Sumitranandan Pant ki Kavitayen: प्रकृति और प्रेम का अनोखा संगम बनती सुमित्रानंदन पंत की कविताएं

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Sumitranandan Pant ki Kavitayen

Sumitranandan Pant ki Kavitayen: सुमित्रानंदन पंत की कविताएं समाज को आज तक सही मार्ग दिखाने का सफल प्रयास करती हैं। सुमित्रानंदन पंत एक ऐसे कालजेयी कवि थे, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज की चेतना को जगाए रखने का काम किया है। सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य की वो अनमोल मणि थे, जिन्हें ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ के नाम से भी जाना जाता है। सुमित्रानंदन पंत की लिखी कविताएं आज तक भारतीय समाज के साथ-साथ, दुनियाभर में रह रहे साहित्य प्रेमियों को प्रेरित करने का प्रयास करती हैं। इस ब्लॉग में आप सुमित्रानंदन पंत की कविताएं (Sumitranandan Pant ki Kavitayen) पढ़ पाएंगे, यह कविताएं आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन का संचार करेंगी। सुमित्रानंदन पंत की कविताएं पढ़ने के लिए आपको इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ना होगा।

सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय

सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय आपको हिंदी साहित्य में उनके अतुल्नीय योगदान के बारे बताएगा, जिससे आपका ध्यान साहित्य के सौंदर्य की ओर आकर्षित होगा। हिन्दी साहित्य की अनमोल मणियों में से एक सुमित्रानंदन पंत जी भी थी, जिन्होंने हिंदी साहित्य के लिए अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 को बागेश्वर ज़िले के कौसानी में हुआ था, जो कि आज के उत्तराखंड राज्य में पड़ता है। जन्म के कुछ ही घंटों बाद उनकी माता की मृत्यु हो गई थी, जिस कारण उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया था। सुमित्रानंदन पंत जी का बचपन का नाम गोसाईं दत्त रखा गया था।

सुमित्रानंदन पंत जी ने प्रयाग में अपनी उच्च शिक्षा के दौरान वर्ष 1921 में हुए, असहयोग आंदोलन में महात्मा गाँधी के बहिष्कार के आह्वान का समर्थन किया। इस आंदोलन के चलते उन्होंने महाविद्यालय को छोड़ दिया और हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा-साहित्य के स्वाध्याय में लग गए।

प्रयाग ही वह नगरी है जहाँ उनकी काव्य-चेतना का विकास हुआ था, हालाँकि पंत जी ने नियमित रूप से कविताएँ लिखने की यात्रा अपनी किशोर आयु से ही प्रारम्भ कर दी थी। उनका रचनाकाल 1916 से 1977 तक रहा, पंत जी ने अपने जीवन में हिन्दी साहित्य के लिए लगभग 60 वर्षों तक की निरंतर सेवा की।

सुमित्रानंदन पंत जी की काव्य-यात्रा के तीन चरण देखे जाते हैं। इन्हीं तीन चरणों में उनकी पूरी काव्य यात्रा की झलकियां देखने को मिल जाती है। पंत जी की कविताओं ने सदैव समाज को जागृत रखने में अपना योगदान दिया। उन्होंने हिन्दी साहित्य में अपनी रचनाओं के आधार पर खूब यश कमाया। 28 दिसंबर 1977 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में सुमित्रानंदन पंत जी का निधन हुआ और वह सदा के लिए पंचतत्व में विलीन हो गए।

यह भी पढ़ें: सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय

सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ

Sumitranandan Pant ki Kavitayen पढ़ने के पहले आपको उनकी रचनाओं के बारे में पता होना चाहिए, जिसको आप इस ब्लॉग में पढ़ेंगे। सुमित्रानंदन पंत की कविताएं उनके समय के सामाजिक परिपेक्ष्य में स्वतंत्रता, शिक्षा और समाज में उनकी भूमिका को दर्शाने वाली हैं। हिंदी साहित्य में उनके महान और महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही, उनको ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ का स्थान प्राप्त था। सुमित्रानंदन पंत जी की कुछ विशेष रचनाएं निम्नलिखित हैं;

