बाजार दर्शन’ (Bajar Darshan) जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है। यह निबंध उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की मूल अंतर वस्तु को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी ने इस निबंध के माध्यम से अपने परिचित एवं मित्रों से जुड़े अनुभवों को चित्रित किया है कि बाजार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। उन्होंने यह भी बताया है कि अगर हम आवश्यकतानुसार बाजार का सदुपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं लेकिन अगर हम जरूरत से दूर बाजार की चमक-दमक में फंस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता। है। इन्हीं भावों को लेखक ने अनेक प्रकार से बताने का प्रयास किया है। चलिए जानते हैं Bajar darshan के लेखक परिचय, पाठ का सारांश, शब्द अर्थ, प्रश्न और उत्तर के बारे में।
बाजार दर्शन पाठ के लेखक का परिचय
प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेंद्र कुमार का जन्म 1905 ई० में अलीगढ़ में हुआ था। बचपन में पिता जी का देहांत होने के बाद इनका पालन-पोषण मामा ने ही किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हस्तिनापुर के गुरुकुल में हुई। इन्होंने उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस में ग्रहण की। 1921 ई. में गांधी जी के प्रभाव के कारण इन्होंने पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया। अंत में ये स्वतंत्र रूप से लिखने लगे। इनकी साहित्य-सेवा के कारण 1984 ई० में इन्हें ‘भारत-भारती’ सम्मान मिला। भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इनका देहांत सन 1990 में दिल्ली में हुआ।
रचनाएँ
- उपन्यास – परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवदर्धन, मुक्तिबोध ।
- कहानी – संग्रह-वातायन, एक रात, दो चिड़ियाँ फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाजेब, बाजार दर्शन।
- निबंध-संग्रह – प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच-विचार, समय और हम।
- साहित्यिक विशेषताएँ – हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद सबसे महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में जैनेंद्र कुमार प्रतिष्ठित हुए। इन्होंने अपने उपन्यासों व कहानियों के माध्यम से हिंदी में एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा-धारा का प्रवर्तन किया।
जैनेंद्र की पहचान अत्यंत गंभीर चिंतक के रूप में रही। इन्होंने सरल व अनौपचारिक शैली में समाज, राजनीति, अर्थनीति एवं दर्शन से संबंधित गहन प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश की है। ये गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इन्होंने गांधीवादी चिंतन दृष्टि का सरल व सहज उपयोग जीवन-जगत से जुड़े प्रश्नों के संदर्भ में किया है। ऐसा उपयोग अन्यत्र दुर्लभ है। इन्होंने गांधीवादी सिद्धांतोंजैसे सत्य, अहिंसा, आत्मसमर्पण आदि-को अपनी रचनाओं में मुखर रूप से अभिव्यक्त किया है। भाषा-शैली-जैनेंद्र जी की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज व भावानुकूल है जिसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता से हुआ है परंतु तद्भव और उर्दू-फ़ारसी भाषा के शब्दों का प्रयोग अत्यंत सहजता से हुआ है।
पाठ का सारांश
बाजार दर्शन पाठ का सारांश नीचे दिया गया है-
प्रतिपादय
‘बाजार दर्शन’ (Bajar Darshan) निबंध में गहरी वैचारिकता व साहित्य के सुलभ लालित्य का संयोग है। कई दशक पहले लिखा गया यह लेख आज भी उपभोक्तावाद व बाजारवाद को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाजार की जादुई ताकत मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाजार की चमक-दमक में फेंसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईष्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। लेखक ने कहीं दार्शनिक अंदाज में तो कहीं किस्सागो की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश की है। इस क्रम में इन्होंने केवल बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र बताया है।
सारांश
