Poem on Election in Hindi: चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला है, जो जनता को अपने प्रतिनिधियों के चयन का अधिकार देता है। यह केवल मतदान करने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव है, जिसमें हर नागरिक की भागीदारी देश के भविष्य को आकार देती है। सही सरकार चुनना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है, जिससे राष्ट्र प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सके। समय-समय पर महान कवियों ने चुनाव की महत्ता को उजागर करते हुए प्रेरणादायक कविताएँ लिखी हैं, जो आज भी जनमानस में जागरूकता फैलाने का कार्य कर रही हैं। इस लेख में आपके लिए चुनाव पर कविता (Chunav Par Kavita) दी गई हैं, जो लोकतंत्र और मताधिकार के प्रति आपकी भावनाओं को प्रकट करने में सहायक होंगी।
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चुनाव पर कविता (Chunav Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
---|---|
चुनाव की चोट | काका हाथरसी |
चुनाव | नीलोत्पल |
चुनावी बुख़ार | यतीश कुमार |
चुनाव | नंद चतुर्वेदी |
मुझको सरकार बनाने दो | अल्हड़ बीकानेरी |
कोई एक और मतदाता | रघुवीर सहाय |
लगता है जंगल में चुनाव आने वाला है | अशोक चक्रधर |
क्या कहा-चुनाव आ रहा है? | शैल चतुर्वेदी |
हे वोटर महाराज | शैल चतुर्वेदी |
यह चुनाव त्योहार नहीं | हरिवंश प्रभात |
चुनाव की चोट
हार गए वे, लग गई इलेक्शन में चोट।
अपना अपना भाग्य है, वोटर का क्या खोट?
वोटर का क्या खोट, ज़मानत ज़ब्त हो गई।
उस दिन से ही लालाजी को ख़ब्त हो गई॥
कह ‘काका’ कवि, बर्राते हैं सोते सोते।
रोज़ रात को लें, हिचकियाँ रोते रोते॥
– काका हाथरसी
नीलोत्पल की कविता – चुनाव
बहुत सारे सच
और बहुत सारे झूठ सुनने के बाद
इतना तय हुआ
दुनिया दोनों के साथ चलेगी
जिसे आपत्ति है
वह दर्ज़ करवाए
मेरा अपना कुछ नहीं था
मुझे तो बस चुनना था
मैं क्या चुना सकता था?
मैं किसलिए चुनता?
लोगों के मन अपराध बोध से भरे थे
वे डरे सहमे थे
वे अपने ही खिलाफ थे
जब उनके निकट गया और जाना
वे सच के लिए झूठ बोल रहे थे
झूठ के लिए सच
वे चीज़ों को बचा रहे थे
वे अंतहीन बहस में थे
मुझे सच चुनना था
लेकिन झूठ की अनिवार्यता के साथ
– नीलोत्पल
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चुनावी बुख़ार
खिड़की वहीं है
अपनी जगह पर यथावत
दरवाज़े अब भी
चौखट से ही लगे हैं
बस, चटखनी टूट गई है
दीवार गुमशुदा है
और मकान तड़प रहा
छत की अपनी बिसात
ज़मीन पर बिछ गई है
स्याह धुँओं के ढूह में
ख़ुद को कालिख पोते
नीम-सी नींद लिए
गाँव सो चुका है
कुछ लोग जिन्हें
चलना था भीड़ के आगे
दुबक गए हैं
कहीं और सुरक्षित खोह में
माहौल पूरी तरह तप चुका है
पूरा कुनबा बीमार होता जा रहा है
तापमान तेज़ी से चढ़ रहा है
जनाब! ये चुनाव का बुख़ार है
– यतीश कुमार
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चुनाव
जब-जब आता है चुनाव
मैं याद करने लगता हूँ
वह सब जो मैंने कहा था
किन-किन लोगों से बचने के लिए
वह सब जो मैंने अपने अंदर देखा था
और जो अपवित्र लगा था
लेकिन जिसके साथ मेरी सारी
अतृप्त इच्छाओं की एक प्रबल नदी थी
लोभ, लालच, दोग़लापन
घमंड सबसे
उन सबसे बचने के लिए
दूसरों को कहा था
पराजय के बाद भी वही सब कहा
हारने के कारण
पैसा, दारू, सत्ता
ग़रीबी, मूर्खता, दुराचरण
अपनी पवित्रता, सिद्धांत और निष्ठाएँ
अकेला चलना इत्यादि, इत्यादि
इतना सब कहा
लेकिन जो नहीं कहा गया था
वही सब प्रगट हुआ
सारे शब्द चुपचाप चलते हैं
अव्यक्त अर्थों की तरफ़
तब भी जब झूठ के लिए
धिक्कारने वाला न बचे
और छिपाने के लिए सब लालायित हों
– नंद चतुर्वेदी
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मुझको सरकार बनाने दो