चिदंबर

चिदंबर सुमित्रानंदन पंत जी द्वारा रचित प्रमुख कविता संग्रह है। जिसके माध्यम से वे प्रकृति, प्यार और भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को छूने का प्रयास करते हैं। “चिदंबर” में लिखी हर कविता सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध कविता है।

गीतिकाव्य

यह काव्य पंत जी द्वारा रचित उन प्रमुख काव्यों में से एक है, जिसमें वे भारतीय संस्कृति और इतिहास के प्रति अपनी गहरी भावनाओं को व्यक्त करते हैं।

गर्म तल

इस काव्य रचना में सुमित्रानंदन पंत जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। इस काव्य में स्वतंत्रता के लिए किये गए संघर्षों को सम्मानित किया गया है।

चिदंबरमा

इस कविता में, सुमित्रानंदन पंत जी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद के अकेलेपन और उसकी यादों को व्यक्त करते हैं। अकेलेपन में लिखी गई पीड़ाओं को यह काव्य सम्मानित करता है।

कालतंतु

यह काव्य पाठ उनके संवाद काव्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें पंत जी भारतीय समाज की समस्याओं को उठाते हैं। पंत जी का उद्देश्य केवल सवाल उठा कर बवाल करने का नहीं, बल्कि समाज की चिंताओं और समस्याओं के प्रति एक कवि के रूप में अपने कर्तव्यों के रूप में पालन करना है।

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सुमित्रानंदन पंत की कविताएं – Sumitranandan Pant ki Kavitayen

सुमित्रानंदन पंत की कविताएं (Sumitranandan Pant ki Kavitayen) कुछ इस प्रकार हैं, जो आपका परिचय हिंदी साहित्य के सौंदर्य से करवाएंगी। सुमित्रानंदन पंत की कविताएं कुछ इस प्रकार हैं –

  • गंगा
  • ग्राम देवता
  • पर्वत प्रदेश में पावस
  • लहरों का गीत
  • संस्कृति का प्रश्न
  • जग जीवन में जो चिर महान
  • भारतमाता ग्रामवासिनी
  • परिवर्तन
  • अमर स्पर्श
  • घंटा
  • अनुभूति
  • प्रथम रश्मि
  • मछुए का गीत
  • यह धरती कितना देती है
  • श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति
  • आ: धरती कितना देती है
  • महात्मा जी के प्रति
  • सांध्य वंदना
  • वायु के प्रति
  • प्रार्थना
  • याद
  • चींटी
  • विजय
  • बापू के प्रति
  • अँधियाली घाटी में
  • मिट्टी का गहरा अंधकार
  • द्वाभा के एकाकी प्रेमी
  • तितली
  • सन्ध्या
  • ताज
  • मानव
  • वसंत
  • नौका-विहार
  • संध्‍या के बाद
  • खोलो, मुख से घूँघट
  • छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
  • काले बादल
  • गृहकाज
  • चांदनी
  • तप रे!
  • ताज
  • धेनुएँ
  • नहान
  • द्रुत झरो
  • दो लड़के
  • चमारों का नाच
  • कहारों का रुद्र नृत्य
  • महात्मा जी के प्रति
  • चरख़ा गीत
  • राष्ट्र गान
  • स्त्री
  • नारी
  • आधुनिका
  • संध्या के बाद
  • सांस्कृतिक हृदय
  • स्वप्न और सत्य
  • खिड़की से
  • भारत ग्राम
  • रेखा चित्र
  • दिवा स्वप्न
  • सौन्दर्य कला
  • मज़दूरनी के प्रति
  • स्वीट पी के प्रति
  • कला के प्रति
  • द्वन्द्व प्रणय
  • सूत्रधार
  • १९४०
  • बापू
  • पतझर
  • अहिंसा
  • उद्बोधन
  • नव इंद्रिय
  • कवि किसान
  • गुलदावदी
  • आँगन से
  • याद
  • वाणी
  • नक्षत्र
  • विनय
  • आत्मा का चिर-धन
  • बाँध दिए क्यों प्राण
  • बापू के प्रति
  • पाषाण खंड
  • आजाद
  • वे आँखें
  • मोह
  • बापू
  • बाल प्रश्न
  • जीना अपने ही में
  • आओ, हम अपना मन टोवें
  • फैली खेतों में दूर तलक मखमल की कोमल हरियाली
  • जय जन भारत जन मन अभिमत
  • धरती का आँगन इठलाता
  • वह जीवन का बूढ़ा पंजर
  • धूप का टुकड़ा
  • पुण्य प्रसू
  • सोनजुही इत्यादि।

