Basant Ritu Par Kavita: बसंत ऋतु की खूबसूरती पर दिल को छू लेने वाली कविताएं

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Basant Ritu Par Kavita

Basant Ritu Par Kavita: बसंत ऋतु को ऋतुओं का राजा कहना अनुचित नहीं होगा, क्योंकि यह ऋतु प्रकृति की अद्भुत सुंदरता और उल्लास का प्रतीक होती है। सर्दियों के जाने और गर्मियों के आगमन के बीच में आने वाली ऋतु को ही बसंत ऋतु के नाम से जाना जाता है, जिसमें हमारी प्रकृति अपने सबसे सुंदर और जीवंत रूप में होती है। इस ऋतु पर कई ऐसी लोकप्रिय रचनाएं हैं, जो हमें इसकी महिमा और खूबसूरती का एहसास कराती हैं। समय-समय पर ऐसे कई कवि/कवियित्री हुई हैं, जिन्होंने बसंत ऋतु पर अनुपम काव्य कृतियों का सृजन किया है। इस ब्लॉग में आप बसंत ऋतु पर कविताएं (Basant Ritu Par Kavita) पढ़ पाएंगे। 

वसंत ऋतु पर कविताएं – Basant Ritu Par Kavita

वसंत ऋतु पर कविताएं (Basant Ritu Par Kavita) और उनकी सूची इस प्रकार हैं:-

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
सखि, बसंत आयासूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वसन्त आयासूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वसन्त की अगवानीनागार्जुन
वसन्त की परी के प्रतिसूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वसन्त-श्रीसुमित्रानंदन पंत
ऋतु वसंत की आयीगुलाब खंडेलवाल
बसंत के नाम पररामधारी सिंह “दिनकर”
मन्मथ वसन्तकेदारनाथ अग्रवाल
नारीसुमित्रानंदन पंत

सखि, वसन्त आया

सखि वसन्त आया।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर,
जागी नयनों में वन
यौवन की माया।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया। 
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वसन्त आया

सखि, वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन
यौवन की माया।

अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे
केशर के केश कली के छुटे,

स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वसन्त की अगवानी

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं
चूम रही हैं
कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !!
इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ
उद्धित जग की ये किन्नरियाँ
अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा
अनुपल इनमें भरती जाती
ललित लास्य की लोल लहरियाँ !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ !!
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली 
नागार्जुन

वसन्त की परी के प्रति

आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी
छवि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी-
छबि-विभावरी;

बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी
छबि-विभावरी

निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी
छबि-विभावरी;

आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
’जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें– सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी
छबि-विभावरी
– सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वसन्त-श्री

उस फैली हरियाली में,
कौन अकेली खेल रही मा!
वह अपनी वय-बाली में?
सजा हृदय की थाली में

क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,
मोद, मधुरिमा, हास, विलास,
लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,
स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!
ऊषा की मृदु-लाली में
किसका पूजन करती पल पल
बाल-चपलता से अपनी?
मृदु-कोमलता से वह अपनी,
सहज-सरलता से अपनी?
मधुऋतु की तरु-डाली में

रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,
भर कर मुकुलित अंगों में
मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?
खिल खिल बाल-उमंगों में,
हिल मिल हृदय-तरंगों में!
– सुमित्रानंदन पंत

ऋतु वसंत की आयी

ऋतु वसंत की आयी
नव प्रसून फूले, तरुओं ने नव हरियाली पायी

पाकर फिर से रूप सलोना
महक उठा वन का हर कोना
करती जैसे जादू-टोना
फिरी नवल पुरवाई

लज्जा के अवगुंठन सरके
नयनों में नूतन रस भरके
गले लगी लतिका तरुवर के
भरती मृदु  अँगड़ाई  

ऋतु वसंत की आयी
नव प्रसून फूले, तरुओं ने नव हरियाली पायी
– गुलाब खंडेलवाल

वसन्त के नाम पर

प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।

सुन्दरता को जगी देखकर,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

ठोकर मार भाग्य को फोडूँ
जड़ जीवन तज कर उड़ जाऊॅं;
उतरी कभी न भू पर जो छवि,
जग को उसका रूप दिखाऊॅं।

स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो उसे सत्य में व्याप्त करूँ।
और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।

कलम उठी कविता लिखने को,
अन्तस्तल में ज्वार उठा रे!
सहसा नाम पकड़ कायर का
पश्चिम पवन पुकार उठा रे!

