UPSC और UGC/NET की परीक्षा देने वाले हर विद्यार्थी को भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय के बारे जरूर पता होना चाहिए। बता दें कि ‘काव्यशास्त्र’ काव्य और साहित्य का दर्शन एवं विज्ञान है। यह काव्यकृतियों के विश्लेषण के आधार पर समय-समय पर प्रस्तुत किए गए सिद्धांतों का समूह है। संस्कृत भाषा में ‘काव्य’ शब्द का प्रयोग साहित्य के अर्थ में होता है। शास्त्र का अर्थ है अनुशासन। बता दें कि संस्कृत भाषा से ही हिंदी में काव्यशास्त्र आया है। संस्कृत के आचार्य भरतमुनि के ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ (Natya Shastra) को प्रथम काव्य शास्त्रीय ग्रंथ माना जाता है और इसे पंचम वेद कहकर सम्मानित किया जाता है। वहीं विद्वानों के अनुसार काव्यशास्त्र के कई अन्य नाम भी देखने को मिलते हैं, जैसे साहित्यशास्त्र, समीक्षाशास्त्र व अलंकारशास्त्र आदि।
काव्यशास्त्र के प्राचीन नामों में ‘क्रियाकलाप’ और ‘आचार्य राजशेखर’ द्वारा दिया गया नाम ‘साहित्य विद्या’ भी है। राजशेखर ने काव्य-विधा तथा साहित्य विधा को एक दूसरे का पर्याय माना है। उनके मतानुसार शब्द और अर्थ के सहभाव को बताने वाली विधा ‘शास्त्र’ साहित्य-विधा है। हालांकि ये नामकरण प्रसिद्ध नहीं हो सका।
आपको बता दें कि ‘आचार्य भरतमुनि’ से लेकर रीतिकाल के ‘पंडितराज जगन्नाथ’ तक लगभग दो हजार वर्ष तक फैली हुई संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा में विभिन्न काव्य सिद्धांतों का प्रतिपादन और खंडन-मंडन होता रहा है। ये सिद्धांत कई विचारात्मक दृष्टियों के माध्यम से प्रवर्तित-प्रतिपादित हुई जिन्हें भारतीय काव्यशास्त्र के ‘संप्रदाय’ कहा जाता है। ये संप्रदाय मुख्तया छह हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय के लेख में आप इन सम्प्रदायों के बारे में विस्तार से जानेंगे।
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भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय
भारतीय काव्यशास्त्र के छह प्रमुख संप्रदाय तथा इनके प्रणेता आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं :-
संप्रदाय | प्रणेता आचार्य | ग्रंथ |
रस संप्रदाय | आचार्य भरतमुनि | नाट्यशास्त्र |
अलंकार संप्रदाय | आचार्य भामह | काव्यालंकार |
रीति संप्रदाय | आचार्य वामन | काव्यालंकारसूत्रवृति |
ध्वनि संप्रदाय | आचार्य आनंदवर्धन | ध्वन्यालोक |
वक्रोक्ति संप्रदाय | आचार्य कुंतक | वक्रोक्तिजीवितम् |
औचित्य संप्रदाय | आचार्य क्षेमेंद्र | औचित्यविचार चर्चा |
काव्यशास्त्र का स्वरूप
भारतीय काव्यशास्त्र की पृष्ठभूमि में संस्कृत काव्य की अनेक विशेषताओं का योगदान रहा है। संस्कृत आलोचना-शास्त्र मुख्यत: सिद्धांतवादी रहा है। वहीं आचार्यों ने काव्य की आत्मा की खोज पर अधिक ध्यान दिया है। जबकि हिंदी में यह भारतीय काव्यशास्त्र संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से गुजरता हुआ आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’, ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’, ‘महादेवी वर्मा’ ‘हरदेव बाहरी’ और ‘नंददुलारे वाजपेयी’ आदि अनेक विद्वानों द्वारा इस परंपरा को आगे बढ़ाया है।
संप्रदाय क्या है?