- लेखक अपने मित्र की कहानी बताता है कि एक बार वे बाजार में मामूली चीज लेने गए, परंतु वापस बंडलों के साथ लौटे। लेखक के पूछने पर उन्होंने पत्नी को दोषी बताया। लेखक के अनुसार, पुराने समय से पति इस विषय पर पत्नी की ओट लेते हैं। इसमें मनीबैग अर्थात पैसे की गरमी भी विशेष भूमिका अदा करता है। 0. पैसा पावर है, परंतु उसे प्रदर्शित करने के लिए बैंक-बैलेंस, मकान-कोठी आदि इकट्ठा किया जाता है। पैसे की पर्चेजिंग पावर के प्रयोग से पावर का रस मिलता है। लोग संयमी भी होते हैं। वे पैसे को जोड़ते रहते हैं तथा पैसे के जुड़ा होने पर स्वयं को गर्वीला महसूस करते हैं। मित्र ने बताया कि सारा पैसा खर्च हो गया। मित्र की अधिकतर खरीद पर्चेजिंग पावर के अनुपात से आई थी, न कि जरूरत की।
- लेखक कहता है कि फालतू चीज की खरीद का प्रमुख कारण बाजार का आकर्षण है। मित्र ने इसे शैतान का जाल बताया है। यह ऐसा सजा होता है कि बेहया ही इसमें नहीं फँसता। बाजार अपने रूपजाल में सबको उलझाता है। इसके आमंत्रण में आग्रह नहीं है। ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है। यह इच्छा जगाता है। हर आदमी को चीज की कमी महसूस होती है। चाह और अभाव मनुष्य को पागल कर देता है। असंतोष, तृष्णा व ईष्र्या से मनुष्य सदा के लिए बेकार हो जाता है।
- लेखक का दूसरा मित्र दोपहर से पहले बाजार गया तथा शाम को खाली हाथ वापस आ गया। पूछने पर बताया कि बाजार में सब कुछ लेने योग्य था, परंतु कुछ भी न ले पाया। एक वस्तु लेने का मतलब था, दूसरी छोड़ देना। अगर अपनी चाह का पता नहीं तो सब ओर की चाह हमें घेर लेती है। ऐसे में कोई परिणाम नहीं होता। बाजार में रूप का जादू है। यह तभी असर करता है जब जेब भरी हो तथा मन खाली हो। यह मन व जेब के खाली होने पर भी असर करता है। खाली मन को बाजार की चीजें निमंत्रण देती हैं। सब चीजें खरीदने का मन करता है।
- जादू उतरते ही फैंसी चीजें आराम नहीं, खलल ही डालती प्रतीत होती हैं। इससे स्वाभिमान व अभिमान बढ़ता है। जादू से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि बाजार जाते समय मन खाली न रखो। मन में लक्ष्य हो तो बाजार आनंद देगा। वह आपसे कृतार्थ होगा। बाजार की असली कृतार्थता है-आवश्यकता के समय काम आना। मन खाली रखने का मतलब मन बंद नहीं करना है। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। मनुष्य अपूर्ण है। मनुष्य इच्छाओं का निरोध नहीं कर सकता। यह लोभ को जीतना नहीं है, बल्कि लोभ की जीत है।
- मन को बलात बंद करना हठयोग है। वास्तव में मनुष्य को अपनी अपूर्णता स्वीकार कर लेनी चाहिए। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अत: मन की भी सुननी चाहिए क्योंकि वह भी उद्देश्यपूर्ण है। मनमानेपन को छूट नहीं देनी चाहिए। लेखक के पड़ोस में भगत जी रहते थे। वे लंबे समय से चूरन बेच रहे थे। चूरन उनका सरनाम था। वे प्रतिदिन छह आने पैसे से अधिक नहीं कमाते थे। वे अपना चूरन थोक व्यापारी को नहीं देते थे और न ही पेशगी ऑर्डर लेते थे। छह आने पूरे होने पर वे बचा चूरन बच्चों को मुफ़्त बाँट देते थे। वे सदा स्वस्थ रहते थे।
- उन पर बाजार का जादू नहीं चल सकता था। वे निरक्षर थे। बड़ी-बड़ी बातें जानते नहीं थे। उनका मन अडिग रहता था। पैसा भीख माँगता है कि मुझे लो। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। पैसे में व्यंग्य शक्ति होती है। पैदल व्यक्ति के पास से धूल उड़ाती मोटर चली जाए तो व्यक्ति परेशान हो उठता है। वह अपने जन्म तक को कोसता है, परंतु यह व्यंग्य चूरन वाले व्यक्ति पर कोई असर नहीं करता। लेखक ऐसे बल के विषय में कहता है कि यह कुछ अपर जाति का तत्व है। कुछ लोग इसे आत्मिक, धार्मिक व नैतिक कहते हैं।
- लेखक कहता है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। एक दिन बाजार के चौक में भगत जी व लेखक की राम-राम हुई। उनकी आँखें खुली थीं। वे सबसे मिलकर बात करते हुए जा रहे थे। लेकिन वे भौचक्के नहीं थे और ना ही वे किसी प्रकार से लाचार थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा था किंतु उनको मात्र अपनी जरूरत की चीज से मतलब था। वे रास्ते के फैंसी स्टोरों को छोड़कर पंसारी की दुकान से अपने काम की चीजें लेकर चल पड़ते हैं। अब उन्हें बाजार शून्य लगता है। फिर चाँदनी बिछी रहती हो या बाजार के आकर्षण बुलाते रहें, वे उसका कल्याण ही चाहते हैं।