गंगा

अब आधा जल निश्चल, पीला,--
आधा जल चंचल औ’, नीला--
गीले तन पर मृदु संध्यातप
सिमटा रेशम पट सा ढीला।

ऐसे सोने के साँझ प्रात,
ऐसे चाँदी के दिवस रात,
ले जाती बहा कहाँ गंगा
जीवन के युग क्षण,-- किसे ज्ञात!

विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
किरणोज्वल चल कल ऊर्मि निरत,
यमुना, गोमती आदी से मिल
होती यह सागर में परिणत।

यह भौगोलिक गंगा परिचित,
जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
इस जड़ गंगा से मिली हुई
जन गंगा एक और जीवित!

वह विष्णुपदी, शिव मौलि स्रुता,
वह भीष्म प्रसू औ’ जह्नु सुता,
वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।

वह गंगा, यह केवल छाया,
वह लोक चेतना, यह माया,
वह आत्म वाहिनी ज्योति सरी,
यह भू पतिता, कंचुक काया।

वह गंगा जन मन से नि:सृत,
जिसमें बहु बुदबुद युग नर्तित,
वह आज तरंगित, संसृति के
मृत सैकत को करने प्लावित।

दिशि दिशि का जन मत वाहित कर,
वह बनी अकूल अतल सागर,
भर देगी दिशि पल पुलिनों में
वह नव नव जीवन की मृद् उर्वर!

अब नभ पर रेखा शशि शोभित,
गंगा का जल श्यामल, कम्पित,
लहरों पर चाँदी की किरणें
करतीं प्रकाशमय कुछ अंकित!

-सुमित्रानंदन पंत

ग्राम देवता

राम राम,
हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम।

तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ,
मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,
वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ।

पिक वयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित।
प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित!

शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
वेणी में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित।
हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित।

अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन!
पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
चिर मोह मुक्त कर दिया, देव! तुमने यह जन!

राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढ़ि धाम!
तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,
जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
शिक्षक तुम, दस वर्षों से मैं सेवक, प्रणाम।

कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु, दुस्तर अपार,
कल्पना पुत्र मैं, भावी द्रष्टा, निराधार,
सौन्दर्य स्वप्नचर, नीति दंडधर तुम उदार,
चिर परम्परा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार।

दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
जन मर्यादा का स्रोत शून्य चिर अंध कूप,
जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप!

यह वही अवध! तुलसी की संस्कृति का निवास!
श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास!
अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास!
वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास!!

ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम!
संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम!
आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम!
यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति! राम राम!!

श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास!

पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
थी रुद्रचरों से कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
जीवित कर गए अहल्या को, थे सीतापति!

वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित।

तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित।
खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित!

गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन
कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन।
जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण!

उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,
बन गईं चिरंतन रीति नीतियाँ, स्थितियाँ मृत।
गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित।

अति-मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद।
जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद।

तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्र हस्त बलमय।
अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
सामंत मान अब व्यर्थ,-- समृद्ध विश्व अतिशय।

अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय।

राम राम,
हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम।
विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम!

पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ' साधु, संत
दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ।
जो था, जो है, जो होगा,--सब लिख गए ग्रंथ,
विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र।

युग युग से जनगण, देव! तुम्हारे पराधीन,
दारिद्र्य दुःख के कर्दम में कृमि सदृश लीन!
बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन!

जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
वे चिर निवृत्ति के भोगी,--त्याग विराग विहित,
निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित!

वे देव भाव के प्रेमी, पशुओं से कुत्सित,
नैतिकता के पोषक, मनुष्यता से वंचित,
बहु नारी सेवी, पतिव्रता ध्येयी निज हित,
वैधव्य विधायक, बहु विवाह वादी निश्चित।

सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
संघर्षण विमुख, अटल उनको विधि का विधान।
जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हें ध्यान,
मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान।

राम राम,
हे ग्राम देव, लो हृदय थाम,
अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग में धूम धाम।
उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
तुम रूढ़ि रीति की खा अफ़ीम, लो चिर विराम!

यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण।
युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
मानवता में मिल रहे, ऐतिहासिक यह क्षण!

नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय।
जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सहृदय,
हिन्दु, ईसाई, मुसलमान, मानव निश्चय।

मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थीं पीड़ित।
गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित।

छायाएँ हैं संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
वह केन्द्र, परिस्थितियों के गुण उसमें बिम्बित।
मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
अब नव संस्कृति के वसनों से होगी भूषित।

विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत।
बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत।

राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढ़िधाम!
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
शिक्षक हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें शत शत प्रणाम।

-सुमित्रानंदन पंत

पर्वत प्रदेश में पावस

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,

-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में लनस-नस उत्‍तेजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्‍दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल

-सुमित्रानंदन पंत

लहरों का गीत

अपने ही सुख से चिर चंचल
हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल,
जीवन के फेनिल मोती को
ले ले चल करतल में टलमल!

छू छू मृदु मलयानिल रह रह
करता प्राणों को पुलकाकुल;
जीवन की लतिका में लहलह
विकसा इच्छा के नव नव दल!

सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनी
गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल,
हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल
खस खस पडता उर से अंचल!

चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर
हम आलिंगन करती पल पल,
फिर फिर असीम से उठ उठ कर
फिर फिर उसमें हो हो ओझल!

-सुमित्रानंदन पंत

संस्कृति का प्रश्न

राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सन्मुख,
अर्थ साम्य भी मिटा न सकता मानव जीवन के दुख।
व्यर्थ सकल इतिहासों, विज्ञानों का सागर मंथन,
वहाँ नहीं युग लक्ष्मी, जीवन सुधा, इंदु जन मोहन!

आज वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित,
खंड मनुजता को युग युग की होना है नव निर्मित,
विविध जाति, वर्गों, धर्मों को होना सहज समन्वित,
मध्य युगों की नैतिकता को मानवता में विकसित।

जग जीवन के अंतर्मुख नियमों से स्वयं प्रवर्तित
मानव का अवचेतन मन हो गया आज परिवर्तित।
वाह्य चेतनाओं में उसके क्षोभ, क्रांति, उत्पीड़न,
विगत सभ्यता दंत शून्य फणि सी करती युग नर्तन!

व्यर्थ आज राष्ट्रों का विग्रह, औ’ तोपों का गर्जन,
रोक न सकते जीवन की गति शत विनाश आयोजन।
नव प्रकाश में तमस युगों का होगा स्वयं निमज्जित,
प्रतिक्रियाएँ विगत गुणों की होंगी शनैः पराजित!

-सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध कविता

सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध कविता कुछ इस प्रकार हैं, जिन्होंने पंत जी को हिंदी साहित्य के महान कवियों में से एक होने का सम्मान प्राप्त करवाया। सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध कविता निम्नलिखित है –

15 अगस्त 1947

Sumitranandan Pant ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सुमित्रानंदन पंत जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “15 अगस्त 1947” भी है, जो कि आपको आज़ादी की सही कीमत का एहसास कराएगी, जिसके लिए हमारे पुरखों ने असंख्य बलिदान दिए।

चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!
नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण,
तरुण अरुण सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के सँग भू के जड़ बंधन!
शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!