अंत: संप्रदाय का आशय यह है कि एक विचार को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ाने वाले विद्वान एक संप्रदाय के विद्वान कहलाते हैं। संप्रदाय का अर्थ होता है ‘धरोहर’ या ‘वैचारिक धरोहर’। अंग्रेजी में इसे ‘School of thought’ कहते हैं। उदाहरण के लिए अलंकार संप्रदाय की स्थापना ‘आचार्य भामह’ ने की थी। दंडी, उद्भट और रुद्रट आदि अनेक प्रतिभाशाली आचार्यों ने भामह की स्थापना को आगे बढ़ाया और यह चिंतन परंपरा आधुनिक काल तक सक्रिय रही।
रस संप्रदाय
रस संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ (Natya Shastra) में रस के विभिन्न अवयवों का विवेचन किया है तथा ‘रस सूत्र’ दिया। भारतमुनि का रस सूत्र इस प्रकार है- ‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पत्तिः’। अर्थात विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है। वहीं नाट्यशास्त्र में रस सिद्धांत का विवेचन है। इस ग्रंथ में कुल 32 अध्याय हैं। अंत: रस सिद्धांत को सबसे पहला संप्रदाय माना जाता है।
अलंकार संप्रदाय
आचार्य भामह (छठी शताब्दी) को अलंकार संप्रदाय का प्रणेता माना जाता है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम है- ‘काव्यालंकार’ (Kavyalankara)। भामह ने 37 अलंकारों का निरूपण किया तथा अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व घोषित किया। जैसे आभूषण शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, वैसे ही अलंकार का कार्य काव्य की शोभा बढ़ाना है। भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में रस के बाद दूसरा महत्वपूर्ण संप्रदाय अलंकार संप्रदाय है।
रीति संप्रदाय
रीति संप्रदाय के प्रवर्तक कश्मीरी आचार्य वामन (नवीं शताब्दी) हैं। इनके ग्रंथ का नाम ‘काव्यालंकारसूत्रवृति’ (Kavyalankara Sutra Vritti) है। उन्होंने काव्य और सौंदर्य को एक दूसरे का पर्याय माना है। वामन ने रीति संप्रदाय में गुणों को इतना महत्व दिया है कि रीति संप्रदाय का दूसरा नाम ‘गुण संप्रदाय’ पड़ गया है।
ध्वनि संप्रदाय
ध्वनि संप्रदाय के प्रवर्तक आंनदवर्धन (नवीं शताब्दी) है। इनके ग्रंथ का नाम ‘ध्वन्यालोक’ (Dhvanyaloka) है। इसमें ध्वनि पर प्रकाश डाला गया है। उन्होंने अपने ग्रंथ में मुख्यत: दो कार्य किए हैं- प्रथम ध्वनि का स्वरूप तथा इसके भेद प्रस्तुत किए। दूसरा रस आदि उक्त सिद्धांतों को, विशेषत: अलंकार और रीति को नए रूप प्रदान करते हुए इन्हें ध्वनि सिद्धांत के अंतर्गत समाविष्ट किया।
वक्रोक्ति संप्रदाय
वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रेणता ‘आचार्य कुंतक’ है। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘वक्रोक्तिजीवितम्’ (Vakrokti Jivitam) में वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए इसका लक्षण एवं स्वरूप प्रस्तुत किया है। इसके अनेक भेदोपभेद किए तथा इसे काव्य की आत्मा माना। कुंतक ने विचित्र अभिधा को की वक्रोक्ति है।
औचित्य संप्रदाय
औचित्य संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेंद्र (11वीं शताब्दी) माने जाते हैं। क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ ‘औचित्यविचार चर्चा’ (Auchitya Vichar Charcha) में औचित्य को काव्य की आत्मा मानकर काव्यशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों के बीच एक समन्वयकारी औचित्य सिद्धांत की स्थापना की है।
FAQs
भारतीय काव्यशास्त्र में छह प्रमुख संप्रदाय हैं।
संस्कृत के काव्यशास्त्रीय उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर भरतमुनि को काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य माना जाता है।
आचार्य भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ को प्रथम काव्यशास्त्रीय ग्रंथ माना जाता है।
आचार्य भरतमुनि रस संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं।
भरत मुनि का रस सूत्र है- ‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पत्तिः’।
‘नाट्यशास्त्र’ में भरतमुनि ने रसों की संख्या आठ मानी है।
आशा है कि आपको इस लेख में भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय के बारे में सभी आवश्यक जानकारी मिल गई होगी। हिंदी साहित्य के कवि और लेखक के जीवन परिचय से जुड़े ब्लॉग्स पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।