Dwarika Prasad Maheshwari Poems: भारत में ऐसे कई कवि हुए है जिन्होंने जनता की पीड़ाओं को प्रखरता से कहने के साथ-साथ, युवाओं को साहस से परिचित करवाया है। उन कवियों की सूची में हिंदी साहित्य के एक महान कवि “द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी” का भी नाम आता है, जिनकी रचनाएं आज की परिस्थितियों में भी प्रासंगिक लगती है। कविताएं ही सभ्यताओं का गुणगान करते हुए मानव को समाज की कुरीतियों और अन्याय के विरुद्ध लड़ना सिखाती हैं। इसी कड़ी में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविताएं (Dwarika Prasad Maheshwari Poems in Hindi) भी एक मुख्य भूमिका निभाती हैं, जिन्हें पढ़कर आपको प्रेरणा मिल सकती है, जिसके बाद आप अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन को महसूस कर सकते हैं।
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द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी के बारे में
भारतीय साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी भी हैं, जिनकी लेखनी आज के समय में भी प्रासंगिक हैं और लाखों युवाओं को प्रेरित कर रही हैं। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी एक ऐसे भारतीय कवि, लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें “बच्चों के गांधी” के नाम से भी जाना जाता था।
1 दिसंबर 1916 को द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की। उन्होंने कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए लिखा। माहेश्वरी जी ने बाल साहित्य पर 26 पुस्तकें भी लिखीं हैं, जो आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी उस समय थीं।
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की अधिकांश कविताएं देश प्रेम, वीरता, प्रकृति आदि पर आधारित हैं। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की रचनाओं में “मन के हारे हार सदा रे”, “मन के जीते जीत”, “उठो धरा के अमर सपूतो”, “भारत माता”, “वीरों की कहानी”, “प्रकृति का सौंदर्य” आदि बेहद लोकप्रिय हैं।
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी के साहित्य के लिए दिए गए अविस्मरणीय योगदान को देखते हुए वर्ष 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा वर्ष 1982 में पद्मश्री पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। अपने समय के एक महान कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का निधन 29 अगस्त, 1998 को हुआ।
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द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविताएं – Dwarika Prasad Maheshwari Poems
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविताएं (Dwarika Prasad Maheshwari Poems) कुछ इस प्रकार हैं, जो आपको उनके साहित्य से परिचित कराएंगे –
- हम हैं
- मूलमंत्र
- मैं सुमन हूँ
- चंदा मामा, आ
- मेरी वीणा में स्वर भर दो
- उठो धरा के अमर सपूतो
- जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
- मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत
- इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है
- वीर तुम बढ़े चलो
- कौन सिखाता है चिडियों को
- हम सब सुमन एक उपवन के
- यदि होता किन्नर नरेश मैं
- बिना सूई की घड़ियाँ
- मुन्ना-मुन्नी
- पूसी बिल्ली
- भालू आया
- हाथी हाथी
- यदि होता किन्नर नरेश मैं
- हम सब सुमन एक उपवन के
- चल मेरी ढोलकी
- जग पूछ रहा मुझसे
- माँ! यह वसंत ऋतुराज री!
