Prakriti Par Kavita: प्रकृति पर चुनिंदा लोकप्रिय कविताएं

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Prakriti Par Kavita

Prakriti Par Kavita: प्रकृति को हमारी भारतीय संस्कृति में माँ कहकर संबोधित किया जाता है, जो हमें जीवन जीने के लिए हवा, पानी, भोजन और आश्रय प्रदान करती है। वहीं जैसे-जैसे मानव आधुनिकता की दौड़ में आगे बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे हमारे पर्यावरण पर संकट गहराता जा रहा है। हर मानव का ये उत्तरदायित्व बनता है कि प्रकृति के प्रति प्रेम और उसके संरक्षण के उद्देश्य से जागरूकता को बढ़ावा दिया जाए। प्रकृति के प्रेम और इसके महत्व को बताने के लिए समय-समय पर कई कवियों ने अपनी रचनाओं में इस विषय को स्थान दिया है। इस लेख में, हम प्रकृति प्रेम पर कविता प्रस्तुत कर रहे हैं, जो न केवल प्रकृति का महत्व बताएगी बल्कि प्रकृति का महिमामंडन भी करेगी। इस ब्लॉग में आप प्रकृति पर चुनिंदा लोकप्रिय कविताएं (Prakriti Par Kavita) पढ़ पाएंगे। 

प्रकृति पर कविता – Prakriti Par Kavita

प्रकृति पर कविता (Prakriti Par Kavita) इस प्रकार हैं, जिसने सदैव समाज का सच से सामना करवाया है:-

कविता का नामकवि/कवियत्री का नाम
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती हैश्रीकृष्ण सरल
प्रकृति संदेशसोहनलाल द्विवेदी
प्राकृतिक सौंदर्यरामनरेश त्रिपाठी
प्रकृति बिना मनुष्यरेखा चमोली
प्रकृति की गोद मेंनीता कुमारी
प्रकृति का आह्वानमयंक विश्नोई

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,
मार्ग वह हमें दिखाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

नदी कहती है’ बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

शैल कहतें है, शिखर बनो,
उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हो,
विशिष्टिकरण सहारा हो।
रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,
उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

वृक्ष कहते हैं खूब फलो,
दान के पथ पर सदा चलो।
सभी को दो शीतल छाया,
पुण्य है सदा काम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अकड़ किसकी टिक पाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

यही कहते रवि शशि चमको,
प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।
अंधेरे से संग्राम करो,
न खाली बैठो, काम करो।
काम जो अच्छे कर जाते,
याद उनकी रह जाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
श्रीकृष्ण सरल

प्रकृति संदेश

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!
सोहनलाल द्विवेदी

प्राकृतिक सौंदर्य

नावें और जहाज नदी नद
सागर-तल पर तरते हैं।
पर नभ पर इनसे भी सुंदर
जलधर-निकर विचरते हैं॥
इंद्र-धनुष जो स्वर्ग-सेतु-सा
वृक्षों के शिखरों पर है।
जो धरती से नभ तक रचता
अद्भुत मार्ग मनोहर है॥
मनमाने निर्मित नदियों के
पुल से वह अति सुंदर है।
निज कृति का अभिमान व्यर्थ ही
करता अविवेकी नर है।
रामनरेश त्रिपाठी

प्रकृति बिना मनुष्य

नदी तब भी थी
जब कोई उसे नदी कहने वाला न था
पहाड़ तब भी थे
हिमालय भले ही इतना ऊॅचा न रहा हो
ना रहे हों समुद्र में इतने जीव

नदी पहाड हिमालय समुद्र
तब भी रहेंगे
जब नहीं रहेंगे इन्हें पुकारने वाले
इन पर गीत लिखने वाले
इनसे रोटी उगाने वाले

नदी पहाड़ हिमालय समुद्र
मनुष्य के बिना भी
नदी पहाड़ हिमालय समुद्र हैं
इनके बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं।
– रेखा चमोली

प्रकृति की गोद में

आओ फिर से लौट चलें,
हम प्रकृति की गोद में।
कहीं नदी, कहीं पर्वत,
कहीं शीतल छांव में।।

पर्वत में है महानता छिपी,
सागर में है गहराई।
चांद में है शीतलता,
फसलों में हरियाली छाई।।

वायु में हैं प्राण हमारे,
अनल हमें शुद्ध है करती।
राज छिपे आभा में इसकी,
पेट भरण का साधन है बनती।।

सूरज में है जीवन राग,
देता अवनि को जीवनदान।
जल है स्वच्छ करने का साधन,
धरा करती अपना बलिदान।।
– नीता कुमारी

प्रकृति का आँचल

हरी-भरी वसुंधरा की गोद में,
मानवता का विस्तार हुआ
प्रकृति के आँचल को पाकर,
सृष्टि का उद्धार हुआ 

खुशबू महकी फिजाओं में
ऐसा कुछ हर बार हुआ
हरियाली छाई, खुशियां आयीं
ऊर्जाओं का संचार हुआ

सवेरे की सुनहरी किरण
नदियों की अविरल धारा
चहचहाते हुए पक्षी
झरनों से मिलता संगीत
मानव को प्रकृति का महत्व बताते हैं
ये ही हमें प्रकृति प्रेमी बनाते हैं

चांदनी की शीतलता
रात्रि की शालीनता
वट वृक्षों की सुखमय छाया,
जीवन की वास्तविकता
मन की उलझनों को मिटाते हैं
ये ही हमें जीवन जीना सिखाते हैं

हरियाली का आगमन
सृष्टि का श्रृंगार
सावन की आहटें
करती प्रेम का विस्तार
धरा को स्वर्ग समान बनाते हैं
ये ही हमें प्रकृति संरक्षण का पाठ पढ़ाते हैं…”
– मयंक विश्नोई

सुमित्रानंदन पंत की प्रकृति पर कविता

सुमित्रानंदन पंत की प्रकृति पर कविता (Prakriti Par Kavita) इस प्रकार है –

संध्या

कहो, तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया-छबि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,
मधुर, मंथर, मृदु, मौन!
मूँद अधरों में मधुपालाप,
पलक में निमिष, पदों में चाप,
भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप,
मौन, केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात,
नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात,
देह छबि-छाया में दिन-रात,
कहाँ रहती तुम कौन?
अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,
मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल,
सीप-से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल,–
बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल,
कहो, एकाकिनि, कौन?
मधुर, मंथर तुम मौन?
– सुमित्रानंदन पंत

फूल

मधुरिमा के, मधु के अवतार
सुधा से, सुषमा से, छविमान,
आंसुओं में सहमे अभिराम
तारकों से हे मूक अजान!
सीख कर मुस्काने की बान
कहां आऎ हो कोमल प्राण!

स्निग्ध रजनी से लेकर हास
रूप से भर कर सारे अंग,
नये पल्लव का घूंघट डाल
अछूता ले अपना मकरंद,
ढूढं पाया कैसे यह देश?
स्वर्ग के हे मोहक संदेश!

रजत किरणों से नैन पखार
अनोखा ले सौरभ का भार,
छ्लकता लेकर मधु का कोष
चले आऎ एकाकी पार;
कहो क्या आए हो पथ भूल?
मंजु छोटे मुस्काते फूल!

उषा के छू आरक्त कपोल
किलक पडता तेरा उन्माद,
देख तारों के बुझते प्राण
न जाने क्या आ जाता याद?
हेरती है सौरभ की हाट
कहो किस निर्मोही की बाट?
– सुमित्रानंदन पंत

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