- लेखक का मानना है कि बाजार को सार्थकता वह मनुष्य देता है जो अपनी जरूरत को पहचानता है। जो केवल पर्चेजिंग पॉवर के बल पर बाजार को व्यंग्य दे जाते हैं, वे न तो बाजार से लाभ उठा सकते हैं और न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। ये कपट को बढ़ाते हैं जिससे सद्भाव घटता है। सद्भाव नष्ट होने से ग्राहक और बेचक रह जाते हैं। वे एक-दूसरे को ठगने की घात में रहते हैं। ऐसे बाजारों में व्यापार नहीं, शोषण होता है। कपट सफल हो जाता है तथा बाजार मानवता के लिए विडंबना है और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औधा है, वह मायावी शास्त्र है, वह अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र है।
बाजार दर्शन पाठ का उद्देश्य
लेखक बाजार दर्शन पाठ में अपने मित्र की बात बताता है कि उसका मित्र बाज़ार में एक सामान लेने जाता है लेकिन लेकर बहुत कुछ आ जाता है। बाज़ार हमें आकर्षित करता है हमें जो चीज़े नहीं लेनी वह भी ले लेते है। लेखक अपने दूसरे मित्र की बात बताते है कि वह बाज़ार जाता है और खाली हाथ वह वापिस आ जाता है। उसे समझ नहीं आता की कोन सी चीज़ खरीदूं और रहने दूँ । अपनी चाह का पता न हो तो ऐसे ही होता है कि क्या सामान खरीदें। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाजार की चमक-दमक में फेंसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईष्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। फालतू चीज की खरीद का प्रमुख कारण बाजार का आकर्षण है। बाजार में रूप का जादू है। बाज़ार का असर हमें हमेशा होता है चाहे जेब खाली हो या भरी हो। बाज़ार हमारे मन को भटकता है।
बाजार दर्शन पाठ के शब्दार्थ
बाजार दर्शन पाठ के शब्दार्थ इस प्रकार हैं:
- आशय – अर्थ, मतलब।
- महिमा – महत्ता।
- प्रमाणित – सिद्ध।
- माया – आकर्षण।
- ओट – सहारा।
- मनीबैंग – पैसे रखने का थैला।
- पावर – शक्ति, ताकत।
- माल-टाल – सामान।
- यचज़िंग यावर – खरीदने की शक्ति।
- फिजूल – व्यर्थ।
- दरकार – इच्छा, परवाह।
- दत्तक – कला ।
- ब्रेहया – बेशर्म।
- हरज्र – नुकसान।
- आग्रह – खुशामद।
- तिरस्कार – अपमान।
- मूक – मौन।
- परिमित – सीमित।
- अतुलित – अपार।
- कामना – इच्छा।
- विकल – व्याकुल।
- तृष्या – लालसा, इच्छा द्वष्य – जलन।
- त्रास – दुख।
- सेक – तपन।
- खुराक – भोजन।
- कृतार्थ – अहसानमंद।
- शून्य – खाली।
- सनातन – शाश्वत।
- निरोध – रोकना।
- राह – मार्ग।
- अकारथ – व्यर्थ।
- व्यापक – विस्तृत।
- संकीण – सँकरा।
- विराट – विशाल।
- क्षुद्र – तुच्छ।
- बलात – जबरदस्ती।
- अप्रयोजनीय –अर्थरहित।
- अखिल – संपूर्ण।
- सरनाम – प्रसिद्ध।
- खुद – स्वयं।
- खुशहाल – संपन्न।
- येशगी ऑडर – सामान के लिए अग्रिम पैसा देना।
- काँधे वक्त – निश्चित समय।
- नाचीज – तुच्छ।
- अपदार्थ – महत्वहीन।
- अडिग – स्थिर।
- निमम – ममतारहित।
- कुंठित – व्यर्थ।
- दारुण – भयंकर।
- लोक – रेखा।
- वंचित – रहित।
- कृतध्न – अहसान न मानने वाला।
- अपर – दूसरी।
- स्पिरिचुअल – धार्मिक।
- प्रतिपादन – वर्णन।
- सरोकार – मतलब।
- स्मृहा – इच्छा।
- अबलता – कमजोरी।
- कोसना – गाली देना।
- येशोयेश – असमंजस।
- अप्रीति – वैर ।
- ज्ञात – मालूम।
- विनाशक – विनाशकारी।
- बेचक – व्यापारी।
- ठगना – धोखा देकर लूटना।
- पोषणा – पालन।
बाजार दर्शन प्रश्न-उत्तर
बाजार दर्शन प्रश्न- उत्तर इस प्रकार हैं:
उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ें? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी। पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी देखते हैं। पैसे की उस ‘पचेंजिग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धमान होते हैं। बुद्ध और संयमपूर्वक वे पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वे पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
प्रश्न:
लेखक के अनुसार पत्नी की महिमा का क्या कारण हैं?