देखा, शून्य कुँवर का गढ़ है,
झॉंसी की वह शान नहीं है;
दुर्गादास – प्रताप बली का,
प्यारा राजस्थान नहीं है।

जलती नहीं चिता जौहर की,
मुटठी में बलिदान नहीं है;
टेढ़ी मूँछ लिये रण – वन,
फिरना अब तो आसान नहीं है।

समय माँगता मूल्य मुक्ति का,
देगा कौन मांस की बोटी?
पर्वत पर आदर्श मिलेगा,
खायें, चलो घास की रोटी।

चढ़े अश्व पर सेंक रहे रोटी नीचे कर भालों को,
खोज रहा मेवाड़ आज फिर उन अल्हड़ मतवालों को।

बात-बात पर बजीं किरीचें,
जूझ मरे क्षत्रिय खेतों में,
जौहर की जलती चिनगारी
अब भी चमक रही रेतों में।

जाग-जाग ओ थार, बता दे
कण-कण चमक रहा क्यों तेरा?
बता रंच भर ठौर कहाँ वह,
जिस पर शोणित बहा न मेरा?

पी-पी खून आग बढ़ती थी,
सदियों जली होम की ज्वाला;
हॅंस-हॅंस चढ़े सीस, आहुति में
बलिदानों का हुआ उजाला।

सुन्दरियों को सौंप अग्नि पर निकले समय-पुकारों पर,
बाल, वृद्ध औ तरुण विहॅंसते खेल गए तलवारों पर।

हाँ, वसन्त की सरस घड़ी है,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

क्या गाऊॅं? सतलज रोती है,
हाय! खिलीं बेलियाँ किनारे।
भूल गए ऋतुपति, बहते हैं,
यहाँ रुधिर के दिव्य पनारे।

बहनें चीख रहीं रावी-तट,
बिलख रहे बच्चे मतवारे;
फूल-फूल से पूछ रहे हैं,
कब लौटेंगे पिता हमारे?

उफ? वसन्त या मदन-बाण है?
वन-वन रूप-ज्वार आया है।
सिहर रही वसुधा रह-रह कर,
यौवन में उभार आया है।

कसक रही सुन्दरी-आज मधु-ऋतु में मेरे कन्त कहाँ?
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती-प्यारी, और वसन्त कहाँ?
– रामधारी सिंह “दिनकर”

मन्मथ वसन्त

यह वसन्त जो
धूप, हवा, मैदान, खेत, खलिहान, बाग में
निराकार मन्मथ मदान्ध-सा रात-दिवस साँसें लेता है,
जानी-अनजानी सुधियों के कितने-कितने संवेदों से
सरवर, सरिता,
लता-गुल्म को, तरु-पातों को छू लेता है
और हज़ारों फूलों की रंगीन सुगन्धित सजी डोलियाँ
यहाँ-वहाँ चहुँ ओर खोल कर मनोमोहिनी रख देता है
वही हमारे
और तुम्हारे अन्त:पुर में
आज समाए
हमको-तुमको
आलिंगन की तन्मयता में एक बनाए। 
– केदारनाथ अग्रवाल

बसंत ऋतु पर कविता

बसंत ऋतु पर कविता (Basant Ritu Par Kavita) पढ़कर आप बसंत ऋतु के महत्व के बारे में जान पाएंगे।

बसंत ऋतु के बासंती पौधे

ऋतु बदली
आया बसंत

बसंती चादर से
सुशोभित वसुंधरा
सूखे पत्ते उड़ते
इधर-उधर
दरख़्तों पर सुशोभित
बासंती कोमल पत्तियाँ

आम बौरा गए
हो गए बासंती
मधुर सुगन्ध से
सुगन्धित वसुन्धरा
साड़ी में लिपटी
बलखाती, मुस्काती
लकदक यौवन के
मद में मदमाती नवयौवना