जो बुढ्ढे खूसट नेता हैं
उनको खड्डे में जाने दो
बस एक बार, बस एक बार
मुझको सरकार बनाने दो।
मेरे भाषण के डंडे से
भागेगा भूत गरीबी का
मेरे वक्तव्य सुनें तो झगड़ा
मिटे मियां और बीवी का
मेरे आश्वासन के टानिक का
एक डोज़ मिल जाए अगर
चंदगी राम को करे चित्त
पेशेंट पुरानी टी बी का
मरियल सी जनता को मीठे, वादों का जूस पिलाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
जो कत्ल किसी का कर देगा
मैं उसको बरी करा दूँगा,
हर घिसी पिटी हीरोइन कि
प्लास्टिक सर्जरी करा दूँगा;
लडके लडकी और लैक्चरार
सब फिल्मी गाने गाएंगे,
हर कालेज में सब्जैक्ट फिल्म
का कंपल्सरी करा दूँगा।
हिस्ट्री और बीज गणित जैसे विषयों पर बैन लगाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
जो बिल्कुल फक्कड हैं, उनको
राशन उधार तुलवा दूँगा,
जो लोग पियक्कड हैं, उनके
घर में ठेके खुलवा दूँगा;
सरकारी अस्पताल में जिस
रोगी को मिल न सका बिस्तर,
घर उसकी नब्ज़ छूटते ही
मैं एंबुलैंस भिजवा दूँगा।
मैं जन-सेवक हूँ, मुझको भी, थोडा सा पुण्य कमाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
श्रोता आपस में मरें कटें
कवियों में फूट नहीं होगी,
कवि सम्मेलन में कभी, किसी
की कविता हूट नहीं होगी;
कवि के प्रत्येक शब्द पर जो
तालियाँ न खुलकर बजा सकें,
ऐसे मनहूसों को, कविता
सुनने की छूट नहीं होगी।
कवि की हूटिंग करने वालों पर, हूटिंग टैक्स लगाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
ठग और मुनाफाखोरों की
घेराबंदी करवा दूँगा,
सोना तुरंत गिर जाएगा
चाँदी मंदी करवा दूँगा;
मैं पल भर में सुलझा दूँगा
परिवार नियोजन का पचडा,
शादी से पहले हर दूल्हे
की नसबंदी करवा दूँगा।
होकर बेधडक मनाएंगे फिर हनीमून दीवाने दो,
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
बस एक बार, बस एक बार, मुझको सरकार बनाने दो।
– अल्हड़ बीकानेरी
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मतदान पर कविता – Poem on Election in Hindi
मतदान पर कविता (Poem on Election in Hindi) आपको इसका महत्व बताएंगी, जो कुछ इस प्रकार हैं –
कोई एक और मतदाता
जब शाम हो जाती है तब ख़त्म होता है मेरा काम
जब काम ख़त्म होता है तब शाम ख़त्म होती है
रात तक दम तोड़ देता है परिवार
मेरा नहीं एक और मतदाता का संसार
रोज़ कम खाते-खाते ऊबकर
प्रेमी-प्रेमिका एक पत्र लिख दे गए सूचना विभाग को
दिन-रात साँस लेता है ट्रांजिस्टर लिए हुए ख़ुशनसीब ख़ुशीराम
फ़ुर्सत में अन्याय सहते में मस्त
स्मृतियाँ खँखोलता हकलाता बतलाता सवेरे
अख़बार में उसके लिए ख़ास करके एक पृष्ठ पर दुम
हिलाता संपादक एक पर गुरगुराता है।
एक दिन आख़िरकार दुपहर में छुरे से मारा गया ख़ुशीराम
वह अशुभ दिन था; कोई राजनीति का मसला
देश में उस वक़्त पेश नहीं था। ख़ुशीराम बन नहीं
सका क़त्ल का मसला, बदचलनी का बना, उसने
जैसा किया वैसा भरा
इतना दुख मैं देख नहीं सकता।
कितना अच्छा था छायावादी
एक दुख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुख का कारण वह पहचान लेता था
कितना महान था गीतकार
जो दुख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में
जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता।
– रघुवीर सहाय
लगता है जंगल में चुनाव आने वाला है
एक नन्हा मेमना
और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक सामने से आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी – कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।
पानी से निकलकर
मगरमच्छ किनारे पर आया,
इशारे से
बंदर को बुलाया.
बंदर गुर्राया-
खों खों, क्यों,
तुम्हारी नजर में तो
मेरा कलेजा है?