सामान्य लोग अपनी पावर का प्रदर्शन किस तरह करते हैं?
आपके अनुसार स्त्री की आड़ में किस सच को छिपाया जा रहा है ?
सामान्यतः संयमी व्यक्ति क्या करते है ?
1 आदिकाल से ही स्त्री को महत्वपूर्ण माना गया है। स्त्री (पत्नी) ही महिमा है और इस महिमा का प्रशंसक उसका पति है। वही इसकी प्रमुखता को प्रमाणित कर रहा है।
2 सामान्य लोग पैसे को अपनी पावर समझते हैं। वे इस पावर का प्रदर्शन करना ही अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। वे अपने आस-पास माल-टाल, कोठी, मकान खड़ा करके इसका प्रदर्शन करते हैं।
3 स्त्री की आड़ में यह सच छिपाया जा रहा है कि इन महाशय के पास भरा हुआ मनीबैग है, पैसे की गर्मी है, ये इस गर्मी से अपनी एनर्जी साबित करने के लिए स्त्री को फ़िजूल खर्च करने देते हैं।
4 संयमी लोग ‘पर्चेजिंग पावर’ के नाम पर अपनी शान नहीं दिखाते। वे धन को जोड़कर बुद्धि और संयम से अपनी पावर बनाते हैं, प्रसन्न रहते हैं, और फ़िजूल खर्च नहीं करते।
प्रश्न:
लेखक की कल्पना के अनुसार गद्यांश के आरंभ में कौन, किससे और क्या कह रहा है?
‘चाह’ का मतलब ‘अभाव’ क्यों कहा गया है ?
बाजार, आदमी की सोच को बदल देता हैं-यद्यश के आधार पर स्पष्ट कीजिए?
बाज़ार के चौक के बारे में क्या बताया गया हैं?
1 गद्यांश के आरंभ में बाजार ग्राहक से कह रहा है कि ‘आओ मुझे लूटो । सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ।”
2 ‘चाह’ का अर्थ है-इच्छा, जो बाजार के मूक आमंत्रण से हमें अपनी ओर आकर्षित करती है और हम भीतर महसूस करके सोचते हैं कि आह! यहाँ कितना अधिक है और मेरे यहाँ कितना कम है। इसलिए ‘चाह’ का मतलब है ‘ अभाव’ ।
3 आदमी जब बाजार में आता है तो वहाँ की चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। बाजार में अपरिमित फैक्एँदेवक वाहसचता हैकिउसके पास कनाकपा है। इसप्रकर बाजरउसी सचमें बादतावल देता है।
4 बाजार का चौक हमें विकल व पागल कर सकता है। असंतोष, तृष्णा और ईष्र्या से घायल मनुष्य को सदा के लिए बेकार कर देता है।
प्रश्न:
बाजार का जादू ‘आँख की राह’ किस प्रकार काम करता है?
क्या आप भी बाज़ार के जादू ‘ में फँसे हैं ?अपना अनुभव लिखिए जब आप न चाहने पर भी सामान खरीद लेते हैं ?
बाजार का जादू अपना असर किन स्थितियों में अधिक प्रभावित करता है और क्यों?