धूल के गुबार
उड़ते पत्तों का बवंडर
सबको चिढ़ाते
‘शान से इठलाते
बासन्ती पत्तों से लिपटे दरख़्त
ऋतु बदली आया बसन्त
– शरद चन्द्र गौड़

बसन्तोत्सव

मस्ती से भरके जबकि हवा
सौरभ से बरबस उलझ पड़ी
तब उलझ पड़ा मेरा सपना
कुछ नये-नये अरमानों से;
गेंदा फूला जब बागों में
सरसों फूली जब खेतों में
तब फूल उठी सहस उमंग
मेरे मुरझाये प्राणों में;
कलिका के चुम्बन की पुलकन
मुखरित जब अलि के गुंजन में
तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल
मेरे इन बेसुध गानों में;
ले नई साध ले नया रंग
मेरे आंगन आया बसंत
मैं अनजाने ही आज बना
हूँ अपने ही अनजाने में!
जो बीत गया वह बिभ्रम था,
वह था कुरूप, वह था कठोर,
मत याद दिलाओ उस काल की,
कल में असफलता रोती है!
जब एक कुहासे-सी मेरी
सांसें कुछ भारी-भारी थीं,
दुख की वह धुंधली परछाँही
अब तक आँखों में सोती है।
है आज धूप में नई चमक
मन में है नई उमंग आज
जिससे मालूम यही दुनिया
कुछ नई-नई सी होती है;
है आस नई, अभिलास नई
नवजीवन की रसधार नई
अन्तर को आज भिगोती है!
तुम नई स्फूर्ति इस तन को दो,
तुम नई नई चेतना मन को दो,
तुम नया ज्ञान जीवन को दो,
ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन!
– भगवतीचरण वर्मा

बसन्त आया

जैसे बहन ‘दा’ कहती है
ऐसे किसी बँगले के किसी तरु( अशोक?) पर कोइ चिड़िया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराये पाँव तले
ऊँचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराये पत्ते
कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहायी हो-
खिली हुई हवा आयी फिरकी-सी आयी, चली गयी।

ऐसे, फ़ुटपाथ पर चलते-चलते-चलते
कल मैंने जाना कि बसन्त आया।

और यह कैलेण्डर से मालूम था
अमुक दिन वार मदनमहीने कि होवेगी पंचमी
दफ़्तर में छुट्टी थी- यह था प्रमाण
और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गन्ध से लदे-फँदे दूर के विदेश के
वे नन्दनवन होंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नग्ण्य दिन जानूंगा
जैसे मैने जाना, कि बसन्त आया।
– रघुवीर सहाय

बसंत की रात

आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,

हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

खिड़की खोल चंद्रमा झांके,
चुनरी खींच सितारे टांके,
मन करूं तो शोर मचाके,
कोयलिया अनखात,
गहन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

नींदिया बैरिन सुधि बिसराई,
सेज निगोड़ी करे ढिठाई,
तान मारे सौत जुन्हाई,
रह-रह प्राण पिरात,
चुभन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

यह पीली चूनर, यह चादर,
यह सुंदर छवि, यह रस-गागर,
जनम-मरण की यह रज-कांवर,
सब भू की सौगा़त,
गगन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।
– गोपालदास “नीरज”

बसंत में

सिर से पैर तक
फूल-फूल हो गई उसकी देह,
नाचते-नाचते हवा का
बसंती नाच।

हर्ष का ढिंढोरा
पीटते-पीटते, हरहराते रहे
काल के कगार पर खड़े पेड़।

तरंगित,
उफनाती-गाती रही
धूप में धुपाई नदी
काव्यातुर भाव से।
– केदारनाथ अग्रवाल

बसंती हवा

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ

वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए है
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ

वही हाँ, वही जो धरा की बसंती
सुसंगीत मीठा गुंजाती फिरी हूँ
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ

वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसन जिलाए हुई हूँ
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ

कसम रूप की है, कसम प्रेम की है
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी
अनोखी हवा हूँ बड़ी बावली हूँ

बड़ी मस्तमौला।
न हीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा, किया कान में ‘कू’,
उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची
वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी।

पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी
हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,
मज़ा आ गया तब,
न सुधबुध रही कुछ,
बसंती नवेली भरे गात में थी
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया, न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
– केदारनाथ अग्रवाल

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