Ladko Par Kavita: लड़कों की कहानी, शब्दों की जुबानी…लड़कों पर लोकप्रिय हिंदी कविताएँ

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Ladko Par Kavita

और उम्मीदों से भरी होती है। कभी वे नटखट शरारतों से घर भर देते हैं, तो कभी अपने मजबूत कंधों पर जिम्मेदारियों का भार उठाने को तैयार रहते हैं। उनके भीतर छिपी भावनाएँ, उनकी आकांक्षाएँ और उनकी कोशिशें ही उन्हें खास बनाती हैं। बताना चाहेंगे कि लड़कों पर लिखी गई कविताएँ सिर्फ उनकी बाहरी दुनिया को नहीं, बल्कि उनके भीतर की गहराइयों को भी उजागर करती हैं।

लड़कों की मासूमियत, उनके सपने, उनकी जिज्ञासाएँ और उनके संघर्ष को कविताओं के माध्यम से करीब से समझा और महसूस किया जा सकता है। इसलिए, समय-समय पर हिंदी साहित्य में लड़कों पर अनेक कविताएँ लिखी गई हैं, जो समाज के समक्ष लड़कों के संघर्षों को दर्शाती हैं। इस लेख में लड़कों पर कविता (Ladko Par Kavita) दी गई हैं, जो उनके जज्बे को सलाम करने के साथ-साथ उनके सपनों को हकीकत में बदलने का हौसला देती हैं।

लड़कों पर कविता – Ladko Par Kavita

लड़कों पर कविता (Ladko Par Kavita) की सूची इस प्रकार है;-

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
अच्छे लड़केगीता शर्मा बित्थारिया
दो लड़केसुमित्रानंदन पंत
एक लड़का मिलने आता है…संजय कुमार कुंदन
आवारा लड़केरमेश नीलकमल
बेकार लड़काहरिओम राजोरिया
आ गया सावनमहेन्द्र भटनागर
गाँव के लड़केसुमित्रानंदन पंत
जिम्मेदारी निभाते लड़केमयंक विश्नोई

अच्छे लड़के

मन्नत के रंगीन धागे
रेशम की मजबूत डोर
रक्षा सूत्र में बंधा विश्वास
स्त्री का चिर याचित प्रेम
पूजा के रंगीन कलावे से
होते हैं अच्छे लड़के

किसी की उम्मीदों के रंग
किसी के सपनों के पंख
किसी की कविताओं में छंद
किसी निर्जला व्रत का जल
स्त्री हृदय के प्रियतम पात्र
होते हैं अच्छे लड़के

वो कभी विसारते नहीं है
दादी नानी के दिए संस्कार
मां के पल्लू में बंधा प्यार
बहन का सहोदर साथ
पत्नी का सप्तपदी में थामा हाथ
बेटी के सपनों की उड़ान
प्रेमिका से किए वादे
और स्त्री को सम्मान
सर्द रात में जलता हुआ अलाव
होते हैं अच्छे लड़के

अपनी पसंदीदा किताब पढ़ती
कविताएं कहानियां लिखती
पसंदीदा परिधान में सजती
घर आंगन सजाती संभालती
घर पर उसके नाम की तख्ती लगाते
स्त्री के बेहद करीब
गरमागरम चाय का कप
होते हैं अच्छे लड़के

वो जान लेते हैं किसी
टूटे परित्यक्त रिश्ते का दर्द
वो पढ़ लेते हैं किसी
वैधव्य का सूना ऐकाकीपन
वो देख पाते हैं किसी
शापित देह में बसी पवित्रता
वो ना जाने कैसे ढूंढ लेते हैं
तेज़ाब से झुलसे चहरों में सुंदरता
कोमल भावनाओं के भरे
शरद पूनम का चांद

रजस्वला का दर्द
गर्भवती की मितलाई
प्रसविनी की असह्य पीड़ा
स्त्री के हर दर्द हर पीड़ा के
संवेदी साझीदार
अपना हृदय हार कर
जीत लेते कितने स्त्री हृदय
मखमली गुलुबंद से
होते हैं अच्छे लड़के

जब भी स्त्री को
कहीं मिल जाता है
कोई अच्छा लड़का
हृदय में बसा लेती है
उसका स्थायी भाव
फिर रहे किसी के भी साथ
जीती है हमेशा
ऐसे ही लड़के के साथ
सोए कहीं भी
जागती है ऐसे ही
किसी सुखद अनुभूत
अहसास के साथ
अच्छे लड़के होते हैं
उसके अन्तर्मन के इर्द गिर्द
उसके सपनों के आस पास
नरम धूप का गुनगुना सा स्पर्श
होते हैं अच्छे लड़के