क्या आप इस बात से सहमत है कि कमजोर इच्छा-शक्ति वाले लोग बाजार के जादू से मुक्त नहीं हो सकते? तक्र सहित लिखिए।
1 बाजार का जादू हमेशा ‘आँख की राह’ से इस तरह काम करता है कि बाजार में सजी सुंदर वस्तुओं को हम आँखों से देखते है और उनकी सुंरताप आकृष्ट होकर आवश्यकता न होने पर भी उन्हे खरीदने के लिए ललानित हो उठते है।
2 हाँ, मैं भी ‘बाजार के जादू’ में फँसा हूँ। एक बार एक बड़े मॉल में प्रदर्शित मोबाइल फोनों को देखकर मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। यद्यपि मेरे पास ठीक-ठाक फोन था, फिर भी मैंने 2400 रुपये का फोन किश्तों पर खरीद लिया।
3 बाजार के जादू की मर्यादा यह है कि वह तब ज्यादा असर करता है जब जेब भरी और मन खाली हो। जेब के खाली रहने और मन भरा रहने पर यह असर नहीं कर पाता।
4 जिन लोगों की इच्छा-शक्ति कमजोर होती है, वे बाजार के जादू से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसे लोग अपने मन पर नियंत्रण न रख पाने और कमजोर इच्छा-शक्ति के कारण बाजार के जादू का सरलता से शिकार बन जाते हैं।
प्रश्न:
बाजार के जादू की पकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय क्या हैं?
मनुष्य को बाजार कब नहीं जाना चाहिए और क्यों?
बाजार की सार्थकता किसमें है ?
बाजार से कब आनद मिलता हैं?
1 बाजार के जादू की पकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय यह है कि जब ग्राहक बाजार में जाए तो उसके मन में भटकाव नहीं होना चाहिए। उसे अपनी जरूरत के बारे में स्पष्ट पता होना चाहिए।
2 मन खाली हो, तब बाजार नहीं जाना चाहिए।
3 बाजार की सार्थकता लोगों की आवश्यकता पूरी करने में है। ग्राहक को अपनी आवश्यकता का सामान मिल जाता है तो बाजार सार्थक हो जाता है।
4 बाजार से उस समय आनंद मिलता है जब ग्राहक के मन में अपनी खरीद का लक्ष्य निश्चित होता है। वह भटकता नहीं।
प्रश्न:
‘मन खाली होने’ तथा ‘मन बंद होने’ में क्या अंतर हैं?
मन बद होने से क्या होगा?
परमात्मा व मनुष्य की प्रकृति में क्या अंतर है?
लेखक किसे झूठ बताता हैं?
1 ‘मन खाली होने’ का अर्थ है-निश्चित लक्ष्य न होना। ‘मन बंद होने’ का अर्थ है-इच्छाओं का समाप्त हो जाना।
2 मन बंद होने से मनुष्य की इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी। वह शून्य हो जाएगा और शून्य होने का अधिकार परमात्मा का है। वह सनातन भाव से संपूर्ण है, शेष सब अपूर्ण है।
3 परमात्मा संपूर्ण है। वह शून्य होने का अधिकार रखता है, परंतु मनुष्य अपूर्ण है। उसमें इच्छा बनी रहती है।
4 मनुष्य द्वारा अपनी सभी इच्छाओं का निरोध कर लेने की बात को लेखक झूठ बताता है। कुछ लोग इच्छा-निरोध को तप मानते हैं किंतु इस तप को लेखक झूठ मानता है।
बाजार दर्शन प्रश्न-उत्तर
बाजार दर्शन प्रश्न-उत्तर इस प्रकार हैं:
उत्तर – जब बाज़ार का जादू चढ़ता है तो व्यक्ति फिजूल की खरीददारी करता है। वह उस सामान को खरीद लेता है जिसकी उसे ज़रूरत नहीं होती। वास्तव में जादू का प्रभाव गलत या सही की पहचान खत्म कर देता है। लेकिन जब यह जादू उतरता है तो उसे पता चलता है कि बाज़ार की चकाचौंध ने उन्हें मूर्ख बनाया है। जादू के उतरने पर वह केवल आवश्यकता का ही सामान खरीदता है ताकि उसका पालन-पोषण हो सके।