आम्र मौर लाओ हे, कदली स्तंभ बनाओ,
ज्योतित गंगा जल भर मंगल कलश सजाओ!
नव अशोक पल्लव के बंदनवार बँधाओ,
जय भारत गाओ, स्वतंत्र जय भारत गाओ!
उन्नत लगता चंद्र कला स्मित आज हिमाचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शंभु तपोज्वल!
लहर-लहर पर इंद्रधनुष ध्वज फहरा चंचल,
जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल!

धन्य आज का मुक्ति दिवस, गाओ जन-मंगल,
भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल!
तुमुल जयध्वनि करो, महात्मा गाँधी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह निःसंशय!
राष्ट्र नायकों का हे पुनः करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन!

स्वर्ण शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
बनो बज्र प्राचीर राष्ट्र की, मुक्त युवकगण!
लोह संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित संपन्न क्षुधातुर नग्न भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को वीर युवकगण दो निज यौवन!

नव स्वतंत्र भारत को जग हित ज्योति जागरण,
नव प्रभात में स्वर्ण स्नात हो भू का प्रांगण!
नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!
रक्त सिक्त धरणी का हो दुःस्वप्न समापन,
शांति प्रीति सुख का भू स्वर्ग उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की;
विकसित आज हुईं सीमाएँ जग जीवन की!

धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक जागरण,
नव संस्कृति आलोक करे जन भारत वितरण!
नव जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन!
-सुमित्रानंदन पंत

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भारत माता

Sumitranandan Pant ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सुमित्रानंदन पंत जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “भारत माता” भी है, जो कि पीढ़ी दर पीढ़ी भारत माता के प्रति समर्पण का संदेश देती आई है, साथ ही इस कविता ने वर्तमान समय में भी राष्ट्रवाद की अलख को जलाए रखा है।

भारतमाता
ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी।

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग युग के तम से विषण्णा मन,
वह अपने घर में
प्रवासिनी।

तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्र जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत मस्तक
तरु तल निवासिनी!

स्वर्ण शस्य पर-पदतल लुंठित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रंदन कंपित अधर मौन स्मित,
राहु ग्रसित
शरदेंदु हासिनी।

चिंतित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
आनन श्री छाया शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी!

सफल आज उसका तप संयम,
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननी
जीवन विकासिनी!
-सुमित्रानंदन पंत

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ग्राम श्री

Sumitranandan Pant ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सुमित्रानंदन पंत जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “ग्राम श्री” भी है, जो कि भारत की आत्मा भारत के गांवों के स्वरुप को आपके सामने प्रस्तुत करती है।

फैली खेतों में दूर तलक
मखमल की कोमल हरियाली,
लिपटीं जिससे रवि की किरणें
चाँदी की सी उजली जाली!
तिनकों के हरे-हरे तन पर
हिल हरित रुधिर है रहा झलक,
श्यामल भूतल पर झुका हुआ
नभ का चिर निर्मल नील फ़लक!

रोमांचित-सी लगी वसुधा
आई जौ गेहूँ में बाली,
अरहर सनई की सोने की
किंकिणियाँ हैं शोभाशाली!
उड़ती भीनी तैलाक्त गंध
फूली सरसों पीली-पीली,
लो, हरित धरा से झाँक रही
नीलम की कलि, तीसी नीली!

रंग-रंग के फूलों में रिलमिल
हँस रही सखियाँ मटर खड़ी,
मखमली पेटियों-सी लटकीं
छीमियाँ, छिपाए बीज लड़ी!
फिरती हैं रंग-रंग की तितली
रंग-रंग के फूलों पर सुंदर,
फूले फिरते हैं फूल स्वयं
उड़-उड़ वृंतों से वृंतों पर!

