पाप छिपा?
किया न क्यों प्रतिकार अघों का जब तुम सिंहासन पर थे?

छीन ली मंत्रीगीरी तो घूँस को भी रोक दो।
अब ’करप्शन’ किसलिए मैं ही न जब मालिक रहा?

जब तक है अधिकार, ढील मत दो पापों को,
सुनते हो मंत्रियों! नहीं तो लोग हँसेंगे,
कल को मंत्री के पद से हट जाने पर जब
भ्रष्टाचरणों के विरुद्ध तुम चिल्लाओगे।

प्रजातंत्र का वह जन असली मीत
सदा टोकता रहता जो शासन को।
जनसत्ता का वह गाली संगीत
जो विरोधियों के मुख से झरती है।

– रामधारी सिंह “दिनकर”
साभार – कविताकोश

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कन्धे पर हाथ रखने की राजनीति

आए दिन ड्राइवर के कन्धे पर हाथ रखने वाले
और उसका वीडियो बनाकर फ़ेसबुक पर
डालकर इस बात का मुज़ाहिरा करने वाले
कि वह अपने नौकर-चाकरों से कितना
आत्मीय है, एक मालिक के कन्धे पर जब
एक दिन ड्राइवर ने भी हाथ रख दिया तो
मालिक को कुछ समझ में आया और कुछ
समझ में नहीं आया कि यह हो क्या गया
कि ड्राइवर ने उसे उसके बराबर मान कैसे
लिया और उसकी हिम्मत कैसे हुई कि वह
उसके कन्धे पर हाथ रख दे कि यह उसकी
ही ग़लती थी कि उसने ड्राइवर को यह छूट
दी, लेकिन अब वह करे तो क्या और ड्राइवर
को इसकी कौन सी सज़ा दे — वह लगातार
सज़ा के बारे में सोचता रहा और बहुत उचाट
रहा और कुढ़ता रहा और तड़पता रहा कि
कैसे इस बारे में सोचे न, लेकिन और कुछ
उसके दिमाग़ में आता ही नहीं था सिवाय
इसके कि जो उसके बराबर नहीं है और
जिसने उसके बराबर होने की कोशिश की
उसके समान होने के दुस्साहस को किस तरह
से डील किया जाए तो उसने ड्राइवर को सबसे
बड़ी सज़ा देने का फ़ैसला किया, जो मौत से
कम क्या होती तो उसने ड्राइवर को गोली
मारने का निश्चय किया और इस के लिए
एक सुनसान जगह पर ड्राइवर को कार रोकने
के लिए कहा कि वह पेशाब करना चाहता है
और ड्राइवर उसका तौलिया लेकर बाहर आ
जाए और जब ड्राइवर बाहर आ गया तो अपने
को मालिक समझने वाले ने उससे, जिसे वह
अपने से बहुत छोटा समझता था, कहा कि
उसे वह इस बात के लिए गोली मार देना
चाहता है कि मालिक के बराबर अपने को
समझने का ख़याल उसके दिमाग़ में आया
ही कैसे, तो ड्राइवर ने कहा कि यदि रिवॉल्वर चलाना
ही है तो इसका ऐतिहासिक इस्तेमाल
कीजिए और सब बराबर नहीं हैं इस विचार
पर चला दीजिए गोली जिसे सुनकर मालिक
को कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आया और वह
कुछ विभ्रम की स्थित में ही था तो ड्राइवर
ने मालिक के काँपते हाथों से पिस्तौल ले ली
और अपने को ऊपर समझने वाले पर गोली
चला दी, यह कहते हुए कि सब बराबर नहीं
हैं के विचार पर मैं गोली चला रहा हूँ – एक
ऐसी हरकत, जो अधीन माने जाने वाले द्वारा
अधिपति के कन्धे पर हाथ रखने के विचार
से अधिक मूलगामी, समकालीन और
फ़ोटोजेनिक है और सात्विक हिंसा का वक्र-
तिर्यक उदाहरण।

– देवी प्रसाद मिश्र
साभार – कविताकोश

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राजनीति

राजनीति नंगी औरत है
कई साल से जो यूरुप में
आलिंगन के अंधे भूखे
कई शक्तिशाली गुंडों को
देश-देश के जो स्वामी हैं
जो महान सेनाएँ रखते
जो अजेय अपने को कहते
ऐसा पागल लड़वाती है
आबादी में बम गिरते हैं;
दल की दल निर्दोषी जनता
गिनती में लाखों मरती है;
नष्ट सभ्यता हो जाती है-
कभी किसी के, कभी किसी के,
गले झूलकर मुसकाती है।
हार-जीत के इस किलोल से
संधि नहीं होने देती है॥

केदारनाथ अग्रवाल
साभार – कविताकोश

रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है।

– धूमिल
साभार – कविताकोश

राज बदल गया हमको क्या
इस ओर पड़ी ना सुख की छाँव
राज बदल गया हमको क्या?