कोई कोरी कल्पना
या किसी कहानी के गढ़े पात्र
नहीं है अच्छे लड़के
अच्छे लड़के तो बस
हर बुरे लड़के की
अनुपस्थिति में प्रकट हो जाते हैं
अच्छे लड़के

हर स्त्री ढूंढ रही है
ऐसे ही अच्छे लड़के
नीलाभ प्रेम के अनुग्रही
स्त्री के स्वप्न पुरुष
होते हैं अच्छे लड़के
कितना आसान तो होता
अच्छा लड़का बनना
फिर क्यों नहीं बन जातें हैं
सारे लड़के बस अच्छे लड़के
शायद उन्हें चाहिए होता है
किसी अच्छी लड़की का
निर्बाध साथ

बस किसी चवन्नी से
चलन से बाहर हो रहे हैं
हां मैंने देखे है
ऐसे अच्छे लड़के
डायनोसोर से
विलुप्त नहीं हुए हैं
अभी तक पृथ्वी पर
मिलते है अच्छे लड़के

गीता शर्मा बित्थारिया
साभार – कविताकोश

दो लड़के

मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर !
नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले,
मिट्टी के मटमैले पुतले, – पर फुर्तीले।

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतरकर
वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दर-
सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली
मासिक पत्रों के कवरों की, औ’ बन्दर से
किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से।
दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल
वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल

सुन्दर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन,
मानव के नाते उर में भरता अपनापन!
मानव के बालक है ये पासी के बच्चे
रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे!
अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर!
न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस पर,
जग का अधिकारी है वह, जो है दुर्बलतर!

वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर
कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर?
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन,
मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन!
क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर
मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर ।
जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय ।

जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित,
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित !
-मनुज प्रेम से जहाँ रह सके,-मावन ईश्वर !
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर?

सुमित्रानंदन पंत
साभार – कविताकोश

एक लड़का मिलने आता है

एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

कुछ ऐसी कशिश इस शाम में है
इस फितरत के इनआम में है
ये हल्का अँधेरा, हल्की ख़लिश
जिसमें जज़्बों का राज़ पले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

वो बन्द कमरे में होते हैं
वो बन्द कमरे में होते हैं
वो हँसते हैं या रोते हैं
उनकी बातों की शाहिद है
जो एक लरज़ती शम्अ जले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

बातें करते खो जाता है
लड़का ग़मगीं हो जाता है
लड़की डरती है मुस्तक़बिल
शायद गहरी इक चाल चले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

क़स्बे के शरीफ़ इन हल्क़ों में
क़स्बे के शरीफ़ इन हल्क़ों में
ग़ुस्सा है मगर इन लोगों में
इनके भी घर में लड़की है
क्यूँ इश्क़ का ये व्योपार चले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

अब कैसे कहूँ इन दोनों से
एक प्यार में डूबे पगलों से
बस्ती से बाहर इश्क़ करें
बस्ती के दिल में खोट पले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

जो कुछ भी है दुनिया का है
जो कुछ भी है दुनिया का है
फिर दिल का क्यूँ ये धंधा है
क्यूँ सदियों से मिलते हैं दिल
दुनिया में जब-जब शाम ढले
क्यूँ लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

संजय कुमार कुंदन
साभार – कविताकोश

आवारा लड़के

आवारा लड़के
केवल लकीर खींचते हैं अपनी
आवारा लड़के
केवल लकीर पीटते हैं अपनी
इसी खींचने और पीटने में
वे कोई लकीर नहीं बना पाते
जो वे बनाते
तो होती एक लम्बी लकीर
सामने की लकीर से लम्बी
उसे
छोटी बनाती हुई।

आवारा लड़के
आवारा बादलों की तरह भी नहीं होते
कि जब कभी
जहां कहीं बरस जाएं
और चुप हो जाएं
आवारा लड़के
उठा लेते हैं सर पर आसमान
अपने होने को
सच साबित करने के लिए
जबकि यह तो सच ही है
कि होते हैं
लड़के आवारे भी।

आवारा लड़के
खुद को छोटा नहीं मानते
नहीं मानते कन्फ्यूसियस का कहना
कि विनम्र होना एक बेशकीमती हुनर है
विनम्र होना छोटा होना नहीं है
विनम्र होना खोटा होना भी नहीं है

विनम्र होना
उगाना है दूसरों की नजरों में
अपने बड़े होने का अहसास
पर आवारा लड़के/यह सब कुछ नहीं मानते
यह सब कुछ नहीं जानते
समय का परिहास कि
वे यह सब कुछ न मानते हुए भी
न कुछ जानते हुए भी
बड़े होते रहते हैं