उत्तर – बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का यह सशक्त पहलू उभरकर आता है कि उनका अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण है। वे चौक-बाजार में आँखें खोलकर चलते हैं। बाजार की चकाचौंध उन्हें भौचक्का नहीं करती। उनका मन भरा हुआ होता है, अत: बाजार का जादू उन्हें बाँध नहीं पाता। उनका मन अनावश्यक वस्तुओं के लिए विद्रोह नहीं करता। उनकी जरूरत निश्चित है। उन्हें जीरा व काला नमक खरीदना होता है। वे केवल पंसारी की दुकान पर रुककर अपना सामान खरीदते हैं। ऐसे व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकते हैं क्योंकि इनकी जीवनचर्या संतुलित होती है।
उत्तर –बाज़ारूपन से तात्पर्य है कि बाजार की चकाचौंध में खो जाना। केवल बाजार पर ही निर्भर रहना। वे व्यक्ति ऐसे बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं जो हर वह सामान खरीद लेते हैं जिनकी उन्हें ज़रूरत भी नहीं होती। वे फिजूल में सामान खरीदते रहते हैं अर्थात् वे अपना धन और समय नष्ट करते हैं। लेखक कहता है कि बाजार की सार्थकता तो केवल ज़रूरत का सामान खरीदने में ही है तभी हमें लाभ होगा।
उत्तर – यह बात बिलकुल सही है कि बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता। वह सिर्फ ग्राहक की क्रय-शक्ति को देखता है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि खरीददार औरत है या मर्द, वह हिंदू है या मुसलमान; उसकी जाति क्या है या वह किस क्षेत्र-विशेष से है। बाजार में उसी को महत्व मिलता है जो अधिक खरीद सकता है। यहाँ हर व्यक्ति ग्राहक होता है। इस लिहाज से यह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आज जीवन के हर क्षेत्र-नौकरी, राजनीति, धर्म, आवास आदि-में भेदभाव है, ऐसे में बाजार हरेक को समान मानता है। यहाँ किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता क्योंकि बाजार का उद्देश्य सामान बेचना है।
जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।
जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।
उत्तर – जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ – समाज में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिसमें पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।’निठारी कांड’ में पैसे की ताकत साफ़ दिखाई देती है।
जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई – समाज में अनेक उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ पैसे की शक्ति काम नहीं आती। ‘जेसिका लाल हत्याकांड’ में अपराधी को अपार धन खर्च करने के बाद भी सजा मिली। इस प्रकार के अन्य प्रसंग विद्यार्थी स्वयं लिखें।
मन खाती हां
मन खालाँ न हो
मन बंद हरे
मन में नकार हो
उत्तर – कई बार तो मन करता है कि बाज़ार जाकर इस उपभोक्तावादी संस्कृति के अंग बन जाएँ। सारा सामान खरीद लें ताकि बाजारवाद का प्रभाव हम पर भी पड़ सके।
लेकिन कभी-कभी मन बिलकुल खाली नहीं होता तब उस पर एक प्रकार का प्रभाव पड़ा रहता है। वह नहीं चाहता है कि कुछ खरीदा जाए।
कई बार ऐसी भी स्थिति आई है कि मन हर तरह से बंद रहा अर्थात् जो कुछ हो रही उसे चुपचाप देखते रहना चाहता है। जरूरत हो तो ले लिया वर्ना नहीं।
मन में नकारने की स्थिति भी रही। बाजार से यह सामान तो लेना ही नहीं क्योंकि शॉपिंग मॉल में सामान बहुत महँगा मिलता है। वस्तुतः इस स्थिति में मन बाजारवादी संस्कृति का विरोध करता है।
उत्तर – “बाजार दर्शन (Bajar Darshan) है पाठ में कई प्रकार के ग्राहकों की बाते हुई हैं उगे निम्नलिखित है–
पकेंजिग पावर का प्रदर्शन करने वाले ग्राहक ।
खाली मन व भरी जेब वाले गाहक ।
खाली मन व खाली जेब वाले ग्राहक ।
भरे मन वाले ग्राहक ।
मितव्ययी व संयमी प्राहक ।
अपव्ययी व असंयमी गाहक ।
बाजार का बाजारूपन बहाने वाले गाहक ।
मैं स्वयं को भी मन वाला गाहक समझता है क्योंकि मैं वे ही वस्तुएँ बाजार से खरीदकर लाता है जिनकी मुझे जरूरत होती है।