- पुनः नया निर्माण करो
- इतने ऊँचे उठो
- चाहता हूँ दूर जाना
- मैं नहीं चाहता हूँ दुनिया की दौलत
- शाप नहीं मुझको मंगल वरदान चाहिए
- हँसने का वरदान मिला है
- फूल ने हँस कर कहा इंसान से
- फूल बन खिलो कि हार बन सको
- हर घड़ी हर पल हरेक इंसान का
- मधुर मधुर दीपक जलता है
- चाँदनी, ओ री चाँदनी
- मैं लिखूँगा गीत
- गीत बनकर मैं मिलूँ
- लिखे गीत मैंने तुम्हें ही सुनाने
- आश पर विश्वास पर दुनियाँ टिकी है
- जीवन के पथ में आते हैं कुछ मोड़ कभी
- उपवन का हर फूल शूल ही में खिलता है
- मत घबराओ पथिक पंथ पर चले चलो
- फूल बनकर बिछ सको यदि तुम नहीं
- मेरे आँसू का मोल जगत क्या जाने
- हँस रहा हूँ क्योंकि रोना भी मना है
- मत तुम मेरा कोई आधार बनो
- तुम समझ रहे हो शूल जिन्हें
- ओ कवि! जीवन गान सुना रे
- बुझ न जाए दीप तू जलाए जा
- सहारा अभी तक मुझे मिल न पाया
- हैं फूल और काँटे मुझको दोनों समान
- जब तक प्राणों की वीणा में झंकार शेष
- मत रोको मेरी राह चमन के फूलो
- निष्करुण उन्मत्त रे मन
- यह नहीं विश्राम-स्थल रे
- जीत हो या हो भले ही हार
- आज गीले गान मेरे इत्यादि।
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हम हैं
हम हैं सूरज-चाँद-सितारे।। हम नन्हे-नन्हे बालक हैं, जैसे नन्हे-नन्हे रजकण। हम नन्हे-नन्हे बालक हैं, जैसे नन्हे-नन्हे जल-कण। लेकिन हम नन्हे रजकण ही, हैं विशाल पर्वत बन जाते। हम नन्हे जलकण ही, हैं विशाल सागर बन जाते। हमें चाहिए सिर्फ इशारे। हम हैं सूरज-चाँद-सितारे।। हैं हम बच्चों की दुनिया ही, एक अजीब-गरीब निराली। हर सूरत मूरत मंदिर की, हर सूरत है भोली-भाली। यहाँ न कोई भेद रंग का, सब के सब हम एक रंग हैं। पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, सभी दिशाएँ एक संग हैं। पृथ्वी माँ के राज-दुलारे। हम हैं सूरज-चाँद-सितारे।। एक धरा की ही गोदी में, सारे बच्चे पले हुए हम। एक धरा की ही गोदी में, सारे बच्चे बड़े हुए हम। एक हमारी आसमान छत, एक हमारी साँस पवन है। धूप-चाँदनी के कपड़ों से, ढका हुआ हम सबका तन है। हम हैं एक विश्व के नारे। हम हैं सूरज-चाँद-सितारे।।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मूलमंत्र
केवल मन के चाहे से ही मनचाही होती नहीं किसी की। बिना चले कब कहाँ हुई है मंज़िल पूरी यहाँ किसी की।। पर्वत की चोटी छूने को पर्वत पर चढ़ना पड़ता है। सागर से मोती लाने को गोता खाना ही पड़ता है।। उद्यम किए बिना तो चींटी भी अपना घर बना न पाती। उद्यम किए बिना न सिंह को भी अपना शिकार मिल पाता।। इच्छा पूरी होती तब, जब उसके साथ जुड़ा हो उद्यम। प्राप्त सफलता करने का है, 'मूल मंत्र' उद्योग परिश्रम।।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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मैं सुमन हूँ
व्योम के नीचे खुला आवास मेरा; ग्रीष्म, वर्षा, शीत का अभ्यास मेरा; झेलता हूँ मार मारूत की निरंतर, खेलता यों जिंदगी का खेल हंसकर। शूल का दिन रात मेरा साथ किंतु प्रसन्न मन हूँ मैं सुमन हूँ... तोड़ने को जिस किसी का हाथ बढ़ता, मैं विहंस उसके गले का हार बनता; राह पर बिछना कि चढ़ना देवता पर, बात हैं मेरे लिए दोनों बराबर। मैं लुटाने को हृदय में भरे स्नेहिल सुरभि-कन हूँ मैं सुमन हूँ... रूप का श्रृंगार यदि मैंने किया है, साथ शव का भी हमेशा ही दिया है; खिल उठा हूँ यदि सुनहरे प्रात में मैं, मुस्कराया हूँ अंधेरी रात में मैं। मानता सौन्दर्य को- जीवन-कला का संतुलन हूँ मैं सुमन हूँ...