आवारा लड़के बड़े होते रहते हैं
चिकने घड़े होते रहते हैं
आवारा लड़के/कोई भली सीख
अपने पास ठहरने नहीं देते।
अब आपको यह कौन बताए कि
बड़े होने पर/आवारा लड़के
इस कदर लजाते हैं कि
आवारा लड़कों को भी
आवारा लड़के नहीं कह पाते।

रमेश नीलकमल
साभार – कविताकोश

बेकार लड़का

बेकार लड़का
माँ से नहीं डरता
पिता से नहीं डरता
और न ही मौत से
बेकारी के दिनों में
उसका सारा डर मर गया

सिगरेट के दाम से लेकर
दोस्तों के चेहरों तक
बहुत कुछ बदल गया

दीवार से उतरे हुए
पुराने केलेण्डर की तारीख़ें
चली गईं
अख़बार की रद्दी के साथ

थूकने के अलावा
क्या बचा है
बेकार लड़के के पास
जबकि दिन
बहुत छोटे हो गए हैं
और ठण्डी हवा
गालों में चुभती है

बाज़ार की चिल्ल – पों
धूल भरी गलियों के सूनेपन
और अपनी पीठ पर टिकी
क़स्बे की आँखों से बचता
देर रात पहुँचता है वह घर

नींद में बड़बड़ाते पिता
न जाने कब सुन लेते हैं
किवाड़ों पर दी गई थाप
पिता की दिनचर्या में
शामिल हो गया है दरवाज़ा

सिर झुकाकर उसका
सामने से गुज़र जाना
कुछ शब्दों के हेरफेर से
ज़माने का बिगड़ना
और ‘अरे मेरे भगवान’ कह
फिर सो जाना

उखड़े हुए नाख़ून की तरह
दुःखों से भरी होती है
बेकार लड़के की रात

कहाँ से होती है
सपनों की शुरूआत?

सपने धीरे-धीरे आते हैं
और मोटी-मोटी किताबों तक पहुँच
आकार लेने लगते हैं

कभी ऐसा होता है
जब बेकार लड़का
अपने बटुए में छिपा लेता है
पड़ोस की लड़की का चित्र
और रात छत पर खड़े होकर
घूरता है जगमगाती इमारतें

बेकार लड़के की दुनिया
नीलामी में खरीदे गए
कपड़े की तरह होती है
जो सिकुड़ता है
पहली ही धुलाई के बाद।

थान का कपड़ा नहीं होते दिन
कि जरा कैंची लगाई जाए
और च-र-र ऽऽऽ से कट जाएँ

दिनों की लड़ाई
सीधी – सादी नहीं होती
समय काटने के लिए
काटना पड़ता है दिन
जहाँ दुश्मन निराकार होता है
और पहला मोर्चा
घर में ही लगता है

सुबह की चाय से लेकर
सब्ज़ी की प्लेट फोड़ने तक
चलता है टकराहटों का दौर
फिर भी दिन नहीं कटता
कट जाता है बेकार लड़का

उनतीस साल की उमर में
अपने होने का अर्थ
खोज रहा है बेकार लड़का

बेकार लड़के को
अन्धेरी गुफ़ा से
कम नहीं हैं उनतीस साल

उमर की इस ढलान से उतरते हुए
एक क्षण ऐसा भी आता है
जब बेकार लड़का
ख़ुशी से ‘लड़का’ कहे जाने पर
उदास हो जाता है

बड़ा कठिन होता है
उमर की सीढ़ियों पर चढ़ना
जबकि हर सीढ़ी के साथ
यही लगता है बस
अब लाँघ ही लेंगे समन्दर।

हिसाब दो भाई
कौन गटक गया
तुम्हारे उनतीस साल?

चिड़ियों ने चुन लिए
या कोई चील मार गई झपट्टा
तिल-तिल का न सही
पर कुछ मोटा-मोटा तो
हिसाब होगा तुम्हारे पास

जुआ तो नहीं खेल गए
गिरवी रखे हैं क्या
किसी साहूकार के पास
या कोई चुलबुली लड़की
खोंस ले गई है जूड़े में?

क्या चूक हुई
ज़रा ध्यान करो
यों ही नहीं खो सकता
कोई अपने उनतीस साल।

सूँघकर फेंक दो फूल
फूलों को मसल दो
चाहे बिखेरकर कली-कली
बहा दो नदी की धारा में
कुछ नहीं बोलते फूल

उनतीस साल की उमर में
एक दिन अचानक
डाली से टूटा हुआ फूल हो जाता है
बेकार लड़का।

हरिओम राजोरिया
साभार – कविताकोश

लड़कों पर उत्कृष्ट कविताएँ – Poem on Boys in Hindi

यहाँ लड़कों पर प्रसिद्ध कविताएं (Poem on Boys in Hindi) दी गई हैं:-

कुछ बेरोजगार लड़के

कुछ बेरोज़गार लड़के न हो तो
सूनी रह जाये गलियाँ,
बिना फुलझड़ियों के रह जाये दीवाली
बिना रंगों के रह जाये होली
बेरौनक रह जाये सड़के, त्यौहारों
का पता न
चल पाए,
बिना इनके हुडदंग के।

मंदिर सूने रह जाये,
बिना शृंगार के
यदि ये चंदा न उगाहे
फूँके ट्रांसफार्मर दिनो तक न बने, यदि ये नारे न लगाएँ

धरने, प्रदर्शन, तमाशों के लिए
हमेशा
हाज़िर रहती है इनकी जमात

हम बड़े खुश होते हैं जब हमारी
सुविधाओं के लिए ये नारे लगाते हैं,
या पत्थर फेकते हैं,
पर सामने पड़ते ही बिदक
जाता हैं हमारा अभिजात्य, हम इन्हें मुँह नहीं लगाते, इनकी खिलखिलाहट खिजाती है, हमें।
हम बन्द कर लेते हैं, खिड़कियाँ, दरवाजे इनकी आवाज़ सुनकर
अजीब तरह से ताली बजाकर
हँसते हैं,
नुक्कड़ पर खड़ा देख कर कोसते हैं हम,
लफंगा समझते हैं हम इन्हें
और ये हमे

स्वार्थी समझते है।
सचमुच हम चाहते हैं, ये नज़र न आये
हमें बिना काम
पर इन्हें कही खड़ा रहने की जगह
नहीं दे पा रहे है, हम या हमारी सरकार।

वंदना मिश्रा
साभार – कविताकोश

गाँव के लड़के

मिट्टी से भी मटमैले तन,
अधफटे, कुचैले, जीर्ण वसन,–
ज्यों मिट्टी के हों बने हुए
ये गँवई लड़के—भू के धन!

कोई खंडित, कोई कुंठित,
कृश बाहु, पसलियाँ रेखांकित,
टहनी सी टाँगें, बढ़ा पेट,
टेढ़े मेढ़े, विकलांग घृणित!

विज्ञान चिकित्सा से वंचित,
ये नहीं धात्रियों से रक्षित,
ज्यों स्वास्थ्य सेज हो, ये सुख से
लोटते धूल में चिर परिचित!

पशुओं सी भीत मूक चितवन,
प्राकृतिक स्फूर्ति से प्रेरित मन,
तृण तरुओं-से उग-बढ़, झर-गिर,
ये ढोते जीवन क्रम के क्षण!

कुल मान न करना इन्हें वहन,
चेतना ज्ञान से नहीं गहन,
जग जीवन धारा में बहते
ये मूक, पंगु बालू के कण!

कर्दम में पोषित जन्मजात,
जीवन ऐश्वर्य न इन्हें ज्ञान,
ये सुखी या दुखी? पशुओं-से
जो सोते जगते साँझ प्रात!

इन कीड़ों का भी मनुज बीज,
यह सोच हृदय उठता पसीज,
मानव प्रति मानव की विरक्ति
उपजाती मन में क्षोभ खीझ!

सुमित्रानंदन पंत
साभार – कविताकोश

जिम्मेदारी निभाते लड़के

“आशावाद के आँगन में
सुखद पवन का झोंका हैं
त्याग की परम निशानी हैं
ये परिवर्तन का मौका हैं
जिम्मेदारी निभाते लड़के
अच्छे दिनों की सौगात हैं
परिश्रम की परिभाषा हैं
खुशियों की बुनियाद हैं

संकट के समय में
परिवार की ढाल हैं
मायूसी की काली घटाओं में
हँसी-ठहाके इनके कमाल हैं
जिम्मेदारी निभाते लड़के
बसंत की बहार हैं
हर मोर्चे पर हैं जुटे हुए
ये यक़ीनन खुद्दार हैं

जेबों में भरकर
हौंसलों को अपने
परिवार के करते हैं
साकार सब सपने
जिम्मेदारी निभाते लड़के
वीरता का पर्याय हैं
ज़िंदगी के हर किस्सों में
ये जैसे नया अध्याय हैं

जिम्मेदारी निभाते लड़के
हर दौर में अंगार हैं
सपनों को जीते जी भर के,
ये परिवर्तन की पुकार हैं…”

मयंक विश्नोई

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