नेता कहते राज अपन का, अँग्रेज़ों से पीछा छूटा
साधक घोखें नमो-नरायन, दुःख-दरिद्र का ताँता टूटा

बनिए की पौड़ी पौबारा, पहरेदार की आँखें फूटीं
गोबरिया भांबी के घर से भरे पेट की आशा रूठी

साधक खाए दूध मलाई, गोबर बिलखे हमको क्या
इस ओर पड़ी ना सुख की छाँव,

राज बदल गया हमको क्या?
भने-गुने भक्तों में खोए, बड़ा हुक्म खादी में लीन

निर्बल नेता की छाया में, मुजरा-ख़ोर मुसाहिब तीन
देशभक्त अँगुलि चिरवाकर, बन योद्धा सिरमौर प्रवीण

हलधारी नत-सिर जीवन भर, बोझ उठाए गड़ा ज़मीन
नव नवाब को खीर गुनगुनी, बड़िया झींके मुझको क्या?

इस ओर पड़ी ना सुख की छाँव
राज बदल गया हमको क्या ?

बापूजी की फ़ौज बिखर गई, तेरह-तीन हुए वाहेले
चंदा-चोर चढ़े सिर माथे, फंदाख़ोर हुए सब चेले

धंधेबाज़ धाड़वी बन कर, सूदखोर नित करें झमेले
योद्धाओं ने किया किनारा, आगीवान हुए सब पगले

नेताजी के मोटर आई, नूरा बांगे हमको क्या?
इस ओर पड़ी ना सुख की छाँव

राज बदल गया हमको क्या?
जनसेवक बन गए पुतलियाँ, निकले सिंह जीव के कच्चे

खेत गँवा अपने हाथों से, सिटपिटियों के सपने सच्चे
भुलावे पड़ी कमाऊ दुनिया, क़लम-सेठ के खाए तमाचे

बाबूजी दो दिन से भूखे, सूखा पेट, बैठ गए बाचे
कुँवर सेठ के खाए मलाई, मुन्ना रोए हमको क्या?

इस ओर पड़ी ना सुख छाँव
राज बदल गया हमको क्या?

दस पीढ़ी की खरी कमाई, कांग्रेस वणिकों के बिक गई
धन-लालच से जन-नेता के बीच खेत में गोड़न टिक गई

नक़द नफ़े की भरम-भाड़ में, कमतरियों की काया सिक गई
पंडतजी ने पोथी पटकी, लेख विमाता खोटे लिख गई

आडंबर को भेंट सवाई, जनता झींके हमको क्या
इस ओर पड़ी न सुख की छाँव

राज बदल गया हमको क्या?
छल-कपट कण-कण में रम गया, भली चाल भाँड़ों में मिल गई

कामगारों की कठिन कमाई, बनियों की डाढ़ों में झिल गई
भटके फिरें सयाने सावंत, अनबूझों को गद्दी मिल गई

धन वालों की धींग-धाक से, बल वालों की जीभ निकल गई
सेठों के घर नक़द कमाई, लोग बिसूरें हमको क्या?

इस ओर पड़ी न सुख की छाँव
राज बदल गया हमको क्या?

गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’
साभार – कविताकोश

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राजनीति

उसे पलायन करने से रोको
ख़ाली दिमाग मत रहने दो
कुछ मुद्दे दो, कुछ वादे दो

वापस बुलाओ
जातिवाद तक जाने दो
अधिक खुले तो
क्षेत्रवाद पर रोको
आगे बढ़ न पाए
धर्म को सामने रख दो
इतने पर भी उदार बने
देशभक्ति में आकण्ठ डुबा दो

उसके बाद भी अगर…
क्या बेतुका सवाल है
फिर हम हैं,
हमारा कानून है

– नरेन्द्र कुमार
साभार – कविताकोश

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