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
चंदा मामा, आ
चंदा मामा, आ जाना, साथ मुझे कल ले जाना। कल से मेरी छुट्टी है ना आये तो कुट्टी है। चंदा मामा खाते लड्डू, आसमान की थाली में। लेकिन वे पीते हैं पानी आकर मेरी प्याली में। चंदा देता हमें चाँदनी, सूरज देता धूप। मेरी अम्मा मुझे पिलातीं, बना टमाटर सूप। थपकी दे-दे कर जब अम्मा, मुझे सुलाती रात में। सो जाता चंदा मामा से, करता-करता बात मैं।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मेरी वीणा में स्वर भर दो
मेरी वीणा में स्वर भर दो! मैं माँग रहा कुछ और नहीं केवल जीवन की साध यही, इसको पाने ही जीवन की साधना-सरित निर्बाध बही उड़ सकूँ काव्य के नभ में मैं उन्मुक्त कल्पना को पर दो। केवल तुमको अर्पित करने भावों के सुमन खिलाए हैं पहिनाने तुमको ही मैंने गीतों के हार सजाए हैं! अपने सौरभ के रस-कण से हर भाव-सुमन सुरभित कर दो। मैं दीपक वह जिसके उर में बस एक स्नेह की राग भरी जिसने तिल-तिल जल-जल अविरल निशि के केशों में माँग भरी। बुझ जाय न साँसों की बाती छू तनिक उसे ऊपर कर दो। मैं राही एकाकी तो क्या मंजिल तय करनी है, मुझको; रहने दो राह अपरिचित ही इसकी परवाह नहीं मुझको। कर लूँगा मैं जग से परिचय केवल गीतों में लय भर दो।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की भावार्थ सहित कविताएं
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की भावार्थ सहित कविताएं (Dwarika Prasad Maheshwari Poems in Hindi) कुछ इस प्रकार हैं, ये कविताएं आपका परिचय हिंदी साहित्य की खूबसूरती से करवाएंगी –
जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा! भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी, मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में घिरी आ रही है अमावस निशा-सी। बिना स्नेह विद्युत-दीए जल रहे जो बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा। जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी। तिमिर की सरित पार करने, तुम्हीं ने बना दीप की नाव तैयार की थी। बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा। युगों से तुम्हीं ने तिमिर की शिला पर दीए अनगिनत है निरंतर जलाए समय साक्षी है कि जलते हुए दीप अनगिन तुम्हारे, पवन ने बुझाए मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गए वे उसी से तिमिर को उजाला मिलेगा। दीए और तूफ़ान की यह कहानी चली आ रही और चलती रहेगी जली जो प्रथम बार लौ उस दीए की जली स्वर्ण-सी है, और जलती रहेगी। रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा। जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी समाज को प्रेरित करते हैं, यह कविता एक प्रेरणादायक कविता है, जिसके पहले छंद से लेकर अंतिम छंद तक अंधेरे से प्रकाश की ओर बढ़ने का एक स्पष्ट और प्रेरणादाई संदेश छिपा है। यह कविता हमें मानवता और प्रेम के महत्व पर प्रकाश डालना सिखाती है। यह कविता हमें प्रेम के महत्व को समझाने का प्रयास करती है। इस कविता का समाज के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि प्रेम ही दुनिया को बदल सकता है। हमें प्रेम के दीये जलाते रहना चाहिए ताकि दुनिया में प्रकाश फैले और अंधकार दूर हो।
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बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो तुम निडर डरो नहीं, तुम निडर डटो वहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! प्रात हो कि रात हो, संग हो न साथ हो सूर्य से बढ़े चलो, चंद्र से बढ़े चलो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! एक ध्वज लिए हुए, एक प्रण किए हुए मातृ भूमि के लिए, पितृ भूमि के लिए वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! अन्न भूमि में भरा, वारि भूमि में भरा यत्न कर निकाल लो, रत्न भर निकाल लो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी एक प्रेरणादायक संदेश देना चाहते हैं कि हमें चुनौतियों से नहीं घबराना चाहिए। यह कविता हमें संघर्ष और चुनौतियों के बावजूद आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। इस कविता के आरंभ के दो छंद मानव को चुनौतियों का सामना करना सिखाते हैं, तो वहीं आगे के छंद हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, दृढ़ निश्चय के साथ कड़ी मेहनत करना सिखाते हैं। कविता का स्पष्ट भाव है कि मानव को जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए, साथ ही अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने में कोई कमी नहीं रखनी चाहिए।