अब रजत स्वर्ण मंजरियों से
लद गई आम्र तरु की डाली,
झर रहे ढाक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली!
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली,
फूले आड़ू, नींबू, दाड़िम,
आलू, गोभी, बैंगन, मूली!

पीले मीठे अमरूदों में
अब लाल-लाल चित्तियाँ पड़ी,
पक गए सुनहले मधुर बेर,
अँवली से तरु की डाल जड़ी!
लहलह पालक, महमह धनिया,
लौकी औ‘ सेम फलीं, फैलीं
मखमली टमाटर हुए लाल,
मिरचों की बड़ी हरी थैली!
बालू के साँपों से अंकित
गंगा की सतरंगी रेती
सुंदर लगती सरपत छाई
तट पर तरबूज़ों की खेती;
अँगुली की कँघी से बगुले
कलँगी सँवारते हैं कोई,
तिरते जल में सुरख़ाब, पुलिन पर
मगरौठी रहती सोई!

हँसमुख हरियाली हिम-आतप
सुख से अलसाए-से सोए,
भीगी अँधियाली में निशि की
तारक स्वप्नों में-से खोए—
मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम—
जिस पर नीलम नभ आच्छादन—
निरुपम हिमांत में स्निग्ध शांत
निज शोभा से हरता जन मन!
-सुमित्रानंदन पंत

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मैं सबसे छोटी होऊँ

Sumitranandan Pant ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सुमित्रानंदन पंत जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “मैं सबसे छोटी होऊँ” भी है, जो कि माँ की ममता में पनपते बचपन की खूबसूरती और उन यादों को याद कर लिखी गयी है।

मैं सबसे छोटी होऊँ,
तेरा अंचल पकड़-पकड़कर
फिरूँ सदा माँ! तेरे साथ,
कभी न छोड़ूँ तेरा हाथ!

बड़ा बनाकर पहले हमको
तू पीछे छलती है मात!
हाथ पकड़ फिर सदा हमारे
साथ नहीं फिरती दिन-रात!

अपने कर से खिला, धुला मुख,
धूल पोंछ, सज्जित कर गात,
थमा खिलौने, नहीं सुनाती
हमें सुखद परियों की बात!

ऐसी बड़ी न होऊँ मैं
तेरा स्नेह न खोऊँ मैं,
तेरे अंचल की छाया में
छिपी रहूँ निस्पृह, निर्भय,
कहूँ—दिखा दे चंद्रोदय!
-सुमित्रानंदन पंत

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Sumitranandan Pant ki Kavitayen

ज्योति भारत

Sumitranandan Pant ki Kavitayen आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, सुमित्रानंदन पंत जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता “ज्योति भारत” भी है, जो कि मातृभूमि के प्रति आस्था और सम्मान के भाव पर आधारित है।

ज्योति भूमि,
जय भारत देश!
ज्योति चरण धर जहाँ सभ्यता
उतरी तेजोन्मेष!

समाधिस्थ सौंदर्य हिमालय,
श्वेत शांति आत्मानुभूति लय,
गंगा यमुना जल ज्योतिर्मय
हँसता जहाँ अशेष!

फूटे जहाँ ज्योति के निर्झर
ज्ञान भक्ति गीता वंशी स्वर,
पूर्ण काम जिस चेतन रज पर
लोटे हँस लोकेश!

रक्तस्नात मूर्छित धरती पर
बरसा अमृत ज्योति स्वर्णिम कर,
दिव्य चेतना का प्लावन भर
दो जग को आदेश!
-सुमित्रानंदन पंत

Sumitranandan Pant ki Kavitayen

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आशा है कि इस ब्लॉग में दी गई सुमित्रानंदन पंत की कविताएं (Sumitranandan Pant ki Kavitayen) आपको पसंद आई होंगी, साथ ही यह कविताएं आपको जीवनभर प्रेरित करेंगी। इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहें।

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