उत्तर – आज बाजार मुख्यतः तीन संस्कृतियों में बँटा नज़र आता है। वास्तव में इन्हीं तीन संस्कृति के बाजार आज पूरे देश में फैले हुए हैं। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाजार की संस्कृति में बहुत. अंतर है। इसी प्रकार सामान्य बाज़ार में तथा हाट में काफ़ी अंतर है। सबसे महँगा मॉल है क्योंकि इसमें ब्रांडेड वस्तुएँ बेची जाती हैं। जबकि सामान्य बाजार में स्थानीय मार्का का सामान मिल जाता है। हाट की संस्कृति निम्न मध्यवर्गीय में बहुत प्रचलित है। हाट मुख्यतः ग्रामीण बाज़ार संस्कृति में है। पर्चेजिंग पावर तो मात्र मॉल में ही नजर आती है।
उत्तर– हम इस विचार से पूर्णतया सहमत है कि कभी…कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है । आमतौर पर देखा जाता है कि जब गाहक अपनी आवश्यकता को बताता है तो दुकानदार उस वस्तु के दाम बढा देता है । हाल ही में चीनी के दामों में भारी उछाल आया क्योंकि इसकी कमी का अंदेशा था तथा यह आम आदमी के लिए जरूरी वस्तु थी ।
उत्तर– कबीर जैसे कालजयी कवियों ने ‘माया’ को स्त्री माना है। यहाँ जैनेंद्र ने माया शब्द का अर्थ पैसा-रुपया बताया है। लेखक कहता है कि परिस्थितियों के कारण ही स्त्रियाँ पैसा जोड़ती हैं वरना पैसा जोड़ना तो वे सीखी ही नहीं है। स्त्रियाँ कई परिस्थितियों में पैसा जोड़ने पर विवश हो जाती हैं; यथा
बेटी की शादी के लिए।
बेटी की पढ़ाई के लिए
गहने आदि बनवाने के लिए।
बैंक या डाकखाने की मासिक किस्त जमा करने हेतु।
घर की ज़रूरत को पूरा करने के लिए।
भविष्य में होने वाले वैवाहिक उत्सवों के लिए।
बाजार दर्शन MCQs
बाजार दर्शन MCQs नीचे दिए गए हैं-
A. महादेवी वर्मा
B. फणीश्वर नाथ रेणु
C. धर्मवीर भारती
D. जैनेंद्र कुमार
Ans- D. जैनेंद्र कुमार
A. बाज़ार के उपयोग का विवेचन
B. बाजार से लाभ
C. बाज़ार न जाने की सलाह
D. बाज़ार जाने की सलाह
Ans- A. बाज़ार के उपयोग का विवेचन
A. अपने पिता के साथ
B. मित्र के साथ
C. पत्नी के साथ
D. अकेला
Ans- C. पत्नी के साथ
A. हाँ
B. नहीं
C. कह नहीं सकता
D. बाज़ार का दोष है
Ans- B. नहीं
A. पावर है
B. हाथ की मैल है
C. माया का रूप है
D. पैसा व्यर्थ है
Ans- A. पावर है
A. लोभी
B. संतोषी
C. ईर्ष्यालु
D. मूर्ख
Ans- B. संतोषी
A. जब ग्राहक का मन खाली होता है
B. जब ग्राहक का मन भरा हुआ होता है
C. जब ग्राहक के साथ उसकी पत्नी होती है
D. जब ग्राहक गरीब होता है
Ans- A. जब ग्राहक का मन खाली होता है
A. जब मन खाली हो
B. जब मन खाली न हो
C. जब मन बंद हो
D. जब मन में नकार हो
Ans- B. जब मन खाली न हो
A. लिंग को
B. जाति को
C. धर्म को
D. क्रय-शक्ति को
Ans- D. क्रय-शक्ति को
A. बाजार से सामान खरीदना
B. बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदना
C. बाजार से आवश्यक वस्तुएँ खरीदना
D. बाज़ार को सजाकर आकर्षक बनाना
Ans- B. बाज़ार से अनावश्यक वस्तुएँ खरीदना
FAQs
बाज़ारूपन से लेखक का अभिप्राय है कि बाज़ार को अपनी आवश्यकता के अनुरूप नहीं बल्कि दिखाने के लिए प्रयोग में लाना। इस प्रकार हम अपने सामर्थ्य से अधिक खर्च करते हैं और अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लाते हैं, तो हम बाज़ारूपन को बढ़ावा देते हैं।
जो केवल पर्चेजिंग पॉवर के बल पर बाजार को व्यंग्य दे जाते हैं, वे न तो बाजार से लाभ उठा सकते हैं और न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं।
बाजार दर्शन पाठ में भगत चूरन बेचता था
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