मगरमच्छ बोला-
नहीं नहीं, तुम्हारी भाभी ने
खास तुम्हारे लिये
सिंघाड़े का अचार भेजा है.
बंदर ने सोचा
ये क्या घोटाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आने वाला है.
लेकिन प्रकट में बोला-
वाह!
अचार, वो भी सिंघाड़े का,
यानि तालाब के कबाड़े का!
बड़ी ही दयावान
तुम्हारी मादा है,
लगता है शेर के खिलाफ़
चुनाव लड़ने का इरादा है.
कैसे जाना, कैसे जाना?
ऐसे जाना, ऐसे जाना
कि आजकल
भ्रष्टाचार की नदी में
नहाने के बाद
जिसकी भी छवि स्वच्छ है,
वही तो मगरमच्छ है।
– अशोक चक्रधर
क्या कहा-चुनाव आ रहा है?
क्या कहा-चुनाव आ रहा है?
तो खड़े हो जाइए
देश थोड़ा बहुत बचा है
उसे आप खाइए।
देखिये न,
लोग किस तरह खा रहे है
सड़के, पुल और फैक्ट्रियों तक को पचा रहे हैं
जब भी डकार लेते हैं
चुनाव हो जाता है
और बेचारा आदमी
नेताओं की भीड़ में खो जाता है।
संविधान की धाराओं को
स्वार्थ के गटर में
मिलाने का
हर प्रयास जारी है
ख़ुशबू के तस्करों पर
चमन की ज़िम्मेदारी है।
सबको अपनी-अपनी पड़ी है
हर काली तस्वीर
सुनहरे फ्रेम में जड़ी है।
सारे काम अपने-आप हो रहे हैं
जिसकी अंटी में गवाह है
उसके सारे खून
माफ़ हो रहे हैं
इंसानियत मर रही है
और राजनीति
सभ्यता के सफ़ेद कैनवास पर
आदमी के ख़ून से
हस्ताक्षर कर रही है।
मूल अधिकार?
बस वोट देना है
सो दिये जाओ
और गंगाजल के देश में
ज़हर पिये जाओ।
– शैल चतुर्वेदी
हे वोटर महाराज
हे वोटर महाराज,
आप नहीं आये आखिर अपनी हरकत से बाज़
नोट हमारे दाब लिये और वोट नहीं डाला
दिखा नर्मदा-घाट सौंप दी हाथों में माला
डूब गये आंसू में मेरे छप्पर और छानी
ऊपर से तुम दिखलाते हो चुल्लू भर पानी
मिले ना लड्डू लोकतंत्र के दाँव गया ख़ाली
सूख गई क़िस्मत की बगिया रूठ गया माली
बाप-कमाई साफ़ हो गई हाफ़ हुई काया
लोकतंत्र के स्वप्न-महल का खिसक गया पाया
चाट गई सब चना-चबैना ये चुनाव चकिया
गद्दी छीनी प्रतिद्वन्दी ने चमचों ने तकिया
चाय पानी और बोतलवाले करते हैं फेरे
बीस हज़ार, बीस खातों में चढे नाम मेरे
झंडा गया भाड़ में मेरा, हाय पड़ा महंगा
बच्चो ने चड्डी सिलवा ली, बीवी ने लहंगा
टूट गई रिश्वत की डोरी, डूब गई लुटिया
बिछने से पहले ही मेरी खडी हुई खटिया
– शैल चतुर्वेदी
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यह चुनाव त्योहार नहीं
यह चुनाव त्योहार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
स्थिर भारत सरकार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
मूल्यों की रक्षा करनी है
मूल्यवान है एक-एक वोट,
भ्रष्टाचार का करें खात्मा
दे-देकर नफरत की चोट।
स्वच्छ छवि आधार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
ब्लैकमेल करने वालों से
सावधान रहना होगा,
दल-बदलू स्वार्थी नेता से
होशियार रहना होगा।
विजयी ईमानदार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
बुद्धिजीवी नवजवान जब
भारत की ताकत होंगे,
लोकतंत्र की रक्षा करना
उन्हीं के मार्फत होंगे।
शपथ लिया सौ बार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
सत्य प्रतिष्ठित हो चुनाव में
गठबंधन भी मजबूरी है,
वातावरण में व्याप्त निराशा
भ्रम भी गैर ज़रूरी है
पिछली गलती सुधार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
सोच समझकर निर्णय लेना
रखना आशा भरी नज़र,
जनता के सच्चे सेवक
ही जाएँ देखें दिल्ली डगर।
यह चुनौती स्वीकार नहीं तो
इस चुनाव का मतलब क्या?
– हरिवंश प्रभात
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