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मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत, मत निराश हो यों, तू उठ, ओ मेरे मन के मीत! माना पथिक अकेला तू, पथ भी तेरा अनजान, और जिन्दगी भर चलना इस तरह नहीं आसान। पर चलने वालों को इसकी नहीं तनिक परवाह, बन जाती है साथी उनकी स्वयं अपरिचित राह। दिशा दिशा बनती अनुकूल, भले कितनी विपरबीत। मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥1॥ तोड़ पर्वतों को, चट्टानों को सरिता की धार बहती मैदानों में, करती धरती का शृंगार। रुकती पल भर भी न, विफल बाँधों के हुए प्रयास, क्योंकि स्वयं पथ निर्मित करने का उसमें विश्वास। लहर लहर से उठता हर क्षण जीवन का संगीत मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥2॥ समझा जिनको शूल वही हैं तेरे पथ के फूल, और फूल जिनको समझा तूवे ही पथ के शूल। क्योंकि शूल पर पड़ते ही पग बढ़ता स्वयं तुरंत, किंतु फूल को देख पथिक का रुक जाता है पंथ। इसी भाँति उलटी-सी है कुछ इस दुनिया की रीति मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी एक आशावादपूर्ण संदेश देने का प्रयास करते हैं। यह कविता मन के महत्व पर प्रकाश डालती है, जिसमें यह कविता मन के मजबूत होने के पक्ष में पैरवी करती है। यह कविता हमें बताती है कि जो व्यक्ति अपने मन को मजबूत रखता है और उस पर विजय प्राप्त करता है, उसकी हमेशा जय होती है। सकारात्मक संदेश देते हुए यह कविता हमें यह सिखाती है कि हर परिस्थिति में हमें मन को मजबूत बनाना चाहिए। मन को मजबूत बनाने वाले ही अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर पाते हैं।
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उठो धरा के अमर सपूतो
उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो। जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो। नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई। नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई। युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो। डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं। गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं। नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो। कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है। धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है। नूतन मंगलमय ध्वनियों से गुंजित जग-उद्यान करो। सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है। तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है। शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आह्वान करो। उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी हमें बार-बार असफलता मिलने पर भी सफलता के लिए प्रोत्साहित करती है। यह कविता हमें देश के युवाओं को नए युग के निर्माण के लिए प्रेरित करती है, जो कि एक प्रेरणादाई कविता है। यह कविता एक सकारात्मक संकल्प के साथ देश के युवाओं को देश के विकास और उन्नति में योगदान देने का आवाह्न करती है। यह कविता युवाओं को अपने देश के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण करने की भी प्रेरणा देती है।
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इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से जाति भेद की, धर्म-वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से जलते जग में इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥ नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो नये राग को नूतन स्वर दो भाषा को नूतन अक्षर दो युग की नयी मूर्ति-रचना में इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥ लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन गति, जीवन का सत्य चिरन्तन धारा के शाश्वत प्रवाह में इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है। चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे सब हैं प्रतिपल साथ हमारे दो कुरूप को रूप सलोना इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी युवाओं को संघर्ष के दौरान अधिक प्रयास करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस कविता का हर शब्द अपने आप में एक प्रेरणा का गीत है, यह कविता हमें जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। इस कविता के भावानुसार हमें जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए। हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, अपने विचारों और कार्यों में मौलिक होना चाहिए, जीवन में परिवर्तनशील होना चाहिए और जीवन में सुंदर और आकर्षक होना चाहिए।
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आशा है कि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की कविताएं (Dwarika Prasad Maheshwari Poems in Hindi) के माध्यम से आप द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की सुप्रसिद्ध रचनाओं को पढ़ पाएं होंगे, जो कि आपको सदा प्रेरित करती रहेंगी। साथ ही यह ब्लॉग आपको इंट्रस्टिंग और इंफॉर्मेटिव भी लगा होगा, इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहें।